जान काल्विन: एक दुष्ट आत्मा, किंतु शानदार दिमाग
मनुष्यता
के इतिहास में सोलहवीं शताब्दी का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस
शताब्दी में मनुष्य ने एक साथ कई मोर्चों पर काम की शुरुआत की। उनमें से
अनेक में उसने उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की थी। इसी शताब्दी में पहली सफल
सामाजिक-वैज्ञानिक क्रांति हुई, जिससे
पहली बार मनुष्य ने धार्मिक जड़ता और रूढ़ियों के दायरे से बाहर आकर आमूल
बदलाव का सपना देखा। यूरोप के कई देशों में जनशक्ति के उभार ने जनांदोलनों
को जन्म दिया, जिसने
अपने समय के महत्त्वपूर्ण बुद्धिजीवियों का ध्यान आकर्षित किया। मनुष्यता
की इस विकास यात्रा में विज्ञान की निश्चय ही खासमखास भूमिका रही। वह इसमें
कई रूपों में प्रेरक एवं सहायक बना रहा।
विज्ञान ने कई उपयोगी आविष्कार मनुष्यता को दिए, जिनके
कारण सभ्यता के विकास को नई गति प्राप्त हुई। परंतु इससे कहीं अधिक
महत्त्वपूर्ण यह है कि नए चिंतन की शुरुआत भी इस शताब्दी में हुई। विज्ञान
ने उत्पादन की नई तकनीक, विचारों को नई धार दी, जिनके
आधार पर शताब्दियों से चली आ रही अनेक मान्यताएं धराशायी हो गईं। परंपराओं
को लेकर नए सिरे से मंथन प्रारंभ हुआ। परिवर्तनवादियों को इसके लिए कई
प्रकार के संकटों का सामना करना पड़ा। इससे उनका व्यक्तिगत जीवन भी तबाह
हुआ। यहां तक कि कई को मृत्युदंड तो अनेक को निर्वासन का दंश झेलना पड़ा, किंतु उनके धेर्य और अनवरत संघर्ष ने अंततः परंपरावादियों को झुकने पर मजबूर कर ही दिया। प्रारंभ में असंभव-सा दिखने वाला यह परिवर्तन स्वाभाविक ही था, क्योंकि
मनुष्यता का इतिहास वर्तमान से असंतोष तथा अच्छाई के प्रति जिद ने लिखा
है। इसलिए तमाम विरोधी वातावरण के वाबजूद परिवर्तन चक्र कभी रुकता नहीं है।
वैज्ञानिक शोधों ने मनुष्य को पहले से अधिक तार्किक और विवेकवान भी बनाया था। उसके हाथों में ज्ञान के ऐसे कारगर औजार उपलब्ध कराए थे, जिनके आधार पर वह अपने परंपरागत ज्ञान को परख सकता था; अर्थात उस समय, कुछ लोगों के लिए ही सही, अपने
अनुभवों तथा परंपरा से प्राप्त ज्ञान को परखने के लिए वैज्ञानिकता एक
महत्त्वपूर्ण कसौटी थी। उससे पहले तक मानवीय व्यवहार को नियंत्रित करने, नई
परंपराओं और आचारसंहिता को गढ़ने में धर्म की भूमिका बहुत मायने रखती थी।
एक क्रूर सचाई यह है कि ज्ञान जब अपने परिष्कार की संभावना से दूर हो जाता
है, जब वह केवल परंपरा मान लिया जाता है और जब यह मान लिया जाता है कि वह अपने आप में संपूर्णता का अंश है; तो वह मात्र एक रूढ़ि, एक ढकोसला, प्रदर्शनमात्र
बन जाता है। यही खेल उन दिनों धर्म को लेकर हो रहा था। धर्म को लेकर यह
स्थापित किया जा चुका था कि आदर्श जीवन पद्धति का वही एकमात्र सार है। उसके
बिना नैतिकता का विस्तार संभव ही नहीं है। दूसरी ओर धर्म के नाम पर चारों
ओर पाखंड की साम्राज्य था। चर्च और राज्यसत्ता ने सारी नियामक शक्तियां
अपने हाथों में कैद कर ली थीं, इससे
उनका लोगों के जीवन में हस्तक्षेप बढ़ा था। धार्मिक शक्तियों के हाथों में
अधिक शक्ति आ जाने के कारण उसका दुरुपयोग भी होने लगा था।
ऐसे ही वातावरण में जाॅन काल्विन का जन्म हुआ। 10 जुलाई 1509 को फ्रांस के काॅविन, नियाॅन क्षेत्र में। उसके पिता का नाम थाµगेरार्ड काॅविन तथा मां थींµजिन्नी ले-फ्रांस। पिता एटोर्नी के पद पर थे। सन 1517 में जब मार्टिन लूथर ने बाईबिल से चुने 95 सूक्तियों का पर्चा जारी कर सामाजिक-धार्मिक क्रांति का सूत्रपात किया, का॓ल्विन केवल आठ वर्ष का था। वह जब मात्र चौदह वर्ष का था, जब उसके पिता ने कानून और मानवीयता की पढ़ाई के लिए उसको पेरिस विश्वविद्यालय में भर्ती करा दिया। सन 1532 में का॓ल्विन ने कानून में डा॓क्ट्रेट की उपाधि प्राप्त की।
अध्ययन
के दौरान ही उसकी विलक्षण प्रतिभा सामने आने लगी थी। उसकी रुचि धार्मिक और
दार्शनिक विषयों में थी। छोटी अवस्था में ही उसने उपलब्ध धार्मिक ग्रंथों
का अध्ययन कर लिया था। का॓ल्विन ने पहली पुस्तक भी दर्शनशास्त्र पर लिखी।
सन 1536 में वह जेनेवा चला गया। वहां रहते हुए उसका संपर्क विलियम फेरेल से हुआ, जो उन दिनों पुनरुत्थानवादियों में अग्रणी थे। फेरेल के आग्रह पर का॓ल्विन ने बैसेल की यात्रा की। सन 1538 से 1541 तक वह स्टेंसबर्ग में रहा। वहां से वापस जेनेवा में लौट आया; और बाकी जीवन वहीं रहकर बिताया।
का॓ल्विन का स्वास्थ्य अक्सर खराब रहता था। कई-कई
बीमारियां उसे घेरे हुए थीं। पथरी के अलावा सिरदर्द और फेफड़ों की शिकायत
भी उसको आजीवन बनी रही। इसीलिए उसने अपने एक मित्र से विवाह के लिए एक ऐसी
लड़की की खोज करने को कहा था जो ‘विनम्र, आज्ञाकारी, अच्छी तरह से सेवा करने वाली, कम खर्च में परिवार चलाने वाली तथा सहनशील हो, किंतु घमंडी बिलकुल भी ना हो।’ सन 1536 में उसने इडेलिटा दि बउरे (Idelette de Bure) नाम की एक विधवा स्त्री से विवाह किया; जिसके अपने पहले पति से एक बेटा तथा एक बेटी थी। परंतु अपने साथ वह केवल अपनी बेटी को ले गई थी। 1542 में
इडेलिटा ने का॓ल्विन के पुत्र को जन्म दिया जो मात्र दो सप्ताह जी सका।
इससे का॓ल्विन को बहुत मानसिक आघात पहुंचा। वह दुःख में डूब गया। दुःख में
उसको पत्नी से सहारे की उम्मीद थी; किंतु इडेलिटा भी अधिक दिनों तक उसका साथ न दे सकी। 1549 में उसका भी निधन हो गया। का॓ल्विन ने उसके बारे में लिखा है कि वह बहुत ही भावुक, स्नेहमयी और सहयोगी प्रवृत्ति की महान स्त्री थी; जिसने उसका हमेशा खयाल रखा। पत्नी के निधन का काॅल्विन पर बहुत बुरा असर पड़ा।
का॓ल्विन
के एक उत्तराधिकारी थियोडोर बेजा के अनुसार खराब स्वास्थ्य के कारण वह
वर्षों से दिनभर में केवल एक बार भोजन करता आ रहा था। केवल एक बार डा॓क्टर
के परामर्श पर उसने एक अंडा तथा थोड़ी-सी
शराब ली थी। इतनी सावधानी और लगातार परहेज के बाद भी का॓ल्विन के
स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हो सका। अपने स्वास्थ्य के प्रति चिंतित
मित्रों से उसने एक बार मजाक में कहा था—
‘क्या तुम चाहते हो कि ईश्वर जब मेरे पास आए तो मैं उसको भला-चंगा ही मिलूं?’
का॓ल्विन के मित्र और समर्थक उसको स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त देखना चाहते थे, जो कभी न हो सका। 27 मई 1564 को
जेनेवा में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसको दिखावे से नफरत थी। वह चाहता था कि
उसका अंतिम संस्कार बिना किसी दिखावे के चुपचाप कर दिया जाए। का॓ल्विन की
इच्छा के अनुसार ही उसकी कब्र के लिए एकदम अनजान-एकांत स्थल को चुना गया तथा पूरी सादगी के साथ उसे दफना दिया गया। उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए केवल उसकी कब्र पर केवल ‘जे. सी’
लिखवाया गया।विनम्रता का प्रदर्शन करते हुए का॓ल्विन ने तो स्वयं को लोगों
से छिपाने की भरपूर कोशिश की परंतु उसके द्वारा किए गए सुधारॊं ने उसे
लोगों का प्रिय बना दिया. लोग उसके नाम पर संगठित होने लगे, अमेरिका में आज भी का॓ल्विन के अनुयायियों की भारी संख्या है, जो स्वयं को का॓ल्विन का शिष्य कहलवाने में गर्व का अनुभव करते हैं.
विचारधारा
मार्टिन लूथर जब धार्मिक-सामाजिक आंदोलन का आवाह्न कर रहा था, वे
जा॓न का॓ल्विन के किशोरावस्था के दिन थे। ऐसे में का॓ल्विन का मार्टिन
लूथर से प्रभावित स्वाभाविक ही था। मार्टिन के सुधारवादी आंदोलन से पे्ररणा
लेते हुए उसने ईसाई धर्म का विधिवत अध्ययन किया। ईसा मसीह के विचारों से
वह प्रभावित हुआ, किंतु
उसने देखा कि चर्च में धर्मगुरुओं की कथानी और करनी में भारी असमानता है।
का॓ल्विन का बाईबिल में विश्वास बढ़ता गया। बाईबिल को वह चर्च से ऊपर मानता
था। उसका सुझाव था कि एक सरल एवं सात्विक जीवन बिताया जाए तथा उसके लिए
कड़ी मेहनत की जानी चाहिए।
का॓ल्विन के विचार कहीं-कहीं
भौतिकवाद की सीमाओं का स्पर्श करते हुए प्रतीत होते हैं। लेकिन इसके
बावजूद वह मनुष्यता एवं नैतिकता को सर्वोपरि मानता था। उसका कहना था कि
ईश्वर ने अपने परमानंद के लिए ही इस सृष्टि की रचना की है। इसलिए स्वर्ग की
कल्पना व्यर्थ है। मनुष्य धरती पर रहकर ही स्वर्ग जैसी सुविधाएं जुटा सकता
है। उसकी यह विचारधारा चर्च की तात्कालिक मान्यताओं के विरुद्ध थी। इसलिए
का॓ल्विन को पादरियों तथा उनकी समर्थक राजसत्ता का कोपभाजन बनना बड़ा। इसकी
परवाह न करते हुए उसने अपने सहयोगियों विलियम फेरेल तथा ऐंटोनी फ्रा॓मेंट
के साथ मिलकर चर्च की व्यवस्था में सुधार की मांग की तथा उसके लिए पांच
नियम भी बनाए। का॓ल्विन की इस मांग पर परंपरावादी बुरी तरह उखड़ गए। उसका
चौतरफा विरोध होने लगा। स्थानीय नगरपरिषद ने का॓ल्विन और फेरेल को अपने
चर्चविरोधी विचारों के लिए क्षमायाचना करने का निर्देश दिया। उसपर राजी न
होने के कारण परिषद ने दोनों को जिनेवा से निष्काषित होने की सजा सुना दी।
निष्काषन के पश्चात का॓ल्विन स्ट्रासबर्ग तथा फेरेल न्यूटा॓ल के लिए रवाना
हो गए।
सरकारी दमन के बावजूद डटा रहा. बजाय
झुकने के वह विचारों पर अडिग रहकर लगातार लेखन करता रहा। हालांकि उसने यह
भी माना है कि खराब स्वास्थ्य के कारण वह अपने लेखन और अध्ययन पर अधिक
ध्यान दे सका; जो कदाचित स्वास्थ्य के ठीक रहते हुए संभव न होता। अपने मित्र विलियम फेरेल के साथ मिलकर उसने नगर-व्यवस्था में सुधारों की शुरुआत की, जिससे
जनजीवन में उल्लेखनीय सुधार आया। उसका लाभ भी काॅल्विन को मिला तथा उसके
समर्थकों की संख्या बढ़ती चली गई। हालांकि उसके विचारों पर निराशा की झलक
बिलकुल साफ थी। स्ट्रासबर्ग में रहते हुए का॓ल्विन ने अध्यापन का कार्य
किया। वहीं उसका महत्त्वपूर्ण लेखन संभव हो सका। कालांतर में उसके विचारों
का असर हुआ और सन 1541 में उसे पुनः जिनेवा बुला लिया गया। अपने गृहनगर में लौटने के पश्चात का॓ल्विन ने चर्च की व्यवस्था में सुधारों के लिए काम किया, जिसमें उसको अपेक्षित सफलता प्राप्त हुई।
वह जीवन में धर्म के प्रभावों से परिचित था, साथ ही समझ चुका था कि समाज में आई कुरितियों के लिए धार्मिक संस्थान भी समानरूप से जिम्मेदार हैं. इसलिए
वह धार्मिक सुधारों का पक्षधर था। उसका विश्वास था कि केवल आत्मज्ञान के
सहारे ही ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है। उसका मानना था कि—
‘बिना आत्मज्ञान के ईश्वरीय ज्ञान असंभव है। हमारा ज्ञान भले ही यह कितना विश्वसनीय क्यों न जान पड़े, वास्तविक और यथार्थ ज्ञान से कापफी दूर है। वास्तविक ज्ञान मुख्यतः दो प्रकार का होता है— पहला ईश्वरीय ज्ञान और दूसरा आत्मज्ञान यानी अपने बारे में जानना। ये दोनों परस्पर इतने सन्निकट और एक-दूसरे के अंतरंग हैं कि दोनों में से कौन मुख्य है, कौन किसका जन्मदाता है, यह भेद कर पाना असंभव ही है।’
का॓ल्विन
चर्च के मानवीय स्वरूप को बनाए रखना चाहता था। इसके लिए वह बाईबिल के
आदर्शों का अनुपालन आवश्यक मानता था। लूथर की भांति का॓ल्विन का भी मानना
था कि केवल बाइबिल, ना कि चर्च, मानवीय विश्वास तथा नैतिकता की कसौटी है। पाप-मुक्ति की संभावना स्पष्टतः व्यक्ति विशेष के भाग्य पर निर्भर करती है, न कि उसके द्वारा किए गए अच्छे कार्यों पर। मई 1959 में विलियम केसिल को लिखे गए एक पत्र में ईसामसीह के हवाले से उसने लिखा कि—
‘परमात्मा ने ईसामसीह के माध्यम से वचन दिया था कि समस्त साम्राज्ञियां चर्च की सेवा किया करेंगी।’
का॓ल्विन के विचारों का प्रभाव सबसे अधिक धर्म-संबंधी
अवधारणाओं पर पड़ा। जिससे लोगों में अध्यात्म और धर्म के नाम पर किए जा
रहे कर्मकांडों की समझ बढ़ी। परिणामतः धर्म के स्थान पर जनसरोकारों तथा
मनुष्यता से जुड़े सवालों को महत्त्व दिया जाने लगा। उससे पहले तक भौतिकता
के स्वाभाविक आग्रहों को हेय एवं सांसारिक कहकर नजरंदाज कर दिया जाता था।
आनंद की कामना करना, दैहिक सुखों की ओर ध्यान देना, धार्मिक
अपराध और चर्च के सिद्धांतों के विरुद्ध था। का॓ल्विन के प्रभाव से
व्यक्तिगत सुख के प्रति लोगों का नजरिया बदला तथा उसको लेकर समाज की कुंठा
में कमी आई, जिसने प्रकारांतर में भौतिक विकास को प्रोत्साहित करने का काम किया। इसका परिणाम नए-नए आविष्कारों के रूप में सामने आने लगा। नतीजन सामाजिक विकास को गति मिली।
अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए का॓ल्विन ने कई पुस्तकों की रचना की; जिनमें ‘इंस्टीटयूट्स आ॓फ क्रिश्चन रिलीजन’ प्रमुख है। यह पुस्तक उसने मात्र छबीस वर्ष की अवस्था में, लेटिन में 1536 में
लिखी थी। पुस्तक छपने के साथ ही विद्धानों के बीच बेहद सराही गई। बाद में
उसने स्वयं इस पुस्तक का फ्रेंच में अनुवाद किया। इस पुस्तक के अब तक
अनगिनत संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। पुस्तक में वर्णित विचारों में
आधुनिक उपभोक्तावाद के बीज देखे जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त उसने धार्मिक
महत्त्व की और भी अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उसका मानना था कि ‘बिना
आत्मज्ञान के ईश्वरीय सत्य की पहचान असंभव है।
का॓ल्विन के चिंतन के आधार पर आगे चलकर उपयोगितावादी दर्शन का विकास हुआ। वह इस सृष्टि को मनुष्य की आनंदस्थली मानता था। उसका कथन कि, ‘इस संसार में घास का एक मामूली तिनका, सृष्टि का एक भी रंग ऐसा नहीं है, जिसका उद्देश्य मनुष्य का सुख पहुंचाना न हो।’
मार्टिन लूथर के सुधारवादी आंदोलन को उसने फ्रांस में विस्तार दिया। अमेरिका में जहां चर्च का प्रभाव उतना नहीं था, का॓ल्विन
के समर्थकों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती चली गई। उसके विचारों के
आधार पर बस्तियों की स्थापना हुई। वर्तमान पूंजीवाद को का॓ल्विन के
सिद्धांतों का प्रसार ही माना जा सकता है। बाद में इसी को लेकर उसे अनेक
आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। वाल्तेयर ने का॓ल्विन के कार्यों की जहां
भूरि-भूरि प्रशंसा की है, वहीं उसने उसके धार्मिक विचारों की आलोचना करते हुए लिखा है कि ‘का॓ल्विन के पास एक दुष्ट आत्मा, किंतु
शानदार दिमाग था।’ बावजूद इसके का॓ल्विन के विचारों की महत्ता को नकारा
नहीं जा सकता। उसके अनुयायियों मे विलियम फेरेल तथा एंटोनी फ्रा॓मेंट
प्रमुख थे।
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