पूर्वपीठिका अनेक यूरोपवासियों के मन में भारत के नाम से महाराजाओं, सँपेरों और नटों की तसवीर उभरती रही है। इस प्रवृत्ति ने उन चीजों में आकर्षण तथा रोमानियत का संचार किया, जो भारतीय थीं। लेकिन पिछले कुछ दशकों में भारत की चर्चा आर्थिक दृष्टि से अल्पविकसित देश के रूप में इतनी अधिक हुई है कि महाराजओं, सपेरों और नटों के कुहासे में से उसका चित्र एक शक्तिशाली, स्पंदनशील देश के रूप में उभरने लगा है। महाराजा अब तेजी से विलुप्त हो रहे हैं और नटों के करतब दृष्टि से उभरने लगा है। महाराजा अब तेजी से विलुप्त हो रहे हैं और नटों के करतब दृष्टिभ्रम से ज्यादा कभी कुछ नहीं रहे। बाकी है तो एक सपेराः सामान्यतया एक अर्ध-पोषण का शिकार प्राणी, जो अपनी जान जोखिम में डालकर साँप को पकड़ता है, उसके जहरीले दाँतों को उखाड़ता है और अपनी बीन के इशारों पर उसे नचाता है। और यह सब वह अपना, अपने परिवार का और साँप का पेट भरने के लिए, कभी-कभी कुछ सिक्के मिल जाने की आशा में करता है।
यूरोप की कल्पना में भारत सदा से बेहिसाब संपत्ति और अलौकिक घटनाओं का एक अविश्वसनीय देश रहा है, जहाँ बुद्धिमान व्यक्तियों की संख्या सामान्य से कुछ अधिक थी। जमीन खोदकर सोना निकालनेवाली चीटियों से लेकर वनों में नग्न रहनेवाले दार्शनिकों तक सब उस चित्र के अंग थे जो भारतीयों को लेकर प्राचीन यूनानियों के मन में बसा हुआ था और यह चित्र कई शताब्दियों तक ऐसा ही बना रहा। इसे नष्ट न करना सदाशयतापूर्ण प्रतीत हो सकता था, किन्तु इसे बनाए रखने का मतलब एक मिथ्या धारणा को बनाए रखना होता।
दूसरी सभी प्राचीन संस्कृतियों की तरह भारत में संपत्ति कुछ लोगों तक सीमित रही। आध्यात्मिक क्रियाकलापों में भी थोड़े-से लोग ही संलग्न थे। पर यह सत्य है कि इन क्रियाकलापों में आस्था रखना अधिकांश लोगों का स्वभाव बन गया था। दूसरी कुछ संस्कृतियों में जहाँ रस्सी के करतब को शैतान की प्रेरणाओं का परिणाम कहा जाता कुछ संस्कृतियों में जहाँ रस्सी के करतब को शैतान की प्रेरणाओं का परिणाम कहा जाता और इसलिए इसकी हर चर्चा को दबाया जाता, भारत में इसे मनोरंजन के साधन के रूप में उदार दृष्टि से देखा जाता था। भारतीय सभ्यता की बुनियादी विवेकशीलता का कारण यही रहा है कि इसमें कोई शैतान नहीं रहा।
संपत्ति जादू और ज्ञान के साथ भारत का नाम अनेक शताब्दियों तक जुड़ा रहा। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में, जब यूरोप ने आधुनिक युग में प्रवेश किया तो यह रवैया बदलना शुरू हो गया, और कई क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति के प्रति उत्साह प्रायः उसी अनुपात में कम हो गया जितना पहले उत्साह का अतिरेक था। अब वह पाया गया कि भारत में कोई विशेषता नहीं थी जिसकी नवीन यूरोप सराहना करता। विवेकयुक्त विचार और व्यक्तिवाद के मूल्यों पर स्पष्टः यहाँ कोई बल नहीं था। भारत की संस्कृति गत्यत्ररुद्घ संस्कृति थी और इसे अतीव तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाने लगा। यह प्रवृत्ति भारतीय वस्तुओं के प्रति मैकाले के तिरस्कार में शायद, सर्वोत्तम ढंग से मूर्तिमान हुई है। भारत की राजनीतिक संस्थाओं को, जिनकी कल्पना अधिकांशतया महाराजाओं और सुलतानों के शासन के रूप में की गई थी, निरंकुश और जनमत के प्रतिनिधित्व से सर्वथा विच्छिन्न कहकर तिरस्कृत किया गया। और, एक लोकतांत्रिक क्रांतियों के युग में, यह शायद सबसे बड़ा पाप था।
किन्तु यूरोपीय विद्वानों के एक छोटे वर्ग के बीच से, एक विरोधी प्रवृत्ति का जन्म हुआ। इन विद्वानों ने भारत की खोज अधिकांशतया उसके प्राचीन दर्शन और संस्कृत भाषा में सुरक्षित साहित्य के माध्यम से की थी। इस प्रवृत्ति ने जान-बूझकर भारतीय संस्कृति के अनाधुनिक और अनुपयोगितावादी पक्षों पर बल दिया, जिनमें तीन हजार से भी अधिक वर्षों से अक्षुण्ण रहनेवाले घर्म के अस्तित्व का जयगान था और यह समझा गया था कि भारतीय जीवन-पद्धति आध्यात्मिकता और धार्मिक विश्वास की सूक्ष्मताओं से इतनी अधिक संपृक्त हैं कि जीवन की पार्थिव चीजों के लिए वहाँ कोई अवकाश ही नहीं है। जर्मन रोमैटिकवाद भारत के इस स्वरूप के समर्थन में अत्यधिक आग्रहशील था और यह आग्रहशीलता भारत के लिए उतनी ही क्षतिकारक थी जितनी मैकाले द्वारा भारतीय संस्कृति की अवहेलना। भारत अब अनेक यूरोपवासियों के लिए एक रहस्यात्मक प्रदेश हो गया, जहाँ अत्यंत साधारण क्रियाकलापों में भी प्रतीकात्मकता का समावेश किया जाता था। वह पूर्व की आध्यात्मकिता का जनक था, और संयोगवश, उन यूरोपीय बुद्घिजीवियों का शरण-स्थल भी जो अपनी स्वयं की जीवन-पद्धति से पलायन करना चाह रहे थे। मूल्यों का एक द्वैध स्थापित किया गया, जिसमें भारतीय मूल्यों को ‘आध्यात्मिक’ और यूरोपीय मूल्यों को ‘भौतिकवादी’ कहा गया, किन्तु इन कथित आध्यात्मिक मूल्यों को भारतीय समाज के संदर्भ में देखने का प्रयास बहुत कम हुआ (जिसके कुछ विक्षुब्ध करनेवाले परिणाम हो सकते थे)। पिछले सौ वर्षों में कुछ भारतीय बुद्धिजीवियों के लिए यह ब्रिटेन की तकनीक श्रेष्ठता के साथ प्रतियोगिता कर पाने में अपनी असमर्थता को छुपाने का एक बहाना बन गया।
अठारहवीं शताब्दी में भारत के अतीत की खोज और यूरोप के सामने उसे प्रस्तुत करने का काम अधिकांशतया भारत में जेसुइट संप्रदाय के लोगो और सर विलियम जोन्स तथा चार्ल्स विल्किन्स जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के यूरोपीय कर्मचारियों ने किया। जल्दी ही भारत की प्राचीन भाषाओं और उनके साहित्य के अध्ययन में दिलचस्पी लेनेवालों की संख्या बढ़ गई और उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भाषा-विज्ञान, नृशास्त्र तथा भारत-विद्या के अन्य क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति दिखाई दी। यूरोप में विद्धानों ने अध्ययन के इस नए क्षेत्र में गहरी दिलचस्पी दिखाई, जिसका प्रमाण उन लोगों की संख्या है जिन्होंने भारत-विद्या को अपने अध्ययन का क्षेत्र बनाया, और जिनमें से कम-से-कम एक व्यक्ति का उल्लेख यहाँ आवश्यक है-वह है एफ. मैक्समूलर।
उन्नीसवीं सदी में भारत के साथ सबसे ज्यादा सीधा सरोकार जिन लोगों का था वे ब्रिटिश प्रशासक थे और शुरू में भारत के गैर-भारतीय इतिहासकार अधिकांशतया इसी वर्ग के लोग थे। फलस्वरूप, शुरू के इतिहास ‘प्रशासकों के इतिहास’ थे, जिनमें मुख्यतया राजवंशों और साम्राज्यों के उत्थान और पतन का विवरण होता था। भारतीय इतिहास के नायक राजा थे और घटनाओं का विवरण उन्हीं से जुड़ा हुआ होता था। अशोक, चंद्रगुप्त द्वितीय, या अकबर जैसे अपवादों को छोड़कर, भारतीय शासक का आदर्श रूप निरंकुश राजा था जो अत्याचारी था और अपनी प्रजा की भलाई में जिसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। जहाँ तक वास्तविक शासन का सवाल है, अंतनिर्हित विचार यह था कि इस उपमहाद्वीप के इतिहास में जितने शासक आज तक हुए हैं, ब्रिटिश प्रशासन उन सबकी तुलना में श्रेष्ठ था।
भारतीय इतिहास की इस व्याख्या ने उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों और बीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखनेवाले भारतीय इतिहासकारों पर अपना प्रभाव डाला। आदर्श इतिहास-ग्रंथों का मुख्य विषय राजवंशों का इतिवृत्त था जिसमें शासकों की जीवनी को अधिक महत्त्व दिया जाता था। लेकिन व्याख्या के दूसरे पक्ष की प्रतिक्रिया भिन्न प्रकार की हुई। अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने या तो स्वाधीनता के राष्ट्रीय आंदोलन में स्वयं भाग लिया था, या वे उससे प्रभावित थे। उनकी मान्यता थी कि भारतीय इतिहास का स्वर्ण-युग इस देश में अंग्रेजों के आगमन में पूर्व अस्तित्व में था और भारत का सुदूर अतीत विशेष रूप से उसके इतिहास का वैभवशाली युग था। यह दृष्टिकोण बीसवीं सदी के प्रारंभ में भारतीय जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का स्वाभाविक और अनिवार्य अंग था।
इस संदर्भ में एक और तिरस्कारपूर्ण धारणा थी जिसनें प्राचीन भारत संबंधी अधिकांश प्रारंभिक लेखक को प्रभावित किया। इस काल का अध्ययन करनेवाले यूरोपीय इतिहासकारों की शिक्षा-दीक्षा यूरोप की क्लासिकी परंपरा में हुई थी, जहाँ लोगों का यह दृढ़ विश्वास था कि यूनान की प्राचीन सभ्यता-यूनान का चमत्कार-मानव-जाति की महानतम् उपलब्धि थी। फलस्वरूप, जब भी किसी नई संस्कृति का पता चलता, तो उसकी तुलना प्राचीन यूनान से की जाती, और इस तुलना में उसे निरपवाद रूप से हीन पाया जाता। या अगर उसमें कोई प्रशंसनीय बात होती भी तो सहज भाव से उसे यूनानी संस्कृति के साथ जोड़ने की चेष्टा की जाती। विंसेंट स्मिथ, जो कई दशाब्दियों तक प्राचीन भारत का अग्रगण्य इतिहासकार समझा जाता रहा, इस प्रवृत्ति का शिकार था। अजंता स्थित सुप्रसिद्ध बौद्ध-स्थल के भित्ति-चित्रों पर, और विशेष रूप से एक ऐसे चित्र पर लिखते समय, जिसके विषय में माना जाता है कि यह ईसा की सातवीं शताब्दी में फारस के एक सासानी राजा के किसी दूत के आगमन का चित्र है और जिसका कला और इतिहास, किसी भी दृष्टि से यूनान के साथ कतई कोई संबंध नहीं है, वह कहता हैः
भारत और फारस के असामान्य राजनीतिक संबंधों के एक समकालीन अभिलेख के रूप में दिलचस्प होने के अतिरिक्त यह चित्रकला के इतिहास में अपने विशिष्ट स्थान के कारण बहुत अधिक मूल्यवान है। इससे न केवल अजंता के कुछ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चित्रों का काल-निर्धारण होता है बल्कि एक ऐसा प्रतिमान भी स्थापित होता है जिससे दूसरे चित्रों का काल-निर्धारण होता है बल्कि एक ऐसा प्रतिमान भी स्थापित होता है जिससे दूसरे चित्रों का काल-निर्धारण किया जा सके, बल्कि इस संभावना की स्थापित होता है जिससे दूसरे चित्रों का काल-निर्धारण किया जा सके, बल्कि संभावना की ओर भी संकेत मिलता है कि अंजता शैली की चित्रकला फारस से, और अंतोगत्वा यूनान से ग्रहण की गई होगी।
भारतीय इतिहासकारों पर ऐसे वक्तव्यों की तीव्र प्रतिक्रिया हुई, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। यह सिद्ध करने के प्रयत्न किए गए कि भारत ने अपनी संस्कृति का कोई भी अंश यूनान से ग्रहण नहीं किया था, अथवा यह कि भारत की संस्कृति यूनानी संस्कृति के बिलकुल समानांतर थी, जिसमें उन सब गुणों के दर्शन होते थे जो यूनानी संस्कृति में वर्तमान थे। हर सभ्यता अपने-आपमें एक अलग चमत्कार होती है, इसे तब तक न यूरोपीय इतिहासकारों ने समझा था न भारतीय इतिहासकारों ने। किसी सभ्यता को स्वयं उसके गुणों के आधार पर परखने का विचार बाद में उत्पन्न हुआ।
अठारहवीं सदी में जब यूरोपीय विद्वानों का पहले-पहल भारत से संबंध स्थापित हुआ और उसके अतीत के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न हुई, तो उनकी सूचनाओं के स्रोत ब्राह्मण पुरोहित थे, जिन्हें प्राचीन परंपरा का संरक्षक माना जाता था। उनका कहना था कि यह परंपरा संस्कृत-ग्रंथों में सुरक्षित है और उन ग्रंथों से केवल वे ही भली भाँति परिचित है। इस प्रकार भारत के अधिकांश प्राचीन इतिहास की पुनर्रचना लगभग संपूर्णतया संस्कृत-स्रोत्रों, अर्थात प्राचीन-शास्त्रीय भाषा में सुरक्षित सामग्री के आधार पर की गई। इनमें बहुतेरे ग्रंथ धार्मिक प्रकृति के थे और अतीत की व्याख्या स्वभावतः इनके रंग से बच नहीं सकी। धर्मशास्त्र (सामाजिक विधान की पुस्तकों) जैसे अपेक्षया इहलौकिक साहित्य के लेखक और टीकाकार भी ब्राह्मण ही थे। फलस्वरूप उनका झुकाव सत्ता के समर्थन की ओर था तथा आमतौर पर वे अतीत की ब्राह्मणों द्वारा की गई व्याख्या को मानते थे, भले ही उस व्याख्या का जैसा वर्णन इन ग्रंथों में किया गया है उससे प्रतीत होता है कि अत्यंत प्राचीनकाल में ही समाज का विभिन्न स्तरों में कठोरता से बँटवारा कर दिया गया था और उसके बाद शताब्दियों तक यह व्यवस्था प्रायः ज्यों-की-त्यों बनी उसमें परिवर्तन की काफी गुंजाइश थी, जिसे धर्मशास्त्रों के प्रणेता स्वभावतः स्वीकार नहीं करना चाहते थे।
बाद में दूसरे कई प्रकार के स्रोतों से उपलब्ध साक्ष्यों के प्रयोग ने ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत कुछ साक्ष्यों को चुनौती दी और कुछ का समर्थन किया, और इस प्रकार अतीत का ज्यादा सही चित्र सामने आया। समकालीन अभिलेखों और सिक्कों से उपलब्ध साक्ष्यों का महत्त्व तेजी से बढ़ता गया। विदेशी यात्रियों द्वारा गैर-भारतीय भाषाओं-यूनानी, लातिन, चीनी और अरबी-में लिखे गए विवरणों का उपयोग करने पर अतीत को नए दृष्टिकोण से देखना संभव हुआ। विभिन्न स्थानों पर की गई खुदाई से अतीत के जो अधिक निभ्राँत अवशेष प्राप्त हुए हैं उनमें भी ऐसा ही लाभ हुआ। उदाहरण के लिए, चीनी स्रोतो से और श्रीलंका में काफी बड़ा हो गया। तेरहवीं सदी के बाद के भारतीय इतिहास से संबंधित अरबी और फारसी की सामग्री का अध्ययन अब स्वतंत्र रूप से किया जाने लगा और उसे पश्चिम एशिया में इस्लामी संस्कृति का पूरक मानने की प्रवृत्ति समाप्त हो गई।
प्रारंभ के अध्ययनों में राजवंशों के इतिहास पर अधिक ध्यान केद्रित करने के पीछे यह धारणा भी थी कि ‘प्राच्य’ समाजों में राजा की सत्ता शासन के दैनदिन कार्यों में भी सर्वोपरि थी। लेकिन भारतीय राजनीति प्रणालियों में दैनन्दिन कार्यों का प्राधिकार शायद ही कभी केंद्र के हाथों में होता था। भारतीय समाज की अद्वितीय विशेषता-वर्ण व्यवस्था-क्योंकि राजनीति और व्यावसायिक कार्य-कलाप दोनों से जुड़ी हुई थी, इसलिए उसके अंतर्गत बहुत-से ऐसे कार्य भी होते थे, जिन्हें सामान्यतया, ‘पूर्व की निरंकुश व्यवस्था’ जैसी कोई चीज यदि सचमुच होती, है यह वर्णों तथा जातियों के संबंधों और व्यापारिक श्रेणियों तथा ग्राम परिषदों करने संस्थाओं का विश्लेषण करके समझा जा सकता है, राजवंशों का सर्वेक्षण करने मात्र से नहीं। दुर्भाग्यवश, ऐसे अध्ययनों का महत्त्व अभी हाल में ही समझ गया है और संभवतः ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक स्थापनाएँ प्रस्तुत करने के लिए एक-दो दशाब्दियों तक अभी और गंभीर अध्ययन करना पड़ेगा। फिलाहाल का प्रादुर्भाव हुआ होगा। संस्थाओं के अध्ययन की ओर विशेष ध्यान नहीं किया गया, अंशतः जिसका कारण यह विश्वास था कि उनमें कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ। यह ऐसा विचार था जिसने इस सिद्धांत का भी पोषण किया कि भारतीय संस्कृति, मुख्य रूप से भारतवासियों के आलस्य और जीवन के प्रति उनके निराशापूर्ण तथा भाग्यवादी दृष्टिकोण के कारण, अनेक शताब्दियों तक अवरुद्ध एवं अपरिवर्तनशील रही है। निस्संदेह यह अतिशयोक्ति है। शताब्दियों तक वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत बदलते हुए सामाजिक संबंधों या कृषि-व्यवस्थाओं या भारतीय के उत्साहपूर्ण व्यापारिक कार्यकलापों का सतही विश्लेषण भी किया जाए तो उससे और चाहे किसी बात का भी संकेत मिलता हो, रुद्ध सामाजिक-आर्थिक स्थिति का संकेत कदापि नहीं मिलता।
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