शनिवार, 12 नवंबर 2011

वार्त्ता है बैंगन की फसल

अक्षर यात्रा की कक्षा में "व" वर्ण की चर्चा जारी रखते हुए आचार्य पाटल ने कहा- "मनुस्मृति" और "याज्ञवल्क्य संहिता" में किसान की खेती और वैश्य के व्यापार के लिए वार्त्ता शब्द प्रयुक्त है। एक शिष्य ने पूछा- गुरूजी, वार्त्ता तो बातचीत और समाचार को कहते हैं। फिर खेती व व्यापार के अर्थ में वार्त्ता शब्द कैसे बना?

आचार्य ने बताया- वत्स, बैंगन की फसल को वात्तü अथवा वात्ताü कहा गया है। देसी बोलियों में "बिंताक" शब्द बैंगन के अर्थ में मिलता है। जो वात्तüक का अपभ्रंश है। अंगराग यानी उबटन और मोमबत्ती को भी वार्त्ता कहा गया है। इनके व्यवसायी को वार्तिक कहते हैं। इसलिए वात्ताü शब्द व्यापार के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। "व्याकरण शास्त्र" का कथन है- "उक्तानुदुरूक्तार्थ व्यक्ति कारि तु वात्तिüकम्।" यानी वार्तिक एक ऎसा नियम है, जो किसी अधूरी बात की व्याख्या करता है। पाणिनि के सूत्रों पर कात्यायन द्वारा निर्मित व्याख्यापरक नियमों के लिए वार्तिक शब्द प्रयुक्त हैं। समाचार लाने वाले दूत को भी वार्तिक कहते हैं।

आचार्य ने बताया- "श्रीमद्भगवतगीता" में अनुभव से प्राप्त ज्ञान को विज्ञान कहा गया है। "दर्शनशास्त्र" के अनुसार अन्त:करण की उस चेतना का नाम विज्ञान है जिसके द्वारा अपने व्यक्तित्व का बोध होता है। इसका अर्थ अहंकार से मिलता-जुलता है। ज्ञान, बुद्धिमत्ता, प्रज्ञा और समझ के अर्थ में भी विज्ञान शब्द काम में लिया जाता है। भतृüहरि विवेचन, अन्तर पहचानने और कुशलता के अर्थ में विज्ञान शब्द का प्रयोग करते हैं। व्यवसाय और नियोजन के अर्थ में भी विज्ञान शब्द देखा गया है। संगीत और तंत्र के अर्थ में भी विज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है। विज्ञानवाद दर्शन के उस सिद्धांत का नाम, जो मानता है कि वस्तुसत्ता विज्ञानरू प है। विज्ञान यानी मन के व्यापार के सिवाय जगत का कोई अस्तित्व नहीं है।

आचार्य बोले- वेदांत में धर्म, दर्शन और कला के अर्थ में विद्या शब्द का प्रयोग मिलता है। दर्शन में विद्या का अर्थ अध्यात्म शास्त्र अर्थात आत्मज्ञान है। धर्म शास्त्र में विद्या का अर्थ त्रयी यानी तीन वेद हैं। पौराणिक तथा तांत्रिक मत में विद्या शब्द का प्रयोग महादेवी, दुर्गा अथवा शक्ति के मंत्र के अर्थ में मिलता है। कला के क्षेत्र में विद्या शब्द का प्रयोग धनुर्विद्या, शस्त्रविद्या और शिल्पविद्या जैसे शब्दों में दिखाई देता है। "अर्थशास्त्र" में चार विद्याएं वर्णित है- आन्वीक्षिकी यानी तर्क अथवा दर्शन, त्रयी यानी तीन वेद, वात्ताü यानी अर्थशास्त्र, दण्ड नीति और राजनीति। "मनुस्मृति" ने आत्मविद्या शब्द का प्रयोग आत्मज्ञान के लिए किया है। "याज्ञवक्ल्यस्मृति" में विद्या के चौदह स्थान बताए हैं- चार वेद, छह वेदांग, पुराण, न्याय, मीसांसा और स्मृति। कुछ विद्वान चार उपवेदों को भी जोड़कर अठारह विद्यास्थान बताते हैं। कई मतों में तेंतीस और कहीं चौंसठ विद्याएं मानी गई हैं। "ईशोपनिषद" में विद्या शब्द का प्रयोग अध्यात्म ज्ञान के अर्थ में हुआ है- विद्या†च अविद्या†च यस्तद् वेद उभयं सह। अविद्यया मृत्युं तीत्र्वा विद्ययाùमृतमश्नुते।। जो विद्या यानी अध्यात्म और अविद्या यानी भौतिक शास्त्र को एक साथ जानता है वह अविद्या यानी मृत्यु से ऊपर उठकर विद्या रू प अमृततžव को प्राप्त करता है। नागेश भट्ट ने भी इसी अर्थ में विद्या का प्रयोग किया है- "परमोत्तमपुरूषार्थसाधनीभूता विद्या ब्ा्रह्मज्ञानस्वरू पा।" यानी ब्ा्रह्म ज्ञान को विद्या कहा गया है।

आचार्य ने बताया- कालिदास प्रार्थना, अनुरोध और संवाद के अर्थ में विज्ञापन शब्द का प्रयोग करते हैं। "कुमारसम्भव" में शिष्ट-उक्ति के लिए विज्ञापन शब्द काम में लिया गया है। सूचना, वर्णन और शिक्षण के अर्थ में भी विज्ञापन शब्द प्रयुक्त हैं। शिक्षक को विज्ञापक और शिक्षित व्यक्ति को विज्ञापित कहते हैं। "गीतगोविन्द" निरर्थक तर्क-वितर्क के अर्थ में वितंडा शब्द काम में लेता है। दोषपूर्ण आलोचना यानी तू-तू मैं-मैं के अर्थ में भी वितंडा शब्द प्रयुक्त है। "दर्शनशास्त्र" में ओछे तर्क के लिए वितंडा शब्द देखने को मिलता है।

आचार्य ने बताया- वैदिक काल की एक नदी का नाम विपाशा है। विपाशा का अर्थ है पाश यानी बंधनों से मुक्त करने वाली नदी। इसी नदी के नामकरण के पीछे एक कथा मिलती है- वशिष्ठ ऋषि आत्मघात करने की इच्छा से अपने हाथ-पैर बांधकर विपाशा के जल में कूद गए, पर नदी ने उन्हें पाशमुक्त कर पुन: किनारे फेंक दिया। इसी से व्यास नदी का नाम विपाशा पड़ा।

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