इकीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता
कुछ देर के लिए मार्क्स को एक सरल रेखा मान लिया जाए तो पूरी दुनिया, उसके दोनों तरफ बंटी मिलेगी. एक दिशा में मार्क्स के समर्थक होंगे, जिनके लिए मार्क्स का एक-एक शब्द पवित्र और बौद्धिक चेतना की धरोहर है. वे मार्क्स के नाम पर, उसके विचारों के लिए अपने खून का एक-एक कतरा बलिदान करने को तत्पर होंगे. दूसरी ओर मार्क्स के आलोचक हैं. जिनके लिए मार्क्स एक दुर्भावना, एक जिद, एक नासमझी-भरा, अड़ियल और प्रतिगामी विचार है. हाल ही में बीबीसी रेडियो सेवा द्वारा ब्रिटेन के सर्वाधिक सम्मानित और प्रतिभाशाली दार्शनिकों का सर्वे कराया गया. उस सर्वे में साम्यवादी मार्क्स ख्याति के मामले में सबसे ऊंचे पायदान पर था. दार्शनिक के रूप में दुनिया-भर में पहचाने वाले नाम यथा प्लेटो, अरस्तु, कांट, डेविड ह्यूम, देकार्त, जान ला॓क जैसे विचारक ख्याति के मामले मे उसके आसपास भी नहीं ठहरते. हीगेल मार्क्स का गुरु, जिससे उसने भौतिक द्वंद्ववाद का सिद्धांत ग्रहण किया था, आश्चर्यजनकरूप से इस सूची में कहीं भी नहीं है. और तो और मार्क्स के समकालीन प्रतिभाशाली दार्शनिकों में से एक भी इस सूची में स्थान पाने में असमर्थ रहा है. आखिर ऐसी कौन-सी बात है, जो मार्क्स को अपने समकालीन और पूर्ववर्ती विचारकों से अलग सिद्ध करती है. मार्क्स ने एक साथ धर्म, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास की गवेषणाएं की हैं. मगर मार्क्स खुद क्या है? दार्शनिक अथवा अर्थशास्त्री? ये सामान्य जिज्ञासा से जुड़े कुछ जरूरी प्रश्न हैं. हालांकि बहुत-से लोगों के लिए मार्क्स एक खलनायक भी है, जो अपने विचारानुकूल समाज के गठन के लिए खुल्लमखुल्ला हिंसा का सहारा लेता है. मगर वे भूल जाते हैं कि सामाजिक परिवर्तन के लिए मार्क्स द्वारा हिंसा का समर्थन उस तरह से नहीं है, जैसे कि पहले राजा-महाराजा अपनी सनक में पड़ोसी राजा पर हमला बोल देते थे. मार्क्स की हिंसा मर्यादित है. वह समाज के बड़े वर्ग के कल्याण के लिए विशेष परिस्थितियों में जब बाकी सभी उपाय असफल सिद्ध हो चुके हों, केवल बुर्जुआ वर्ग को सत्ताच्युत करने के लिए हिंसा का समर्थन करना पसंद करता है. दूसरे पूंजीवादी चंगुल से मुक्ति के लिए हिंसा का समर्थन पेरिस कम्यून की असफलता से पहले की घटना है. पेरिस कम्यून की असफलता के बाद उसके विचारों में बदलाव आया था.
मार्क्स अपने समय की सबसे विवादित हस्तियों में से एक है. उसका रचनात्मक अवदान केवल अकादमिक चिंतन-लेखन तक सीमित नहीं था. उसके लेखन में संघर्ष की लौ थी. हालांकि श्रमिकों के पक्ष में आवाज उठाने वाला वह पहला दार्शनिक-लेखक नहीं था. उससे पहले रूसो जनसामान्य का सबसे बड़ा पैरोकार बनकर उभरा था. राबर्ट ओवेन, विलियम किंग, जोसेफ ब्लेंक आदि दार्शनिक चिंतक भी पूंजीवादी शोषण से उबरने के लिए श्रमिकों मजदूरों को और अधिक सुविधा दिए जाने की मांग कर चुके थे. इसी श्रेणी में चार्टिस्ट आंदोलनकारियों का नाम भी लिया जा सकता है, जिन्होंने जनाधिकारिता के लिए बड़े पैमाने पर वर्षों तक चलने वाला संघर्ष किया था. जनसाधारण के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में 1838 में एफ. ओ’क्रोनर
एवं विलियम ला॓वेट के नेतृत्व में चले वर्षों लंबे संघर्ष में सैकड़ों
चार्टिस्ट आंदोलनकर्मियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था. हजारों को निष्कासन की सजा मिली थी.
स्मरणीय है कि सोहलवीं शताब्दी में आरंभ हुए प्रौद्योगिकीकरण की रफ्तार उनीसवीं शताब्दी आते-आते अत्यधिक तीव्र हो चुकी थी. परंपरागत
शिल्पकारों पर मशीनीकरण की मार तथा उनके संरक्षण के लिए सरकार की ओर से
कोई योजना न होने के कारण ब्रिटेन समेत प्रायः सभी यूरोपीय देशों में
बेरोजगारी का संकट बढ़ा था. गांवों में स्थिति और भी शोचनीय थी. क्योंकि कारखानों में बने सस्ते माल की आमद से स्थानीय उद्योग-धंधे पूरी तरह चौपट हो चुके थे. भीषण गरीबी के कारण माता-पिता अपने बच्चों को उन नारकीय परिस्थितियों में काम पर भेजने के लिए विवश थे, जहां सामान्य स्थितियों काम करने की उनकी हिम्मत भी जवाब दे जाती थी. बाकी मजदूरों, कामगारों यहां तक कि साधारण नौकरीपेशा लोगों की हालत भी संतोषजनक नहीं थी. काम के अत्यधिक बोझ के कारण वे सदैव तनाव में रहते थे. इससे उनकी कार्यकुशलता नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई थी. सरकार और प्रशासन पूंजीपतियों के सतत दबाव में रहते थे, इसलिए उनसे मनचाहे फैसले करा लेना, स्थानीय पूंजीपतियों के लिए बहुत आसान था. पूंजी का असमान वितरण, भीषण बेरोजगारी, नगरों में पर्यावरण-संबंधी लगातार बढ़ती समस्याएं आदि अनेक ऐसे कारण थे, जिन्होंने विचारकों के एक बड़े वर्ग को उद्वेलित किया था. पूंजीवाद प्रेरित औद्योगिकीकरण के विरोध में अनेक आंदोलन भी हो चुके थे, जिनमें लाखों श्रमिकों ने सहभागिता की थी. जिन्हें समाज के लाखों श्रमिकों का समर्थन मिला था.
पूंजीवादी शोषण से उबरने के लिए विद्वानों के अलग-अलग सुझाव थे. विचारकों का एक दल सहकारिता के माध्यम से पूंजीवादी उत्पीड़न से उबरने का सपना देख रहा था. इस वर्ग में विलियिम किंग, राबर्ट ओवेन फ्यूरियर जैसे विचारक थे. साहित्यिक प्रेरणाएं भी परिवर्तनकारी आंदोलनों के साथ थीं. उनमें सबसे अग्रणी थे, उस समय के महान उपन्यासकार चाल्र्स डिकेन्स, जिन्होंने अपने उपन्यास ‘दि क्रिसमस कैरोल’ में ब्रिटिश समाज में पनप चुके सूदखोर वर्ग का सशक्त चित्रण किया था. रिकार्डो और एडम स्मिथ आदि अर्थशास्त्रियों का मानना था कि सिर्फ औद्योगिक समृद्धि द्वारा गरीबी से लड़ा जा सकता है. सरकार को चाहिए कि उत्पादन और विपणन से जुड़े मामले पूंजीपतियों और उद्यमियों के हवाले कर दे, ताकि वे परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय लेने में सक्षम हों.
संगठित आंदोलन को मुक्ति का आधार मानने वाले विचारकों के भी दो अलग-अलग वर्ग थे. उनमें से एक धड़ा सहकारिता आंदोलन के समर्थक विद्वानों एवं कार्यकर्ताओं का था, जो सफलता के लिए सहयोग को स्पर्धा से अधिक कारगर और उपयोगी मानते थे. दूसरे धड़े के विचारक मानते थे कि पूंजीवाद से मुक्ति के लिए पूंजीपतियों को कमजोर करना जरूरी है. यह केवल संगठित ताकत के बल पर संभव है. इसके लिए हिंसा का सहारा लेने में भी उन्हें संकोच नहीं था. प्रूधों, मार्क्स, ब्लेंक, बकुनाइन, ऐंगल्स आदि विद्वान पूंजीवाद के उग्र विरोधियों में आते थे.
उल्लेखनीय है कि मार्क्स से पहले ही हीगेल द्वंद्ववाद की सार्थकता को स्थापित कर चुका था. विचारक उसके विचारों की भांति-भांति से व्याख्या कर रहे थे. बल्कि उसके विचारों की व्याख्या के लिए ही दार्शनिकों के अलग-अलग गुट बन चुके थे. ऐसे में मार्क्स ने द्वंद्ववाद की विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टिकोण से विवेचना कर, सत और असत् का भौतिकीकरण कर दिया. मार्क्स के दर्शन में श्रमिक वर्ग ‘सत्’ का पर्याय था, जो अपने श्रम-कौशल के आधार पर उत्पादन कार्य में प्रमुख भूमिका निभाता है. जो सही मायने में उत्पादक है. पूंजीपति वर्ग ‘असत्’ का प्रतीक है, जो दूसरों के श्रम को अपना बताकर मुनाफे का अधिकांश हिस्सा स्वयं हड़प जाता है, जिससे धनी लगातार धनवान तथा गरीब लगातार अधिक गरीब होता जाता है. परिणामस्वरूप समाज में अस्थिरता और असमानता बढ़ती है.
समाज में व्याप्त आर्थिक वैषम्य से निपटने के लिए भी विद्वानों के अलग-अलग विचार थे. एक वर्ग का मानना था कि समाज में आर्थिक समानता स्थापित करना सरकार का दायित्व है, अतः सरकार को श्रमिकों के हितों की सुरक्षा हेतु समुचित कानून बनाने चाहिए. दूसरे वर्ग का विश्वास था कि पूंजीवाद का सामना केवल संगठित शक्ति द्वारा ही संभव है. इस वर्ग का सुझाव था कि श्रमिकों, छोटे उद्यमियों और व्यवसायियों को अपने-अपने संगठन बनाकर सहकार के माध्यम से पूंजीवाद के विरुद्ध सार्थक समर छेड़ा जा सकता है. इनसे अलग एक वर्ग कतिपय उदारपंथी विचारकों का था, उनका
मानना था कि मनुष्यता के नाते पूंजीपति को स्वयं आगे आकर समाज के बड़े
वर्ग के पक्ष में अतिरिक्त संपत्ति का परित्याग करना चाहिए. बहुत बाद में गांधी जी ने इसी भावना को ‘ट्रस्टीशिप’ के सिद्धांत के रूप में प्रकट किया था.
मार्क्स का विचार था कि स्वार्थी पूंजीपतियों को मनाना, उन्हें नैतिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करना आसान नहीं है. ऐसे में शोषण से मुक्ति का एक ही उपाय है कि श्रमिकवर्ग संगठित होकर स्वार्थी पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा कर दे. जिस दौर में मार्क्स यह घोषणा कर रहा था, वही दौर अस्मितावादी आंदोलन के उदय का भी था. फ्रांस में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी. उसकी देखादेखी यूरोप के अन्य देशों में भी लोकतंत्र की मांग जोर पकड़ रही थी. ऐसे में मार्क्स का दर्शन लोगों को पे्ररित करने के लिए पर्याप्त था. अतएव जहां-जहां मशीनीकरण जोर पकड़ चुका था, जहां-जहां सामंत और जागीरदारी प्रथा शेष थी, वहां पर श्रमिक वर्ग माक्र्सवादी विचारधारा के अनुरूप संगठित होता चला गया. दूसरी ओर अमेरिका और यूरोप के दिन देशों में पूंजीवाद अपनी जड़ जमाए था, वहां मार्क्सवादी विचारधारा के ठीक विपरीत प्रतिक्रिया हुई. मीडिया और सरकार के सहयोग से वहां मार्क्स के कटुआलोचकों का वर्ग पनपा. मगर इस द्वंद्वात्मकता में मार्क्स की चर्चा दोनों ही पक्षों में होती रही.
मार्क्स के विचारों की वर्तमान संदर्भों में क्या प्रासंगिकता है! उसको अर्थशास्त्री माना जाए या दार्शनिक? या फिर राजनीतिक चिंतक? मार्क्स की ख्याति एक दार्शनिक के रूप में भी रही है. हालांकि उसका दर्शन के क्षेत्र में विशेष मौलिक योगदान बहुत कम है. धर्म को लेकर आलोचना फायरबाख और बायर से प्रभावित है. द्वंद्ववाद पर हीगेल उससे पहले ही गंभीर चिंतन कर चुका था, और वह दर्शनशास्त्र की प्रामाणिक धारा के रूप में मान्य हो चुका था. तत्वमीमांसा से वह कोसों दूर था. तो फिर वह कौन-सी बात है, जो मार्क्स को जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों के बीच एकाएक जनता का नायक बना देती है. मार्क्स मूल रूप से अर्थशास्त्री था. बल्कि कहना चाहिए कि एडम स्मिथ के बाद मार्क्स ही वह अर्थशास्त्री है, जिसने पूरी दुनिया को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त की थी. सच तो यह है कि मार्क्स का अर्थचिंतन एडम स्मिथ के मुक्त अर्थतंत्र को उसका खरा जवाब था. एडम स्मिथ ने अपने सिद्धांत ‘लेजेज फेयर’ द्वारा सरकारों से पूंजीपतियों के रास्ते से हट जाने का आवाह्न किया था. कहा था कि उद्योगों से सरकारी नियंत्रण हटाओ. पूंजीपतियों को निर्बंध ‘अपना काम करने दो.’
एडम स्मिथ की खुली अर्थव्यवस्था के विचार की आलोचना करते हुए मार्क्स ने कहा था कि औद्योगिक उदारता श्रमशोषण के दम पर ही संभव है. नियंत्रणहीन पूंजीवाद को उसने पूंजी का अराजक खेल माना, जिसमें उद्योगपतियों की भले चांदी कटे, मगर मजदूरों का शोषण बढ़ता ही जाता है. स्पर्धा में बने रहने के लिए पूंजीपति वर्ग मजदूरों की मजदूरी कम करता जाता है. कम वृत्तिका और महंगाई मिलकर मजदूरों और कामगारों के जीवन को उत्तरोत्तर कठिन बनाती है. नई प्रौद्योगिकी सिर्फ अमीरों का बैंक बैलेंस बढ़ाती है. और मजदूर की गरीबी, बेबसी तथा दुर्दशा. स्मिथ के कथन कि ‘उन्हें अपना काम करने दो’ के बदले में मार्क्स का कहना था कि ‘श्रमिकों को उनका हक दो’. हालांकि वह यह भी मानता था कि स्वार्थ में डूबे पूंजीपति श्रमिकों को उनका अधिकार आसानी से देने को तैयार नहीं होंगे. इसलिए वह संगठित विरोध का हिमायती था. उसने आवाह्न किया था कि शोषणकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ. तुम्हारे पास हुनर है. काम करने का सामथ्र्य, इच्छाशक्ति और लग्न है. साथ में वर्षों का अनुभव भी. अपनी ताकत, संगठन की ताकत, अपने कौशल और क्षमताओं को पहचानो, एकजुट होकर उत्पादन-व्यवस्था को अपने हाथ में ले लो. कौटिक हाथ मिलकर अपने भविष्य का स्वयं निर्माण करो. उत्पादन का माध्यम बनने से, दूसरों के लिए पसीना बहाने से अच्छा है कि स्वयं उत्पादक बनो. आगे बढ़ो. तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है, मगर जीतने के लिए पूरी दुनिया पड़ी है. कफ और बलगम भरी छाती से निकले मार्क्स के ये भरभराते शब्द विश्व-भर के कोटिक श्रमिकों के कंठ से निकली आवाज बन गए. ईसाइयों ने इन शब्दों को पवित्र बाइबिल की वाणी माना, हिंदु ने गीता की अमर सूक्तियां. मुस्लिमों इन्हें कुरआन की महान आदेश मानकर संगठित होने लगे. मार्क्सवाद जन-मन की भाषा बन गया.
इकीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता क्या है? बाजारवाद के इस दौर में जब पूंजीवाद बेलगाम और करीब-करीब अराजक हो चुका है, मार्क्स के विचार कितनी दूर तक हमारा साथ दे सकते हैं? इस बारे में परस्पर-विरोधी मत सुने जा सकते हैं. मार्क्सवाद के आलोचकों ने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही मान लिया था कि उसका पतन अवश्यंभावी है. मार्क्सवाद के सबसे बड़े गढ़ सोवियत संघ का बिखरना उन्हें अपने निष्कर्ष पर मुहर लगने जैसा प्रतीत होता है. उन्होंने बार-बार कहा था, बल्कि आज भी यही दावा करते हैं कि मार्क्सवाद के दिन लद चुके हैं. समाजवाद का सपना बीते जमाने की बात हुई. उनके अनुसार यह जानकर भी जो उससे उम्मीद लगाए बैठे हैं, वे स्वप्नदृष्टा, कल्पनाजीवी हैं. उन भोले बच्चों की तरह हैं जिनकी दुनिया लालीपाप में समाई होती है. पर क्या संभव है किसी विचार का यूं ही एकाएक मर जाना?
यदि कोई पेरिस कम्यून की असफलता या सोवियत संघ के बिखरते जाने जैसी घटनाओं से ही उस विचार को अप्रासंगिक और समय-बाह्यः मान बैठे और पूंजीवाद की सार्वकालिक जीत का दावा करने लगे तो यह उसकी नादानी ही कही जाएगी. इसलिए कि साम्यवाद नैतिकता और आदर्शवादी पहचान से युक्त एक अवस्था है, जिसकी संकल्पना लोकगीतों, धार्मिक-सामाजिक आख्यानों, कवि-लेखकों-साहित्यकारों के मानवतावादी सोच से प्रेरणा पाती है. पेरिस कम्यून में श्रमिक संगठनों और नागरिक सेना की जीत के फलस्वरूप जो अल्पकालिक सरकार बनी थी, उसके अपने मतभेद और आपसी अविश्वास थे. साथ में क्रांति का श्रेय लेने की, दूसरों पर छा जाने की आदिम लालसा भी थी. जो एक तरह से प्राचीन साम्राज्यवाद, सामंतवाद, कुलीनतावाद, ब्राह्मणवाद, यहां तक कि पूंजीवादी वर्चस्व का पर्याय थी.
क्रांति के जुनून में उन्होंने सबकुछ उलट-पलट तो दिया था, जोश-जोश में जनोन्मुखी व्यवस्था कायम करने की शुरुआती कोशिश भी की. किंतु आपसी मतभेद और तनाव के कारण वे ऐसा कोई तंत्र विकसित करने में असफल सिद्ध हुए थे, जो साम्यवादी मान्यताओं के अनुरूप एक दीर्घगामी व्यवस्था के गठन में सहायक बनता. पेरिस-क्रांति के दो प्रमुख सूत्रधारों, मार्क्स और बेकुनिन के मतभेद तो जगजाहिर हैं ही. मार्क्स को लगता था कि क्रांति की सफलता के बाद बेकुनिन अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाना चाहता है. जबकि बेकुनिन का मानना था कि मार्क्स की बढ़ती हुई भूमिका पेरिस में यहूदीवाद को बढ़ावा देगी. इसी प्रकार के मतभेदों के चलते साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताकतों के मनसूबों को भांपने में असफल रहे थे. परिणाम यह हुआ था कम्यून पर फिर सशस्त्र सेनाओं का हमला हुआ और राजशाही दुबारी सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हुई. व्लादिमिर लेनिन के पेरिस कम्यून की असफलता के कारणों को चिह्नित किया है. एक समाचारपत्र में लिए लिखे गए लेख ‘पेरिस कम्यून का पाठ’ में उसने लिखा था कि कम्यून के नेताओं की—
‘केवल दो बड़ी गलतियों ने उस दमदमाती ऐतिहासिक विजय के लाभों पर पानी फेर दिया. सच तो यह है कि सर्वहारा वर्ग के नेता आधे रास्ते पर ही आराम फरमाने लगे थे. अवैद्य कब्जाधारकों की संपत्ति का अधिग्रहण करके न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के करने के बजाय वे कुछ लोकप्रिय राष्ट्रीय मुद्दों के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास करते रहे. बैंक और ऐसे ही दूसरे अन्य संस्थानों का अधिग्रहण, जो बहुत जरूरी था, नहीं किया गया. सर्वहारा वर्ग के शासकों की दूसरी बड़ी भूल उनकी अतिशय दयालुता थी, जिसके कारण अपने दुश्मनों को कुचलने के बजाय वे उनके साथ दयालुतापूर्ण व्यवहार कर, उनके हृदय-परिवर्तन की उम्मीद करते रहे. जनक्रांति में सीधी सैन्य कार्रवाही की उपयोगिता को उन्होंने बहुत कम करके आंका था. बजाय इसके कि पेरिस के पूर्वशासकों से अपनी सुरक्षा के ठोस और पुख्ता इंतजाम करते, उन्होंने उन्हें आराम से दुबारा ताकत बटोरने का पूरा-पूरा अवसर दिया, जो मई महीने के भीषण खून-खराबे का कारण बना.’
कुछ ऐसा ही रूस में हुआ था. पेरिस क्रांति की असफलता ने मार्क्स को अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार का अवसर दिया था. सशस्त्र विद्रोह से उसका विश्वास घटा था. राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक अधिनायकवाद से दीर्घकालिक मुक्ति के नए रास्तों की खोज का सुफल ‘दि कैपीटल’ के रूप में सामने आया था, जिसे उसने इतिहास, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि गहन अध्ययन के बाद लिखा था. पुस्तक में उसने वर्गहीन समाज की परिकल्पना की थी. स्मरणीय है कि पेरिस कम्यून को मार्क्स ने ‘सर्वहारा का अधिनायकवाद’ की संज्ञा दी थी. वह उसको साम्यवाद की स्थापना की दिशा में पहला चरण मानता था. साम्यवाद की परिकल्पना इस सोच पर आधारित थी कि द्वंद्व की स्थिति विपरीत शक्तियों में ही संभव है. उनसे बचाव का एक ही उपाय है कि समाज में शक्तिकेंद्र ही न रहें. इसलिए श्रमिक वर्ग सत्ता को हाथ में ले. मगर सत्ता हस्तांतरण से ही उसका काम पूरा नहीं हो जाता. उसके लिए आवश्यक है कि समाज में वर्गहीनता की स्थापना के प्रयास भी साथ ही आरंभ कर दिए जाएं. एक समरस समाज की स्थापना, साम्य की स्थापना उनका ध्येय हो, ऐसा उसने कहा था.
रूस में जो हुआ, वह क्रांति का पहला चरण था. वहां लेनिन के नेतृत्व में जारशाही के विरुद्ध संघर्ष का आवाहन किया गया था. जिसमें मजदूर वर्गों को जीत मिली और जारशाही के स्थान पर श्रमिकों की सरकार अस्तित्व में आई. अपने दायित्व को समझते उसने समाज के पुननिर्माण पर जोर दिया. उसका सुखद परिणाम भी मिला. क्रांति के समय रूस की हालत भारत से कहीं बदतर थी. देखते ही देखते वहां विकास का ऐसा दौर चला कि पचास-साठ वर्षों में उसने स्वयं को विश्व की दूसरी महाशक्ति के रूप में स्थापित कर लिया. बस यही उसकी विड़बना थी. क्रांति
का पहला चरण पार कर सत्ता पर अधिकार जमा लेने के बाद उसकी कोशिश द्वंद्व
की समस्त संभावनाओं को मेटने के लिए जहां वर्गहीन समाज की स्थापना करना था, वहीं उसने खुद को द्वंद्व में झोंकना प्रारंभ कर दिया. सोवियत सरकार असल में तलवार से तराजू का काम लेना चाहती थी. घोषित रूप उसका लक्ष्य साम्यवाद था, मगर असल में थी विरोधियों को परास्त कर, नंबर एक पर बने रहने की कामना. वह दुहाई न्याय की देती थी, मगर अपने नागरिकों के खून-पसीने की कमाई को, हथियारों और अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को विस्तार देने पर खर्च कर रही थी.
इन परिस्थितियों में भी रूस लंबे समय तक साम्यवादी बना रहा तो इसलिए कि मार्क्स ने अपने समर्थक लेखकों-बुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग पैदा किया था, जिनमें गोर्की, चेखव, टालस्टाय, दोस्तोयवस्की आदि महान साहित्यकार सम्मिलित थे. जो साम्यवादी विचारधारा के अनुरूप लगातार सारगर्भित और प्रतिबद्ध लेखन कर रहे थे. इससे वहां के जनमानस में साम्यवाद के प्रति आस्था बनी रही. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रतिबद्ध साहित्य की चमक-दमक खासकर उसमें नए चेहरों की आमद घटती चली गई. वहीं सरकार ने खुद को और भी महत्त्वाकांक्षी बना लिया था. साम्यवादी नीतियों के अनुरूप वर्गहीन समाज की स्थापना पर जोर देने के बजाय, सरकार अपने संसाधन पूंजीवाद के पर्याय बन चुके अमेरिका को परास्त करने पर तुली हुई थी. यह मजदूरों के दम पर बनी सरकार का वैभव प्रेम था. ब्राजील के दर्शनशास्त्री पाउलो फ्रेरा ने बड़े काम की बात कही है. ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’ में उसने लिखा है कि आमूल परिवर्तन के पहले दौर में, जिसको परिवर्तन की अपरिपक्व अवस्था भी कहते हैं, उत्पीड़ित अवसर मिलते ही वही करता है, जैसा उसने उत्पीड़क को करते हुए देखा है. इस अवस्था में उत्पीड़क और उत्पीड़ित की सिर्फ भूमिकाएं और सिर्फ चेहरे बदलते हैं, स्थितियां नहीं. इसलिए परिवर्तनकामी शक्तियों को, उन शक्तियों को समाज में वास्तविक परिवर्तन की चाहत रखती हैं, प्रारंभिक सफलता के साथ ही रुक नहीं जाना चाहिए. बल्कि आमूल परिवर्तन की कोशिश पहली सफलता के साथ ही आरंभ कर देनी चाहिए. सोवियत संघ के शासकों से भी यही अपेक्षित था कि वे साम्राज्यवादी गतिविधियों में उलझने के बजाय एक नीति-आधारित समाज की स्थापना पर जोर देते. ताकि वर्गहीन समाज की स्थापना संभव हो सके.
रूसी शासक यह भूल चुके थे कि जनता की सोचने की शक्ति भले ही धीमी हो, मगर उसमें छोटे वैचारिक परिवर्तन भी दूरगामी महत्त्व के सिद्ध होते हैं. पूंजीवादी सरकार में हथियारों के निर्माण से लेकर शोध तक का सारा काम पूंजीपति करते हैं. इसके लिए वे श्रमिकों का ऐसे ही शोषण करते हैं, जैसे कि बाकी अन्य उद्योग. लेकिन उनमें काम करने वाला श्रमिक बिना किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के, सिर्फ आजीविका की खोज में उनके साथ जुड़ता है. असहमति अथवा असंतुष्टि की अवस्था में वह जब चाहे तब उसको छोड़कर अन्य उद्योग के साथ जुड़ सकता है. कानून उसके इस अधिकार की रक्षा करता है. हालांकि दूसरी जगह भी उसका शोषण होता है, और भौतिक स्थितियां उसके लिए बहुत अधिक बदलती भी नहीं है. तो भी एक उत्पादक को छोड़ आने का जो संतोष है, साथ ही चयन का आनंद और इसके पीछे निहित अस्मिताबोध श्रमिक का अपना और निजी होता है. इससे अधिक वह सामान्यतः अपेक्षा भी नहीं करता. इससे उसका आक्रोश एक सीमा से बाहर नहीं जा पाता.
सोवियत संघ में यद्यपि उपभोग को बढ़ावा देने वाली प्रौद्योगिकी को प्रतिबंधित किया गया था. मगर
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियारों की स्पर्धा और उसमें आगे निकलने की होड़
में वहां की सरकारें राष्ट्रीय आय का बड़े पैमाने पर निवेश कर रही थीं. इस होड़ का नागरिकों के वास्तविक कल्याण से कोई लेना-देना नहीं था. इससे वहां सामाजिक विकास की रफ्तार उतनी नहीं पहुंच पाई थी, जितनी कि साम्यवादी व्यवस्था में अपेक्षित थी. सोवियत नागरिक स्वयं को भावनात्मक रूप से ठगा हुआ महसूस कर रहे थे. इसपर टिप्पणी करते हुए सुविख्यात चिंतक किशन पटनायक ने लिखा था—‘आधुनिकतावादी दिमाग, आधुनिक टेक्नालाजी(यंत्रेश्वर) के बारे में इतना ज्यादा अंधविश्वासी है कि उसके विकल्प की संभावनाओं पर सोच नहीं पाता. एक वैकल्पिक यंत्रप्रणाली की तलाश वह कर नहीं सकता. सोवियत रूस में यही हुआ. रूसी कम्युनिस्टों ने कुछ प्रकार की, खासकर उपभोग की टेक्नोलाॅजी को बड़े पैमाने पर प्रतिबंधित किया. लेकिन वैकल्पिक टेक्नोलाॅजी की तलाश के लिए उनका दिमाग तैयार नहीं था. अंततोगत्वा उनके दिमाग पर आधुनिकता का दबाव इतना गहरा हुआ कि रूस साम्यवाद छोड़ने को तैयार हो गया.’
सोवियत संघ में समस्त उत्पादन व्यवस्था श्रमिक संगठनों के और अंततः राज्य के अधीन थी, जिसका उपयोग उनके नेता अपने राजनीतिक मंसूबों को पूरा करने के लिए करते थे. आम मजदूर के लिए कुछ खास नहीं बदला था. उसके लिए शोषणकारी स्थितियों में अपेक्षित सुधार हो ही नहीं पाया था. इसलिए उस व्यवस्था से उनका हताश होना स्वाभाविक ही था. ऊपर से तयशुदा उत्पादन करना मजबूरी. यही कारण है कि वहां श्रमिकों के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ता ही गया. परिणाम सोवियत संघ के विघटन के रूप में सामने आया. बावजूद इसके सोवियत संघ के बिखराव को, मानवाधिकार के पतन के रूप में देखना अनुचित होगा. बस
इतना कहा जा सकता है कि सोवियत नेताओं की निजी महत्त्वाकांक्षाओं और
अदूरदर्शिता के कारण समाजवाद का प्रयोग वहां उतनी अपेक्षा के साथ सफल न हो
सका.
दरअसल
मार्क्सवाद की मौत का दावा वे करते हैं जो मानते हैं कि साम्यवाद का उद्भव
मार्क्स के जन्म अथवा उसके विवेकीकरण के बाद की घटना है. जबकि ऐसा नहीं है. मार्क्स से पहले भी साम्यवाद था. लोग उपलब्ध सुविधाओं और संसाधनों का मिलजुल कर उपयोग करते थे. स्वयं मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा इसी मान्यता के आधार पर प्रस्तुत की है. मार्क्सवाद का अभिप्राय अर्थसत्ता का विकेंद्रीकरण, धर्मसत्ता का विलोपीकरण तथा राजसत्ता का लौकिकीकरण है. ये विचार मार्क्स से ढाई हजार वर्ष पहले जन्मे प्लेटो ने भी व्यक्त किए थे. प्रत्येक धर्म अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए इसी प्रकार की लोककल्याणकारी प्रार्थनाओं की अपने विस्तार की सीढी बनाता है. दूसरे शब्दों में मार्क्स के आलोचक वे हैं जो गलत तरीके से संसाधनों पर अधिपत्य जमाए हैं. जो सारा का सारा मुनाफा स्वयं लील जाना चाहते हैं. जो अपनी पूंजी और ताकत के दम पर वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं. जिन्हें दूसरों के श्रम-कौशल पर जीने की, परजीवी होने की आदत पड़ चुकी है. मार्क्स के आलोचक वे हैं, जिन्होंने अपनी संपन्नता दूसरों के श्रम पर अर्जित की है. इसके कारण उन देशों के समाज में भारी आर्थिक असमानता है. ऐसे उदाहरण पूंजीवादी देशों में हर जगह हैं.
अमेरिका का ही उदाहरण लें, वहां पूंजीवाद के बाद स्थिति कितनी बिगड़ी है, वह सामने भले ही न आ पाती हो, क्योंकि जनता और बाकी शक्तियों के बीच पुल की भूमिका निभानेवाला मीडिया, पूंजीपतियों का पक्ष लेता है, और उनके हितों के अनुरूप खबरों की मार्केटिंग करता है. जबकि हालात कितने विकट हैं, यह देखकर मन संताप से भर जाता है. बेलगाम पूंजीवाद समाज को सर्वाधिक अमीर और भीषण गरीब लोगों में बांट रहा है, जो अमीर है, वही उत्पादक है. गरीब के श्रम का उपयोग कर वह उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करता है. गरीब प्राप्त वृत्तिका का बड़ा हिस्सा उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद पर निवेश करता है. मजदूरी के रूप में उसको सिर्फ उतना ही मिल पाता है, जिससे वह अगले लिए काम पर जा सके. कई बार तो प्राप्त वृत्तिका उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी अपर्याप्त सिद्ध होती है.
एक रिपोर्ट के अनुसार 1994 में अमेरिका की 500 प्रमुख कंपनियां उस देश की कुल 92 प्रतिशत आमदनी पर कब्जा जमाए थीं, जबकि विश्वस्तर की 1000 सबसे बड़ी कंपनियों की सालाना आमदनी आठ अरब डालर है, जो दुनिया के कुल लाभ का एक तिहाई है. अमेरिका में ही केवल आधा प्रतिशत सर्वाधिक धनी कंपनियों के अधिकार क्षेत्र में वहां की 50 प्रतिशत संपत्ति आती है. यही नहीं अमीरों की अमीरी निरंतर बड़ती जा रही है. अमेरिका की सबसे धनी एक प्रतिशत जनसंख्या, वहां की राष्ट्रीय आय में 1978 में जहां केवल 17.6 प्रतिशत हिस्सेदारी रखती थी, वह मात्र दस वर्ष अर्थात 1989 में बढ़कर 36.3 प्रतिशत हो चुकी थी. स्मरणीय है कि पश्चिमी समाज में यही वह समय है, जिसे पूंजीवाद का सबसे सुनहरा दौर माना जाता है.
पूंजीवादी अमेरिका में पूंजी का कुछ हाथों में लगातार सिमटते जाना एक राष्ट्रीय समस्या बन चुका है. 2007 में वहां आई भीषण मंदी का खेल हम देख ही चुके हैं, जिसमें पचास से ऊपर भीमकाय बैंक दिवालियेपन का शिकार हुए थे. उससे पहले वहां बड़ी कंपनियों द्वारा छोटे उद्यमों के अधिग्रहण का दौर चला था, जो 1995 अपने चरमबिंदू पर था. मनोरंजन क्षेत्र की दिग्गज कंपनियां वाल्ट डिजनी, वाशिंगटन हाउस, दवा उद्योग की ग्लैक्सो, कागज उद्योग की स्का॓ट पेपर अपने-अपने क्षेत्र की वे महारथी कंपनियां थीं, जिन्होंने अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को एकाएक निगल लिया था. चेज मेनहट्टन और केमीकल बैंक ने उसी वर्ष मिलकर, 297 अरब डा॓लर की भारी-भरकम पूंजी के साथ, अमेरिका के सबसे बड़े बैंकिंग समूह की आधारशिला रखी थी. पूंजीवाद के चरमोत्कर्ष काल में सबकुछ चमकता-दमकता हो, यह बात भी नहीं है. बहुत कुछ ऐसा भी था जो चमचमाती रोशनी के पीछे गहराये अंधेरे की हकीकत बयान करता था. अधिग्रहण के उस दौर में छोटी मछलियां आराम से बड़ी मछलियों का शिकार बन रही थीं. उसी वर्ष मित्शुबिशी बैंक और बैंक आफ टोकियो जो दुनिया के सबसे बड़े बैंकों में से थे, दिवालिया घोषित किए गए थे. अधिग्रहण और विलय का यह खेल यूरोपीय देशों में भी फैला और ब्रिटेन, स्विटजरलेंड, जर्मनी आदि अनेक देशों में पूंजी के बड़े मगरमच्छ छोटी मछलियों को निगलने लगे. इससे मार्क्स और ऐंगल्स की यह भविष्यवाणी सच सिद्ध हो रही थी कि पूंजी का सहज स्वभाव केंद्र की ओर खिसकते जाने का होता है. इस प्रकार वह कुछ समूहों तक सिमटकर रह जाती है. अधिग्रहण और विलयीकरण के इस खेल में हर बार कुछ कंपनियां बंद कर दी जाती हैं, जिसका कुफल उनमें कार्यरत श्रमिकों को बेरोजगारी के रूप में भोगना पड़ता है. स्पष्ट है कि—
‘केंद्र की ओर पूंजी का सतत जमाव उत्पादन में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं करता, बल्कि इसका उल्टा ही होता है.’
बेरोजगारी का जिक्र हुआ है तो मार्क्स को एक बार पुनः याद करना पड़ेगा. कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने कहा था कि बुर्जुआ वर्ग लंबे समय तक सत्ता पर काबिज नहीं रह पाएगा. इसलिए कि वह गरीब और विपन्न वर्गों को अपने दम पर अपने राज्य में सहने की सहूलियत नहीं देता, बल्कि उनके बल पर अपने लिए सुविधाओं का अंबार लगा लेता है. इससे श्रमिक वर्ग के मन में आक्रोश पैदा होता है, जो लगातार बढ़ता जाता है, जो एक दिन बुर्जुआ वर्ग के सत्ताच्युत होने का कारण बनता है. हालांकि पूंजीवादी देशों में ऐसी खबरें प्रायः छन-छनकर ही सामने आ पाती हैं. पूंजीपतियों से अस्थि-मज्जा प्राप्त मीडिया तथा उन्हीं के दम पर पलने वाली सरकारें, उनपर पर्दा डालने का काम करती हैं. 2007 में छाई मंदी से ठीक पहले पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री-विचारक उदार आर्थिक नीतियों का गुणगान करते नहीं थकते थे. 1995-1996 के
पूंजीवाद के सुनहरे दौर में जब बड़ी कंपनियां अपेक्षाकृत छोटी कंपनियों का
अधिग्रहण कर अपने विस्तारवादी मंसूबों को अंजाम दे रही थीं, उस समय संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक बेरोजगारों की संख्या 12 करोड़ से भी अधिक थी. ये वे आंकड़े थे, जो पूंजीपतियों के आसरे फलने-फूलने वाले मीडिया ने दिए थे. वास्तविक स्थिति और भी भयावह एवं चिंताजनक है. यदि
अस्थायी और ठेके पर अल्पावधि के लिए काम करने वाले कर्मचारियों को भी
बेरोजगारों की श्रेणी में रख लिया जाए तो दुनिया के कुल बेरोजगारों की
संख्या एक अरब से ज्यादा हो सकती है.
संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी यूरोप में बेरोजगारों की संख्या दो करोड़ से भी अधिक थी, जो वहां की कुल जनसंख्या का करीब 10.6 प्रतिशत हैं. यही हाल यूरोप के ‘लौहपुरुष’(स्ट्रांग मैन) कहे जाने वाले जर्मनी का था, वहां हिटलर के पतन के बाद पहली बार बेरोजगारों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई थी और वह एक झटके में पचास लाख को पार कर चुकी थी. इनमें भी सबसे अधिक आश्चर्यजनक जापान की हालत है. अपनी वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति से पूरे विश्व को चैंका देने वाले जापान में 1930 के बाद पहली बार बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई. हालांकि सरकारी आंकड़े वहां तीन प्रतिशत बेरोजगारी की बात स्वीकारते हैं, मगर वास्तविक बेरोजारों की संख्या का, कुल जनसंख्या का आठ से दस प्रतिशत होना, चिंताजनक स्थिति है. बढ़ती बेरोजगारी ने इस बार उन क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है, जो इससे पहले रोजगार की दृष्टि से अत्यंत सुरक्षित और लाभदायक समझे जाते थे. इनमें अध्यापक, नर्स, डाॅक्टर, बैंक कर्मचारी, वकील आदि सम्मिलित हैं, जो अपनी व्यावसायिक योग्यता के दम पर रोजगार पाते रहे थे. 2007 के बाद तो बेरोजगारी ने युवाओं की कमर ही तोड़ दी है. अमेरिका, यूरोप आदि के देशों में बैंकों और बड़े उद्योगों के बंद अथवा दिवालिया होने के बाद दुनिया-भर के श्रमिकों-कामगारों को छंटनी का शिकार होना पड़ा. उनकी संख्या करोड़ों में है.
उदार अर्थनीति की विडंबना है कि आर्थिक प्रगति का लाभ जहां चंद विकसित देश ही उठा पा रहे थे, जबकि छंटनी और दिवालियेपन का असर प्रायः छोटी और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को ही झेलना पड़ा है. इससे मार्क्स का यह कथन एक बार फिर प्रासंगिक लगने लगा, जिसमें उसने कहा था कि पूंजीवाद एक वैश्विक व्यवस्था के रूप में विकसित होगा. मगर विश्व-बाजार का अस्तित्व लंबे समय तक टिके रहने वाला नहीं है. इसका अंत सुनिश्चित है. यह हमारे समय का बेहद निर्णायक समय है. सच तो यह है कि हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जिसमें कुछ भी निजी अथवा स्थानीय नहीं है. हमारी अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति यहां तक कि कूटनीति भी स्थानीय नहीं है. सबकुछ वैश्विक और अंतरराष्ट्रीय है. प्रौद्योगिकी प्रेरित अंतरराष्ट्रीयकरण ने हमारी संवेदनाओं को भौंथरा किया है. आजकल युद्ध के समाचार भी तब तक रोमांचित नहीं करते, जब तक कि उनमें अंतरराष्ट्रीयता का पुट न हो. वैसे युद्ध अब राजनीतिक मसला नहीं रहा. बीसवीं शताब्दी ने जितने युद्ध झेले, उनके पीछे बाजार का अधिक हाथ था, जिनमें करोड़ों की जानें गईं. इनमें सबसे आखिरी युद्ध अमेरिका और इराक के बीच था, जिसमें एक महादेश की पूंजीवादी आकांक्षाओं ने अपने से कहीं छोटे देश को पहले तो बदनाम करने की साजिश की. फिर दादागिरी दिखाते हुए उसपर हमला बोल दिया.
यह दादागिरी राजनीति प्रेरित नहीं थी. न उसको देश के नागरिकों का समर्थन प्राप्त था. समर्थन था, पूंजीपतियों का, जो युद्ध में अपने-अपने लाभ देख रहे थे. एक वर्ग को युद्ध की तबाही के बाद उस देश में नवनिर्माण के लिए ठेके मिलने की उम्मीद थी. कुछ का धंधा हथियार बनाने-बेचने का था. वे मानते थे कि युद्ध नवनिर्मित रासायनिक हथियारों के प्रदर्शन का अच्छा अवसर सिद्ध होगा, बाद में उनके ग्राहक भी आएंगे. इन महत्त्वाकांक्षाओं ने एक फलते-फूलते देश को तबाही के गर्त में ढकेल दिया. हैरानी की बात है कि जनता और बुद्धिजीवी उस युद्ध को केवल राजनीतिक मसला समझे रहे. युद्ध के वास्तविक जिम्मेदार व्यक्ति कभी सामने आ ही नहीं पाए. युद्ध से नाराज जनता ने बुश महाराज से कुर्सी तो छीन ली. नई उम्मीदों के साथ नया चेहरा राजनीति में आया. मगर पूंजीवादी मंसूबे खत्म नहीं हुए. यानी युद्ध की संभावनाओं और उससे जुड़ी पूंजीवादी आकांक्षाओं का कोई निदान आज तक नहीं खोजा जा सका.
समस्या है कि पूंजीवाद के इस खेल से बचा कैसे जाए? इसका एक ही हल है. किसी भी तरह किसान, मजदूर और कामगार वर्ग अपने-अपने हितों की रक्षा में एकजुट हों. अपनी वास्तविक जरूरतों का आकलन करें. उपलब्ध संसाधनों को जांचे परखें. तत्पश्चात अनुकूल प्रौद्योगिकी का चयन कर उत्पादन की जिम्मेदारी स्वयं संभालें. प्रौद्योगिकी भी ऐसी हो जो समूह के सदस्यों की कुशलता का उपयोग कर, उन्हें आर्थिक-सामाजिक रूप में आत्मनिर्भर बनाती हो. लेकिन क्या यह इतना ही आसान है? आजकल सामान्य समझबूझ वाला बुद्धिजीवी भी मानता है कि उद्योगों को बंधन-मुक्त होना चाहिए. सरकार उनपर कम से कम नियंत्रण रखे. वैश्विक अर्थव्यवस्था का विकास हो, ताकि उद्योगों को हर जगह एक जैसा वातावरण मिले. सभी देशों में लाइसेंस और परमिट की एक-सी शर्तें, एक जैसे विधान हों. व्यवस्था हो कि उद्योगों को समाज के बहुसंख्यक वर्ग के विकास के लिए काम करने की पूरी-पूरी छूट मिले. साथ में आवश्यक सुविधाएं भी. ऐसे में कैसे संभव है, पूंजीवाद के संकट से बच पाना. खासकर तब जब पूंजीवाद लगातार मजबूत और हिंò होता जा रहा हो. श्रमिक शोषण के नए-नए रास्ते खोजे जा रहे हों. शोध का क्षेत्र पूंजीपतियों के हाथ में चले जाने से सारी प्रतिभाएं, सारे के सारे पेटेंट पहले से ही उनके हाथों में जा ही चुके हैं. पूंजीपतियों के लिए तो वैश्वीकरण भी एक अवसर है. यह वैश्वीकरण भी निरापद कहां है? इससे
बड़ी विडंबना भला और क्या होगी कि पिछली शताब्दी में भूमंडलीकरण एवं
अर्थव्यवस्था के अंतरराष्ट्रीयकरण की तमाम सूचनाओं के बावजूद भारत में
आर्थिक विसंगतियां सिर चढ़कर बोल रही हैं. देश में रोजगार के जितने अवसर बढ़े हैं, बेरोजगारों की संख्या उससे कहीं अधिक बढ़ी है. उससे कहीं तेजी से देश में आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है.
पूंजीवाद के अंतरराष्ट्रीय फैलाव के कारण विभिन्न देशों के आंतरिक और बाह्यः तनावों में भी वृद्धि हुई है. राज्यों के विरोधाभास और भी खुलकर सामने आए हैं. पूंजी का खिंचाव अतिविकसित देशों की ओर बढ़ता ही जा रहा है. हालात को समझने के लिए सिर्फ एक उदाहरण पर्याप्त होगा. 1987 में संयुक्त राज्य अमेरिका अपने कुल सालाना बजट का मात्र छह प्रतिशत हिस्सा निर्यात के माध्यम से जुटाता था. 1997 में निर्यात का हिस्सा बढ़कर 13 प्रतिशत यानी दुगुने से भी अधिक हो चुका था. इकीसवीं शताब्दी की दहलीज पर सरकार की योजना 22 प्रतिशत के लक्ष्य को पाने की है. इससे अमेरिका जैसे विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के रहस्य को समझा जा सकता है. विकसित देशों के पास तो पूंजी है, संसाधन हैं, इसलिए वे अपने उत्पादों के लिए बाजार की सतत खोज में रहते हैं. ऐसी तकनीक की खोज में रहते हैं, जिसकी स्थापना लागत भले ही अधिक हो, मगर जिसके माध्यम से उत्पादन व्यवस्था का अधिकाधिक स्वचालीकरण कर सकें. स्वचालीकरण की तीव्र प्रक्रिया में स्थापना लागत भले ही अपेक्षाकृत अधिक हो, मगर उत्पादन-वृद्धि और प्रचालन लागत में भारी कमी से उद्योगपति को दीर्घकालिक लाभ मिलता है. दूसरी ओर श्रमिकों पर निर्भरता में लगातार गिरावट आती है. इससे पूंजीपति लगातार ताकतवर होता है और श्रमिक कमजोर.
इस स्थिति को मार्क्स ने 1848 में ही भांप लिया था. कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने लिखा था—
‘सघन मशीनीकरण तथा श्रम-विभाजन की त्वरित प्रक्रिया में सर्वहारा काम के दौरान अपनी समस्त कार्य-कौशल और विशिष्टताएं खो बैठता है. इसका प्रतिकूल प्रभाव उसकी कार्यक्षमता पर पड़ता है. उसका उल्लास धीरे-धीरे कम होने लगता है. एक दिन वह मशीनों का आश्रित बनकर रह जाता है. पूंजीवादी समाजों में श्रमिक के कौशल को कुंद करने, उसको मशीनों का दास बनाने की सर्वाधिक सरल और प्रचलित चाल है. इससे श्रमिक की उत्पादन लागत को लगभग पूरी तरह से, उसकी रोजमर्रा की आवश्यकताओं तक, सिर्फ उन आवश्यकताओं तक जिनसे वह अपना भरण-पोषण कर, कल-कारखानों के लिए मजदूरों की नई फसल पैदा कर सके, सीमित कर दिया जाता है. चूंकि किसी उपभोक्ता वस्तु, साथ ही उसके श्रम की कीमत उत्पादन लागत के तय होती है. अतएव जैसे-जैसे श्रमिक का उत्पादन से मोहभंग बढ़ता है, काम के प्रति उसका विकर्षण बढ़ता जाता है. दूसरी ओर उसकी वृत्तिका भी उसी अनुपात में गिरती चली जाती है. इसी के साथ कामगार के ऊपर, चाहे वह कार्यघंटों में हुई बढ़ोत्तरी के कारण हो या तय समय-सीमा में अधिक काम देने के दबाव का मामला, अथवा उच्च उत्पादन-क्षमता युक्त मशीनरी के साथ काम करने के कारण उसके साथ तालमेल बनाए रखने की चुनौती—श्रम का दबाव भी लगातार बढ़ता जाता है.
सोवियत संघ के अवसान के बाद भारत आदि देशों में अमेरिकापरस्त अर्थशास्त्रियों एवं बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग पैदा हुआ है, जिसने पूंजीवाद को लगभग अपरिहार्य और विकल्पहीन मान लिया है. स्वयं अमेरिका की क्या स्थिति है, इस बारे में बहुत अधिक समाचार मीडिया में नहीं दिए जाते हैं. यह भी कहा जा सकता है कि अपने पूंजीवादी संबंधों की लाज रखने के लिए मीडिया उनपर पर्दा डाले रखता है. वस्तुतः आधुनिक अमेरिका की वही हालत है, जो मार्क्स के समय में तत्कालीन सर्वाधिक विकसित पूंजीवादी देश ब्रिटेन की थी. अंतर केवल इतना है कि ब्रिटेन अपने उपनिवेशों के दोहन के लिए राजनीति का सहारा लेता था, अमेरिका यह काम अपनी अर्थसत्ता के माध्यम से करता है. उसने पूरी दुनिया में अपने आर्थिक उपनिवेश बसाए हुए हैं, जिनपर वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के माध्यम से राज करता है. उपनिवेशों के शोषण में बौद्धिक संपदा जैसे कानून उसके मददगार सिद्ध होते हैं. इसके बावजूद हालात संतोषजनक नहीं हैं. आक्रोश भीतर ही भीतर भड़क रहा है. इसके पीछे अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वे विसंगतियां हैं, जो धीरे-धीरे सामने आ रही हैं. ऐलेन वुड के अनुसार अमेरिका में—
‘गत बीस वर्षों के दौरान अमेरिकी श्रमिकों की वास्तविक मजदूरों में बीस प्रतिशत तक की भारी गिरावट दर्ज हुई है, दूसरी ओर उन्हें पहले की अपेक्षा प्रतिदिन दस प्रतिशत अधिक काम करना पड़ता है. कहा जा सकता है कि अमेरिका की औद्योगिक क्रांति वहां के श्रमिक वर्ग के हितों पर कुठाराघात के बाद संभव हो सकी है. उदाहरणार्थ, एक अमेरिकी कर्मचारी को एक वर्ष में औसतन 168 घंटे ओवरटाइम करना पड़ता है, जो एक महीने के कार्य के बराबर है. अमेरिकी आॅटोमोबाइल उद्योग के लिए यह विशेषरूप में सही है, जहां एक कार्यदिवस में नौ घंटे और सप्ताह में छह दिन कार्य करने का प्रावधान है. अमेरिकी मजदूर संगठनों के अनुसार यदि वहां कार्य-सप्ताह को चालीस घंटों तक सीमित कर दिया जाए तो मात्र इसी से 59,000 नए रोजगार अवसर पैदा किए जा सकते हैं.’
ऐसा नहीं है कि अपने शोषण के विरोध में श्रमिकों में कोई चेतना या सुगबुगाहट न हो. बल्कि वहां आवाजें उठने लगी हैं. करीब पंद्रह वर्ष पहले 24 अक्टूबर, 1994 को टाइम पत्रिका में प्रकाशित एक आलेख में पूंजीवादी शोषण के विरोध में बढ़ते श्रमिक-आक्रोश का उल्लेख किया गया था, जिसमें उन्होंने उदारवाद प्रेरित आर्थिक विस्तार को अपने हितों के प्रतिकूल बताया था. लेख में बताया गया था कि काम के अत्यधिक बोझ के कारण, श्रमिकों की दिनचर्या कारखाने में काम तथा ओवरटाइम करने के बाद घर जाकर नहाने-खाने-सोने और अगली सुबह फिर कारखाने के लिए दौड़ लगाने तक सिमट चुकी है. इसने वहां के सामाजिक जीवन को भी प्रभावित किया है. इससे जहां शिशु जन्म दर में गिरावट दर्ज की गई है, वहीं तलाक की घटनाओं में भी अप्रत्याशित तेजी आई है. जबकि 1980 तक लगातार विकासमान रही जीवन-संभाव्यता, उसके बाद लगभग स्थिर हो गई है. यह स्थिति अमेरिकी समाज के विकास की विडंबना को दर्शाती है. ब्रिटेन का हाल भी इससे भिन्न नहीं है. जब मादाम थैचर वहां की प्रधानमंत्री थीं तो उद्योगों में 25 लाख रोजगार अवसरों में गिरावट दर्ज की गई थी. बावजूद इसके वहां कारखानों के उत्पादन-सामर्थ्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. कामगारों की संख्या में हुई भारी गिरावट के बावजूद उत्पादन स्तर पूर्ववत रहने का कारण केवल उन्नत मशीनों का उपयोग नही है, बल्कि मजदूरों का शोषण भी है. अत्याधुनिक तकनीक भी श्रमिकों के लिए राहतकारी सिद्ध नहीं हुई है. उनकी मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं. श्रमिकों एवं आम जनता को भुलावे में रखने के लिए नए उपकरणों को बड़ी तेजी से एक के बाद कर उतारा जा रहा है. ऐसे उत्पादों के निर्माण पर जोर दिया जा रहा है, जिनका वास्तविक विकास से कोई संबंध ही न हो. लोकतांत्रिक खुलेपन का उपयोग फैशन और नई-नई उपभोक्ता-वस्तुओं के साथ, लोगों को मोबाइल और इंटरनेट पर खुली सेक्स-सामग्री परोसने के लिए किया जा रहा है. तंत्र-मंत्र और जादू-टोने की बढ़ती लोकप्रियता का लाभ उपभोक्ता-सामग्री के प्रचार-प्रसार के लिए किया है. इसका दुष्परिणाम यह है कि समाज में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ रही है.
अमेरिका की भांति ब्रिटेन में भी श्रमिकों को अधिक देर तक कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है. उन्हें उस अवधि का वेतन भी नहीं दिया जाता. यही हाल यूरोप के बाकी देशों का है. वहां भी बड़ी औद्योगिक कंपनियां छोटे उत्पादकों को लीलती जा रही हैं. सबसे धनी और निर्धनतम व्यक्ति के बीच आय का अंतर लगातार बड़ता जा रहा है. भारत समेत ऐशियाई देशों में पूंजीवादी व्यवस्था को लागू हुए अधिक दिन नहीं हुए हैं. पश्चिम का अंधानुकरण करते हुए भारत ने उदार अर्थव्यवस्था को अपनाकर, गत पचीस-तीस वर्ष से पूंजीपतियों को मनमानी करने का अधिकार दे दिया है. इससे पूंजी का तेजी से केंद्र की ओर खिंचाव जारी है. पिछले एक दशक में जहां देश में अरबपतियों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है, वहीं पैंतीस करोड़ नागरिकों को प्रतिदिन बीस रुपये से भी कम आय में जीवनयापन करना पड़ता है. बढ़ते जनाक्रोश के दुष्परिणामस्वरूप पिछले कुछ दिनों से देश में नक्सलवादी गतिविधियां बढ़ी हैं. सरकार और पूंजीपतियों के दबाव में अपनी जमीन और संसाधन लुटा चुके हजारों लोग विद्रोह में व्यवस्था के विरुद्ध हथियारबंद हो उठे हैं. छोटे कारखानों में मजदूरी की बुरी हालत है. वहां बिना किसी नोटिस के कार्यघंटों में 50 प्रतिशत तक वृद्धि हो चुकी थी. इससे पहले जहां श्रमिकों को केवल आठ घंटे काम करना पड़ता था, अब बारह घंटे उतने ही वेतन में काम करना उनकी विवशता बनती जा रही है. यही हालात एशिया के बाकी देशों में हैं. पश्चिम भी इनसे बचा नहीं है. मीडिया पूंजी की इस तानाशाही के विरुद्ध आवाज उठाने के बजाय उसके महिमामंडन में लगा रहता है. स्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार किए बिना उसका प्रयास मार्क्सवाद कठघरे में खड़ा करने का होता है, जिससे अंततः पूंजीवाद ही मजबूत होता है.
यह मार्क्स और ऐंगल्स ही थे, जिन्होंने हमारा परिचय सामाजिक विकास के इस सर्वमान्य और महत्त्वपूर्ण नियम से कराया था, जिसके अनुसार समाज का वर्तमान ढांचा पूंजीपतियों के अनुकूल विकसित हुआ है. यह उसी अवस्था में स्थिर रह सकता है, जब तक समाज की उत्पादक शक्तियां सुरक्षित हैं. कोई भी समाज इससे उस समय तक बच नहीं सकता, जब तक कि वह अपने समस्त संसाधन इस व्यवस्था के विकास के लिए, पूंजीवाद की समृद्धि के निमित्त झोंक नहीं देता. पूंजीवाद के समर्थक अक्सर इस बात का दावा करते हैं कि बाजार की समृद्धि का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंचता है. क्योंकि बाजार सभी को अपनी वस्तु का मूल्यांकन करने तथा उसके अनुसार उसका मूल्य वसूलने का आश्वासन देता है. उनके अनुसार यह व्यवस्था श्रमिक के लिए अधिक लाभकारी है. इसमें वह स्पर्धा का लाभ उठाकर अपने लिए ऐसे नियोक्ता की तलाश की तलाश कर सकता है, जहां उसको अधिकतम वृत्तिका की संभावना हो. यह एक दिवास्वप्न ही है. उन्हें जिस गुण में पंूजीवाद की सार्थकता नजर आती है, दरअसल वही उसकी कमजोरी है. नियम है कि बाजार में पूंजी की ताकत ही सर्वोपरि होती है. इसलिए वहां छोटी पूंजी को बड़ी पूंजी के आगे परास्त होना पड़ता है. किसान और श्रमिक के पास अपना श्रम या वे छोटे संसाधन पूंजी के रूप में होते हैं, जो बाजार में किसी प्रकार की ताकत बनने में नाकाम होते हैं. परिणामस्वरूप अपने मूल्यांकन के लिए वे सदैव दूसरों पर निर्भर रहते हैं, जहां उनकी योग्यता का न्यूनतर मूल्यांकन किया जाता है. यह स्थिति पूंजीवादी शोषण को जन्म देती है.
पूंजी की तानाशाही के चलते हम सिर्फ यह सोचकर तसल्ली कर सकते हैं कि किसी भी अन्य विधान की भांति पूंजीवाद का भी जन्म हुआ है. वह भी दूसरी विचारधाराओं की भांति इतिहास के साथ विकसित हुआ है, और आज वह जिस अवस्था में है, वह उसके चढ़ाव की चरम अवस्था है. यहां से उसका पतन अवश्यंभावी है. यही ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा है. यही मार्क्स के चिंतन का लक्ष्य-बिंदू है. जब हम इस वैज्ञानिक तथ्य को समझ लेते हैं, तो यह समझना भी आसान हो जाता है कि इतिहास घटनाओं की भावहीन, अतार्किक, अनियोजित और आकस्मिक व्यवस्था नहीं है, जिसको चंद लोग अपनी मनमर्जी से हांक सकें. न ही यह कुछ लोगों की गतिविधियों का परिणाम है. बल्कि यहां जो घटता है, वह एक नैसर्गिक व्यवस्था के अनुसार संचालित होता है, जिसकी सुसंगत व्याख्या संभव है.
मार्क्स के ये विचार चाल्र्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से प्रेरित थे, जिसने जीव-जगत को परिवर्तनशील माना था. अपने अध्ययन द्वारा वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि जीव-जंतुओं का भी अपना भूत-वर्तमान और भविष्य होता है. विकासक्रम के दौरान उन्हें एक सतत परिवर्तनशील एवं विकासमान प्रक्रिया से अनिवार्यतः गुजरना पड़ता है. डार्विन
की वैज्ञानिक खोज की सामाजिक विकास के संदर्भ में व्याख्या करते समय
मार्क्स एवं ऐंगल्स का मानना था कि इस सृष्टि में पूर्णतः स्थायी और
अपरिवर्तनशील सत्ता की कल्पना मात्र एक भ्रम है. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जो पूरी तरह स्थायी एवं अपरिवर्तनीय हो. सामाजिक-तंत्र, चाहे जो भी हो, वह मानवीय भावनाओं के सीमित स्वरूप का प्रदर्शन करता है. अपने भरण-पोषण के लिए प्रत्येक समाज उत्पादकता के संसाधनों को अपनाता है. उसके लिए जिन संसाधनों को वह चुनता है, उन्हीं पर उसके विकास की दिशा एवं गति निर्भर करती है. ऐतिहासिक भौतिकवाद का विवेचन करता हुआ मार्क्स अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि वर्तमान समाजों का अभी तक तक इतिहास वर्ग, संघर्ष का इतिहास रहा है.
मजदूर कोरी वितंडा नहीं चाहता. मार्क्स ने उसके हक की बात कही थी. अपने सुख, प्रतिष्ठा और परिवार के भविष्य को दाव पर लगाकर उसने उनके लिए संघर्ष किया था. मजदूर इस तथ्य को जानता है. अतएव मार्क्स उसके लिए देवता हैं. सच तो यह है कि मार्क्स ने हीगेल का द्वंद्ववाद का मानवीकरण किया था. वह उसको आकाश से उतारकर जमीन पर ले आया था. एक तत्ववादी चिंतन को विशुद्ध यथार्थ, लोकोपयोगी चिंतन के रूप में ढाल दिया था. उसका मानना था कि पूंजीवाद का खात्मा श्रमिकों द्वारा उत्पादनतंत्र पर कब्जा कर लेने मात्र से संभव नहीं है. उनके वास्तविक कल्याण के लिए व्यवस्था में आमूल बदलाव जरूरी है. ऐसी व्यवस्था की नींव रखनी होगी जो वर्गहीनता की समर्थक हो. तभी सामाजिक-आर्थिक ऊंच-नीच की खाई को पाटा जा सकता है. मार्क्स के आलोचकों का सोच केवल सत्ता परिवर्तन तक सीमित है. वे व्यवस्था परिवर्तन के संकल्प से दूर हैं. ऐसे आलोचकों द्वारा मार्क्स की आलोचना की कोई भी बात, उसके चेले-चपाटों की समझ में नहीं आतीं. उन्हें तो गोपियों जैसी साकार भक्ति चाहिए. उद्धव का ज्ञानयोग उनके किसी काम कर नहीं.
मार्क्स अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाजनीति में व्यापक परिवर्तन चाहता था. वह चाहता था कि अर्थनीति का ढांचा मुनाफे के आधार पर नहीं, मानवीय विकास और संवेदनाओं के अनुसार तय किया जाए. मार्क्स के अनुयायी दुनिया को उसी की निगाह से देखते हैं, सिर्फ उसको चाहते हैं. यही उनके लोकप्रिय अथवा अलोकप्रिय होने का कारण है. यही वह गुण है जिसने पूरी दुनिया को दो धु्रवों में बांट रखा है. मार्क्स के चिंतन में सर्वभक्षक पूंजीवाद का विकल्प उपलब्ध है, जिसने पूरी दुनिया की संपदा का प्रवाह विकसित देशों की ओर मोड़ दिया है. कहने को तो तमाम अंतरराष्ट्रीय संधियां देशों के बीच मुक्त व्यापार की बात करती हैं. प्रत्येक देश को यह अधिकार देतीं है कि वह अपने संसाधनों का उपयोग कर अपने उत्पादक सामथ्र्य का अधिक से लाभ उठा सके. मगर व्यवहार में विकसित देशों की अत्याधुनिक तकनीक और विपुल साधनों के आगे स्पर्धा में वे टिक ही नहीं पाते हैं. इसलिए उदार अर्थव्यवस्था का लाभ केवल विकसित देशों के लाभाधिकार तक सीमित होकर रह जाता है. ऐसे में मार्क्स का विश्लेषण हमें पूंजीवाद को गहराई से समझने और उसका सार्थक विकल्प खोजने में मदद कर सकता है.
मार्क्स का सारा जोर पूंजीवाद के चरित्र और उसकी विवेचना को लेकर था. इसी संकल्पना के साथ उसने ‘पूंजी’ की रचना की थी. मार्क्स के निधन के बाद से पिछले 127 वर्षों में पूंजीवाद के चरित्र में व्यापक बदलाव आया है. तो भी उसका मूल चरित्र लगभग वही है, जो उनीसवीं शताब्दी के दौरान था. बल्कि कई मायने में वह पहले से अधिक ताकतवर, क्रूर, उत्पीड़क एवं दुःखदायी हुआ है. स्वचालित प्रौद्योगिकी ने पूंजीपति को पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली तथा निष्ठुर बनाया है. इसकी मार्क्स के जीवनकाल में केवल शुरुआत ही हो पाई थी. हाल के वर्षों में कंप्यूटर-आधारित तकनीक ने मशीनों को इतना कार्यक्षम और स्वचालित बना दिया है, कि अनेक क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मशीनों का नियंत्रण रिमोट के माध्यम से संभव है. उन स्थानों में श्रमिक का कार्य केवल तैयार माल को सुरक्षित रखने या उसको गंतव्य-स्थल तक लाने-ले जाने में सिमट गया है. वह मानवी हस्तकौशल एवं उसके तकनीकी ज्ञान की उपेक्षा करती है. चूंकि मशीनें तकनीकी कौशल की भरपाई आसानी से कर देती हैं, इसलिए पूंजीपति के लिए श्रमिक की भूमिका उत्पादन-कार्य में मात्र सहायक तक सिमटकर रह जाती है. उन्नत प्रौद्योगिकी ने श्रमिकों के मन से ‘उत्पादक-शक्ति’ होने की अनुभूति को छीनकर उन्हें कुंठाग्रस्त करने का काम किया है. श्रम का शोषण करना, अधिलाभ के बड़े हिस्से पर उत्पादक का अधिकार, अपने से छोटे उद्यमियों को स्पर्धा में परास्त कर बाजार पर एकाधिकार कायम कर लेने की इच्छा आदि आधुनिक पूंजीवाद के कुछ ऐसे अवगुण हैं, जो आज भी उनीसवीं शताब्दी के पूंजीवाद से मेल खाते हैं, जिनमें कतई सुधार नहीं हुआ है. इससे भी बड़ी बात यह हुई है कि पूंजीपतियों ने लंबी पहुंच वाले संचार-माध्यमों पर कब्जा करके प्रतिपक्ष की आवाज को न उभरने देने का पूरा-पूरा प्रबंध कर लिया है. कहा जा सकता है कि जिस वैज्ञानिक समाजवाद की परिकल्पना मार्क्स ने की थी, उसकी पहले से कहीं अधिक आवश्यकता आज है.
बावजूद इसके यह एक सामान्य जिज्ञासा का सवाल है कि मार्क्स की आज के संदर्भों में कितनी प्रासंगिकता है. क्या उसके विचारों को इकीसवीं शताब्दी में भी ज्यों का ज्यों अपनाया जा सकता है. दरअसल किसी भी कालखंड में मार्क्स के विचारों को संपूर्णता से आत्मसात नहीं किया गया. इसके कारण स्वयं मार्क्स के लेखन में ही सुरक्षित हैं. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में वह मजदूरों का सक्रिय क्रांति के लिए आवाह्न करता है. अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी उसको संकोच नहीं है. पेरिस की रक्त-रंजित क्रांति और तदनंतर कम्यून की स्थापना के पीछे भी माक्र्सवादी प्रेरणाएं ही थीं. मार्क्स के विचारों के आधार पर ही श्रमिक आंदोलन की नींव रखी गई. यद्यपि बाद में उसका हिंसक क्रांति से मोहभंग होता है और वह आमूल परिवर्तन के लिए, पूंजीवाद से साम्यवाद तक की यात्रा को दो हिस्सों में बांट देता है. उसके अनुसार क्रांति के पहले चरण में श्रमिक संगठन समस्त राजनीतिक और उत्पादनतंत्रों पर अपना अधिकार जमा लेंगे. उसके बाद वे आमूल परिवर्तन के लिए वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए प्रयासरत होंगे.
इतनी स्पष्टता के बावजूद मार्क्स के विचारों को लेकर उसके समर्थकों के बीच आज भी भारी मतभेद हैं. मार्क्स का राजनीतिक-आर्थिक दर्शन दुनिया-भर में ‘मार्क्सवाद ’ के नाम से जाना जाता है, जिसमें वह ऐतिहासिक द्वंद्ववाद के आधार पर पूंजीवाद की तीखी आलोचना करता है. परिवर्तन के लिए वर्गसंघर्ष को अवश्यंभावी मानते हुए उसमें सर्वहारावर्ग की जीत की ओर संकेत करता है. दावा करता है कि पूंजीवाद का अंत निश्चित है, वह अपनी ही कमजोरियों का शिकार होकर एक दिन धराशायी हो जाएगा. मार्क्स के इस विश्वास के बावजूद एक स्वाभाविक-सा प्रश्न यहां उभरता है कि क्या ‘मार्क्सवाद ’ उसकी मान्यताओं का सही-सही प्रतिनिधित्व करता है. इस प्रकार की बहसें नई नहीं हैं. मार्क्स के जीवनकाल में ये आरंभ हो चुकी थीं. शायद
ऐसी ही किसी बहस से तंग आकर अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले मार्क्स ने अपने
साले पाल ला॓फर्ग और फ्रांस के चर्चित श्रमिक नेता जूल्स जूडे पर
‘क्रांतिकारी नारों की सौदेबाजी’ तथा उनका श्रमिकों की संगठित शक्ति में
अविश्वास होने का आरोप लगाया था. उल्लेखनीय है कि जूडे ने अपने सहयोगियों से पार्लियामेंट हा॓ल से वर्गसंघर्ष की शुरुआत करने का प्रस्ताव रखा था, जिसका उसके साथियों ने जो संसदीय तरीकों में विश्वास रखते थे और मिलजुलकर रास्ता निकालने की नीति के समर्थक थे,जमकर विरोध किया था. इस घटना के बाद कुछ लोगों द्वारा यह आरोप लगाने पर कि जूडे ने जो किया, उसके पीछे मार्क्स की ही प्रेरणा थी, मार्क्स ने अपनी प्रतिक्रिया ऐंगल्स को संबोधित एक पत्र में व्यक्त की थी. उसने लिखा था कि—
‘‘यदि यही मार्क्सवाद है तो मैं मार्क्सवादी नहीं हूं.’’
इस तरह मार्क्स के जीवनकाल में ही उसके विचारों के आधार पर समर्थकों के दो दल बन चुके थे. इनमें से एक वर्ग मार्क्स की उपभोक्ता सामग्री, उत्पादन, पूंजी, श्रम आदि को लेकर तर्कसम्मत गवेषणा-सामथ्र्य का प्रशंसक था, जिसके आधार पर उसने ‘दि कैपीटल’ नामक ग्रंथ की रचना की थी. यह पुस्तक साम्यवादी राज्य की अभिकल्पना प्रस्तुत करती थी. मार्क्स
के प्रशंसकों का दूसरा वर्ग ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के साथ गहराई से
जुड़ा था और मानता था कि समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांति अपरिहार्य है. उसके अलावा परिवर्तन का कोई दूसरा रास्ता नहीं है. मार्क्स की मृत्यु के छह वर्ष उपरांत ऐंगल्स ने ‘दूसरा इंटरनेशनल’ की स्थापना की तो उसने भी राजनीतिक प्रतिरोध की नीति को अपनाया था. ‘दूसरा इंटरनेशनल’ को मार्क्स के सहयोग से स्थापित ‘प्रथम इंटरनेशनल’ की अपेक्षा अधिक सफलता प्राप्त हुई थी. रूस में साम्यवादी क्रांति के बीजतत्व ‘दूसरा इंटरनेशनल’ तथा प्रथम विश्वयुद्ध की असंगतियों से उपजे असंतोष का ही परिणाम थे. लेनिन ने स्वयं को मार्क्स के दर्शन और राजनीतिक चिंतन का असली उत्तराधिकारी घोषित करते हुए रूस में बोल्शेविक क्रांति की नींव रखी. दरअसल लेनिन की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी थीं. उसने मार्क्स से उतना ही ग्रहण किया था, जितना उसको अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आवश्यक लगता था. मार्क्स का साम्यवाद सर्वहारा क्रांति से आगे की अवस्था थी. मगर रूस में बोल्शेविक क्रांति पहले चरण पर ही ठहर चुकी थी. बजाय इसके कि मार्क्स के विचारों पर पूरी तरह अमल करते हुए पूर्ण साम्यवाद की स्थापना के प्रयास किए जाएं, रूसी सरकार ने खुद को मारक हथियारों की दौड़ में शामिल कर लिया था. सर्वहारा कल्याण के अनुकूल वैकल्पिक प्रौद्योगिकी की खोज और उसके आधार पर साम्यवाद की स्थापना की ओर किसी का ध्यान ही नहीं था. इससे वहां के नागरिकों के मन में असंतोष पनपा जो अंततः सोवियत संघ के बिखराव का कारण बना. फिर भी यदि करीब अस्सी वर्ष तक रूस में साम्यवाद बना रहा तो इसके पीछे चेखव, गोर्की, दोस्तोयवस्की, अलेक्जांद्र पुश्किन, इवान तुर्गनेव जैसे महान लेखकों का हाथ था, जिसने उस व्यवस्था का एक रूमानी सपना अपने समाज को दिखाया था, जिसकी वास्तविक स्थापना के लिए रूसी समाज दशकों तक प्रतीक्षा करता रहा.
मार्क्स का मानना था कि साम्यवादी क्रांति विकसित औद्योगिक समाजों में ही सफल होगी. फ्रांस, जर्मनी, इंग्लेंड जैसे देशों को जहां औद्योगिक क्रांति फैल चुकी थी उसने साम्यवादी क्रांति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त बताया था. उसका मानना था कि विकसित समाजों में औद्योगिकीकरण के कारण समाज में आर्थिक असमानताओं में वृद्धि होती जाएगी, जो सर्वहारावर्ग को अपनी स्थिति में परिवर्तन के लिए एकजुट होने तथा उत्पीड़क पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने की प्रेरणा देगी. इससे
भिन्न व्लादिमिर लेनिन का विचार था कि साम्राज्यवादी शोषण तथा अनियोजित
एवं असमान आर्थिक विकास के चलते सर्वहारा क्रांति के लिए पिछड़े देशों में
अधिक संभावनाएं हैं. उसका
मानना था कि पूंजीवाद जनित उत्पीड़क स्थितियों तथा आर्थिक असमानता का यह
दबाव अपेक्षाकृत छोटे और पिछड़े समाजों में सर्वहारा क्रांति की अधिक
संभावना पैदा करेगा. वहीं से क्रांति की हवा विकसित देशों की ओर बहेगी, जहां का समाज समाजवाद की स्थापना के तैयार है, तदनंतर वह रूस की ओर बढ़ेगी. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के रूसी संस्करण की भूमिका में भी मार्क्स ने कुछ ऐसी ही संभावना व्यक्त की थी. इस संभावना पर विचार करते हुए कि सार्वजनिक भू-स्वामित्व का अभ्यस्त रूसी समाज क्या साम्यवाद के ऊंचे आदर्शों को अपनाने के आसानी से तैयार होगा, उसने
लिखा था कि संभावना यही है कि यदि रूसी क्रांति पश्चिम में सर्वहारा
क्रांति के लिए प्रेरणा बनती है तो भूमि पर सार्वजनिक अधिकार का मुद्दा
साम्यवाद के विकास का आधारभूत सिद्धांत सिद्ध होगा, इसलिए कि वह साम्यवाद का ही एक रूप है.
मार्क्स का यह विचार कि रूस पश्चिम की साम्यवादी क्रांति का प्रेरणास्रोत बन सकता है, लेनिन और उसके सहयोगी ट्राटस्की के चिंतन-कर्म का आधार बना. ट्राटस्की
और उसके सहयोगी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि पश्चिम में साम्यवादी क्रांति
की असफलता रूसी क्रांति और कालांतर में पश्चिमी देशों में सर्वहारा
क्रांति को प्रेरित करेगी और इस तरह रूस वैश्विक सर्वहारा क्रांति का
सूत्रधार बनेगा. इसी
विचार को आगे बढ़ाते हुए स्टालिन ने ‘एक देशीय समाजवाद’ की परिकल्पना से
छलांग लगाकर विश्वव्यापी सर्वहारा क्रांति के लिए संघर्ष छेड़ने का आवाह्न
किया था. स्टालिन का यह सोच 1930 में लाखों सर्वहारा मजूदरों की मौत का कारण बना, जिसके कारण स्टालिन के विरुद्ध जनाक्रोश फैला. महान
रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने जब स्टालिन के शासनकाल में चलने वाले कारावास
शिविरों की अमानवीय स्थितियों का बयान अपने उपन्यास ‘दि गुलाग आर्किपैलेगो’
में किया तो उनको रूसी शासकों की ओर से तरह-तरह की प्रताड़नाएं दी गईं. इस उपन्यास के लिए सोल्झेनित्सिन को निर्वासन की सजा भी भुगतनी पड़ी. स्टालिन की मृत्यु के बाद रूस की बागडोर जब निकिता ख्रुश्चेव के हाथों में आई तो उसने स्टालिनवाद को विकार मानते हुए, पूरी तरह नकार दिया. सोल्झेनित्सिन का निर्वासन भी समाप्त हुआ. इस तरह उस रक्तरंजित युग का अंत हुआ, जिसमें स्टालिन के नेतृत्व में साम्यवाद अधिनायकवाद का रूप ले चुका था,
रूस की भांति चीन भी कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर था. वहां साम्यवादी क्रांति का अलख जगाने वाला माओ जि दांग था. ‘चीनी
साम्यवादी पार्टी’ के स्थापक चेन दुजियु तथा दझाओ के साथ मिलकर उसने चीन
में साम्यवादी क्रांति के पक्ष में माहौल बनाने के लिए लंबा संघर्ष किया था. वस्तुतः 1925 तक
मार्क्सवादी चीनी नेता मानते आ रहे थे कि शहरी मजदूर ऐतिहासिक द्वंद्ववाद
की भावना को समझकर अपने वर्गीय हितों के लिए आसानी से संगठित हो सकते हैं. इसलिए उनकी वर्गचेतना ही चीन में साम्यवादी क्रांति का सूत्रधार बनेगी. माओ किसान का बेटा था. साम्यवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने से पहले वह छह महीने तक एक क्रांतिकारी संगठन में काम कर चुका था. उसके बाद मार्क्सवाद के अध्ययन के लिए वह उससे अलग हो गया. बीजिंग में अध्ययन के दौरान उसकी भेंट ली दझाओ और चेन दुजियु से हुई. तीनों क्रांति के समर्थक थे तथा लक्ष्य-प्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा लेने से भी उन्हें परहेज नहीं था.
साम्यवादी
क्रांति के लिए संघर्ष करते हुए माओ इस नतीजे पर पहुंचा कि क्रांति की
सफलता के लिए शहरी मजदूरों के बजाय किसानों पर अधिक विश्वास करना चाहिए. इस विचार के लिए माओ को अनेक नेताओं और बुद्धिजीवियों की आलोचना का पात्र बनना पड़ा. परंतु आलोचनाओं से हतोत्साहित हुए बिना माओ किसानों को साथ लेकर माक्र्सवादी क्रांति की सफलता के लिए संघर्ष करता रहा. चीन के गांवों में विद्रोही किसानों को एकजुट करते हुए उसने चीनी सोवियत रिपब्लिक की नींव रखी. उसकी लालसेना ने चियांग केई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी सेना पर हमले आरंभ कर दिए. राष्ट्रवादी सेना की ताकत बड़ी थी. उसको जापान जैसे पड़ोसी देशों का समर्थन भी प्राप्त था. माओ ने छापामार युद्ध की शैली को अपनाया, जिसमें लालसेना को भारी सफलता मिली. बढ़ी हुई ताकत से वह जापानी मदद से लैस राष्ट्रवादी सेना को पराजित करने में सफल रहा. इस जीत ने उसको चीनी मजदूरों और किसानों का निर्विवाद नेता बना दिया. 1931 में उसे चीन की साम्यवादी पार्टी का नेता चुन लिया गया, इस पद पर वह अगले 45 वर्षांे तक बना रहा. अपने उग्र भाषणों से माओ ने चीनी जनता का दिल जीतने में सफलता प्राप्त की. धीरे-धीरे उसकी ताकत बढ़ती गई. एक दिन ऐसा आया जब उसकी ख्याति चीन की सरहदों को पार कर सोवियत संघ पर छाने लगी. सोवियत संघ ने उसके आगे मदद का प्रस्ताव रखा. उस पेशकश को ठुकराते हुए वह अपने ही दम पर मुक्ति-संघर्ष को आगे बढ़ाता रहा.
अंततः 1949 में लंबे गृहयुद्ध के बाद माओ के नेतृत्व में चीन में साम्यवादी सेना को जीत हासिल हुई. उस समय रूस की ओर से नई सरकार को समर्थन के साथ-साथ सहयोग की पेशकश गई. परिणाम की चिंता किए बिना ही माओ ने सोवियत संघ पर आरोप लगाया कि वहां साम्यवादियों के बीच कुछ ‘बुर्जुआ’ घुसपैठ कर चुके हैं. इस आलोचना से नाराज होकर सोवियत संघ ने 1960 में चीन को दी जाने वाली तकनीकी मदद से हाथ खींच लिया. उससे घबराए बिना माओ अपने दम पर चीन को समृद्धि की ओर आगे बढ़ाता रहा. उसकी दृढ़ आस्था थी कि तीसरे देशों में जहां औद्योगिक क्रांति अभी तक सफल नहीं हो पाई है, वहां कृषक संघों की मदद से सर्वहारा क्रांति को सफल बनाया जा सकता है. माओ की सफलता से मार्क्सवाद और लेनिनवाद की कमजोरियों को उजाकर किया था. यहां
बताना प्रासंगिक होगा कि लेनिन के नेतृत्व में सोवियत संघ की सरकार द्वारा
पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष का नारा देते हुए जनाधिकारों की व्यापक
उपेक्षा की गई थी. इसकी भरपाई के लिए माओ ने चीन के अतीत और संस्कृति का सहारा लिया. परिणामस्वरूप वह चीनी समाज को एकता के सूत्र में बांधे रखने में सफल हुआ. उसके विचारों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर माओवाद के नाम से जाना जाता है, जो साम्यवाद की ही सहोदर विचारधारा है.
इकीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता
कुछ देर के लिए मार्क्स को एक सरल रेखा मान लिया जाए तो पूरी दुनिया, उसके दोनों तरफ बंटी मिलेगी. एक दिशा में मार्क्स के समर्थक होंगे, जिनके लिए मार्क्स का एक-एक शब्द पवित्र और बौद्धिक चेतना की धरोहर है. वे मार्क्स के नाम पर, उसके विचारों के लिए अपने खून का एक-एक कतरा बलिदान करने को तत्पर होंगे. दूसरी ओर मार्क्स के आलोचक हैं. जिनके लिए मार्क्स एक दुर्भावना, एक जिद, एक नासमझी-भरा, अड़ियल और प्रतिगामी विचार है. हाल ही में बीबीसी रेडियो सेवा द्वारा ब्रिटेन के सर्वाधिक सम्मानित और प्रतिभाशाली दार्शनिकों का सर्वे कराया गया. उस सर्वे में साम्यवादी मार्क्स ख्याति के मामले में सबसे ऊंचे पायदान पर था. दार्शनिक के रूप में दुनिया-भर में पहचाने वाले नाम यथा प्लेटो, अरस्तु, कांट, डेविड ह्यूम, देकार्त, जान ला॓क जैसे विचारक ख्याति के मामले मे उसके आसपास भी नहीं ठहरते. हीगेल मार्क्स का गुरु, जिससे उसने भौतिक द्वंद्ववाद का सिद्धांत ग्रहण किया था, आश्चर्यजनकरूप से इस सूची में कहीं भी नहीं है. और तो और मार्क्स के समकालीन प्रतिभाशाली दार्शनिकों में से एक भी इस सूची में स्थान पाने में असमर्थ रहा है. आखिर ऐसी कौन-सी बात है, जो मार्क्स को अपने समकालीन और पूर्ववर्ती विचारकों से अलग सिद्ध करती है. मार्क्स ने एक साथ धर्म, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास की गवेषणाएं की हैं. मगर मार्क्स खुद क्या है? दार्शनिक अथवा अर्थशास्त्री? ये सामान्य जिज्ञासा से जुड़े कुछ जरूरी प्रश्न हैं. हालांकि बहुत-से लोगों के लिए मार्क्स एक खलनायक भी है, जो अपने विचारानुकूल समाज के गठन के लिए खुल्लमखुल्ला हिंसा का सहारा लेता है. मगर वे भूल जाते हैं कि सामाजिक परिवर्तन के लिए मार्क्स द्वारा हिंसा का समर्थन उस तरह से नहीं है, जैसे कि पहले राजा-महाराजा अपनी सनक में पड़ोसी राजा पर हमला बोल देते थे. मार्क्स की हिंसा मर्यादित है. वह समाज के बड़े वर्ग के कल्याण के लिए विशेष परिस्थितियों में जब बाकी सभी उपाय असफल सिद्ध हो चुके हों, केवल बुर्जुआ वर्ग को सत्ताच्युत करने के लिए हिंसा का समर्थन करना पसंद करता है. दूसरे पूंजीवादी चंगुल से मुक्ति के लिए हिंसा का समर्थन पेरिस कम्यून की असफलता से पहले की घटना है. पेरिस कम्यून की असफलता के बाद उसके विचारों में बदलाव आया था.
मार्क्स अपने समय की सबसे विवादित हस्तियों में से एक है. उसका रचनात्मक अवदान केवल अकादमिक चिंतन-लेखन तक सीमित नहीं था. उसके लेखन में संघर्ष की लौ थी. हालांकि श्रमिकों के पक्ष में आवाज उठाने वाला वह पहला दार्शनिक-लेखक नहीं था. उससे पहले रूसो जनसामान्य का सबसे बड़ा पैरोकार बनकर उभरा था. राबर्ट ओवेन, विलियम किंग, जोसेफ ब्लेंक आदि दार्शनिक चिंतक भी पूंजीवादी शोषण से उबरने के लिए श्रमिकों मजदूरों को और अधिक सुविधा दिए जाने की मांग कर चुके थे. इसी श्रेणी में चार्टिस्ट आंदोलनकारियों का नाम भी लिया जा सकता है, जिन्होंने जनाधिकारिता के लिए बड़े पैमाने पर वर्षों तक चलने वाला संघर्ष किया था. जनसाधारण के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों के पक्ष में 1838 में एफ. ओ’क्रोनर
एवं विलियम ला॓वेट के नेतृत्व में चले वर्षों लंबे संघर्ष में सैकड़ों
चार्टिस्ट आंदोलनकर्मियों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया था. हजारों को निष्कासन की सजा मिली थी.
स्मरणीय है कि सोहलवीं शताब्दी में आरंभ हुए प्रौद्योगिकीकरण की रफ्तार उनीसवीं शताब्दी आते-आते अत्यधिक तीव्र हो चुकी थी. परंपरागत
शिल्पकारों पर मशीनीकरण की मार तथा उनके संरक्षण के लिए सरकार की ओर से
कोई योजना न होने के कारण ब्रिटेन समेत प्रायः सभी यूरोपीय देशों में
बेरोजगारी का संकट बढ़ा था. गांवों में स्थिति और भी शोचनीय थी. क्योंकि कारखानों में बने सस्ते माल की आमद से स्थानीय उद्योग-धंधे पूरी तरह चौपट हो चुके थे. भीषण गरीबी के कारण माता-पिता अपने बच्चों को उन नारकीय परिस्थितियों में काम पर भेजने के लिए विवश थे, जहां सामान्य स्थितियों काम करने की उनकी हिम्मत भी जवाब दे जाती थी. बाकी मजदूरों, कामगारों यहां तक कि साधारण नौकरीपेशा लोगों की हालत भी संतोषजनक नहीं थी. काम के अत्यधिक बोझ के कारण वे सदैव तनाव में रहते थे. इससे उनकी कार्यकुशलता नकारात्मक रूप से प्रभावित हुई थी. सरकार और प्रशासन पूंजीपतियों के सतत दबाव में रहते थे, इसलिए उनसे मनचाहे फैसले करा लेना, स्थानीय पूंजीपतियों के लिए बहुत आसान था. पूंजी का असमान वितरण, भीषण बेरोजगारी, नगरों में पर्यावरण-संबंधी लगातार बढ़ती समस्याएं आदि अनेक ऐसे कारण थे, जिन्होंने विचारकों के एक बड़े वर्ग को उद्वेलित किया था. पूंजीवाद प्रेरित औद्योगिकीकरण के विरोध में अनेक आंदोलन भी हो चुके थे, जिनमें लाखों श्रमिकों ने सहभागिता की थी. जिन्हें समाज के लाखों श्रमिकों का समर्थन मिला था.
पूंजीवादी शोषण से उबरने के लिए विद्वानों के अलग-अलग सुझाव थे. विचारकों का एक दल सहकारिता के माध्यम से पूंजीवादी उत्पीड़न से उबरने का सपना देख रहा था. इस वर्ग में विलियिम किंग, राबर्ट ओवेन फ्यूरियर जैसे विचारक थे. साहित्यिक प्रेरणाएं भी परिवर्तनकारी आंदोलनों के साथ थीं. उनमें सबसे अग्रणी थे, उस समय के महान उपन्यासकार चाल्र्स डिकेन्स, जिन्होंने अपने उपन्यास ‘दि क्रिसमस कैरोल’ में ब्रिटिश समाज में पनप चुके सूदखोर वर्ग का सशक्त चित्रण किया था. रिकार्डो और एडम स्मिथ आदि अर्थशास्त्रियों का मानना था कि सिर्फ औद्योगिक समृद्धि द्वारा गरीबी से लड़ा जा सकता है. सरकार को चाहिए कि उत्पादन और विपणन से जुड़े मामले पूंजीपतियों और उद्यमियों के हवाले कर दे, ताकि वे परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय लेने में सक्षम हों.
संगठित आंदोलन को मुक्ति का आधार मानने वाले विचारकों के भी दो अलग-अलग वर्ग थे. उनमें से एक धड़ा सहकारिता आंदोलन के समर्थक विद्वानों एवं कार्यकर्ताओं का था, जो सफलता के लिए सहयोग को स्पर्धा से अधिक कारगर और उपयोगी मानते थे. दूसरे धड़े के विचारक मानते थे कि पूंजीवाद से मुक्ति के लिए पूंजीपतियों को कमजोर करना जरूरी है. यह केवल संगठित ताकत के बल पर संभव है. इसके लिए हिंसा का सहारा लेने में भी उन्हें संकोच नहीं था. प्रूधों, मार्क्स, ब्लेंक, बकुनाइन, ऐंगल्स आदि विद्वान पूंजीवाद के उग्र विरोधियों में आते थे.
उल्लेखनीय है कि मार्क्स से पहले ही हीगेल द्वंद्ववाद की सार्थकता को स्थापित कर चुका था. विचारक उसके विचारों की भांति-भांति से व्याख्या कर रहे थे. बल्कि उसके विचारों की व्याख्या के लिए ही दार्शनिकों के अलग-अलग गुट बन चुके थे. ऐसे में मार्क्स ने द्वंद्ववाद की विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टिकोण से विवेचना कर, सत और असत् का भौतिकीकरण कर दिया. मार्क्स के दर्शन में श्रमिक वर्ग ‘सत्’ का पर्याय था, जो अपने श्रम-कौशल के आधार पर उत्पादन कार्य में प्रमुख भूमिका निभाता है. जो सही मायने में उत्पादक है. पूंजीपति वर्ग ‘असत्’ का प्रतीक है, जो दूसरों के श्रम को अपना बताकर मुनाफे का अधिकांश हिस्सा स्वयं हड़प जाता है, जिससे धनी लगातार धनवान तथा गरीब लगातार अधिक गरीब होता जाता है. परिणामस्वरूप समाज में अस्थिरता और असमानता बढ़ती है.
समाज में व्याप्त आर्थिक वैषम्य से निपटने के लिए भी विद्वानों के अलग-अलग विचार थे. एक वर्ग का मानना था कि समाज में आर्थिक समानता स्थापित करना सरकार का दायित्व है, अतः सरकार को श्रमिकों के हितों की सुरक्षा हेतु समुचित कानून बनाने चाहिए. दूसरे वर्ग का विश्वास था कि पूंजीवाद का सामना केवल संगठित शक्ति द्वारा ही संभव है. इस वर्ग का सुझाव था कि श्रमिकों, छोटे उद्यमियों और व्यवसायियों को अपने-अपने संगठन बनाकर सहकार के माध्यम से पूंजीवाद के विरुद्ध सार्थक समर छेड़ा जा सकता है. इनसे अलग एक वर्ग कतिपय उदारपंथी विचारकों का था, उनका
मानना था कि मनुष्यता के नाते पूंजीपति को स्वयं आगे आकर समाज के बड़े
वर्ग के पक्ष में अतिरिक्त संपत्ति का परित्याग करना चाहिए. बहुत बाद में गांधी जी ने इसी भावना को ‘ट्रस्टीशिप’ के सिद्धांत के रूप में प्रकट किया था.
मार्क्स का विचार था कि स्वार्थी पूंजीपतियों को मनाना, उन्हें नैतिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करना आसान नहीं है. ऐसे में शोषण से मुक्ति का एक ही उपाय है कि श्रमिकवर्ग संगठित होकर स्वार्थी पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा कर दे. जिस दौर में मार्क्स यह घोषणा कर रहा था, वही दौर अस्मितावादी आंदोलन के उदय का भी था. फ्रांस में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी. उसकी देखादेखी यूरोप के अन्य देशों में भी लोकतंत्र की मांग जोर पकड़ रही थी. ऐसे में मार्क्स का दर्शन लोगों को पे्ररित करने के लिए पर्याप्त था. अतएव जहां-जहां मशीनीकरण जोर पकड़ चुका था, जहां-जहां सामंत और जागीरदारी प्रथा शेष थी, वहां पर श्रमिक वर्ग माक्र्सवादी विचारधारा के अनुरूप संगठित होता चला गया. दूसरी ओर अमेरिका और यूरोप के दिन देशों में पूंजीवाद अपनी जड़ जमाए था, वहां मार्क्सवादी विचारधारा के ठीक विपरीत प्रतिक्रिया हुई. मीडिया और सरकार के सहयोग से वहां मार्क्स के कटुआलोचकों का वर्ग पनपा. मगर इस द्वंद्वात्मकता में मार्क्स की चर्चा दोनों ही पक्षों में होती रही.
मार्क्स के विचारों की वर्तमान संदर्भों में क्या प्रासंगिकता है! उसको अर्थशास्त्री माना जाए या दार्शनिक? या फिर राजनीतिक चिंतक? मार्क्स की ख्याति एक दार्शनिक के रूप में भी रही है. हालांकि उसका दर्शन के क्षेत्र में विशेष मौलिक योगदान बहुत कम है. धर्म को लेकर आलोचना फायरबाख और बायर से प्रभावित है. द्वंद्ववाद पर हीगेल उससे पहले ही गंभीर चिंतन कर चुका था, और वह दर्शनशास्त्र की प्रामाणिक धारा के रूप में मान्य हो चुका था. तत्वमीमांसा से वह कोसों दूर था. तो फिर वह कौन-सी बात है, जो मार्क्स को जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों के बीच एकाएक जनता का नायक बना देती है. मार्क्स मूल रूप से अर्थशास्त्री था. बल्कि कहना चाहिए कि एडम स्मिथ के बाद मार्क्स ही वह अर्थशास्त्री है, जिसने पूरी दुनिया को प्रभावित करने में सफलता प्राप्त की थी. सच तो यह है कि मार्क्स का अर्थचिंतन एडम स्मिथ के मुक्त अर्थतंत्र को उसका खरा जवाब था. एडम स्मिथ ने अपने सिद्धांत ‘लेजेज फेयर’ द्वारा सरकारों से पूंजीपतियों के रास्ते से हट जाने का आवाह्न किया था. कहा था कि उद्योगों से सरकारी नियंत्रण हटाओ. पूंजीपतियों को निर्बंध ‘अपना काम करने दो.’
एडम स्मिथ की खुली अर्थव्यवस्था के विचार की आलोचना करते हुए मार्क्स ने कहा था कि औद्योगिक उदारता श्रमशोषण के दम पर ही संभव है. नियंत्रणहीन पूंजीवाद को उसने पूंजी का अराजक खेल माना, जिसमें उद्योगपतियों की भले चांदी कटे, मगर मजदूरों का शोषण बढ़ता ही जाता है. स्पर्धा में बने रहने के लिए पूंजीपति वर्ग मजदूरों की मजदूरी कम करता जाता है. कम वृत्तिका और महंगाई मिलकर मजदूरों और कामगारों के जीवन को उत्तरोत्तर कठिन बनाती है. नई प्रौद्योगिकी सिर्फ अमीरों का बैंक बैलेंस बढ़ाती है. और मजदूर की गरीबी, बेबसी तथा दुर्दशा. स्मिथ के कथन कि ‘उन्हें अपना काम करने दो’ के बदले में मार्क्स का कहना था कि ‘श्रमिकों को उनका हक दो’. हालांकि वह यह भी मानता था कि स्वार्थ में डूबे पूंजीपति श्रमिकों को उनका अधिकार आसानी से देने को तैयार नहीं होंगे. इसलिए वह संगठित विरोध का हिमायती था. उसने आवाह्न किया था कि शोषणकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ. तुम्हारे पास हुनर है. काम करने का सामथ्र्य, इच्छाशक्ति और लग्न है. साथ में वर्षों का अनुभव भी. अपनी ताकत, संगठन की ताकत, अपने कौशल और क्षमताओं को पहचानो, एकजुट होकर उत्पादन-व्यवस्था को अपने हाथ में ले लो. कौटिक हाथ मिलकर अपने भविष्य का स्वयं निर्माण करो. उत्पादन का माध्यम बनने से, दूसरों के लिए पसीना बहाने से अच्छा है कि स्वयं उत्पादक बनो. आगे बढ़ो. तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है, मगर जीतने के लिए पूरी दुनिया पड़ी है. कफ और बलगम भरी छाती से निकले मार्क्स के ये भरभराते शब्द विश्व-भर के कोटिक श्रमिकों के कंठ से निकली आवाज बन गए. ईसाइयों ने इन शब्दों को पवित्र बाइबिल की वाणी माना, हिंदु ने गीता की अमर सूक्तियां. मुस्लिमों इन्हें कुरआन की महान आदेश मानकर संगठित होने लगे. मार्क्सवाद जन-मन की भाषा बन गया.
इकीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद की प्रासंगिकता क्या है? बाजारवाद के इस दौर में जब पूंजीवाद बेलगाम और करीब-करीब अराजक हो चुका है, मार्क्स के विचार कितनी दूर तक हमारा साथ दे सकते हैं? इस बारे में परस्पर-विरोधी मत सुने जा सकते हैं. मार्क्सवाद के आलोचकों ने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही मान लिया था कि उसका पतन अवश्यंभावी है. मार्क्सवाद के सबसे बड़े गढ़ सोवियत संघ का बिखरना उन्हें अपने निष्कर्ष पर मुहर लगने जैसा प्रतीत होता है. उन्होंने बार-बार कहा था, बल्कि आज भी यही दावा करते हैं कि मार्क्सवाद के दिन लद चुके हैं. समाजवाद का सपना बीते जमाने की बात हुई. उनके अनुसार यह जानकर भी जो उससे उम्मीद लगाए बैठे हैं, वे स्वप्नदृष्टा, कल्पनाजीवी हैं. उन भोले बच्चों की तरह हैं जिनकी दुनिया लालीपाप में समाई होती है. पर क्या संभव है किसी विचार का यूं ही एकाएक मर जाना?
यदि कोई पेरिस कम्यून की असफलता या सोवियत संघ के बिखरते जाने जैसी घटनाओं से ही उस विचार को अप्रासंगिक और समय-बाह्यः मान बैठे और पूंजीवाद की सार्वकालिक जीत का दावा करने लगे तो यह उसकी नादानी ही कही जाएगी. इसलिए कि साम्यवाद नैतिकता और आदर्शवादी पहचान से युक्त एक अवस्था है, जिसकी संकल्पना लोकगीतों, धार्मिक-सामाजिक आख्यानों, कवि-लेखकों-साहित्यकारों के मानवतावादी सोच से प्रेरणा पाती है. पेरिस कम्यून में श्रमिक संगठनों और नागरिक सेना की जीत के फलस्वरूप जो अल्पकालिक सरकार बनी थी, उसके अपने मतभेद और आपसी अविश्वास थे. साथ में क्रांति का श्रेय लेने की, दूसरों पर छा जाने की आदिम लालसा भी थी. जो एक तरह से प्राचीन साम्राज्यवाद, सामंतवाद, कुलीनतावाद, ब्राह्मणवाद, यहां तक कि पूंजीवादी वर्चस्व का पर्याय थी.
क्रांति के जुनून में उन्होंने सबकुछ उलट-पलट तो दिया था, जोश-जोश में जनोन्मुखी व्यवस्था कायम करने की शुरुआती कोशिश भी की. किंतु आपसी मतभेद और तनाव के कारण वे ऐसा कोई तंत्र विकसित करने में असफल सिद्ध हुए थे, जो साम्यवादी मान्यताओं के अनुरूप एक दीर्घगामी व्यवस्था के गठन में सहायक बनता. पेरिस-क्रांति के दो प्रमुख सूत्रधारों, मार्क्स और बेकुनिन के मतभेद तो जगजाहिर हैं ही. मार्क्स को लगता था कि क्रांति की सफलता के बाद बेकुनिन अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाना चाहता है. जबकि बेकुनिन का मानना था कि मार्क्स की बढ़ती हुई भूमिका पेरिस में यहूदीवाद को बढ़ावा देगी. इसी प्रकार के मतभेदों के चलते साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताकतों के मनसूबों को भांपने में असफल रहे थे. परिणाम यह हुआ था कम्यून पर फिर सशस्त्र सेनाओं का हमला हुआ और राजशाही दुबारी सत्ता पर काबिज होने में कामयाब हुई. व्लादिमिर लेनिन के पेरिस कम्यून की असफलता के कारणों को चिह्नित किया है. एक समाचारपत्र में लिए लिखे गए लेख ‘पेरिस कम्यून का पाठ’ में उसने लिखा था कि कम्यून के नेताओं की—
‘केवल दो बड़ी गलतियों ने उस दमदमाती ऐतिहासिक विजय के लाभों पर पानी फेर दिया. सच तो यह है कि सर्वहारा वर्ग के नेता आधे रास्ते पर ही आराम फरमाने लगे थे. अवैद्य कब्जाधारकों की संपत्ति का अधिग्रहण करके न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के करने के बजाय वे कुछ लोकप्रिय राष्ट्रीय मुद्दों के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास करते रहे. बैंक और ऐसे ही दूसरे अन्य संस्थानों का अधिग्रहण, जो बहुत जरूरी था, नहीं किया गया. सर्वहारा वर्ग के शासकों की दूसरी बड़ी भूल उनकी अतिशय दयालुता थी, जिसके कारण अपने दुश्मनों को कुचलने के बजाय वे उनके साथ दयालुतापूर्ण व्यवहार कर, उनके हृदय-परिवर्तन की उम्मीद करते रहे. जनक्रांति में सीधी सैन्य कार्रवाही की उपयोगिता को उन्होंने बहुत कम करके आंका था. बजाय इसके कि पेरिस के पूर्वशासकों से अपनी सुरक्षा के ठोस और पुख्ता इंतजाम करते, उन्होंने उन्हें आराम से दुबारा ताकत बटोरने का पूरा-पूरा अवसर दिया, जो मई महीने के भीषण खून-खराबे का कारण बना.’
कुछ ऐसा ही रूस में हुआ था. पेरिस क्रांति की असफलता ने मार्क्स को अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार का अवसर दिया था. सशस्त्र विद्रोह से उसका विश्वास घटा था. राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक अधिनायकवाद से दीर्घकालिक मुक्ति के नए रास्तों की खोज का सुफल ‘दि कैपीटल’ के रूप में सामने आया था, जिसे उसने इतिहास, दर्शन, राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि गहन अध्ययन के बाद लिखा था. पुस्तक में उसने वर्गहीन समाज की परिकल्पना की थी. स्मरणीय है कि पेरिस कम्यून को मार्क्स ने ‘सर्वहारा का अधिनायकवाद’ की संज्ञा दी थी. वह उसको साम्यवाद की स्थापना की दिशा में पहला चरण मानता था. साम्यवाद की परिकल्पना इस सोच पर आधारित थी कि द्वंद्व की स्थिति विपरीत शक्तियों में ही संभव है. उनसे बचाव का एक ही उपाय है कि समाज में शक्तिकेंद्र ही न रहें. इसलिए श्रमिक वर्ग सत्ता को हाथ में ले. मगर सत्ता हस्तांतरण से ही उसका काम पूरा नहीं हो जाता. उसके लिए आवश्यक है कि समाज में वर्गहीनता की स्थापना के प्रयास भी साथ ही आरंभ कर दिए जाएं. एक समरस समाज की स्थापना, साम्य की स्थापना उनका ध्येय हो, ऐसा उसने कहा था.
रूस में जो हुआ, वह क्रांति का पहला चरण था. वहां लेनिन के नेतृत्व में जारशाही के विरुद्ध संघर्ष का आवाहन किया गया था. जिसमें मजदूर वर्गों को जीत मिली और जारशाही के स्थान पर श्रमिकों की सरकार अस्तित्व में आई. अपने दायित्व को समझते उसने समाज के पुननिर्माण पर जोर दिया. उसका सुखद परिणाम भी मिला. क्रांति के समय रूस की हालत भारत से कहीं बदतर थी. देखते ही देखते वहां विकास का ऐसा दौर चला कि पचास-साठ वर्षों में उसने स्वयं को विश्व की दूसरी महाशक्ति के रूप में स्थापित कर लिया. बस यही उसकी विड़बना थी. क्रांति
का पहला चरण पार कर सत्ता पर अधिकार जमा लेने के बाद उसकी कोशिश द्वंद्व
की समस्त संभावनाओं को मेटने के लिए जहां वर्गहीन समाज की स्थापना करना था, वहीं उसने खुद को द्वंद्व में झोंकना प्रारंभ कर दिया. सोवियत सरकार असल में तलवार से तराजू का काम लेना चाहती थी. घोषित रूप उसका लक्ष्य साम्यवाद था, मगर असल में थी विरोधियों को परास्त कर, नंबर एक पर बने रहने की कामना. वह दुहाई न्याय की देती थी, मगर अपने नागरिकों के खून-पसीने की कमाई को, हथियारों और अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को विस्तार देने पर खर्च कर रही थी.
इन परिस्थितियों में भी रूस लंबे समय तक साम्यवादी बना रहा तो इसलिए कि मार्क्स ने अपने समर्थक लेखकों-बुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग पैदा किया था, जिनमें गोर्की, चेखव, टालस्टाय, दोस्तोयवस्की आदि महान साहित्यकार सम्मिलित थे. जो साम्यवादी विचारधारा के अनुरूप लगातार सारगर्भित और प्रतिबद्ध लेखन कर रहे थे. इससे वहां के जनमानस में साम्यवाद के प्रति आस्था बनी रही. बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रतिबद्ध साहित्य की चमक-दमक खासकर उसमें नए चेहरों की आमद घटती चली गई. वहीं सरकार ने खुद को और भी महत्त्वाकांक्षी बना लिया था. साम्यवादी नीतियों के अनुरूप वर्गहीन समाज की स्थापना पर जोर देने के बजाय, सरकार अपने संसाधन पूंजीवाद के पर्याय बन चुके अमेरिका को परास्त करने पर तुली हुई थी. यह मजदूरों के दम पर बनी सरकार का वैभव प्रेम था. ब्राजील के दर्शनशास्त्री पाउलो फ्रेरा ने बड़े काम की बात कही है. ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’ में उसने लिखा है कि आमूल परिवर्तन के पहले दौर में, जिसको परिवर्तन की अपरिपक्व अवस्था भी कहते हैं, उत्पीड़ित अवसर मिलते ही वही करता है, जैसा उसने उत्पीड़क को करते हुए देखा है. इस अवस्था में उत्पीड़क और उत्पीड़ित की सिर्फ भूमिकाएं और सिर्फ चेहरे बदलते हैं, स्थितियां नहीं. इसलिए परिवर्तनकामी शक्तियों को, उन शक्तियों को समाज में वास्तविक परिवर्तन की चाहत रखती हैं, प्रारंभिक सफलता के साथ ही रुक नहीं जाना चाहिए. बल्कि आमूल परिवर्तन की कोशिश पहली सफलता के साथ ही आरंभ कर देनी चाहिए. सोवियत संघ के शासकों से भी यही अपेक्षित था कि वे साम्राज्यवादी गतिविधियों में उलझने के बजाय एक नीति-आधारित समाज की स्थापना पर जोर देते. ताकि वर्गहीन समाज की स्थापना संभव हो सके.
रूसी शासक यह भूल चुके थे कि जनता की सोचने की शक्ति भले ही धीमी हो, मगर उसमें छोटे वैचारिक परिवर्तन भी दूरगामी महत्त्व के सिद्ध होते हैं. पूंजीवादी सरकार में हथियारों के निर्माण से लेकर शोध तक का सारा काम पूंजीपति करते हैं. इसके लिए वे श्रमिकों का ऐसे ही शोषण करते हैं, जैसे कि बाकी अन्य उद्योग. लेकिन उनमें काम करने वाला श्रमिक बिना किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के, सिर्फ आजीविका की खोज में उनके साथ जुड़ता है. असहमति अथवा असंतुष्टि की अवस्था में वह जब चाहे तब उसको छोड़कर अन्य उद्योग के साथ जुड़ सकता है. कानून उसके इस अधिकार की रक्षा करता है. हालांकि दूसरी जगह भी उसका शोषण होता है, और भौतिक स्थितियां उसके लिए बहुत अधिक बदलती भी नहीं है. तो भी एक उत्पादक को छोड़ आने का जो संतोष है, साथ ही चयन का आनंद और इसके पीछे निहित अस्मिताबोध श्रमिक का अपना और निजी होता है. इससे अधिक वह सामान्यतः अपेक्षा भी नहीं करता. इससे उसका आक्रोश एक सीमा से बाहर नहीं जा पाता.
सोवियत संघ में यद्यपि उपभोग को बढ़ावा देने वाली प्रौद्योगिकी को प्रतिबंधित किया गया था. मगर
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हथियारों की स्पर्धा और उसमें आगे निकलने की होड़
में वहां की सरकारें राष्ट्रीय आय का बड़े पैमाने पर निवेश कर रही थीं. इस होड़ का नागरिकों के वास्तविक कल्याण से कोई लेना-देना नहीं था. इससे वहां सामाजिक विकास की रफ्तार उतनी नहीं पहुंच पाई थी, जितनी कि साम्यवादी व्यवस्था में अपेक्षित थी. सोवियत नागरिक स्वयं को भावनात्मक रूप से ठगा हुआ महसूस कर रहे थे. इसपर टिप्पणी करते हुए सुविख्यात चिंतक किशन पटनायक ने लिखा था—‘आधुनिकतावादी दिमाग, आधुनिक टेक्नालाजी(यंत्रेश्वर) के बारे में इतना ज्यादा अंधविश्वासी है कि उसके विकल्प की संभावनाओं पर सोच नहीं पाता. एक वैकल्पिक यंत्रप्रणाली की तलाश वह कर नहीं सकता. सोवियत रूस में यही हुआ. रूसी कम्युनिस्टों ने कुछ प्रकार की, खासकर उपभोग की टेक्नोलाॅजी को बड़े पैमाने पर प्रतिबंधित किया. लेकिन वैकल्पिक टेक्नोलाॅजी की तलाश के लिए उनका दिमाग तैयार नहीं था. अंततोगत्वा उनके दिमाग पर आधुनिकता का दबाव इतना गहरा हुआ कि रूस साम्यवाद छोड़ने को तैयार हो गया.’
सोवियत संघ में समस्त उत्पादन व्यवस्था श्रमिक संगठनों के और अंततः राज्य के अधीन थी, जिसका उपयोग उनके नेता अपने राजनीतिक मंसूबों को पूरा करने के लिए करते थे. आम मजदूर के लिए कुछ खास नहीं बदला था. उसके लिए शोषणकारी स्थितियों में अपेक्षित सुधार हो ही नहीं पाया था. इसलिए उस व्यवस्था से उनका हताश होना स्वाभाविक ही था. ऊपर से तयशुदा उत्पादन करना मजबूरी. यही कारण है कि वहां श्रमिकों के मन में व्यवस्था के प्रति आक्रोश बढ़ता ही गया. परिणाम सोवियत संघ के विघटन के रूप में सामने आया. बावजूद इसके सोवियत संघ के बिखराव को, मानवाधिकार के पतन के रूप में देखना अनुचित होगा. बस
इतना कहा जा सकता है कि सोवियत नेताओं की निजी महत्त्वाकांक्षाओं और
अदूरदर्शिता के कारण समाजवाद का प्रयोग वहां उतनी अपेक्षा के साथ सफल न हो
सका.
दरअसल
मार्क्सवाद की मौत का दावा वे करते हैं जो मानते हैं कि साम्यवाद का उद्भव
मार्क्स के जन्म अथवा उसके विवेकीकरण के बाद की घटना है. जबकि ऐसा नहीं है. मार्क्स से पहले भी साम्यवाद था. लोग उपलब्ध सुविधाओं और संसाधनों का मिलजुल कर उपयोग करते थे. स्वयं मार्क्स ने ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा इसी मान्यता के आधार पर प्रस्तुत की है. मार्क्सवाद का अभिप्राय अर्थसत्ता का विकेंद्रीकरण, धर्मसत्ता का विलोपीकरण तथा राजसत्ता का लौकिकीकरण है. ये विचार मार्क्स से ढाई हजार वर्ष पहले जन्मे प्लेटो ने भी व्यक्त किए थे. प्रत्येक धर्म अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए इसी प्रकार की लोककल्याणकारी प्रार्थनाओं की अपने विस्तार की सीढी बनाता है. दूसरे शब्दों में मार्क्स के आलोचक वे हैं जो गलत तरीके से संसाधनों पर अधिपत्य जमाए हैं. जो सारा का सारा मुनाफा स्वयं लील जाना चाहते हैं. जो अपनी पूंजी और ताकत के दम पर वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं. जिन्हें दूसरों के श्रम-कौशल पर जीने की, परजीवी होने की आदत पड़ चुकी है. मार्क्स के आलोचक वे हैं, जिन्होंने अपनी संपन्नता दूसरों के श्रम पर अर्जित की है. इसके कारण उन देशों के समाज में भारी आर्थिक असमानता है. ऐसे उदाहरण पूंजीवादी देशों में हर जगह हैं.
अमेरिका का ही उदाहरण लें, वहां पूंजीवाद के बाद स्थिति कितनी बिगड़ी है, वह सामने भले ही न आ पाती हो, क्योंकि जनता और बाकी शक्तियों के बीच पुल की भूमिका निभानेवाला मीडिया, पूंजीपतियों का पक्ष लेता है, और उनके हितों के अनुरूप खबरों की मार्केटिंग करता है. जबकि हालात कितने विकट हैं, यह देखकर मन संताप से भर जाता है. बेलगाम पूंजीवाद समाज को सर्वाधिक अमीर और भीषण गरीब लोगों में बांट रहा है, जो अमीर है, वही उत्पादक है. गरीब के श्रम का उपयोग कर वह उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करता है. गरीब प्राप्त वृत्तिका का बड़ा हिस्सा उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद पर निवेश करता है. मजदूरी के रूप में उसको सिर्फ उतना ही मिल पाता है, जिससे वह अगले लिए काम पर जा सके. कई बार तो प्राप्त वृत्तिका उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी अपर्याप्त सिद्ध होती है.
एक रिपोर्ट के अनुसार 1994 में अमेरिका की 500 प्रमुख कंपनियां उस देश की कुल 92 प्रतिशत आमदनी पर कब्जा जमाए थीं, जबकि विश्वस्तर की 1000 सबसे बड़ी कंपनियों की सालाना आमदनी आठ अरब डालर है, जो दुनिया के कुल लाभ का एक तिहाई है. अमेरिका में ही केवल आधा प्रतिशत सर्वाधिक धनी कंपनियों के अधिकार क्षेत्र में वहां की 50 प्रतिशत संपत्ति आती है. यही नहीं अमीरों की अमीरी निरंतर बड़ती जा रही है. अमेरिका की सबसे धनी एक प्रतिशत जनसंख्या, वहां की राष्ट्रीय आय में 1978 में जहां केवल 17.6 प्रतिशत हिस्सेदारी रखती थी, वह मात्र दस वर्ष अर्थात 1989 में बढ़कर 36.3 प्रतिशत हो चुकी थी. स्मरणीय है कि पश्चिमी समाज में यही वह समय है, जिसे पूंजीवाद का सबसे सुनहरा दौर माना जाता है.
पूंजीवादी अमेरिका में पूंजी का कुछ हाथों में लगातार सिमटते जाना एक राष्ट्रीय समस्या बन चुका है. 2007 में वहां आई भीषण मंदी का खेल हम देख ही चुके हैं, जिसमें पचास से ऊपर भीमकाय बैंक दिवालियेपन का शिकार हुए थे. उससे पहले वहां बड़ी कंपनियों द्वारा छोटे उद्यमों के अधिग्रहण का दौर चला था, जो 1995 अपने चरमबिंदू पर था. मनोरंजन क्षेत्र की दिग्गज कंपनियां वाल्ट डिजनी, वाशिंगटन हाउस, दवा उद्योग की ग्लैक्सो, कागज उद्योग की स्का॓ट पेपर अपने-अपने क्षेत्र की वे महारथी कंपनियां थीं, जिन्होंने अपनी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों को एकाएक निगल लिया था. चेज मेनहट्टन और केमीकल बैंक ने उसी वर्ष मिलकर, 297 अरब डा॓लर की भारी-भरकम पूंजी के साथ, अमेरिका के सबसे बड़े बैंकिंग समूह की आधारशिला रखी थी. पूंजीवाद के चरमोत्कर्ष काल में सबकुछ चमकता-दमकता हो, यह बात भी नहीं है. बहुत कुछ ऐसा भी था जो चमचमाती रोशनी के पीछे गहराये अंधेरे की हकीकत बयान करता था. अधिग्रहण के उस दौर में छोटी मछलियां आराम से बड़ी मछलियों का शिकार बन रही थीं. उसी वर्ष मित्शुबिशी बैंक और बैंक आफ टोकियो जो दुनिया के सबसे बड़े बैंकों में से थे, दिवालिया घोषित किए गए थे. अधिग्रहण और विलय का यह खेल यूरोपीय देशों में भी फैला और ब्रिटेन, स्विटजरलेंड, जर्मनी आदि अनेक देशों में पूंजी के बड़े मगरमच्छ छोटी मछलियों को निगलने लगे. इससे मार्क्स और ऐंगल्स की यह भविष्यवाणी सच सिद्ध हो रही थी कि पूंजी का सहज स्वभाव केंद्र की ओर खिसकते जाने का होता है. इस प्रकार वह कुछ समूहों तक सिमटकर रह जाती है. अधिग्रहण और विलयीकरण के इस खेल में हर बार कुछ कंपनियां बंद कर दी जाती हैं, जिसका कुफल उनमें कार्यरत श्रमिकों को बेरोजगारी के रूप में भोगना पड़ता है. स्पष्ट है कि—
‘केंद्र की ओर पूंजी का सतत जमाव उत्पादन में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं करता, बल्कि इसका उल्टा ही होता है.’
बेरोजगारी का जिक्र हुआ है तो मार्क्स को एक बार पुनः याद करना पड़ेगा. कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने कहा था कि बुर्जुआ वर्ग लंबे समय तक सत्ता पर काबिज नहीं रह पाएगा. इसलिए कि वह गरीब और विपन्न वर्गों को अपने दम पर अपने राज्य में सहने की सहूलियत नहीं देता, बल्कि उनके बल पर अपने लिए सुविधाओं का अंबार लगा लेता है. इससे श्रमिक वर्ग के मन में आक्रोश पैदा होता है, जो लगातार बढ़ता जाता है, जो एक दिन बुर्जुआ वर्ग के सत्ताच्युत होने का कारण बनता है. हालांकि पूंजीवादी देशों में ऐसी खबरें प्रायः छन-छनकर ही सामने आ पाती हैं. पूंजीपतियों से अस्थि-मज्जा प्राप्त मीडिया तथा उन्हीं के दम पर पलने वाली सरकारें, उनपर पर्दा डालने का काम करती हैं. 2007 में छाई मंदी से ठीक पहले पूंजीवाद के समर्थक अर्थशास्त्री-विचारक उदार आर्थिक नीतियों का गुणगान करते नहीं थकते थे. 1995-1996 के
पूंजीवाद के सुनहरे दौर में जब बड़ी कंपनियां अपेक्षाकृत छोटी कंपनियों का
अधिग्रहण कर अपने विस्तारवादी मंसूबों को अंजाम दे रही थीं, उस समय संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक बेरोजगारों की संख्या 12 करोड़ से भी अधिक थी. ये वे आंकड़े थे, जो पूंजीपतियों के आसरे फलने-फूलने वाले मीडिया ने दिए थे. वास्तविक स्थिति और भी भयावह एवं चिंताजनक है. यदि
अस्थायी और ठेके पर अल्पावधि के लिए काम करने वाले कर्मचारियों को भी
बेरोजगारों की श्रेणी में रख लिया जाए तो दुनिया के कुल बेरोजगारों की
संख्या एक अरब से ज्यादा हो सकती है.
संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी यूरोप में बेरोजगारों की संख्या दो करोड़ से भी अधिक थी, जो वहां की कुल जनसंख्या का करीब 10.6 प्रतिशत हैं. यही हाल यूरोप के ‘लौहपुरुष’(स्ट्रांग मैन) कहे जाने वाले जर्मनी का था, वहां हिटलर के पतन के बाद पहली बार बेरोजगारों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि हुई थी और वह एक झटके में पचास लाख को पार कर चुकी थी. इनमें भी सबसे अधिक आश्चर्यजनक जापान की हालत है. अपनी वैज्ञानिक और तकनीकी क्रांति से पूरे विश्व को चैंका देने वाले जापान में 1930 के बाद पहली बार बेरोजगारों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गई. हालांकि सरकारी आंकड़े वहां तीन प्रतिशत बेरोजगारी की बात स्वीकारते हैं, मगर वास्तविक बेरोजारों की संख्या का, कुल जनसंख्या का आठ से दस प्रतिशत होना, चिंताजनक स्थिति है. बढ़ती बेरोजगारी ने इस बार उन क्षेत्रों को भी प्रभावित किया है, जो इससे पहले रोजगार की दृष्टि से अत्यंत सुरक्षित और लाभदायक समझे जाते थे. इनमें अध्यापक, नर्स, डाॅक्टर, बैंक कर्मचारी, वकील आदि सम्मिलित हैं, जो अपनी व्यावसायिक योग्यता के दम पर रोजगार पाते रहे थे. 2007 के बाद तो बेरोजगारी ने युवाओं की कमर ही तोड़ दी है. अमेरिका, यूरोप आदि के देशों में बैंकों और बड़े उद्योगों के बंद अथवा दिवालिया होने के बाद दुनिया-भर के श्रमिकों-कामगारों को छंटनी का शिकार होना पड़ा. उनकी संख्या करोड़ों में है.
उदार अर्थनीति की विडंबना है कि आर्थिक प्रगति का लाभ जहां चंद विकसित देश ही उठा पा रहे थे, जबकि छंटनी और दिवालियेपन का असर प्रायः छोटी और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को ही झेलना पड़ा है. इससे मार्क्स का यह कथन एक बार फिर प्रासंगिक लगने लगा, जिसमें उसने कहा था कि पूंजीवाद एक वैश्विक व्यवस्था के रूप में विकसित होगा. मगर विश्व-बाजार का अस्तित्व लंबे समय तक टिके रहने वाला नहीं है. इसका अंत सुनिश्चित है. यह हमारे समय का बेहद निर्णायक समय है. सच तो यह है कि हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जिसमें कुछ भी निजी अथवा स्थानीय नहीं है. हमारी अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति यहां तक कि कूटनीति भी स्थानीय नहीं है. सबकुछ वैश्विक और अंतरराष्ट्रीय है. प्रौद्योगिकी प्रेरित अंतरराष्ट्रीयकरण ने हमारी संवेदनाओं को भौंथरा किया है. आजकल युद्ध के समाचार भी तब तक रोमांचित नहीं करते, जब तक कि उनमें अंतरराष्ट्रीयता का पुट न हो. वैसे युद्ध अब राजनीतिक मसला नहीं रहा. बीसवीं शताब्दी ने जितने युद्ध झेले, उनके पीछे बाजार का अधिक हाथ था, जिनमें करोड़ों की जानें गईं. इनमें सबसे आखिरी युद्ध अमेरिका और इराक के बीच था, जिसमें एक महादेश की पूंजीवादी आकांक्षाओं ने अपने से कहीं छोटे देश को पहले तो बदनाम करने की साजिश की. फिर दादागिरी दिखाते हुए उसपर हमला बोल दिया.
यह दादागिरी राजनीति प्रेरित नहीं थी. न उसको देश के नागरिकों का समर्थन प्राप्त था. समर्थन था, पूंजीपतियों का, जो युद्ध में अपने-अपने लाभ देख रहे थे. एक वर्ग को युद्ध की तबाही के बाद उस देश में नवनिर्माण के लिए ठेके मिलने की उम्मीद थी. कुछ का धंधा हथियार बनाने-बेचने का था. वे मानते थे कि युद्ध नवनिर्मित रासायनिक हथियारों के प्रदर्शन का अच्छा अवसर सिद्ध होगा, बाद में उनके ग्राहक भी आएंगे. इन महत्त्वाकांक्षाओं ने एक फलते-फूलते देश को तबाही के गर्त में ढकेल दिया. हैरानी की बात है कि जनता और बुद्धिजीवी उस युद्ध को केवल राजनीतिक मसला समझे रहे. युद्ध के वास्तविक जिम्मेदार व्यक्ति कभी सामने आ ही नहीं पाए. युद्ध से नाराज जनता ने बुश महाराज से कुर्सी तो छीन ली. नई उम्मीदों के साथ नया चेहरा राजनीति में आया. मगर पूंजीवादी मंसूबे खत्म नहीं हुए. यानी युद्ध की संभावनाओं और उससे जुड़ी पूंजीवादी आकांक्षाओं का कोई निदान आज तक नहीं खोजा जा सका.
समस्या है कि पूंजीवाद के इस खेल से बचा कैसे जाए? इसका एक ही हल है. किसी भी तरह किसान, मजदूर और कामगार वर्ग अपने-अपने हितों की रक्षा में एकजुट हों. अपनी वास्तविक जरूरतों का आकलन करें. उपलब्ध संसाधनों को जांचे परखें. तत्पश्चात अनुकूल प्रौद्योगिकी का चयन कर उत्पादन की जिम्मेदारी स्वयं संभालें. प्रौद्योगिकी भी ऐसी हो जो समूह के सदस्यों की कुशलता का उपयोग कर, उन्हें आर्थिक-सामाजिक रूप में आत्मनिर्भर बनाती हो. लेकिन क्या यह इतना ही आसान है? आजकल सामान्य समझबूझ वाला बुद्धिजीवी भी मानता है कि उद्योगों को बंधन-मुक्त होना चाहिए. सरकार उनपर कम से कम नियंत्रण रखे. वैश्विक अर्थव्यवस्था का विकास हो, ताकि उद्योगों को हर जगह एक जैसा वातावरण मिले. सभी देशों में लाइसेंस और परमिट की एक-सी शर्तें, एक जैसे विधान हों. व्यवस्था हो कि उद्योगों को समाज के बहुसंख्यक वर्ग के विकास के लिए काम करने की पूरी-पूरी छूट मिले. साथ में आवश्यक सुविधाएं भी. ऐसे में कैसे संभव है, पूंजीवाद के संकट से बच पाना. खासकर तब जब पूंजीवाद लगातार मजबूत और हिंò होता जा रहा हो. श्रमिक शोषण के नए-नए रास्ते खोजे जा रहे हों. शोध का क्षेत्र पूंजीपतियों के हाथ में चले जाने से सारी प्रतिभाएं, सारे के सारे पेटेंट पहले से ही उनके हाथों में जा ही चुके हैं. पूंजीपतियों के लिए तो वैश्वीकरण भी एक अवसर है. यह वैश्वीकरण भी निरापद कहां है? इससे
बड़ी विडंबना भला और क्या होगी कि पिछली शताब्दी में भूमंडलीकरण एवं
अर्थव्यवस्था के अंतरराष्ट्रीयकरण की तमाम सूचनाओं के बावजूद भारत में
आर्थिक विसंगतियां सिर चढ़कर बोल रही हैं. देश में रोजगार के जितने अवसर बढ़े हैं, बेरोजगारों की संख्या उससे कहीं अधिक बढ़ी है. उससे कहीं तेजी से देश में आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है.
पूंजीवाद के अंतरराष्ट्रीय फैलाव के कारण विभिन्न देशों के आंतरिक और बाह्यः तनावों में भी वृद्धि हुई है. राज्यों के विरोधाभास और भी खुलकर सामने आए हैं. पूंजी का खिंचाव अतिविकसित देशों की ओर बढ़ता ही जा रहा है. हालात को समझने के लिए सिर्फ एक उदाहरण पर्याप्त होगा. 1987 में संयुक्त राज्य अमेरिका अपने कुल सालाना बजट का मात्र छह प्रतिशत हिस्सा निर्यात के माध्यम से जुटाता था. 1997 में निर्यात का हिस्सा बढ़कर 13 प्रतिशत यानी दुगुने से भी अधिक हो चुका था. इकीसवीं शताब्दी की दहलीज पर सरकार की योजना 22 प्रतिशत के लक्ष्य को पाने की है. इससे अमेरिका जैसे विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के रहस्य को समझा जा सकता है. विकसित देशों के पास तो पूंजी है, संसाधन हैं, इसलिए वे अपने उत्पादों के लिए बाजार की सतत खोज में रहते हैं. ऐसी तकनीक की खोज में रहते हैं, जिसकी स्थापना लागत भले ही अधिक हो, मगर जिसके माध्यम से उत्पादन व्यवस्था का अधिकाधिक स्वचालीकरण कर सकें. स्वचालीकरण की तीव्र प्रक्रिया में स्थापना लागत भले ही अपेक्षाकृत अधिक हो, मगर उत्पादन-वृद्धि और प्रचालन लागत में भारी कमी से उद्योगपति को दीर्घकालिक लाभ मिलता है. दूसरी ओर श्रमिकों पर निर्भरता में लगातार गिरावट आती है. इससे पूंजीपति लगातार ताकतवर होता है और श्रमिक कमजोर.
इस स्थिति को मार्क्स ने 1848 में ही भांप लिया था. कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने लिखा था—
‘सघन मशीनीकरण तथा श्रम-विभाजन की त्वरित प्रक्रिया में सर्वहारा काम के दौरान अपनी समस्त कार्य-कौशल और विशिष्टताएं खो बैठता है. इसका प्रतिकूल प्रभाव उसकी कार्यक्षमता पर पड़ता है. उसका उल्लास धीरे-धीरे कम होने लगता है. एक दिन वह मशीनों का आश्रित बनकर रह जाता है. पूंजीवादी समाजों में श्रमिक के कौशल को कुंद करने, उसको मशीनों का दास बनाने की सर्वाधिक सरल और प्रचलित चाल है. इससे श्रमिक की उत्पादन लागत को लगभग पूरी तरह से, उसकी रोजमर्रा की आवश्यकताओं तक, सिर्फ उन आवश्यकताओं तक जिनसे वह अपना भरण-पोषण कर, कल-कारखानों के लिए मजदूरों की नई फसल पैदा कर सके, सीमित कर दिया जाता है. चूंकि किसी उपभोक्ता वस्तु, साथ ही उसके श्रम की कीमत उत्पादन लागत के तय होती है. अतएव जैसे-जैसे श्रमिक का उत्पादन से मोहभंग बढ़ता है, काम के प्रति उसका विकर्षण बढ़ता जाता है. दूसरी ओर उसकी वृत्तिका भी उसी अनुपात में गिरती चली जाती है. इसी के साथ कामगार के ऊपर, चाहे वह कार्यघंटों में हुई बढ़ोत्तरी के कारण हो या तय समय-सीमा में अधिक काम देने के दबाव का मामला, अथवा उच्च उत्पादन-क्षमता युक्त मशीनरी के साथ काम करने के कारण उसके साथ तालमेल बनाए रखने की चुनौती—श्रम का दबाव भी लगातार बढ़ता जाता है.
सोवियत संघ के अवसान के बाद भारत आदि देशों में अमेरिकापरस्त अर्थशास्त्रियों एवं बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग पैदा हुआ है, जिसने पूंजीवाद को लगभग अपरिहार्य और विकल्पहीन मान लिया है. स्वयं अमेरिका की क्या स्थिति है, इस बारे में बहुत अधिक समाचार मीडिया में नहीं दिए जाते हैं. यह भी कहा जा सकता है कि अपने पूंजीवादी संबंधों की लाज रखने के लिए मीडिया उनपर पर्दा डाले रखता है. वस्तुतः आधुनिक अमेरिका की वही हालत है, जो मार्क्स के समय में तत्कालीन सर्वाधिक विकसित पूंजीवादी देश ब्रिटेन की थी. अंतर केवल इतना है कि ब्रिटेन अपने उपनिवेशों के दोहन के लिए राजनीति का सहारा लेता था, अमेरिका यह काम अपनी अर्थसत्ता के माध्यम से करता है. उसने पूरी दुनिया में अपने आर्थिक उपनिवेश बसाए हुए हैं, जिनपर वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के माध्यम से राज करता है. उपनिवेशों के शोषण में बौद्धिक संपदा जैसे कानून उसके मददगार सिद्ध होते हैं. इसके बावजूद हालात संतोषजनक नहीं हैं. आक्रोश भीतर ही भीतर भड़क रहा है. इसके पीछे अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वे विसंगतियां हैं, जो धीरे-धीरे सामने आ रही हैं. ऐलेन वुड के अनुसार अमेरिका में—
‘गत बीस वर्षों के दौरान अमेरिकी श्रमिकों की वास्तविक मजदूरों में बीस प्रतिशत तक की भारी गिरावट दर्ज हुई है, दूसरी ओर उन्हें पहले की अपेक्षा प्रतिदिन दस प्रतिशत अधिक काम करना पड़ता है. कहा जा सकता है कि अमेरिका की औद्योगिक क्रांति वहां के श्रमिक वर्ग के हितों पर कुठाराघात के बाद संभव हो सकी है. उदाहरणार्थ, एक अमेरिकी कर्मचारी को एक वर्ष में औसतन 168 घंटे ओवरटाइम करना पड़ता है, जो एक महीने के कार्य के बराबर है. अमेरिकी आॅटोमोबाइल उद्योग के लिए यह विशेषरूप में सही है, जहां एक कार्यदिवस में नौ घंटे और सप्ताह में छह दिन कार्य करने का प्रावधान है. अमेरिकी मजदूर संगठनों के अनुसार यदि वहां कार्य-सप्ताह को चालीस घंटों तक सीमित कर दिया जाए तो मात्र इसी से 59,000 नए रोजगार अवसर पैदा किए जा सकते हैं.’
ऐसा नहीं है कि अपने शोषण के विरोध में श्रमिकों में कोई चेतना या सुगबुगाहट न हो. बल्कि वहां आवाजें उठने लगी हैं. करीब पंद्रह वर्ष पहले 24 अक्टूबर, 1994 को टाइम पत्रिका में प्रकाशित एक आलेख में पूंजीवादी शोषण के विरोध में बढ़ते श्रमिक-आक्रोश का उल्लेख किया गया था, जिसमें उन्होंने उदारवाद प्रेरित आर्थिक विस्तार को अपने हितों के प्रतिकूल बताया था. लेख में बताया गया था कि काम के अत्यधिक बोझ के कारण, श्रमिकों की दिनचर्या कारखाने में काम तथा ओवरटाइम करने के बाद घर जाकर नहाने-खाने-सोने और अगली सुबह फिर कारखाने के लिए दौड़ लगाने तक सिमट चुकी है. इसने वहां के सामाजिक जीवन को भी प्रभावित किया है. इससे जहां शिशु जन्म दर में गिरावट दर्ज की गई है, वहीं तलाक की घटनाओं में भी अप्रत्याशित तेजी आई है. जबकि 1980 तक लगातार विकासमान रही जीवन-संभाव्यता, उसके बाद लगभग स्थिर हो गई है. यह स्थिति अमेरिकी समाज के विकास की विडंबना को दर्शाती है. ब्रिटेन का हाल भी इससे भिन्न नहीं है. जब मादाम थैचर वहां की प्रधानमंत्री थीं तो उद्योगों में 25 लाख रोजगार अवसरों में गिरावट दर्ज की गई थी. बावजूद इसके वहां कारखानों के उत्पादन-सामर्थ्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है. कामगारों की संख्या में हुई भारी गिरावट के बावजूद उत्पादन स्तर पूर्ववत रहने का कारण केवल उन्नत मशीनों का उपयोग नही है, बल्कि मजदूरों का शोषण भी है. अत्याधुनिक तकनीक भी श्रमिकों के लिए राहतकारी सिद्ध नहीं हुई है. उनकी मुश्किलें बढ़ती ही जा रही हैं. श्रमिकों एवं आम जनता को भुलावे में रखने के लिए नए उपकरणों को बड़ी तेजी से एक के बाद कर उतारा जा रहा है. ऐसे उत्पादों के निर्माण पर जोर दिया जा रहा है, जिनका वास्तविक विकास से कोई संबंध ही न हो. लोकतांत्रिक खुलेपन का उपयोग फैशन और नई-नई उपभोक्ता-वस्तुओं के साथ, लोगों को मोबाइल और इंटरनेट पर खुली सेक्स-सामग्री परोसने के लिए किया जा रहा है. तंत्र-मंत्र और जादू-टोने की बढ़ती लोकप्रियता का लाभ उपभोक्ता-सामग्री के प्रचार-प्रसार के लिए किया है. इसका दुष्परिणाम यह है कि समाज में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ रही है.
अमेरिका की भांति ब्रिटेन में भी श्रमिकों को अधिक देर तक कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है. उन्हें उस अवधि का वेतन भी नहीं दिया जाता. यही हाल यूरोप के बाकी देशों का है. वहां भी बड़ी औद्योगिक कंपनियां छोटे उत्पादकों को लीलती जा रही हैं. सबसे धनी और निर्धनतम व्यक्ति के बीच आय का अंतर लगातार बड़ता जा रहा है. भारत समेत ऐशियाई देशों में पूंजीवादी व्यवस्था को लागू हुए अधिक दिन नहीं हुए हैं. पश्चिम का अंधानुकरण करते हुए भारत ने उदार अर्थव्यवस्था को अपनाकर, गत पचीस-तीस वर्ष से पूंजीपतियों को मनमानी करने का अधिकार दे दिया है. इससे पूंजी का तेजी से केंद्र की ओर खिंचाव जारी है. पिछले एक दशक में जहां देश में अरबपतियों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है, वहीं पैंतीस करोड़ नागरिकों को प्रतिदिन बीस रुपये से भी कम आय में जीवनयापन करना पड़ता है. बढ़ते जनाक्रोश के दुष्परिणामस्वरूप पिछले कुछ दिनों से देश में नक्सलवादी गतिविधियां बढ़ी हैं. सरकार और पूंजीपतियों के दबाव में अपनी जमीन और संसाधन लुटा चुके हजारों लोग विद्रोह में व्यवस्था के विरुद्ध हथियारबंद हो उठे हैं. छोटे कारखानों में मजदूरी की बुरी हालत है. वहां बिना किसी नोटिस के कार्यघंटों में 50 प्रतिशत तक वृद्धि हो चुकी थी. इससे पहले जहां श्रमिकों को केवल आठ घंटे काम करना पड़ता था, अब बारह घंटे उतने ही वेतन में काम करना उनकी विवशता बनती जा रही है. यही हालात एशिया के बाकी देशों में हैं. पश्चिम भी इनसे बचा नहीं है. मीडिया पूंजी की इस तानाशाही के विरुद्ध आवाज उठाने के बजाय उसके महिमामंडन में लगा रहता है. स्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार किए बिना उसका प्रयास मार्क्सवाद कठघरे में खड़ा करने का होता है, जिससे अंततः पूंजीवाद ही मजबूत होता है.
यह मार्क्स और ऐंगल्स ही थे, जिन्होंने हमारा परिचय सामाजिक विकास के इस सर्वमान्य और महत्त्वपूर्ण नियम से कराया था, जिसके अनुसार समाज का वर्तमान ढांचा पूंजीपतियों के अनुकूल विकसित हुआ है. यह उसी अवस्था में स्थिर रह सकता है, जब तक समाज की उत्पादक शक्तियां सुरक्षित हैं. कोई भी समाज इससे उस समय तक बच नहीं सकता, जब तक कि वह अपने समस्त संसाधन इस व्यवस्था के विकास के लिए, पूंजीवाद की समृद्धि के निमित्त झोंक नहीं देता. पूंजीवाद के समर्थक अक्सर इस बात का दावा करते हैं कि बाजार की समृद्धि का लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुंचता है. क्योंकि बाजार सभी को अपनी वस्तु का मूल्यांकन करने तथा उसके अनुसार उसका मूल्य वसूलने का आश्वासन देता है. उनके अनुसार यह व्यवस्था श्रमिक के लिए अधिक लाभकारी है. इसमें वह स्पर्धा का लाभ उठाकर अपने लिए ऐसे नियोक्ता की तलाश की तलाश कर सकता है, जहां उसको अधिकतम वृत्तिका की संभावना हो. यह एक दिवास्वप्न ही है. उन्हें जिस गुण में पंूजीवाद की सार्थकता नजर आती है, दरअसल वही उसकी कमजोरी है. नियम है कि बाजार में पूंजी की ताकत ही सर्वोपरि होती है. इसलिए वहां छोटी पूंजी को बड़ी पूंजी के आगे परास्त होना पड़ता है. किसान और श्रमिक के पास अपना श्रम या वे छोटे संसाधन पूंजी के रूप में होते हैं, जो बाजार में किसी प्रकार की ताकत बनने में नाकाम होते हैं. परिणामस्वरूप अपने मूल्यांकन के लिए वे सदैव दूसरों पर निर्भर रहते हैं, जहां उनकी योग्यता का न्यूनतर मूल्यांकन किया जाता है. यह स्थिति पूंजीवादी शोषण को जन्म देती है.
पूंजी की तानाशाही के चलते हम सिर्फ यह सोचकर तसल्ली कर सकते हैं कि किसी भी अन्य विधान की भांति पूंजीवाद का भी जन्म हुआ है. वह भी दूसरी विचारधाराओं की भांति इतिहास के साथ विकसित हुआ है, और आज वह जिस अवस्था में है, वह उसके चढ़ाव की चरम अवस्था है. यहां से उसका पतन अवश्यंभावी है. यही ऐतिहासिक भौतिकवाद की अवधारणा है. यही मार्क्स के चिंतन का लक्ष्य-बिंदू है. जब हम इस वैज्ञानिक तथ्य को समझ लेते हैं, तो यह समझना भी आसान हो जाता है कि इतिहास घटनाओं की भावहीन, अतार्किक, अनियोजित और आकस्मिक व्यवस्था नहीं है, जिसको चंद लोग अपनी मनमर्जी से हांक सकें. न ही यह कुछ लोगों की गतिविधियों का परिणाम है. बल्कि यहां जो घटता है, वह एक नैसर्गिक व्यवस्था के अनुसार संचालित होता है, जिसकी सुसंगत व्याख्या संभव है.
मार्क्स के ये विचार चाल्र्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से प्रेरित थे, जिसने जीव-जगत को परिवर्तनशील माना था. अपने अध्ययन द्वारा वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि जीव-जंतुओं का भी अपना भूत-वर्तमान और भविष्य होता है. विकासक्रम के दौरान उन्हें एक सतत परिवर्तनशील एवं विकासमान प्रक्रिया से अनिवार्यतः गुजरना पड़ता है. डार्विन
की वैज्ञानिक खोज की सामाजिक विकास के संदर्भ में व्याख्या करते समय
मार्क्स एवं ऐंगल्स का मानना था कि इस सृष्टि में पूर्णतः स्थायी और
अपरिवर्तनशील सत्ता की कल्पना मात्र एक भ्रम है. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जो पूरी तरह स्थायी एवं अपरिवर्तनीय हो. सामाजिक-तंत्र, चाहे जो भी हो, वह मानवीय भावनाओं के सीमित स्वरूप का प्रदर्शन करता है. अपने भरण-पोषण के लिए प्रत्येक समाज उत्पादकता के संसाधनों को अपनाता है. उसके लिए जिन संसाधनों को वह चुनता है, उन्हीं पर उसके विकास की दिशा एवं गति निर्भर करती है. ऐतिहासिक भौतिकवाद का विवेचन करता हुआ मार्क्स अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि वर्तमान समाजों का अभी तक तक इतिहास वर्ग, संघर्ष का इतिहास रहा है.
मजदूर कोरी वितंडा नहीं चाहता. मार्क्स ने उसके हक की बात कही थी. अपने सुख, प्रतिष्ठा और परिवार के भविष्य को दाव पर लगाकर उसने उनके लिए संघर्ष किया था. मजदूर इस तथ्य को जानता है. अतएव मार्क्स उसके लिए देवता हैं. सच तो यह है कि मार्क्स ने हीगेल का द्वंद्ववाद का मानवीकरण किया था. वह उसको आकाश से उतारकर जमीन पर ले आया था. एक तत्ववादी चिंतन को विशुद्ध यथार्थ, लोकोपयोगी चिंतन के रूप में ढाल दिया था. उसका मानना था कि पूंजीवाद का खात्मा श्रमिकों द्वारा उत्पादनतंत्र पर कब्जा कर लेने मात्र से संभव नहीं है. उनके वास्तविक कल्याण के लिए व्यवस्था में आमूल बदलाव जरूरी है. ऐसी व्यवस्था की नींव रखनी होगी जो वर्गहीनता की समर्थक हो. तभी सामाजिक-आर्थिक ऊंच-नीच की खाई को पाटा जा सकता है. मार्क्स के आलोचकों का सोच केवल सत्ता परिवर्तन तक सीमित है. वे व्यवस्था परिवर्तन के संकल्प से दूर हैं. ऐसे आलोचकों द्वारा मार्क्स की आलोचना की कोई भी बात, उसके चेले-चपाटों की समझ में नहीं आतीं. उन्हें तो गोपियों जैसी साकार भक्ति चाहिए. उद्धव का ज्ञानयोग उनके किसी काम कर नहीं.
मार्क्स अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाजनीति में व्यापक परिवर्तन चाहता था. वह चाहता था कि अर्थनीति का ढांचा मुनाफे के आधार पर नहीं, मानवीय विकास और संवेदनाओं के अनुसार तय किया जाए. मार्क्स के अनुयायी दुनिया को उसी की निगाह से देखते हैं, सिर्फ उसको चाहते हैं. यही उनके लोकप्रिय अथवा अलोकप्रिय होने का कारण है. यही वह गुण है जिसने पूरी दुनिया को दो धु्रवों में बांट रखा है. मार्क्स के चिंतन में सर्वभक्षक पूंजीवाद का विकल्प उपलब्ध है, जिसने पूरी दुनिया की संपदा का प्रवाह विकसित देशों की ओर मोड़ दिया है. कहने को तो तमाम अंतरराष्ट्रीय संधियां देशों के बीच मुक्त व्यापार की बात करती हैं. प्रत्येक देश को यह अधिकार देतीं है कि वह अपने संसाधनों का उपयोग कर अपने उत्पादक सामथ्र्य का अधिक से लाभ उठा सके. मगर व्यवहार में विकसित देशों की अत्याधुनिक तकनीक और विपुल साधनों के आगे स्पर्धा में वे टिक ही नहीं पाते हैं. इसलिए उदार अर्थव्यवस्था का लाभ केवल विकसित देशों के लाभाधिकार तक सीमित होकर रह जाता है. ऐसे में मार्क्स का विश्लेषण हमें पूंजीवाद को गहराई से समझने और उसका सार्थक विकल्प खोजने में मदद कर सकता है.
मार्क्स का सारा जोर पूंजीवाद के चरित्र और उसकी विवेचना को लेकर था. इसी संकल्पना के साथ उसने ‘पूंजी’ की रचना की थी. मार्क्स के निधन के बाद से पिछले 127 वर्षों में पूंजीवाद के चरित्र में व्यापक बदलाव आया है. तो भी उसका मूल चरित्र लगभग वही है, जो उनीसवीं शताब्दी के दौरान था. बल्कि कई मायने में वह पहले से अधिक ताकतवर, क्रूर, उत्पीड़क एवं दुःखदायी हुआ है. स्वचालित प्रौद्योगिकी ने पूंजीपति को पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली तथा निष्ठुर बनाया है. इसकी मार्क्स के जीवनकाल में केवल शुरुआत ही हो पाई थी. हाल के वर्षों में कंप्यूटर-आधारित तकनीक ने मशीनों को इतना कार्यक्षम और स्वचालित बना दिया है, कि अनेक क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मशीनों का नियंत्रण रिमोट के माध्यम से संभव है. उन स्थानों में श्रमिक का कार्य केवल तैयार माल को सुरक्षित रखने या उसको गंतव्य-स्थल तक लाने-ले जाने में सिमट गया है. वह मानवी हस्तकौशल एवं उसके तकनीकी ज्ञान की उपेक्षा करती है. चूंकि मशीनें तकनीकी कौशल की भरपाई आसानी से कर देती हैं, इसलिए पूंजीपति के लिए श्रमिक की भूमिका उत्पादन-कार्य में मात्र सहायक तक सिमटकर रह जाती है. उन्नत प्रौद्योगिकी ने श्रमिकों के मन से ‘उत्पादक-शक्ति’ होने की अनुभूति को छीनकर उन्हें कुंठाग्रस्त करने का काम किया है. श्रम का शोषण करना, अधिलाभ के बड़े हिस्से पर उत्पादक का अधिकार, अपने से छोटे उद्यमियों को स्पर्धा में परास्त कर बाजार पर एकाधिकार कायम कर लेने की इच्छा आदि आधुनिक पूंजीवाद के कुछ ऐसे अवगुण हैं, जो आज भी उनीसवीं शताब्दी के पूंजीवाद से मेल खाते हैं, जिनमें कतई सुधार नहीं हुआ है. इससे भी बड़ी बात यह हुई है कि पूंजीपतियों ने लंबी पहुंच वाले संचार-माध्यमों पर कब्जा करके प्रतिपक्ष की आवाज को न उभरने देने का पूरा-पूरा प्रबंध कर लिया है. कहा जा सकता है कि जिस वैज्ञानिक समाजवाद की परिकल्पना मार्क्स ने की थी, उसकी पहले से कहीं अधिक आवश्यकता आज है.
बावजूद इसके यह एक सामान्य जिज्ञासा का सवाल है कि मार्क्स की आज के संदर्भों में कितनी प्रासंगिकता है. क्या उसके विचारों को इकीसवीं शताब्दी में भी ज्यों का ज्यों अपनाया जा सकता है. दरअसल किसी भी कालखंड में मार्क्स के विचारों को संपूर्णता से आत्मसात नहीं किया गया. इसके कारण स्वयं मार्क्स के लेखन में ही सुरक्षित हैं. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ में वह मजदूरों का सक्रिय क्रांति के लिए आवाह्न करता है. अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हिंसा का सहारा लेने में भी उसको संकोच नहीं है. पेरिस की रक्त-रंजित क्रांति और तदनंतर कम्यून की स्थापना के पीछे भी माक्र्सवादी प्रेरणाएं ही थीं. मार्क्स के विचारों के आधार पर ही श्रमिक आंदोलन की नींव रखी गई. यद्यपि बाद में उसका हिंसक क्रांति से मोहभंग होता है और वह आमूल परिवर्तन के लिए, पूंजीवाद से साम्यवाद तक की यात्रा को दो हिस्सों में बांट देता है. उसके अनुसार क्रांति के पहले चरण में श्रमिक संगठन समस्त राजनीतिक और उत्पादनतंत्रों पर अपना अधिकार जमा लेंगे. उसके बाद वे आमूल परिवर्तन के लिए वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए प्रयासरत होंगे.
इतनी स्पष्टता के बावजूद मार्क्स के विचारों को लेकर उसके समर्थकों के बीच आज भी भारी मतभेद हैं. मार्क्स का राजनीतिक-आर्थिक दर्शन दुनिया-भर में ‘मार्क्सवाद ’ के नाम से जाना जाता है, जिसमें वह ऐतिहासिक द्वंद्ववाद के आधार पर पूंजीवाद की तीखी आलोचना करता है. परिवर्तन के लिए वर्गसंघर्ष को अवश्यंभावी मानते हुए उसमें सर्वहारावर्ग की जीत की ओर संकेत करता है. दावा करता है कि पूंजीवाद का अंत निश्चित है, वह अपनी ही कमजोरियों का शिकार होकर एक दिन धराशायी हो जाएगा. मार्क्स के इस विश्वास के बावजूद एक स्वाभाविक-सा प्रश्न यहां उभरता है कि क्या ‘मार्क्सवाद ’ उसकी मान्यताओं का सही-सही प्रतिनिधित्व करता है. इस प्रकार की बहसें नई नहीं हैं. मार्क्स के जीवनकाल में ये आरंभ हो चुकी थीं. शायद
ऐसी ही किसी बहस से तंग आकर अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले मार्क्स ने अपने
साले पाल ला॓फर्ग और फ्रांस के चर्चित श्रमिक नेता जूल्स जूडे पर
‘क्रांतिकारी नारों की सौदेबाजी’ तथा उनका श्रमिकों की संगठित शक्ति में
अविश्वास होने का आरोप लगाया था. उल्लेखनीय है कि जूडे ने अपने सहयोगियों से पार्लियामेंट हा॓ल से वर्गसंघर्ष की शुरुआत करने का प्रस्ताव रखा था, जिसका उसके साथियों ने जो संसदीय तरीकों में विश्वास रखते थे और मिलजुलकर रास्ता निकालने की नीति के समर्थक थे,जमकर विरोध किया था. इस घटना के बाद कुछ लोगों द्वारा यह आरोप लगाने पर कि जूडे ने जो किया, उसके पीछे मार्क्स की ही प्रेरणा थी, मार्क्स ने अपनी प्रतिक्रिया ऐंगल्स को संबोधित एक पत्र में व्यक्त की थी. उसने लिखा था कि—
‘‘यदि यही मार्क्सवाद है तो मैं मार्क्सवादी नहीं हूं.’’
इस तरह मार्क्स के जीवनकाल में ही उसके विचारों के आधार पर समर्थकों के दो दल बन चुके थे. इनमें से एक वर्ग मार्क्स की उपभोक्ता सामग्री, उत्पादन, पूंजी, श्रम आदि को लेकर तर्कसम्मत गवेषणा-सामथ्र्य का प्रशंसक था, जिसके आधार पर उसने ‘दि कैपीटल’ नामक ग्रंथ की रचना की थी. यह पुस्तक साम्यवादी राज्य की अभिकल्पना प्रस्तुत करती थी. मार्क्स
के प्रशंसकों का दूसरा वर्ग ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के साथ गहराई से
जुड़ा था और मानता था कि समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांति अपरिहार्य है. उसके अलावा परिवर्तन का कोई दूसरा रास्ता नहीं है. मार्क्स की मृत्यु के छह वर्ष उपरांत ऐंगल्स ने ‘दूसरा इंटरनेशनल’ की स्थापना की तो उसने भी राजनीतिक प्रतिरोध की नीति को अपनाया था. ‘दूसरा इंटरनेशनल’ को मार्क्स के सहयोग से स्थापित ‘प्रथम इंटरनेशनल’ की अपेक्षा अधिक सफलता प्राप्त हुई थी. रूस में साम्यवादी क्रांति के बीजतत्व ‘दूसरा इंटरनेशनल’ तथा प्रथम विश्वयुद्ध की असंगतियों से उपजे असंतोष का ही परिणाम थे. लेनिन ने स्वयं को मार्क्स के दर्शन और राजनीतिक चिंतन का असली उत्तराधिकारी घोषित करते हुए रूस में बोल्शेविक क्रांति की नींव रखी. दरअसल लेनिन की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं बड़ी थीं. उसने मार्क्स से उतना ही ग्रहण किया था, जितना उसको अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आवश्यक लगता था. मार्क्स का साम्यवाद सर्वहारा क्रांति से आगे की अवस्था थी. मगर रूस में बोल्शेविक क्रांति पहले चरण पर ही ठहर चुकी थी. बजाय इसके कि मार्क्स के विचारों पर पूरी तरह अमल करते हुए पूर्ण साम्यवाद की स्थापना के प्रयास किए जाएं, रूसी सरकार ने खुद को मारक हथियारों की दौड़ में शामिल कर लिया था. सर्वहारा कल्याण के अनुकूल वैकल्पिक प्रौद्योगिकी की खोज और उसके आधार पर साम्यवाद की स्थापना की ओर किसी का ध्यान ही नहीं था. इससे वहां के नागरिकों के मन में असंतोष पनपा जो अंततः सोवियत संघ के बिखराव का कारण बना. फिर भी यदि करीब अस्सी वर्ष तक रूस में साम्यवाद बना रहा तो इसके पीछे चेखव, गोर्की, दोस्तोयवस्की, अलेक्जांद्र पुश्किन, इवान तुर्गनेव जैसे महान लेखकों का हाथ था, जिसने उस व्यवस्था का एक रूमानी सपना अपने समाज को दिखाया था, जिसकी वास्तविक स्थापना के लिए रूसी समाज दशकों तक प्रतीक्षा करता रहा.
मार्क्स का मानना था कि साम्यवादी क्रांति विकसित औद्योगिक समाजों में ही सफल होगी. फ्रांस, जर्मनी, इंग्लेंड जैसे देशों को जहां औद्योगिक क्रांति फैल चुकी थी उसने साम्यवादी क्रांति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त बताया था. उसका मानना था कि विकसित समाजों में औद्योगिकीकरण के कारण समाज में आर्थिक असमानताओं में वृद्धि होती जाएगी, जो सर्वहारावर्ग को अपनी स्थिति में परिवर्तन के लिए एकजुट होने तथा उत्पीड़क पूंजीपतियों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने की प्रेरणा देगी. इससे
भिन्न व्लादिमिर लेनिन का विचार था कि साम्राज्यवादी शोषण तथा अनियोजित
एवं असमान आर्थिक विकास के चलते सर्वहारा क्रांति के लिए पिछड़े देशों में
अधिक संभावनाएं हैं. उसका
मानना था कि पूंजीवाद जनित उत्पीड़क स्थितियों तथा आर्थिक असमानता का यह
दबाव अपेक्षाकृत छोटे और पिछड़े समाजों में सर्वहारा क्रांति की अधिक
संभावना पैदा करेगा. वहीं से क्रांति की हवा विकसित देशों की ओर बहेगी, जहां का समाज समाजवाद की स्थापना के तैयार है, तदनंतर वह रूस की ओर बढ़ेगी. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के रूसी संस्करण की भूमिका में भी मार्क्स ने कुछ ऐसी ही संभावना व्यक्त की थी. इस संभावना पर विचार करते हुए कि सार्वजनिक भू-स्वामित्व का अभ्यस्त रूसी समाज क्या साम्यवाद के ऊंचे आदर्शों को अपनाने के आसानी से तैयार होगा, उसने
लिखा था कि संभावना यही है कि यदि रूसी क्रांति पश्चिम में सर्वहारा
क्रांति के लिए प्रेरणा बनती है तो भूमि पर सार्वजनिक अधिकार का मुद्दा
साम्यवाद के विकास का आधारभूत सिद्धांत सिद्ध होगा, इसलिए कि वह साम्यवाद का ही एक रूप है.
मार्क्स का यह विचार कि रूस पश्चिम की साम्यवादी क्रांति का प्रेरणास्रोत बन सकता है, लेनिन और उसके सहयोगी ट्राटस्की के चिंतन-कर्म का आधार बना. ट्राटस्की
और उसके सहयोगी इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि पश्चिम में साम्यवादी क्रांति
की असफलता रूसी क्रांति और कालांतर में पश्चिमी देशों में सर्वहारा
क्रांति को प्रेरित करेगी और इस तरह रूस वैश्विक सर्वहारा क्रांति का
सूत्रधार बनेगा. इसी
विचार को आगे बढ़ाते हुए स्टालिन ने ‘एक देशीय समाजवाद’ की परिकल्पना से
छलांग लगाकर विश्वव्यापी सर्वहारा क्रांति के लिए संघर्ष छेड़ने का आवाह्न
किया था. स्टालिन का यह सोच 1930 में लाखों सर्वहारा मजूदरों की मौत का कारण बना, जिसके कारण स्टालिन के विरुद्ध जनाक्रोश फैला. महान
रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने जब स्टालिन के शासनकाल में चलने वाले कारावास
शिविरों की अमानवीय स्थितियों का बयान अपने उपन्यास ‘दि गुलाग आर्किपैलेगो’
में किया तो उनको रूसी शासकों की ओर से तरह-तरह की प्रताड़नाएं दी गईं. इस उपन्यास के लिए सोल्झेनित्सिन को निर्वासन की सजा भी भुगतनी पड़ी. स्टालिन की मृत्यु के बाद रूस की बागडोर जब निकिता ख्रुश्चेव के हाथों में आई तो उसने स्टालिनवाद को विकार मानते हुए, पूरी तरह नकार दिया. सोल्झेनित्सिन का निर्वासन भी समाप्त हुआ. इस तरह उस रक्तरंजित युग का अंत हुआ, जिसमें स्टालिन के नेतृत्व में साम्यवाद अधिनायकवाद का रूप ले चुका था,
रूस की भांति चीन भी कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर था. वहां साम्यवादी क्रांति का अलख जगाने वाला माओ जि दांग था. ‘चीनी
साम्यवादी पार्टी’ के स्थापक चेन दुजियु तथा दझाओ के साथ मिलकर उसने चीन
में साम्यवादी क्रांति के पक्ष में माहौल बनाने के लिए लंबा संघर्ष किया था. वस्तुतः 1925 तक
मार्क्सवादी चीनी नेता मानते आ रहे थे कि शहरी मजदूर ऐतिहासिक द्वंद्ववाद
की भावना को समझकर अपने वर्गीय हितों के लिए आसानी से संगठित हो सकते हैं. इसलिए उनकी वर्गचेतना ही चीन में साम्यवादी क्रांति का सूत्रधार बनेगी. माओ किसान का बेटा था. साम्यवादी पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने से पहले वह छह महीने तक एक क्रांतिकारी संगठन में काम कर चुका था. उसके बाद मार्क्सवाद के अध्ययन के लिए वह उससे अलग हो गया. बीजिंग में अध्ययन के दौरान उसकी भेंट ली दझाओ और चेन दुजियु से हुई. तीनों क्रांति के समर्थक थे तथा लक्ष्य-प्राप्ति के लिए हिंसा का सहारा लेने से भी उन्हें परहेज नहीं था.
साम्यवादी
क्रांति के लिए संघर्ष करते हुए माओ इस नतीजे पर पहुंचा कि क्रांति की
सफलता के लिए शहरी मजदूरों के बजाय किसानों पर अधिक विश्वास करना चाहिए. इस विचार के लिए माओ को अनेक नेताओं और बुद्धिजीवियों की आलोचना का पात्र बनना पड़ा. परंतु आलोचनाओं से हतोत्साहित हुए बिना माओ किसानों को साथ लेकर माक्र्सवादी क्रांति की सफलता के लिए संघर्ष करता रहा. चीन के गांवों में विद्रोही किसानों को एकजुट करते हुए उसने चीनी सोवियत रिपब्लिक की नींव रखी. उसकी लालसेना ने चियांग केई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी सेना पर हमले आरंभ कर दिए. राष्ट्रवादी सेना की ताकत बड़ी थी. उसको जापान जैसे पड़ोसी देशों का समर्थन भी प्राप्त था. माओ ने छापामार युद्ध की शैली को अपनाया, जिसमें लालसेना को भारी सफलता मिली. बढ़ी हुई ताकत से वह जापानी मदद से लैस राष्ट्रवादी सेना को पराजित करने में सफल रहा. इस जीत ने उसको चीनी मजदूरों और किसानों का निर्विवाद नेता बना दिया. 1931 में उसे चीन की साम्यवादी पार्टी का नेता चुन लिया गया, इस पद पर वह अगले 45 वर्षांे तक बना रहा. अपने उग्र भाषणों से माओ ने चीनी जनता का दिल जीतने में सफलता प्राप्त की. धीरे-धीरे उसकी ताकत बढ़ती गई. एक दिन ऐसा आया जब उसकी ख्याति चीन की सरहदों को पार कर सोवियत संघ पर छाने लगी. सोवियत संघ ने उसके आगे मदद का प्रस्ताव रखा. उस पेशकश को ठुकराते हुए वह अपने ही दम पर मुक्ति-संघर्ष को आगे बढ़ाता रहा.
अंततः 1949 में लंबे गृहयुद्ध के बाद माओ के नेतृत्व में चीन में साम्यवादी सेना को जीत हासिल हुई. उस समय रूस की ओर से नई सरकार को समर्थन के साथ-साथ सहयोग की पेशकश गई. परिणाम की चिंता किए बिना ही माओ ने सोवियत संघ पर आरोप लगाया कि वहां साम्यवादियों के बीच कुछ ‘बुर्जुआ’ घुसपैठ कर चुके हैं. इस आलोचना से नाराज होकर सोवियत संघ ने 1960 में चीन को दी जाने वाली तकनीकी मदद से हाथ खींच लिया. उससे घबराए बिना माओ अपने दम पर चीन को समृद्धि की ओर आगे बढ़ाता रहा. उसकी दृढ़ आस्था थी कि तीसरे देशों में जहां औद्योगिक क्रांति अभी तक सफल नहीं हो पाई है, वहां कृषक संघों की मदद से सर्वहारा क्रांति को सफल बनाया जा सकता है. माओ की सफलता से मार्क्सवाद और लेनिनवाद की कमजोरियों को उजाकर किया था. यहां
बताना प्रासंगिक होगा कि लेनिन के नेतृत्व में सोवियत संघ की सरकार द्वारा
पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष का नारा देते हुए जनाधिकारों की व्यापक
उपेक्षा की गई थी. इसकी भरपाई के लिए माओ ने चीन के अतीत और संस्कृति का सहारा लिया. परिणामस्वरूप वह चीनी समाज को एकता के सूत्र में बांधे रखने में सफल हुआ. उसके विचारों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर माओवाद के नाम से जाना जाता है, जो साम्यवाद की ही सहोदर विचारधारा है.
ओमप्रकाश कश्यप
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