Ashwini kumar
यह सवाल पैदा हो रहा है कि प्रधानमन्त्री और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल विधेयक के दायरे में लाया जाना चाहिए या नहीं? इसके लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि लोकपाल विधेयक वास्तव में है क्या? आम पाठकों के लिए मैं इसे बहुत मोटी जुबान में खोल कर लिख रहा हूं। लोकपाल का मतलब है कि शासन के तीनों अंगों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों की जवाब तलबी। इस लोकपाल के प्रति सीवीसी, सीबीआई और कराधान प्रवर्तन निदेशकों तक की जवाबदारी तय करने की बात कही जा रही है। ऐसे लोकपाल की नियुक्ति केवल संसद ही संविधान में संशोधन करके कर सकती है और यह प्रक्रिया काफी लम्बी है। फिलहाल जो आंदोलन कुछ लोग चला रहे हैं वे ऐसा लोकपाल चाहते हैं जिसके प्रति देश का पूरा शासन जवाबदेह हो। यह भारतीय संविधान के संसदीय लोकतन्त्र के दायरे में कितना सही बैठेगा इसकी जांच- पड़ताल मैं आगे करूंगा। फिलहाल इतना बताता हूं कि ऐसे लोकपाल की सत्ता संसद के सर्वाधिकारों से भी ऊपर होगी। संसद का सबसे बड़ा नेता प्रधानमन्त्री होता है और उससे जवाबतलबी का अधिकार प्रत्येक संसद सदस्य को है, खास कर लोकसभा में जिसके सदस्यों को आम जनता स्वयं चुनकर बहुमत से सदन में भेजती है। तार्किक दृष्टि और वैज्ञानिक संवैधानिक विवेचना के अनुसार ऐसा लोकपाल जनता के मतों की ताकत को कुन्द करते हुए नई सर्वशक्तिमान सत्ता की स्थापना करेगा। इसमें सबसे बड़ा पेंच यही है।
इसे समझे बिना हम लोकपाल विधेयक की बारीकियों को नहीं समझ सकते क्योंकि संसद भारत के लोगों की प्रतिनिधि संस्था है और इससे ऊपर कोई भी पद किसी भी सूरत में अगर बनाया जाता है तो वह सीधे तानाशाही या अधिनायकवादी प्रणाली को जन्म देगा। इसके उधर में कुछ लोग कह सकते हैं कि भारत को राष्ट्रपति शासन प्रणाली अपनानी चाहिए। मगर यह विचार खुद इसको प्रसारित करने वाली पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने ही छोड़ दिया है।
इमरजैंसी से पहले जनसंघ के जमाने में श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्तर के दशक के शुरू में राष्ट्रपति प्रणाली की जमकर वकालत की थी मगर जब इन्दिरा गांधी की इमरजैंसी को १९७५ में देखा तो इस पार्टी ने अपनी सोच बदल दी मगर दीगर सवाल यह है कि यदि प्रधानमन्त्री को इसके दायरे में लाया जाता है तो क्या पहाड़ टूट जायेगा? क्या ऐसा हो सकता है कि एक तरफ संसद के भीतर प्रधानमन्त्री पर आरोप लगे और दूसरी तरफ लोकपाल उनका संज्ञान लेकर जांच का काम शुरू दें। इसका क्या असर हमारे लोकतन्त्र पर पड़ेगा और सरकार की विश्वसनीयता और इसका इकबाल क्या रहेगा? मगर हमने देखा है कि प्रधानमन्त्री पद का फैसला लाटरी से किया जाता है। कभी देवेगौड़ा की लाटरी खुली तो कभी गुजराल की तो कभी मनमोहन सिंह की, फिर इस पद को लोकपाल के दायरे में लाने में क्या हर्ज है? मगर मुल्क किसी भी पद से बहुत बड़ा होता है और इसकी मौजूदा प्रणाली को हमने सीने पर अंग्रेजों की लाठियां व गोलियां खाकर अपना खून बहाकर हासिल किया है। इसे हम आज के राजनीतिज्ञों के स्वार्थी नजरिये की भेंट नहीं चढ़ा सकते। क्या वजह है कि १९६४ से लोकपाल विधेयक की चर्चा इस देश में हो रही है और ४७ साल गुजरने के बावजूद अभी तक यह मुद्दा ऐसे ही पड़ा हुआ है। जाहिर है राजनीतिज्ञों ने ही इसे परवान नहीं चढऩे दिया, इसलिए शक की गुंजाइश तो खुद राजनीतिज्ञों ने ही पैदा की है। हकीकत यह भी है कि अभी तक आजादी के बाद केन्द्र में लगभग सभी दल किसी न किसी रूप में सत्ता में आ चुके हैं। यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी भी केन्द्र की सरकार में शामिल रह चुकी है मगर सभी ने पीठ दिखाने का ही काम किया है। इसलिए अगर आज कुछ लोग बांस पर खड़े होकर बांसुरी बजा रहे हैं तो इसमें अचंभा क्यों होना चाहिए? जहां तक न्यायपालिका का सवाल है उसे कांग्रेस ने ही अपने शासन में पथ भ्रष्ट होने की प्रेरणा दी। चुनावों को महंगा बनाने के साथ-साथ स्व. इन्दिरा जी ने १९७४ में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की सर्वमान्य परम्परा को तिलांजलि देकर जिस प्रकार पांच न्यायाधीशों की वरीयता को रौंदते हुए श्री अजितनाथ रे को मुख्य न्यायाधीश बनाया था उससे नाराज होकर न्यायमूर्ति शैलेट हेगड़े, खन्ना, ग्रोवर आदि ने इस्तीफा दे दिया था। यह साल भी १९७४ का था। इसके बाद न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता गया और इसका हल निकालने की सारी कोशिशें अभी तक नाकाम हुई हैं। इसलिए मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में लाने की भी बात अगर की जा रही है तो वह सतही तौर पर आम लोगों को भरमा सकती है मगर भारत के लोकतन्त्र को यह व्यवस्था निगलने की क्षमता भी रखती है, क्योंकि अभी तक भ्रष्टाचार के मामले में जो भी पहल हुई है वह न्यायपालिका की दखलन्दाजी के बाद ही हुई है। फिर हम यह किस मुंह से कह और सोच सकते हैं कि भारत में कानून का राज है क्योंकि लोकपाल को जब मुख्य न्यायाधीश को भी जवाब तलब करने का अधिकार मिल जायेगा तो वह पूरी व्यवस्था को जेब में रख कर रातोंरात हिटलर बनने का ख्वाब भी देख सकता है। फिर हम न्याय किससे और कैसे मांगेंगे? मगर जब साझा सरकारों की राजनीति ने किताबों से निकाल कर मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री बना दिया और उनके हाथ में तिरंगा देकर उन्हें भ्रष्टाचार के माऊंट एवरेस्ट पर बैठा दिया तो यह देश किसके सामने अपना रोना रोने जायेगा। मैं फिर कहता हूं कि भ्रष्ट्राचार मिटाओ मगर सबसे पहले राजनीति में आने वालों की निजी सम्पत्ति को देश के आम आदमी के बराबर रख कर उसे चुनाव लडऩे की शर्त के नीचे लाओ। फिर देखो कैसे भ्रष्टाचार इस देश से भागता है।
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यह सवाल पैदा हो रहा है कि प्रधानमन्त्री और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल विधेयक के दायरे में लाया जाना चाहिए या नहीं? इसके लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि लोकपाल विधेयक वास्तव में है क्या? आम पाठकों के लिए मैं इसे बहुत मोटी जुबान में खोल कर लिख रहा हूं। लोकपाल का मतलब है कि शासन के तीनों अंगों कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे व्यक्तियों की जवाब तलबी। इस लोकपाल के प्रति सीवीसी, सीबीआई और कराधान प्रवर्तन निदेशकों तक की जवाबदारी तय करने की बात कही जा रही है। ऐसे लोकपाल की नियुक्ति केवल संसद ही संविधान में संशोधन करके कर सकती है और यह प्रक्रिया काफी लम्बी है। फिलहाल जो आंदोलन कुछ लोग चला रहे हैं वे ऐसा लोकपाल चाहते हैं जिसके प्रति देश का पूरा शासन जवाबदेह हो। यह भारतीय संविधान के संसदीय लोकतन्त्र के दायरे में कितना सही बैठेगा इसकी जांच- पड़ताल मैं आगे करूंगा। फिलहाल इतना बताता हूं कि ऐसे लोकपाल की सत्ता संसद के सर्वाधिकारों से भी ऊपर होगी। संसद का सबसे बड़ा नेता प्रधानमन्त्री होता है और उससे जवाबतलबी का अधिकार प्रत्येक संसद सदस्य को है, खास कर लोकसभा में जिसके सदस्यों को आम जनता स्वयं चुनकर बहुमत से सदन में भेजती है। तार्किक दृष्टि और वैज्ञानिक संवैधानिक विवेचना के अनुसार ऐसा लोकपाल जनता के मतों की ताकत को कुन्द करते हुए नई सर्वशक्तिमान सत्ता की स्थापना करेगा। इसमें सबसे बड़ा पेंच यही है।
इसे समझे बिना हम लोकपाल विधेयक की बारीकियों को नहीं समझ सकते क्योंकि संसद भारत के लोगों की प्रतिनिधि संस्था है और इससे ऊपर कोई भी पद किसी भी सूरत में अगर बनाया जाता है तो वह सीधे तानाशाही या अधिनायकवादी प्रणाली को जन्म देगा। इसके उधर में कुछ लोग कह सकते हैं कि भारत को राष्ट्रपति शासन प्रणाली अपनानी चाहिए। मगर यह विचार खुद इसको प्रसारित करने वाली पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने ही छोड़ दिया है।
इमरजैंसी से पहले जनसंघ के जमाने में श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्तर के दशक के शुरू में राष्ट्रपति प्रणाली की जमकर वकालत की थी मगर जब इन्दिरा गांधी की इमरजैंसी को १९७५ में देखा तो इस पार्टी ने अपनी सोच बदल दी मगर दीगर सवाल यह है कि यदि प्रधानमन्त्री को इसके दायरे में लाया जाता है तो क्या पहाड़ टूट जायेगा? क्या ऐसा हो सकता है कि एक तरफ संसद के भीतर प्रधानमन्त्री पर आरोप लगे और दूसरी तरफ लोकपाल उनका संज्ञान लेकर जांच का काम शुरू दें। इसका क्या असर हमारे लोकतन्त्र पर पड़ेगा और सरकार की विश्वसनीयता और इसका इकबाल क्या रहेगा? मगर हमने देखा है कि प्रधानमन्त्री पद का फैसला लाटरी से किया जाता है। कभी देवेगौड़ा की लाटरी खुली तो कभी गुजराल की तो कभी मनमोहन सिंह की, फिर इस पद को लोकपाल के दायरे में लाने में क्या हर्ज है? मगर मुल्क किसी भी पद से बहुत बड़ा होता है और इसकी मौजूदा प्रणाली को हमने सीने पर अंग्रेजों की लाठियां व गोलियां खाकर अपना खून बहाकर हासिल किया है। इसे हम आज के राजनीतिज्ञों के स्वार्थी नजरिये की भेंट नहीं चढ़ा सकते। क्या वजह है कि १९६४ से लोकपाल विधेयक की चर्चा इस देश में हो रही है और ४७ साल गुजरने के बावजूद अभी तक यह मुद्दा ऐसे ही पड़ा हुआ है। जाहिर है राजनीतिज्ञों ने ही इसे परवान नहीं चढऩे दिया, इसलिए शक की गुंजाइश तो खुद राजनीतिज्ञों ने ही पैदा की है। हकीकत यह भी है कि अभी तक आजादी के बाद केन्द्र में लगभग सभी दल किसी न किसी रूप में सत्ता में आ चुके हैं। यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टी भी केन्द्र की सरकार में शामिल रह चुकी है मगर सभी ने पीठ दिखाने का ही काम किया है। इसलिए अगर आज कुछ लोग बांस पर खड़े होकर बांसुरी बजा रहे हैं तो इसमें अचंभा क्यों होना चाहिए? जहां तक न्यायपालिका का सवाल है उसे कांग्रेस ने ही अपने शासन में पथ भ्रष्ट होने की प्रेरणा दी। चुनावों को महंगा बनाने के साथ-साथ स्व. इन्दिरा जी ने १९७४ में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की सर्वमान्य परम्परा को तिलांजलि देकर जिस प्रकार पांच न्यायाधीशों की वरीयता को रौंदते हुए श्री अजितनाथ रे को मुख्य न्यायाधीश बनाया था उससे नाराज होकर न्यायमूर्ति शैलेट हेगड़े, खन्ना, ग्रोवर आदि ने इस्तीफा दे दिया था। यह साल भी १९७४ का था। इसके बाद न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता गया और इसका हल निकालने की सारी कोशिशें अभी तक नाकाम हुई हैं। इसलिए मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में लाने की भी बात अगर की जा रही है तो वह सतही तौर पर आम लोगों को भरमा सकती है मगर भारत के लोकतन्त्र को यह व्यवस्था निगलने की क्षमता भी रखती है, क्योंकि अभी तक भ्रष्टाचार के मामले में जो भी पहल हुई है वह न्यायपालिका की दखलन्दाजी के बाद ही हुई है। फिर हम यह किस मुंह से कह और सोच सकते हैं कि भारत में कानून का राज है क्योंकि लोकपाल को जब मुख्य न्यायाधीश को भी जवाब तलब करने का अधिकार मिल जायेगा तो वह पूरी व्यवस्था को जेब में रख कर रातोंरात हिटलर बनने का ख्वाब भी देख सकता है। फिर हम न्याय किससे और कैसे मांगेंगे? मगर जब साझा सरकारों की राजनीति ने किताबों से निकाल कर मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री बना दिया और उनके हाथ में तिरंगा देकर उन्हें भ्रष्टाचार के माऊंट एवरेस्ट पर बैठा दिया तो यह देश किसके सामने अपना रोना रोने जायेगा। मैं फिर कहता हूं कि भ्रष्ट्राचार मिटाओ मगर सबसे पहले राजनीति में आने वालों की निजी सम्पत्ति को देश के आम आदमी के बराबर रख कर उसे चुनाव लडऩे की शर्त के नीचे लाओ। फिर देखो कैसे भ्रष्टाचार इस देश से भागता है।
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