शनिवार, 12 नवंबर 2011

घ्यान यानी दिव्य अन्तज्ञापन

अक्षर यात्रा की कक्षा में ध वर्ण पर चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "श्रीमद् भगवद्गीता" का एक अमृत वचन है, "ज्ञानाद् घ्यानं विशिष्यते" यानी ज्ञान से भी घ्यान का महत्व विशिष्ट माना गया है।
एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, बोलचाल में तो ज्ञान-घ्यान शब्द एक साथ बोला जाता है। ये दोनों शब्द एक दूसरे के जोड़ीदार से हैं। क्या घ्यान का एक अर्थ ज्ञान भी हैक्
आचार्य ने कहा- हां, वत्स घ्यान का अर्थ कोरा आंख मूंदना, आसन लगाना और मौन होकर काष्टा भाव यानी लक्कड़ की तरह अकड़ कर बैठ जाना ही नहीं है। गीताकार के अनुसार मनन, विमर्श, विचार और चिंतन को भी घ्यान कहा है। चिंतन मनन और विचार विमर्श का सम्बन्ध ज्ञान से है तो घ्यान शब्द का व्यापक अर्थ ज्ञान के क्षेत्र तक फैल जाता है।
आचार्य ने बताया- भतृüहरि के अनुसार विशेष रूप से सूक्ष्म चिंतन अथवा आघ्यात्मिक मनन को भी घ्यान कहते हैं। कालीदास ने भी "रघुवंश" में घ्यान शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है। "योग शास्त्र" के अनुसार दिव्य अंतज्ञाüन या अन्तर्विवेक को भी घ्यान की संज्ञा दी गई है। किसी इष्ट देवता के प्रति आस्थापूर्वक तन्मय हो जाने यानी गहन अनुभूति को भी घ्यान कहते हैं। चिंतन मनन द्वारा प्राप्त होने वाले अनुभव को घ्यानगम्य कहा जाता है। विचारों में खोया हुआ, मनन में लीन और चिंतनशील व्यक्ति को घ्यान तत्पर, घ्याननिष्ठ अथवा घ्यानी कहते हैं।
आचार्य बोले- दुनिया की सभी धार्मिक आस्थाओं में घ्यान का महत्व है। अलग-अलग कई तरह की घ्यान विधियों का वर्णन भी मिलता है। भारतीय धर्मो में पातंजल योग सूत्र में घ्यान का विशद वर्णन हुआ है। बौद्ध और जैन धर्म को तो "घ्यान मार्ग" ही कहा जाता है। बुद्ध की विपस्यना घ्यान पद्धति की चर्चा पिटकों में मिलती है, जिसका आज भी जोर-शोर से चलन है। जैन साधना पद्धति में चार घ्यानों का वर्णन मिलता है- आर्तघ्यान, रौद्र घ्यान, धर्म घ्यान और शुक्ल घ्यान। पहले के दो घ्यान अशुभ और शेष दो को शुभ घ्यान कहा है। घ्यान के बारे में विशद साहित्य भी देखने को मिलता है। घ्यानशतक, घ्यानसूत्र और घ्यानबिंदु उपनिषद इनमें मुख्य माने गए हैं। जापान का झेन शब्द पालि और प्राकृत के झाण का ही जापानी रूप है।
आचार्य ने बताया- सूत्र साहित्य में ध्रुव एक तारे का नाम है। इस तारे का सम्बन्ध विवाह संस्कार में श्वसुर गृह को वधू का स्थायी गृह बताने के प्रतीक के रूप में होता है। ध्रुव का अर्थ स्थिर, दृढ़, अचल, स्थावर, स्थायी, अटल और अपरिवर्तनीय भी है। ज्योतिष में स्थिर के अर्थ में धु्रव शब्द का प्रयोग हुआ है। इस तरह ध्रुव का अर्थ "भगवद्गीता" के अनुसार निश्चित, अचूक और अनिवार्य है। गीता का कथन है- "जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुüवं जन्म मृतस्य च।" यानी जो जन्मा है उसका मरना सुनिश्चित है और मरने वाले का पुनर्जन्म भी अनिवार्य है। चाणक्य भी इस अर्थ में ही ध्रुव शब्द को प्रयोग में लेते हैं। मेधावी और धारणशील को भी ध्रुव कहा गया है। स्थिर, अटल के अर्थ के विपरीत महज "मैत्रायणी संहिता" में "ध्रुवस्य प्रचलनम्" पाठ मिलता है जिसका अर्थ "ध्रुव का चलना" है। किंतु इसका अर्थ ध्रुव तारे की चाल नहीं होकर किसी अनहोनी का घट जाना है। इसलिए यहां "ध्रुवस्य प्रचलनम्" का अर्थ किसी घटना विशेष का होना है।
आचार्य ने बताया- "कालीदास" ने रघुवंश में ध्रुव नाम के एक तारे का उल्लेख किया है। उत्तानपाद के पुत्र और मनु के पौत्र का नाम ध्रुव उत्तर दिशा में स्थित एक तारा है। उत्तानपाद के सुरूचि और सुनीति नाम की दो पत्नियां थीं। सुरूचि के पुत्र का नाम उत्तम था। घ्रुव का जन्म सुनीति से हुआ था। एक दिन ध्रुव ने अपने बड़े भाई उत्तम की तरह पिता की गोद में बैठना चाहा, परन्तु उसे राजा और रानी सुरूचि दोनों ने दुत्कार दिया। धु्रव सुबकता हुआ अपनी माता सुनीति के पास गया, उसने बच्चे को सांत्वना दी और समझाया, कि सम्पत्ति और सम्मान कठोर परिश्रम के बिना नहीं मिलते। इन वचनों को सुन कर ध्रुव ने अपने पिता के घर को छोड़ कर जंगल की राह ली। यद्यपि वह अभी बच्चा ही था, तो भी उसने घोर तपस्या की तब विष्णु ने उसको ध्रुव तारे का पद प्रदान किया और ध्रुव लोक में जगह दी।
आकाश, अंतरिक्ष, स्वर्ग, यज्ञ श्रुवा भी ध्रुव है। पवित्र साघ्वी और सती स्त्री को ध्रुवा कहा गया है। वट वृक्ष, स्थाणु और खूंटे को भी ध्रुव कहा गया है।
आचार्य ने बताया- संगीत में गीत का आरम्भिक पद यानी टेक को ध्रुव कहते हैं। इसे गान में दोहराया जाता है। ज्योतिष में किसी बड़े वृत्त के दोनों सिरे, नाक्षत्र राशि चक्र के आरम्भ से ग्रह की दूरी भी ध्रुवा है। इसे धु्रवीय देशांतर भी कहा जाता है। समय, काल, युग और ब्रrाा, विष्णु, महेश की समन्वित उपाधि भी ध्रुव है। सिर पर रखे मुकुट का वह भाग जहां से बाल चमकते हैं उसे ध्रुवावत्तü कहा जाता है।
(राजस्थान पत्रिका से साभार)

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