रोजा लेक्समबर्ग : क्रांति की हुंकार
पूंजीवादी स्पर्धा श्रमिकों के शोषण एवं उत्पीड़न पर टिकी थी. उससे निपटने के लिए जर्मनी, पोलेंड, लिथुआनिया, आस्ट्रिया, स्पेन आदि देशों में श्रमिकबल संगठित होने लगे थे. जर्मन के धनवान यहूदी व्यापारी के बेटे फर्डीनेंड लेसली(1825—1865) जो 1848—49 की क्रांति में भी सक्रिय भूमिका निभा चुका था, जिसके लिए उसको निष्कासित कर, बर्लिन में रहने पर प्रतिबंध लगा दिया था, ने 1863 में ‘जनरल जर्मन वर्कर्स एशोसिएसन’ का गठन किया था. यह संगठन कुछ वर्षों श्रम-सुधारों की मांग करता रहा. इस बीच लेसली ने जर्मन में सहकारिता आंदोलन के प्रवर्त्तक शुल्जे-डीलिश का विरोध कर, अपने लिए खासी बदनामी भी बटोरी. सहकारिता आंदोलन स्वयं पूंजीवाद से संघर्ष कर रहा था. स्पर्धाविहीन
उत्पादनतंत्र की स्थापना को समर्पित यह आंदोलन अल्प समय में ही स्वयं को
पूंजीवादी व्यवस्था का सशक्त विकल्प सिद्ध कर चुका था. प्रकटरूप में उसका लक्ष्य भी साम्यवाद की अभिकल्पना के अनुरूप अर्थिक समानता पर आधारित समाज की स्थापना करना था. केवल उसका रास्ता भिन्न था. सहकारिता के माध्यम से एक मौन अहिंसक आर्थिक क्रांति यूरोप में जन्म ले चुकी थी. प्रारंभ में उसका केंद्र इंग्लेंड था, किंतु कुछ ही वर्षों में विश्व के अन्य हिस्सों पर भी वह अपनी पकड़ बना चुका था.
बहरहाल, लेसली द्वारा स्थापित संगठन उसकी की मृत्यु के पश्चात सुप्तावस्था में चला गया. इस बीच नई रणनीतियों पर काम होता रहा. पूंजीवाद को परास्त करने के लिए श्रमिक संगठनों के नए-नए समीकरण बनते-बिगड़ते रहे. उनीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में केंद्रीय यूरोप में कई महान श्रमिक नेताओं का जन्म हुआ, आगे चलकर जिन्होंने जर्मन के समाजवादी आंदोलन को नई दिशा दी. उन नेताओं, विचारकों में फ्रेंज मेहरिंग, एडुअर्ड बर्संटीन, कार्ल कार्टस्की, आ॓गस्ट बेबल तथा रोजा लेक्समबर्ग आदि प्रमुख थे. इनमें रोजा लेक्समबर्ग तथा कार्ल का॓र्टस्की ने माक्र्सवाद की नई व्याख्या कर उसके लिए जर्मनी में नई जमीन तैयार करने का काम किया. इस बीच बिस्मार्क जैसा दूरदृष्टा नेता भी जर्मनी को मिला जिसने संगठित और शक्तिशाली जर्मन गणतंत्र की नींव रखी. यहां हम जर्मनी में जर्मनी में श्रम-क्रांति की प्रमुख सूत्रधार रोजा लेक्समबर्ग के जीवन-चरित के माध्यम से इस चर्चा को आगे ले जाने का प्रयास करेंगे.
रोजा लेक्समबर्ग का जन्म 5 मार्च, 1871 को रूस अधिकृत पोलेंड के जा॓मोक नामक स्थान पर हुआ था. परिवार यहूदी था. पिता इलीज लेक्समबर्ग लकड़ी का कारोबार करते थे. मां का नाम था—लीन लोवेंसटिन. घर की आय सीमित थी. बड़ी मुश्किल से परिवार का गुजारा होता. रोजा अपने पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थी. बचपन से ही उसने दर्शा दिया था कि वह दूसरों से हटकर है. लेकिन नियति उसको बाहर से नहीं, भीतर से मजबूत बनाना चाहती थी. शायद इसीलिए जन्म के पांचवे वर्ष में वह गंभीररूप से बीमार पड़ी. कूल्हे का आपरेशन कराना पड़ा. महीनों तक बिस्तर पर रहने के पश्चात वह चलने-फिरने लायक तो हुई, पर शरीर में दोष आ गया. उसका मुड़ा हुआ बदन, लंगड़ी चाल, कमजोर शरीर समवयस् बच्चों के अच्छे-खासे मजाक का विषय बन गया. माता-पिता उसको देखकर चिंतित होते थे. पर रोजा के भीतर जो दूसरी लड़की छिपी थी—वह इरादों की पक्की, संकल्पवान, प्रखर मेधावी, पढ़ाकू और उदार थी. उस समय भला कौन सोच सकता था कि वह बीमार दिखने वाली कमजोर लड़की, जो ढंग से चल भी नहीं पाती थी, उपचार के दौरान जिसका ऐंठ-सा गया था, एक दिन पोलेंड और जर्मनी में मार्क्सवाद की नए सिरे से व्याख्या करेगी. अपनी संकल्प-निष्ठा के दम पर एक दिन वह सर्वहारा आंदोलन को नई दिशा देने में सफल सिद्ध होगी. उसकी आवाज इतनी बुलंद और प्रभावी होगी कि सुनकर पूंजीपतियों के कलेजे दहलने लगें. तानाशाह शासक का आसन डगमगाने लगे. अमेरिका के साम्यवादी नेता-विचारक बेटर्म डी. वुल्फ ने रोजा लेक्सबर्ग के व्यक्तित्व के बारे में लिखा है—
‘रोजा को देखकर कोई यह नहीं बता सकता था कि आगे चलकर वह अभागिन लड़की नायिका बनेगी और श्रमिकों की कद्दावर नेता सिद्ध होगी. बचपन में कूल्हे के इलाज ने उसके शरीर को कमजोर और बेढंगा कर दिया था. वह लंगड़ाकर चलती. उसकी चाल बहुत भद्दी प्रतीत होती. लेकिन जब वह बोलना शुरू करती तो लोग देखते कि उसकी बड़ी-बड़ी भावप्रवण आंखें मानो उपस्थित जनसमुदाय की सहनशीलता पर कटाक्ष कर रही हैं. संवेदना उनसे रह-रहकर छलछलाती. उनमें संघर्ष की आतुरता, व्यंग्य और उपहास भरा होता. जब वह किसी सभा या बैठक के दौरान फर्श पर बैठती तो उसकी ऐंठी हुई देह मानो कुछ और तन जाती. उस समय वह कहीं अधिक प्रभावशाली नजर आती. उसकी आवाज तेज, ओजमय तथा कंपकपाती हुई बाहर आती और कानों से सीधे दिल में पैठती चली जाती. वह गाती भी बहुत सुंदर थी. उसकी वक्रोक्तियां मारक, तर्क बहुत गहरे और स्पष्ट होते. उसका भाषण सुनकर लोग उसकी प्रतिभा से चमत्कृत होते, पर सच में वह उनकी कल्पना से कहीं अधिक बुद्धिमान थी.’
रोजा जब नौ वर्ष की हुई तो उसके माता-पिता वारसा के लिए प्रस्थान कर गए. वहां उसको सरकारी स्कूल में भर्ती करा दिया गया. स्कूल में रोजा ने सिद्ध किया कि वह अति साधारण, विकलांग लड़की असाधारण प्रतिभाशाली है. किशोरावस्था से युवावस्था की ओर बढ़ती रोजा अब समाज को समझने लगी थी. खुद उसका अपना जीवन अभावों से भरा था और वह जातनी थी कि उसका तथा अन्य सर्वहारा परिवारों का जीवन इतना त्रसदीमय क्यों है. समाज का आर्थिक स्तर पर विभाजन देख उसकी त्योरियां चढ़ जाती थीं. वह यह देखकर खिन्न होती कि आर्थिक असमानता की खाई उत्तरोत्तर गहराती जा रही है. श्रमिकों ने अपनी दुर्दशा को नियति की तरह स्वीकार लिया है. उन्हीं दिनों उसका संपर्क साम्यवादी आंदोलन के नेताओं से हुआ. माक्र्स के विचारों का रोजा पर जादुई असर हुआ. वह उसकी ओर खिंचती चली गई. राजनीति के प्रति आकर्षण के कारण वह वामपंथी दलों के संपर्क में आई. 1886 में उसने पोलेंड के वामपंथी दल की सदस्यता ग्रहण कर ली. श्रमिक आंदोलन में हिस्सा लेते समय उसका निर्भीक और प्रखर आंदोलनकारी रूप सामने आने लगा. असल में वह नई रोजा थी, जो अपनी शारीरिक अक्षमताओं को कदम-कदम चुनौती देती, श्रमिकों का संगठित होने के लिए आवाह्न करते समय, दूसरों को चमत्कृत करती प्रतीत होती थी. उन दिनों पोलेंड में साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा था. श्रमिक पूंजीवाद के विरोध में संगठित हो रहे थे. रोजा ने अपनी राजनीति की शुरुआत ही हड़तालों और धरने के साथ की. सरकार सतर्क थी और ताकत के मद में चूर भी. परिणाम यह हुआ कि रोजा की पार्टी के चार प्रमुख नेताओं को मृत्युदंड सुनाते हुए उसपर प्रतिबंध लगा दिया गया. निशाने पर रोजा भी थी, किंतु पार्टी के बाकी प्रमुख नेताओं के साथ भूमिगत होकर वह स्वयं को बचाने में सफल हो गई. सरकार सख्ती पर थी. इसके बावजूद रोजा और उसके साथियों की भूमिगत कार्रवाहियां लगातार चलती रहीं.
1887 में रोजा ने विद्यालय की अंतिम परीक्षा में प्रवेश लिया. किंतु पूंजीपतियों द्वारा समर्थित सरकार उसके पीछे पड़ी थी. रोजा का पोलेंड में टिके रहना उसके लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता था. इस कारण उसने देश छोड़ने का निश्चय कर लिया. 1889 में गिरफ्तारी से बचने के लिए स्विटजरलेंड के लिए रवाना हो गई. इस बीच वह ज्यूरिख विश्वविद्यालय में प्रवेश ले चुकी थी. स्विटजरलेंड में रहते हुए उसने दर्शनशास्त्र, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, गणित, समाजविज्ञान आदि विषयों का गहरा अध्ययन किया. राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, मध्यकालीन इतिहास जैसे विषयों में तो उसने प्रवीणता प्राप्त की थी. स्विटजरलेंड में उसकी भेंट रूस के क्रांति-समर्थक समाजवादी नेता अलेक्जेंद्र कोलोतई, जार्ज प्लेखनोव तथा पावेल एक्सींोड से हुई, जो वहां रूस से निष्कासन की सजा भुगत रहे थे. रोजा की बुद्धिप्रखरता तथा उसकी सिद्धांत-निष्ठा ने उन सभी को प्रभावित किया. 1890 में उसका संपर्क लिओ जोगीच्स से हुआ. दोनों प्रेम-बंधन में बंध गए. बिना किसी रस्मो-रिवाज के बना उनका यह स्नेह-संबंध मृत्युपर्यंत बना रहा.
लियो जोगीच्स तथा जुलियन मारक्लेवस्की के साथ मिलकर रोजा ने 1893 में एक समाचारपत्र की स्थापना थी, शीर्षक रखा—‘दि वर्कर्स का॓ज.’ उसका प्रमुख ध्येय श्रमिकों के बीच वर्गीय चेतना का विस्तार करना था. अपने प्रथमांक के साथ ही पत्र ने राष्ट्रवादी राजनीति का विरोध करना आरंभ दिया. इससे वह पोलेंड की समाजवादी पार्टी के निशाने पर आ गई. रोजा और उसके साथियों की मान्यता थी कि जर्मनी, रूस, आस्ट्रिया में संयुक्त समाजवादी क्रांति से ही आत्मनिर्भर पोलेंड का जन्म हो सकता है. पोलेंड के अन्य राजनीतिक दल जहां पोलेंड की रूस से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे, वहीं रोजा का मानना था कि संघर्ष का लक्ष्य राजनीतिक दासता तथा पूंजीवादी उत्पीड़न दोनों से संपूर्ण मुक्ति के लिए छेड़ा जाना चाहिए. 1898 में रोजा ने जर्मन निवासी गुस्ताव लुबेक से विवाह किया. इस विवाह का वास्तविक उद्देश्य जर्मनी की नागरिकता प्राप्त करना था, जहां वह अपेक्षाकृत सुरक्षित महसूस करती थी. विवाहोपरांत वह बर्लिन मे रहने लगी. वहां लियो जोगीच्स के साथ मिलकर उसने ‘सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी’ की स्थापना की. वहीं उसका संपर्क प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक कार्ल कोटस्की से हुआ, जो आगे चलकर जर्मन में माक्र्सवादी विचारों के प्रचार-प्रसार तथा समाजवादी क्रांति की सफलता में सहायक बना. इस बीच पोलेंड की स्वाधीनता को लेकर रोजा और लेनिन के बीच मतभेद उभरने लगे. रोजा पोलेंड के लिए पूर्ण स्वराज की मांग कर रही थी, जबकि लेनिन पोलेंड को महज राजनीतिक स्वायत्तता दिए जाने के पक्ष में था. अपने विरोध को रचनात्मक रूप देते हुए रोजा ने 1904 में ‘आर्गेनाइजेशन क्वश्चन्स आ॓फ रशियन डेमोक्रेसी’ की रचना की. इस पुस्तक में उसने लेनिन की वर्चस्वकारी राजनीति की आलोचना की थी. पुस्तक में उसने लिखा था—
‘लेनिन चाहते हैं कि समस्त स्थानीय समितियों के नामकरण का श्रेय पार्टी की केंद्रीय समिति को मिले. उसे जिनेवा से लीग तथा टाम्स से इर्कुटस्क तक पार्टी के स्थानीय संगठनों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त करने का अधिकार भी प्राप्त हो. यही नहीं वह चाहता है कि केंद्रीय समिति को पार्टी की आचारसंहिता में पूर्वनिर्धारित कायदे-कानून थोपने का अधिकार भी प्राप्त हो….अर्थात वह चाहते हैं कि वैचारिक निर्णय लेना का अधिकार सिर्फ केंद्रीय समिति तक सीमित हो, बाकी सब शाखाएं उस पर आश्रित हों.’
रोजा का मानना था कि यदि लेनिन के विचारों के आधार पर क्रांति हुई तो उसकी परिणति अंत में साम्यवादी तानाशाही के रूप में होगी. लेनिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ की राजनीति में आए परिवर्तनों ने रोजा की भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध किया था. 1900 में रोजा ने यूरोपीय देशों की समाजार्थिक समस्याओं का विश्लेषण करते हुए एक लेख लिखा, जिसमें उसने ‘पूंजी’ तथा ‘श्रम’ के अंतःसंबंधों को बहुत गहराई से विवेचित किया था. 1905 में रोजा के जीवन का महत्त्वपूर्ण पड़ाव तब आया जब आ॓गस्ट बेबल ने उसको ‘सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी’ के मुखपत्र ‘वोरवार्ट’(फारवर्ड) का संपादक नियुक्त किया. उस समय तक रूस में स्थिति बिगड़ चुकी थी. लेनिन के नेतृत्व में किसान-श्रमिक संगठित होकर रूस की जारशाही से मोर्चा ले रहे थे. उसी वर्ष यानी 1905 में रूस में बोल्शेविक क्रांति भड़क उठी. रोजा लेक्समबर्ग और उसके सहयोगी लियो जोगीस्च को क्रांतिकारियों का साथ देने, उन्हें हिंसा के लिए भड़काने का आरोपी मानकर गिरफ्तार कर लिया गया. 1904 से 1906 की अवधि में रोजा को तीन बार जेल जाना पड़ा.
जर्मन
सरकार की साम्राज्यवादी नीतियां एक बड़े युद्ध को आमंत्रित कर रही हैं—यह
भांपते हुए रोजा ने जर्मन सरकार की युद्धप्रियता और साम्राज्यवादी ललक पर
लगातार प्रहार करना शुरू कर दिया. वह चाहती थी कि श्रमिक वर्ग संगठित होकर हड़ताल आदि अहिंसक गतिविधियों द्वारा सरकार पर भरपूर दबाव बनाए, ताकि संभावित युद्ध को टाला जा सके. रोजा के विचार को सामाजिक-गणतांत्रिक दल के सहयोगियों ने ही नकार दिया. इसे लेकर रोजा और कार्ल कोटस्की के मतभेद भी सामने आ गए. रोजा के कई सहयोगी पहले ही गिरफ्तार किए जा चुके थे. कुछ भूमिगत रहकर आंदोलन की जैसे-तैसे मदद कर रहे थे. ‘रशियन सोशल डेमोक्रेट’ अपना पांचवा स्थापना दिवस मनाने जा रही थी. इस अवसर पर 1907 में रोजा लंदन पहुंची. वहां उसकी भेंट लेनिन से हुई. उसको अब भी भरोसा था कि मजदूर संगठनों के संयुक्त दबाव से युद्ध की विभीषिका को टाला जा सकता है. रोजा के विचार 1906 में ‘दि मास स्ट्राइक, दि पाॅलिटिकल पार्टी एंड ट्रेड यूनियनस’ में प्रकाशित हुए. लेख
में उसने तर्क दिया था कि बड़ी हड़ताल द्वारा श्रमिकों को न केवल प्रगतिगामी
बनाकर समाजवादी क्रांति के प्रति उन्मुख बनाया जा सकता है, बल्कि युद्धोन्माद में डूबी सरकारों को भी, जिनकी स्वार्थपरता एवं साम्राज्यवादी लालसा दुनिया को मौत के मुहाने की ओर ढकेल रही है, प्रतिहिंसात्मक गतिविधियों से दूर रहने के लिए बाध्य किया जा सकता है. उसने लिखा था कि जनांदोलन के रूप में हड़ताल स्वाभाविक और निर्णायक गतिविधि है. सर्वहारावर्ग और पूंजी के संघर्ष में तो वह एकदम अपरिहार्य और विशिष्ट औजार है. उसने लिखा था कि प्राचीनकाल में बड़े संघर्ष छावनियों और युद्ध के मैदानों में लड़े जाते थे. जबकि सर्वहारा का संघर्ष खुली सड़कों तथा गलियारों में लड़ा जाएगा, अंततः वह निर्णायक एवं परिवर्तनकामी सिद्ध होगा. 1907 में रोजा ने एक और दायित्व अपने कंधों पर उठा लिया. वह था ‘सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी’ के नेताओं, विशेषकर नवयुवकों को समाजवादी विचारधारा से अवगत कराने का. 1914 तक वह अध्यापन कार्य में लगी रही. उसके शिष्यों में फ्रैड्रिक इबर्ट जैसे महान नेता थे. अध्यापक के रूप में उसका दायित्व माक्र्सवाद और समाजवादी दर्शन के बारे में शिक्षा देना था. किंतु उसके विचार माक्र्सवाद पुनरावृत्ति मात्र नहीं हैं. रोजा कई जगह पर माक्र्स से असहमत थी, जिसको उसने खुलकर अभिव्यक्ति दी थी. इस बारे में रोजा की प्रशंसा करते हुए बेर्टम दा. वाल्फ ने लिखा है—
‘अधिकांश जर्मन विद्वानों ने अपने लेखनकार्य में माक्र्सवादी विचारधारा को महज दोहराने अथवा उसकी पुनर्प्रस्तुतिकरण जैसा काम किया है. उनसे अलग रोजा लेक्समबर्ग ने पहले तो माक्र्सवाद से शालीन दूरी बनाए रखकर माक्र्स के मूल्य के श्रम-सिद्धांत की मौलिक व्याख्या की, तत्पश्चात उसने पूंजी के दूसरे खंड की कमजोरियों की समीक्षा करते हुए स्वयं माक्र्स को ही कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया.’
रोजा के मौलिक सोच का सबसे अच्छा उदाहरण प्रथम विश्वयुद्ध में उसकी भूमिका थी, जिसमें उसने सर्वहारा-शक्ति का उपयोग युद्ध की विभीषिका को टालने के लिए किया था. 1912 में यूरोपीय समाजवादी संगठन की बैठक हुई, जिसमें रोजा ने ‘सामाजिक गणतांत्रिक दल’ के प्रतिनिधि के रूप में हिस्सा लिया था. उस समय तक विश्व पर युद्ध के गहरे बादल मंडराने लगे थे. जर्मनी सेनाएं युद्ध की तैयारियों में लगी थीं. राष्ट्रवादी नेता युद्ध के समर्थन में थे. ऐसे चुनौतीपूर्ण दौर में 1913 में एक विशाल सभा को संबोधित करते हुए रोजा ने कहा था कि—‘‘यदि वे यह सोचते हैं कि हम अपने फ्रांसिसी तथा अन्य धर्म-बंधुओं को मारने के लिए हथियार उठाने जा रहे हैं तो उन्हें हमारा एक ही अंतिम मगर करारा जवाब होगा, ‘नहीं, हम यह कार्य हरगिज नहीं करेंगे.’’
किंतु अतिमहत्त्वाकांक्षी और युद्धोन्मत्त राष्ट्राध्यक्षों के आगे रोजा की यह अपील नाकाम सिद्ध हुई. युद्ध छिड़ गया. नए-नए देश उसमें शामिल होते चले गए. रोजा के लिए फिर परीक्षा की घड़ी थी. ‘सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी’ के अधिकांश सदस्य युद्ध के समर्थन में थे. उन्होंने साम्राज्यवादी सरकार से समझौता करते हुए युद्ध के दौरान किसी भी प्रकार की हड़ताल न करने का वचन दिया था. रोजा यह देख हतप्रभ थी. राजनीतिक अवसरवादिता एक बार फिर विजयी हुई थी. प्रतिक्रियावादी नेता अपनी बात मनवाने में सफल रहे थे, जिसके विरुद्ध वह आरंभ से ही संघर्ष करती आ रही थी. पार्टी-नीति की परवाह न करते हुए रोजा ने युद्ध-विरोध जारी रहा. युद्ध का विरोध करने के लिए उसने फ्रेंकफर्ट में भारी प्रदर्शन किया, जिसमें हिंस्र सैन्य अभियान का विरोध किया गया था. सरकार ने बलप्रयोग करते हुए उसको गिरफ्तार कर लिया गया.
रोजा न केवल प्रदर्शनों और जनसभाओं के माध्यम से जनता में चेतना लाने का प्रयास कर रही थी, साथ ही उसकी कलम भी अपना काम कर रही थी. 1913 में उसकी महान कृति ‘दि एक्युमुलेशन आ॓फ कैपीटल: ए कंट्रीब्यूशन टू एन इकानामिक एक्सप्लेनेशन आ॓फ इंपीयरिलिज्म’ प्रकाशित हुई, जिसमें पूंजी के साम्राज्यवादी चरित्र तथा उसकी वर्चस्वकारी रणनीति पर गंभीर विमर्श किया गया था. इस पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही रोजा लक्समबर्ग की गिनती अपने समय के मूर्धन्य विद्वानों तथा मार्क्सवादी विचारकों में होने लगी थी. इस पुस्तक के लिए रोजा की प्रशंसा करते हुए फ्रेंज मेहरिंग ने उसको, ‘मार्क्स और एंगल्स के सामाजिक विज्ञानवेत्ता उत्तराधिकारियों में सर्वाधिक प्रतिभाशाली शख्स’ की उपाधि से सम्मनित किया है.
‘दि एक्युमुलेशन आ॓फ कैपीटल’ के प्रकाशित होते ही रोजा को पार्टी की वामपंथी शाखा का प्रतिष्ठित सदस्य बना दिया गया था. उसका पूंजीवाद विरोध लगातार तीखा होता जा रहा था. प्रत्येक सभा में वह श्रमिकों को संगठित विरोध के लिए तैयार होने, एकजुट होकर बुर्जुआ समाज पर हमला बोलने का आवाह्न करती. उसका यह विश्वास कि हिंसात्मक कार्यवाही द्वारा पूंजीवाद को खदेड़ा जा सकता है, लगातार दृढ़ होता जा रहा था. उसकी बढ़ती लोकप्रियता ने जहां पार्टी के भीतर ही ईष्र्यालु पैदा कर दिए थे, वहीं उसके पुराने सहयोगियों यथा कार्ल कोटस्की तथा आ॓गस्त बबेल के बीच की दूरियां भी निरंतर विस्तार ले रही थीं. पार्टी की वामपंथी शाखा विश्वयुद्ध टालने के लिए लगातार प्रयासरत थी. 1914 में रोजा ने कार्ल लीबनेच्ट, क्लारा जेटकिन, लियो जोगीस्च, फ्रेंज मेहरिंग, पा॓ल लेवी आदि सहयोगियों के साथ मिलकर ‘दि इंटरनेशनल गु्रप’ नामक संगठन की स्थापना की. उद्देश्य था पूंजीवाद और साम्राज्यवादी सरकारों की युद्धोन्मत्ता के विरोध में जनचेतना पैदा करना. 1916 में इस संगठन का नाम बदलकर थे्रशिया के महानतम दासयोद्धा स्पार्टकस की स्मृति में ‘स्पार्टकस लीग’ कर दिया गया. यह वही स्पार्टकस(109 ईसा पूर्व—71 ईसा पूर्व) था जिसने तीसरे दास विद्रोह में साम्राज्यवादी रोम के विरुद्ध भीषण संघर्ष किया था तथा अपने अद्भुत रणकौशल से रोम की भारी-भरकम सेना को कई बार पीछे हटने के लिए विवश कर दिया था. अपनी मित्र-मंडली में रोजा ‘जीनियस’ के नाम से जानी जाती थी. वामपंथी
विचारधारा को समर्पित ‘स्पार्टकस लीग’ ने ‘समाजवादी गणतांत्रिक पार्टी’ की
युद्धनीति की आलोचना करते हुए जर्मनी के श्रमिकों का आवाह्न किया कि वे
युद्ध के विरोध में आगे आएं. इससे चिढ़कर सरकार ने रोजा को कैद कर लिया. किंतु कारावास में रहकर भी वह क्रांतिकारी गतिविधियों का नेतृत्व करती रही. जेल में उसका समय लिखते-पढ़ते हुए बीतता था. मित्रों के माध्यम से उसके लेख बाहर प्रकाशित होते तो राष्ट्रवादी सरकार में सनसनी-सी फैल जाती थी. जेल में रहकर ‘रूस की बोल्शेविक क्रांति’ पर लिखे गए लेख में रोजा ने उसकी आलोचना की थी. बोल्शेविक क्रांति के फलस्वरूप रूस में हुए सत्ता-परिवर्तन को उसने ‘सर्वहारा का अधिनायकवाद’ कहकर बुलाना आरंभ कर दिया था. रोजा ने लिखा कि—
‘स्वाधीनता सदैव उस व्यक्ति को प्राप्त होती है, जो दूसरों से अलग हटकर नए ढंग से सोचता है.’
रोजा का अगला आलेख ‘दि क्राइसिस आॅफ सोशल डेमोक्रेसी’ था. इस लेख में उसने गणतांत्रिक प्रणाली के अंतर्विरोधों तथा उसकी चुनौतियों की चर्चा की थी. 1917 में सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी की युद्ध-समर्थक
नीति के विरोध में उसके कुछ सदस्यों ने अलग होकर ‘इंडीपेंडेंट सोशल
डेमोक्रिटिक पार्टी’ की स्थापना की तो रोजा की ‘स्पार्टकस लीग’ ने उससे
गठबंधन कर लिया. 1918 की जर्मन क्रांति के बाद हुए परिवर्तन के दौरान सत्ता ‘इंडीपेंडेंट सोशल डेमोक्रिटिक पार्टी’ के अधिकार में आ गई. क्रांति की शुरुआत केल से, राजशाही तथा विश्वयुद्ध दोनों के खात्मे के पक्ष में कामगारों तथा सिपाहियों के विद्रोह के बाद हुई थी. रोजा लेक्समबर्ग का दृढ़ विश्वास था कि युद्ध श्रम-विरोधी है. केवल वही शक्तियां युद्ध के समर्थन में हैं, जो किसी न किसी प्रकार साम्राज्यवाद और/अथवा पूंजीवाद से लाभान्वित हो सकती हैं. श्रमिक वर्ग के पास न तो पूंजी है, न ही राजनीतिक शक्ति, इसलिए विश्वयुद्ध में जर्मन की भागीदारी से इस वर्ग को कोई लाभ पहुंचने वाला नहीं है. ऊपर से युद्ध की विभीषिका के अलावा महंगाई और महामारी जैसी मानव-निर्मित आपदाओं का सामना अकेले इसी वर्ग को करना पड़ेगा. कार्ल माक्र्स ने कहा था कि श्रमिक का कोई एक देश नहीं, बल्कि विश्व समुदाय है. इसलिए उन्हें सारी दुनिया के मजदूरों के बारे में सोचना चाहिए. रोजा श्रमिकों के ऐसे ही श्रमिक गणतंत्र के पक्ष में संघर्षरत थी, इस उद्देश्य में वह क्षेत्रीयता और धार्मिक आग्रहों को बाधक मानती थी. उसका मानना था कि संघर्ष को गति देने के लिए श्रमिकों के मन में देश, जाति, वर्ण की सीमा से परे, विश्वबंधुत्व की भावना का विकास अपरिहार्य है. एक अवसर पर जर्मनी में यहुदियों के उत्पीड़न के बारे में एक प्रश्न पर उसने तत्काल कहा था—
‘आप मेरे पास केवल यहुदियों के दुख-दर्द की समस्या लेकर क्यों आए हैं. मुझे उतना ही क्लेश पुटामाओ में आदिवासी मजदूरों, अफ्रीका में नीग्रो समुदाय के औपनिवेशिक उत्पीड़न पर है. मेरे दिल का कोना केवल यहुदियों के लिए सुरक्षित नहीं है, बल्कि समस्त विश्व-समाज, जहां तक चिड़ियों का बसेरा और बादलों का घेरा है—मेरा घर है.’
रोजा और उसके साथियों ने युद्ध को टालने के भरसक प्रयास किए. किंतु वे असफल रहे. युद्ध का विरोध करते हुए रोजा तीन बार जेल जा चुकी थी. लेकिन जेल भेजने के बाद भी अधिकारियों में उसकी दहशत कम नहीं हुई थी. यह रोजा द्वारा चलाए गए आंदोलनों का डर ही था कि कारावास के दौरान सरकार ने गोपनीयता के नाम पर उसके कारागार दो बार बदलवाया था. उसके लेखों पर पाबंदी लगाई जा चुकी थी. लेकिन रोजा की देह को कैद करना भले आसान हो, उसके सोच पर लगाम लगाना असंभव था. कारावास में रहते हुए रोजा ने जर्मनी में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था—‘रूस की क्रांति’. इस लेख में उसने रूस की साम्यवादी सरकार की तीखी आलोचना की थी. उसने लिखा था कि रूस की बोल्शेविक सरकार असल में सर्वहारा वर्ग की निरंकुश सरकार है. यह लेख रोजा केे मित्रें के जरिये जेल से बाहर गया और प्रकाशित भी हुआ. इससे सरकार चिढ़ गई और रोजा को गिरफ्तार कर लिया. इस बार भी डरी हुई राष्ट्रवादी सरकार रोजा का ठिकाना बदलती रही. आखिर 8 नवंबर, 1918 को रोजा को जेल से रिहा कर दिया गया. उसी दिन एक और क्रांतिकारी साम्यवादी को मुक्त कराया गया था, उसका नाम था कार्ल लेबनेट.
रोजा के कारावास के दिनों में ‘स्पार्टकस लीग’ का आंदोलन बिखर चुका था. बाहर आते ही उसने एक बार फिर स्वयं को श्रमिक आंदोलन की तैयारियों में झोंक दिया. कार्ल लेबनेट के साथ मिलकर उसने लीग को नए सिरे से संगठित करना आरंभ कर दिया. श्रमिक चेतना के विस्तार के लिए उसने ‘रेड फ्लेग’ नामक समाचारपत्र का संपादन करना आरंभ किया. उस
समाचारपत्र के माध्यम से रोजा ने राजनीतिक बंदियों की मुक्ति तथा
मृत्युदंड को हमेशा के लिए समाप्त किए जाने की मांग सरकार के सामने रखी. श्रमिक आंदोलन को नए जोश के साथ आगे बढ़ाने की तैयारियां भी जोरों पर थीं. 14 दिसंबर, 1918 को रोजा ने ‘स्पार्टकस लीग’ के नए आंदोलन रूपरेखा को कार्यकर्ताओं के सामने रखा. यहां प्रसंगवश स्पार्टकस के बारे में जान लेना उचित होगा. स्पार्टकस थ्रशिया में जन्मा था. उसके जन्म के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं है, कुछ विद्वानों के अनुसार उसका जीवनकाल 109 ईसा पूर्व से 71 ईसा पूर्व है. वह प्रशिक्षित रोमन प्रशिक्षित सैनिक था. उसकी वीरता के किस्से रोम की सेनाओं में शान से सुने-सुनाए जाते थे. एक युद्ध में गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद स्पार्टकस को भी दूसरे सैनिकों की भांति दास बना लिया गया. इसी से स्पार्टकस ने दासप्रथा के विरुद्ध संघर्ष के लिए युद्ध छेड़ दिया. मगर दास प्रथा के उन्मूलन में राजशाही सबसे बड़ी बाधक थी. स्पार्टकस ने दासों को राजशाही के विरुद्ध संगठित करना आरंभ कर दिया और अवसर मिलते ही राजशाही के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया. कुछ ही अवधि में उसके साथ नब्बे हजार सैनिक और आ मिले. युद्ध में कई मोर्चों पर स्पार्टकस को भारी सफलता मिली. रोम को पड़ोसी राज्यों के आगे मदद के लिए हाथ पसारने पड़े. अंततः साम्राज्यवादी सेनाओं के साथ निर्णायक युद्ध में स्पार्टकस को पराजय का सामना करना पड़ा. सायरस नदी के तट पर लड़े गए उस युद्ध में स्पार्टकस की मौत के बाद उसके छह हजार सैनिकों को जीवित ही सूली पर चढ़ा दिया. युद्ध में उस दास सैनिक स्पार्टकस की हार हुई थी, परंतु वह मरकर भी स्वाधीनता की कामना करने वाले नरपुंगवों का प्रेरणासोत्त बन गया.
स्पार्टकस ने रोम से राजनीतिक-आर्थिक दासता से मुक्ति का संघर्ष छेड़ा था. जिसमें रोम की जीत तो हुई, मगर उसको भारी जनहानि उठानी पड़ी थी. उससे भी बड़ा आघात उसकी प्रतिष्ठा को लगा था, वह विशाल साम्राज्य जो कभी अपनी वीरता और संपन्नता पर इतराता था, एक दास योद्धा से पराजित हो, यह गर्वोन्नमत रोमवासियों के लिए असह् था. हालांकि छह हजार दास योद्धाओं को एक साथ सूली पर चढ़ाए जाने से स्पार्टकस द्वारा छेड़ा गया संघर्ष बिखर चुका था, तथापि स्पार्टकस की वीरता और संघर्ष-भावना की गाथाएं दासों में नई आशाओं का संचार करने वाली थी. उनके बीच से दूसरा स्पार्टकस फिर कभी पैदा न हो, उनका ध्यान राजनीतिक-आर्थिक मुक्ति की ओर से हटाने के लिए धर्म का सहारा लिया गया. उससे पहले यूनान में दार्शनिक तो जन्मे, लेकिन संगठित धर्म का कोई उदाहरण नहीं मिलता. उल्लेखनीय है कि जीसस को मसीह के रूप में सबसे पहले दासों ने स्वीकृति दी थी. बहरहाल इस प्रसंग पर अधिक चर्चा विषयांतर होगी.
रोजा को गणतांत्रिक प्रणाली में पूरा विश्वास था. उसका मानना था कि समाजवादी गणतांत्रिक प्रणाली का आशय केवल नियंत्रित अर्थव्यवस्था तक सीमित नहीं है. न ही गणतंत्र कोई ऐसी वस्तु है जिसे क्रिसमस के उपहार की भांति जनता को भेंट किया जा सके. उसका मानना था कि समाजवाद असल में वर्ग-भेदयुक्त व्यवस्था के उन्मूलन की स्थिति है, जिसका शुभारंभ ही वर्गविभाजित समाज के पतन से होता है. यह सर्वहारा की तानाशाही जैसा ही है. वह तानाशाही शब्द पर बहुत जोर देती है, किंतु स्पष्ट करती है कि उसकी तानाशाही लोकतंत्र की स्थापना के लिए होती है, न कि उसको उखाड़ फंेकने अथवा किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचाने हेतु. वह यथास्थितिवाद की पोषक न होकर रचनात्मक और सक्रिय होती है, तथा साम्यवाद की स्थापना के लिए बुर्जुआ समाज पर निरंतर प्रहार करती रहती है. इसलिए कि बिना बुर्जुआ समाज के उन्मूलन के समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त कर पाना असंभव है. सर्वहारा की तानाशाही को स्पष्ट करते हुए रोजा का आगे कहना था कि उसकी तानाशाही समूह यानी बहुसंख्यक वर्ग की तानाशाही है, न कि वर्गहीनता के नाम पर अल्पमत वाले समूह की निरंकुशता. उसका यह भी कहना था कि तानाशाही भले ही किसी वर्ग अथवा कुछ व्यक्तियों की क्यों न हो, सर्वथा अवरेण्य है. वह किसी भी जीवंत राज्य का पाथेय हो ही नहीं सकती. लेकिन बुर्जुआ वर्ग के उत्पीड़न से मुक्ति के लिए सर्वहारावर्ग की तानाशाही से गुजरना अनिवार्य स्थिति है. रोजा का मानना था कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही किसी न किसी रूप में लोक-समर्थित होनी चाहिए. नागरिकों जैसे-जैसे राजनीतिक परिपक्वता आती है, सर्वहारावर्ग की तानाशाही उतनी ही परिपक्व होती जाती है. वह अपनी निरंकुशता भूलकर नागरिकों की सामान्य इच्छा को सुशासन में बदलने लगती है.
1918 के अंत में जर्मनी में ‘संविधान सभा’ के चुनावों की घोषणा हुई. रोजा को विश्वास था कि गणतांत्रिक प्रणाली के प्रति अपनी प्रतिबद्धता कायम रखते हुए ‘स्पार्टकस लीग’ उन चुनावों में हिस्सा लेगी. लेकिन उसके ही दल के अन्य सदस्य कूटनीतिक तरीके से सत्ता प्राप्त करने में विश्वास रखते थे. वे अपना आदर्श लेनिन को मानते थे. इस
आशय का प्रस्ताव जब रोजा के सम्मुख आया तो उसका खंडन करते हुए उसने अपने
समाचारपत्र में लिखा कि ‘स्पार्टकस लीग किसी भी ऐसे असंवैधानिक रास्ते से
सत्ता में नहीं आना चाहेगी, जो सर्वहारा वर्ग की इच्छाओं के विरुद्ध हो. वह अपने सिद्धांतों, संघर्ष के रास्तों और लक्ष्यों से कभी समझौता नहीं करेगी.’ किंतु स्पार्टकस लीग के भीतर ही कुछ नेता रोजा का विरोध करने पर उतारू थे. सत्ता का आकर्षण उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता को धुंधला रहा था.
आंदोलन की नई रणनीतियों पर विचार करने के लिए दिसंबर 1918 में ‘स्पार्टकस लीग’ तथा कुछ स्वतंत्र समाजवादियों के तत्वावधान में रोजा ने एक बड़े सम्मेलन में हिस्सा लिया. उसी सम्मेलन में जर्मनी की पहली ‘कम्युनिस्ट पार्टी आ॓फ जर्मनी’ की नींव पड़ी, जिसका श्रमिक नेताओं ने जोरदार ढंग से स्वागत किया. कार्ल कोर्टस्की, रोजा लेक्समबर्ग, बेबेल आदि नेताओं-विचारकों के नेतृत्व में, जर्मनी में माक्र्सवाद तेजी से विस्तार ले रहा था. लोग साम्यवाद की ओर आकर्षित होते जा रहे थे. उग्रपंथी कार्ल लेबनेट का विचार था कि सत्ता को बलपूर्वक उखाड़ फेंका जाए, अनेक नेता उसके समर्थन में थे. 1919 तक आते-आते बर्लिन में दूसरी क्रांति की सफलता के लिए माहौल बनता नजर आने लगा था. किंतु रोजा को हिंसात्मक कार्रवाही पर भरोसा न था. हिंसात्मक कार्रवाही की असफलता के रूप में ‘पेरिस कम्यून’ का उदाहरण उसके सामने था. मगर उस समय तक कम्युनिस्ट पार्टी समेत अनेक संगठनों पर अतिवादियों का कब्जा हो चुका था. रोजा की इच्छा के विरुद्ध ‘रेड फ्लेग’ के उग्र कार्यकर्ताओं ने हमला कर सरकार समर्थक समाचारपत्र के कार्यालय पर कब्जा कर लिया. नगर में अराजकता का वातावरण बनने लगा.
श्रमिक नेताओं के दमन के लिए उत्सुक सरकार तो मानो इसी अवसर की प्रतीक्षा में थी. विद्रोह
को कुचलने के लिए सामाजिक गणतांत्रिक पार्टी के नेता फ्रैड्रिक एबर्ट तथा
जर्मन के नए चांसलर ने सेना बुलाकर विद्रोह को किसी भी प्रकार कुचल देने का
आदेश सुना दिया गया. आदेश मिलते ही सेना आंदोलनकारियों पर टूट पड़ी. हजारों कार्यकर्ता बंदी बना लिए. सैंकड़ों को बिना किसी मुकदमे और सुनवाई के मौत के घाट उतार दिया गया. 13 जनवरी 1919 तक विद्रोह कुचल दिया गया. इसके दो दिन बाद 15 जनवरी 1919 को रोजा लेक्समबर्ग, कार्ल लेब्कनेट, विलियम पीक आदि प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. सैन्य कमांडर वाल्डेमर पाबेस्ट और हा॓स्र्ट वान फ्लुक-हार्टंग की द्वारा उनसे बलपूर्वक पूछताछ की गई. स्पष्टीकरण का अवसर दिए बिना ही रोजा को विपल्व का मुख्य सूत्रधार मानते हुए मृत्युदंड सुना दिया गया. आदेश मिलते ही रोजा को ओटो रुंग ने रायफल के बट के प्रहार से गिरा दिया. रोजा के गिरते के साथ ही लेफ्टीनेंट हरमन सूकोन ने उसके सिर पर गोली दाग दी. इसके बावजूद उनका गुस्सा शांत नहीं हुआ था. दरअसल जर्मनी की तानाशाही सत्ता के हथियारबंद कमांडर बेहद डरे हुए लोग थे. रोजा की नृशंस हत्या की सूचना पाकर श्रमिक भड़क सकते हैं. अंत उन्होंने रोजा का शव चुपके-से बर्लिन की लेडवर नहर में बहा दिया गया. रोजा के साथी कार्ल लेबनेट को भी गोली से उड़ा दिया. जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के सौ से अधिक सदस्यों को मृत्युदंड दिया गया, जबकि हजारों कार्यकर्ताओं और श्रमिकों कैद कर लिए गए. सुरक्षा परिषदों को भंग करने के आदेश के साथ ही जर्मन क्रांति के पहले दौर का समापन हो गया. ठीक साढ़े चार महीने बाद, 1 जून, 1919 को रोजा के मृत शरीर की खोज की जा सकी. उसकी मृत्यु के लिए आ॓टो रुंग को दो वर्ष की सजा सुनाई गई. हालांकि नाजी हुकुमत द्वारा रुंग को दी गई सजा की भरपाई करते हुए बाद में उसको पुरस्कृत भी किया गया.
रोजा के अंतिम शब्द जो उसने मृत्युदंड से पहले लिखे थे. उसके शब्दों में जर्मन क्रांति की असफलता पर क्षोभ तो था, किंतु उसके प्रति विश्वास कम नहीं हुआ था. सर्वहारावर्ग में अपना भरोसा कायम रखते हुए उसने एक और क्रांति की अपरिहार्यता पर जोर दिया था—
‘वर्तमान नेतृत्व पूर्णतः असफल हो चुका है. नए नेतृत्व का जन्म जनता के बीच से जनता द्वारा किया जाना चाहिए. केवल जनता ही निर्णायक शक्ति है, वही वह चट्टान है जिसपर बनी इमारत पर क्रांति की शीर्ष विजयपताका फहराई जाएगी. इतिहास साक्षी है: जनता पहले भी उच्चतम स्थान पर थी, आगे भी रहेगी. हाल की उसकी पराजय अनेकानेक ऐतिहासिक पराजयों का मामूली हिस्सा है, जो अंतरराष्ट्रीय समाजवाद के लिए गर्व और गरमाहट प्रदान करने वाला है. भविष्य की विजयश्री वर्तमान की इन्हीं पराजयों की कोख से जन्म लेगी.(तानाशाह सरकार को ललकारते हुए उसने आगे लिखा था) ‘बर्लिन में हुकूमत कायम हो चुकी है!’ मूर्ख तानाशाह, तुम्हारी हुकूमत रेत पर बनी इमारत है. वक्त आ चुका है, क्रांति कल फिर तुम्हारा दरवाजा खटखटाएगी, और तुम्हारे दरवाजे पर खड़े होकर आंतक को फिर से ललकारेगी—‘मैं थी, मैं हूं और मैं हमेशा रहूंगी.’
रोजा का लोकतंत्र में पूरा विश्वास था. वह मनुष्यमात्र की स्वतंत्रता में भरोसा रखती थी. उसका मानना था कि केवल वही लोग स्वतंत्र हो सकते हैं, जो दूसरों से अलग हटकर, मौलिक सोच रखते हैं. उसने कहा था—
‘केवल सरकार के समर्थकों की आजादी अथवा किसी राजनीतिक दल के सदस्यों की आजादी, उनकी संख्या चाहे जितनी क्यों न हों—वास्तविक आजादी नहीं है. स्वाधीनता हमेशा उन लोगों का वरण करती है, जो दूसरों से हटकर सोचते हैं. न केवल न्याय की हठधर्मिता के कारण, बल्कि इसलिए कि वह सब कुछ जो राजनीतिक स्वाधीनता के निमित्त शिक्षाप्रद, स्वास्थ्यकारी तथा शुद्धिकारक है, कुछ विशिष्ट गुणों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है. उसके प्रभाव ‘स्वाधीनता’ के कुछ लोगों का विशिष्टाधिकार बन जाने के साथ ही बेअसर होने लगते हैं.’
लोकतंत्र की सफलता तभी संभव है, जब नागरिक अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता हो. प्रेस जागरूक हो. समाज में स्वातंत्रय-चेतना हो. जनसाधारण को बिना किसी भेदभाव के निर्भय-निष्पक्ष मतदान की सुविधा प्राप्त हो. राज्य-स्तर
पर कल्याण का वितरण इस प्रकार हो कि सभी लोग समानरूप से उससे लाभान्वित
हों तथा नागरिकों में लोकतंत्र तथा उसके आदर्शों के प्रति विश्वास की अखंड
भावना हो. इनके अभाव में स्वाधीनता को प्रभावहीन होते देर नहीं लगती. विशेषकर सार्वजनिक निकायों में, जहां जनता की पूंजी लगी हो अथवा जिनका गठन लोककल्याण को ध्यान में रखकर किया गया हो, वहां स्वतंत्रता का वातावरण अनिवार्य है. इसके अभाव में उन्हें अपने लक्ष्य से भटकते, कुछ लोगों के स्वार्थ-साधन का माध्यम बनते देर नहीं लगती. रोजा का मानना था कि,
‘आम मतदान की सुविधा के अभाव में, विधायिका और प्रेस की अबाध स्वतंत्रता के बगैर, अभिव्यक्ति-स्वातंत्रय की अनुपस्थिति में, सार्वजनिक संस्थान निर्जीव बन जाते हैं, ऐसी स्थिति में केवल नौकरशाही पनप सकती है.’ अनियंत्रित नौकरशाही समाज को निरंकुशता और कालांतर में उसको अराजकता की ओर ले जाती है.
मृत्युदंड के समय रोजा की वयस् मात्र 48 वर्ष थी. उसने अपेक्षाकृत छोटा मगर सक्रिय और संघर्षशील जीवन जिया. शरीर की अपंगता को कभी मन पर सवार नहीं होने दिया. वह हमेशा श्रमिक हितों के प्रति सचेत रही. शायद ही कभी कोई अवसर ऐसा आया, जब उसने संघर्ष से मुंह मोड़ा हो. जर्मनवासी गुस्ताव लुबैक से विवाह भी किया तो महज इसलिए कि उसके माध्यम से जर्मन की नागरिकता प्राप्त कर सके, जहां माक्र्सवादी आंदोलन उभार पर था, कार्ल काॅस्र्टकी जैसे बुद्धिजीवी माक्र्स के विचारों की अधुनातन व्याख्या कर रहे थे. इसके बावजूद उसने अपने विचारों से कभी समझौता नहीं किया. जिस समय सभी नेता विश्वयुद्ध को अपरिहार्य मानकर मूकदर्शक बने हुए थे, रोजा ने युद्ध को श्रमिक-हितों के प्रतिकूल मानते हुए उसके विरोध में कई आंदोलन किए. मृत्युपर्यंत वह युद्ध की विभीषिका को टालने के लिए प्रयासरत रही. समाजवाद के प्रति उसकी निष्ठा श्लाघनीय थी. यह निष्ठा उसके इन शब्दों में लक्षित है—
‘हमारे लिए न तो कोई न्यूनतम कार्यक्रम है, न अधिकतम. हमारा केवल और केवल एक लक्ष्य है…ऐसा लक्ष्य जिसको हम आज और अभी प्राप्त कर सकते हैं. वह लक्ष्य है—समाजवाद.’
अपने विचारों से रोजा लेक्समबर्ग ने सिद्ध कर दिया था कि वह न केवल अपने सिद्धांतों पर अडिग थी, बल्कि उसका अडिग संकल्प पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों के दिलों में दहशत पैदा करने वाला था. उसकी हुंकार श्रमिकों में चेतना जगाती, संघर्ष की प्रेरणा देती थी. इसलिए उन डरे हुए लोगों ने रोजा की हत्या के तुरंत बाद उसके शव को नदी में बहाने जैसा अमानवीय कृत्य किया. लेकिन रोजा का बलिदान व्यर्थ नहीं गया. लोकहित में किया गया कोई बलिदान कभी व्यर्थ जाता भी नहीं. रोजा के बलिदान से फैली जनचेतना ने जर्मनी की तानाशाह सरकार को उखाड़ फेंकने में देर न की. जर्मन क्रांति ने बादशाहत को तो नवंबर 1918 में ही उखाड़ फेंका था. लेकिन उसक बाद जो अस्थायी सरकार बनी, वह भी अदूरदर्शी और अयोग्य थी. जिसके फलस्वरूप कम्यूनिस्ट पार्टी का असर दिनों-दिन बढ़ता चला गया. उसके बाद नाजी समर्थकों को सत्ता में आने का अवसर मिला.
रोजा लेक्समबर्ग और उसके साथियों का विरोध विश्वयुद्ध को टालने में असमर्थ रहा था. किंतु विश्वयुद्ध की घटना भी एक प्रकार से साम्राज्यवाद के लिए हानिकर ही सिद्ध हुई. युद्ध की विभीषिका, आंतरिक संघर्ष, महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रहे यूरोपीय देशों में उपनिवेश विरोधी चेतना व्याप्त थी. लोग परंपरागत व्यवस्थाओं से आजिज आ चुके थे. विकल्प की खोज जारी थी. सभी अपने-अपने सुझाव दे रहे थे. ऐसे में परिवर्तनवादियों के लिए माक्र्सवाद सबसे लोकप्रचलित विचारधारा थी. अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, रूस आदि में मानो एक साथ कई वैचारिक क्रांतियां जन्म ले रही थी. 1917 के प्रारंभिक महीनों में ही लेनिन के नेतृत्व में रूस के श्रमिक-संघों, सुरक्षाबलों तथा कृषक-परिषदों ने स्वयं को पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में झोंक दिया था. जबरदस्त जनविद्रोह के फलस्वरूप वहां जारशाही का पतन हुआ. समाजवादी दलों के समर्थन से बनी सरकार ने आमचुनावों की घोषणा कर दी. संघर्ष का नेतृत्व लेनिन, स्टालिन, ट्रास्टकी आदि नेताओं के हाथ में था. अप्रैल 1917 में लेनिन स्विजरलेंड से रूस पहुंचा. वहां जारशाही के पतन पर खुशियां मनाते हुए उसने कृषक-परिषदों को सत्ता सौंपने का ऐलान कर दिया. चुनावों में लेनिन के दल को अधिकांश कृषक-परिषदों(सोवियत) का समर्थन मिला. अक्टूबर क्रांति की सफलता में लीओन ट्राटस्की का भी महत्त्वपूर्ण योगदान था. मार्क्स ने आर्थिक आजादी के लिए सर्वहारा संघर्ष की घोषणा की थी. लेनिन का मानना था कि राजनीतिक स्वतंत्रता आर्थिक स्वतंत्रता की पूरक है. आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए स्वाधीनता को अपरिहार्य मानते हुए उसने माक्र्सवाद का स्थानीयकरण किया था.
मार्क्स का विश्वास था कि कामगारसंघों का स्वयं-स्फूर्त विद्रोह ही अंततः पूंजीवाद के पतन का कारण बनेगा. लेनिन के देश में पूंजीवाद का उतना विस्तार नहीं था, इसलिए वहां माक्र्स की परिकल्पना के सच होने की संभावना तात्कालिक रूप से न्यून थी. अतएव क्रांति की आवश्यकता को समझते हुए उसने माक्र्सवादी परिकल्पना को विस्तार देते हुए क्रांति की कामना के साथ कृषक-परिषदों तथा व्यावसायिक क्रांतिकारियों को उत्पे्ररित किया था, यही उसके जादुई नेतृत्व की करामात थी. 25 जनवरी 1918 को लेनिन ने नारा दिया था—‘सोवियत क्रांति अमर रहे.’ जारशाही के पतन के साथ ही उसने सभी मोर्चों पर युद्धविराम की घोषणा करते हुए सोवियत संघ में तत्काल आर्थिक-राजनीतिक सुधारों की शुरुआत कर दी थी. उसने बड़े भू-स्वमियों तथा गिरजाघर के कब्जेवाली कृष्ट-भूमि को, बिना किसी क्षतिपूर्ति का भुगतान किए कृषक-परिषदों में बांटने का आदेश जारी किया. 26 जनवरी 1918 को यानी सत्ता संभालने के अगले ही दिन उसने आर्थिक-केंद्रों पर श्रमिकों के नियंत्रण के लिए नए नियम बनाए, जिनके अनुसार समस्त व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर श्रमिकों-संघों का कब्जा हो गया. श्रमिक संघ के गठन की शर्त भी आसान रखी गईं. केवल पांच सदस्य मिलकर श्रमिक संघ का गठन कर सकते थे. उस संगठन को संस्थान के समस्त बहीखाते, स्टाॅक आदि को जांचने के अधिकार भी सौंप दिए गए. प्रतिष्ठान स्वामियों को श्रमिक-संघों के निर्देशों का पालन करना अनिवार्य था. श्रमिक-संघों एवं कृषक परिषदों के समर्थन से बनी बोल्शेविक सरकार ने राष्ट्रीयकृत बैंकिंग तथा उद्योगों की शुरुआत की. किसानों के ऋण माफ कर दिए गए. शांति-स्थापना के लिए उसने रूस के विश्वयुद्ध से बाहर आने की घोषणा कर दी. जनता तो युद्ध से आहत थी ही. लेनिन द्वारा सर्वहारा हित में उठाए गए कदमों के फलस्वरूप विधायिका के चुनावों में उसकी पार्टी का जबरदस्त जनसमर्थन प्राप्त हुआ. संविधान सभा द्वारा समाजवादी क्रांतिकारी नेता विक्टर चेरनाॅव को सोवियत गणराज्य का राष्ट्रपति नियुक्त किया गया. उसने बोल्शेविक के भूमि अधिग्रहण के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. बजाय इसके उसने श्रमिकों, सुरक्षा बलों तथा कृषक परिषदों की सत्ता को स्वीकार किया. बोल्शेविक के विरोध स्वरूप सोवियत संघ में एक बार फिर सत्ता-संघर्ष आरंभ हो गया. बोल्शेविकों ने आरोप लगाया गया कि विधायिका का चयन पुरानी मतदाता सूची के आधार पर किया गया है. इसपर संज्ञान लेते हुए केंद्रीय समिति ने विधायिका को भंग करने की घोषणा कर दी. इसके फलस्वरूप 1922 में सोवियत संघ साम्यवाद की भावना को समर्पित पहला राज्य बना. रूस की बोल्शेविक क्रांति ने विश्व-भर में साम्यवाद तथा उसके सहधर्मी आंदोलनों को हवा देने का काम किया. इससे सोवियत संघ में समाजवाद समर्थित साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों का वर्ग पैदा हुआ. प्राय हर भाषा में मार्क्सवाद-लेनिनवाद विचारधारा को लेकर बेशुमार लेखन हुआ. जिसके फलस्वरूप मार्क्सवाद और उसकी समानधर्मा विचारधाराओं को प्रगतिशीलता का प्रतीक मान लिया गया. जर्मनी, पोलेंड, इटली, लातीनी अमेरिका आदि देशों में क्रांति-ज्वाल पहले ही धधक रही थी. सोवियत क्रांति की सफलता ने उसमें उत्पे्ररक का काम किया था.
1919 में लेनिन ने ट्राटस्की के साथ मिलकर दुनिया-भर के समाजवादी दलों को अंतरराष्ट्रीय कामगार संगठन (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल) के रूप में नए सिरे से संगठित करने का काम किया, जिसको साम्यवाद के इतिहास में ‘तीसरे इंटरनेशनल’ के रूप में जाना जाता है. मगर संघर्ष अभी बाकी था. कमांडर ट्राटस्की के नेतृत्व में रूस की लालसेना जारशाही समर्थकों से जूझ रही थी. उस घमासान में अंततः विजय लालसेना के सैनिकों के हाथ लगी. अब चुनौती सोवियत संघ को नए सिरे से संगठित करने तथा उत्पादक शक्तियों को उनके कर्तव्य से जोड़ने की थी. इसके लिए नई औद्योगिक नीति अपनाई गई, जिसमें लघु एवं मध्यम उद्योगों को छोड़कर बड़े उद्यमों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. लघु एवं मध्यम उद्यमों के परिचालन का दायित्व कृषक परिषदों को सौंपा गया. यह एक प्रकार की मिश्रित अर्थव्यवस्था थी, जिसमें पूंजी के लाभों को अधिमान्य ठहराया गया था. वह उस माक्र्सवादी-साम्यवादी विचारधारा के भी प्रतिकूल थी, जिसके नाम पर क्रांति का आगाज किया गया था. किंतु लेनिन के अनुसार नई उद्योगनीति राज्य के विकास के लिए अनिवार्य थी. उसका मानना था कि लंबे समय से जारशाही के अधीन रह चुका देश समाजवाद के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है. उसको विश्वास था कि नई औद्योगिक नीति में लघु एवं मध्यम उद्योगों, धनी जमींदारों से करों के रूप में अर्जित धन देश के विकास में काम आएगा. लेकिन लेनिन का सपना अधूरा रह गया. दरअसल उसका सपना केवल उसका सपना था. क्रांति की सफलता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जोसेफ स्टालिन का सोच उससे एकदम भिन्न था. अतिमहत्त्वाकांक्षी स्टालिन विचारों से राष्ट्रवादी था. आशय यह कि साम्यवादी क्रांति के दौर में भी रूस की राजनीति में ऐसे नेता सक्रिय थे, जिनका मार्क्स अथवा साम्यवादी विचारों से दूर का संबंध था. बस इतना कि वे उसको अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की सीढ़ी बनाना चाहते थे. असफलता की अनुभूति लेनिन को भी थी—1923 में मरणासन्न लेनिन ने सोवियत संघ में क्रांति के भटकाव पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा था कि रूस-
‘बुर्जुआ जारशाही मशीन है….जिसको जहां-तहां समाजवाद से चमकाया गया है.
और हुआ भी यही. 21 जनवरी, 1924 को लेनिन की मृत्यु के बाद ‘सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी’ पर स्टालिन का असर बढ़ता गया. स्टालिन पर साम्राज्यवाद का भूत सवार था. उसके
प्रभाव के चलते सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने लेनिन की इस विचारधारा को
सिरे से नकार दिया कि समाजवाद केवल सोवियत संघ तक सीमित नहीं रह सकता. ‘वैश्विक समाजवाद’ के स्थान पर उसने ‘एकदेशीय समाजवाद’ का नारा दिया. यह उग्र राष्ट्रवाद का आरोपण था, जिसको समाजवाद नाम दिया जा रहा था. कुछ नेता स्टालिन के नेतृत्व को जारशाही की वापसी के रूप में देख रहे थे. इसलिए वे सोवियत संघ में गणतंत्र की स्थापना की मांग कर रहे थे. उनको नजरंदाज करते हुए स्टालिन ने नौकरशाही और स्वयंभू सरकार की स्थापना पर जोर दिया. परिणामस्वरूप उसको अराजकतावादियों, गणतांत्रिक समाजवादियों तथा ट्राटस्की-समर्थकों की ओर से समाजवाद के आदर्शों की अवहेलना करने के कारण भारी विरोध एवं तीखी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. लियोन ट्राटस्की के समर्थकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी, साथ-साथ स्टालिन के साथ उसके मतभेद भी. स्टालिन ट्राटस्की को अपनी राह का रोड़ा समझ रहा था. दोनों नेताओं के मतभेद का चरमबिंदू उस दिन सामने आया, जब स्टालिन के भेजे एक हत्यारे ने ट्राटस्की की हत्या कर दी. सैन्य शक्ति के दम पर स्टालिन ने सोवियत संघ की सत्ता पर कब्जा जमाए रखा. किंतु इसका विपरीत असर उसकी ख्याति पर पड़ा. वह जनता के बीच लगातार अलोकप्रिय होता चला गया. लोगों को लगने लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है. स्टालिन की मनमानी के विरोध में आवाजें उठने लगीं. ट्राटस्की इसकी संभावनाएं पहले ही व्यक्त कर चुका था. उसने अभिजात्य वर्ग के हाथों में सत्ता-शक्ति सिमटते जाने पर चिंता भी व्यक्त की थी. लेकिन सोवियत राजनीति पर स्टालिन के प्रभाव के कारण वह इससे अधिक कुछ कर पाने में असमर्थ था. स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत सत्ता निरंकुश राजतंत्र में सिमटती जा रही थी. लोगों के राजनीतिक अधिकार सीमित कर दिए गए थे. यह स्थिति ख्रुश्चेव के शासन में संभल सकी.
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