तुषार गांधी | |
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अन्ना हजारे की आवाज दबाने के लिए सरकार ने जो रास्ता अपनाया, उसे दमन और क्रूरता के अलावा और कुछ नहीं कह सकते। शासकीय अहंकार की पराकाष्ठा में और अपनी कमजोरियों के उजागर होने पर यह सरकार की बौखलाहट का ही नतीजा है। सरकार में बैठे जो लोग सांविधानिकजिम्मेदारियों की दुहाई दे रहे हैं, वे जाने-अनजाने देश के वातावरण को बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। अगर उन्हें संविधान और नैतिकता की इतनी चिंता होती, तो अन्ना हजारे से बातचीत और समाधान के लिए दूसरे रास्ते तलाशे जाते। मगर सरकार बचकाने तर्क के साथ खड़ी है। हास्यास्पद है कि सरकार इसे पुलिस की अपनी कार्रवाई कहकर पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है। इस प्रक्रिया में छिपे खतरों को भी समझना चाहिए। आप नक्सलवाद की बात करते हैं, अलग-अलग जगहों पर उठती भड़कती आग को बुझाने में लगे रहते हैं, लेकिन यह जानने का प्रयास नहीं करते कि ऐसा क्यों होता है। आखिर कौन-सी बात लोगों के मन में आक्रोश भरती है? जवाब यही है कि अगर शांति और अहिंसा के मार्ग पर चल रहे लोगों को आप शासक होने के नाते डराएंगे, धमकाएंगे, उनका उपहास उड़ाएंगे, तो समय के साथ क्रांति का बिगुल बज जाता है। आखिर लोगों का रोष कहीं तो निकलेगा। एक डरी हुई सरकार जिस तरह गलती पर गलती करती जाती है, वही सब देखने को मिल रहा है। जरूरी नहीं कि अन्ना और उनके साथियों की सारी मांगें जायज हों। मगर सरकार ने जिस तरह हठधर्मिता दिखाई, उससे अन्ना के पक्ष में सहानुभूति की लहर दौड़ गई। सरकार की भूल है कि वह महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की भावना को नहीं समझ पा रही है। अब कोई अन्ना हजारे से कहे कि चुनाव लड़ लो, आपको अपनी ताकत का पता लग जाएगा, तो फिर पूछना पड़ेगा कि क्या चुनाव ही सबसे बड़ी कसौटी है? अगर चुनाव की सफलता ही नैतिकता और आचरण का प्रतिबिंब होती, तो हमारी संसद और जनप्रतिनिधियों के आचरण में वह नजर आता। अन्ना हजारे ने बार- बार गांधीजी के सिद्धांत और नैतिकता की बात दोहराई है। अपने आंदोलन में वह गांधीजी से आशीर्वाद लेते हुए दिख रहे हैं। साफ है कि हमारे देश में परिस्थितियां बदलती रहेंगी, समय के साथ बदलाव भी होते रहेंगे, लेकिन रास्ता वही रहेगा, जो गांधीजी समझा-बुझा गए हैं। सत्ता में बैठे हुए लोगों के लिए भी और उन लोगों के लिए भी जो शासन के सामने अपनी कुछ बातें कहना चाहते हैं। अन्ना का रास्ता विशुद्ध गांधीवादी है या नहीं, इस पर अपनी-अपनी राय हो सकती है। जितना हम अन्ना हजारे को जान पाएं हैं, उसमें हम यह कह सकते हैं कि मुद्दों पर और कई पहलुओं पर आप उनसे सहमत-असहमत हो सकते हैं, पर उनकी नैतिकता पर शायद ही कोई सवाल खड़ा करे। वैसे अन्ना हजारे जिस लोकपाल बिल की बात कर रहे हैं, उसमें भी कुछ मामलों में असहमति हो सकती हैं, लेकिन जिस तरह उनकी बात को दबाने की कोशिश हुई, लोगों ने यही आशय लिया कि सरकार कुछ छिपाना चाहती है। मैं खुद अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल के कुछ पहलुओं से असहमति रखता हूं। लेकिन अब जब बात उससे आगे जनाधिकार की आ गई है, तो स्वयं उनके आंदोलन से अपने को जोड़ते हुए देखता हूं। गिरफ्तारी के समय अन्ना का यह सवाल ही वाजिब था कि आखिर उन्हें किस कारण गिरफ्तार किया जा रहा है। सरकार को उम्मीद रही होगी कि जिस तरह बाबा रामदेव के रामलीला मैदान में आंदोलन को झेल लिया गया, वैसे ही अन्ना का आंदोलन भी शांत हो जाएगा। यही भूल है। सरकार ने अपने को आईने में नहीं देखा। सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि आम आदमी किस तरह और किन हालात में त्रस्त है, दुखी है। कितना अजब है कि लोग महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं और सरकार और सत्ता पार्टी के जिम्मेदार लोग प्रेस कांफ्रेंस करके सस्ते जुमलों के साथ चुटकी लेते हैं। सरकार और सत्ता पार्टी को भी अपनी बात कहने का हक है, पर कोई बात किस तरह कही जाए इसकी मर्यादा होती है। आज हमारे देश में कई समस्याओं का आधार ही यह है कि सरकारों ने उनसे निजात पाने के बजाय उस पर अपनी राजनीति खेली। सरकार कितनी भी चालाक क्यों न हो, यह सवाल तो उसके सामने खड़ा ही है कि देश के तमाम उग्र संगठनों से तो आप बातचीत का हाथ बढ़ाते हैं, टेबल पर बातचीत की पहल करते हैं, यह हक अन्ना हजारे को क्यों नहीं दिया? उन्हें अपनी बात कहने पर जेल में क्यों डाला? दरअसल देश में अभी आंदोलन की भूमिका बनी है। अन्ना हजारे इस मामले में सफल हुए हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में एक आह्वान छेड़ दिया है। उनकी गिरफ्तारी के बाद लोगों में गहरा आक्रोश झलकता है। असल आंदोलन अभी शुरू करने की जरूरत है। इस माहौल में उन खतरों से भी सजग रहना होगा, जिसमें राजनीतिक दल अपना फायदा टटोलना शुरू करता है। राजनीतिक पार्टियों की तरफ से मिली निराशा से भी अन्ना हजारे के आंदोलन को एक मंच मिला है। लोग यह नहीं चाहेंगे कि इसका इस्तेमाल विपक्षी राजनीतिक पार्टियां अपने हितों में कर सकें। इससे आंदोलन और उसकी राह भटक सकती है। देखना होगा कि अन्ना की गिरफ्तारी के बाद उनके साथी इस आंदोलन को किस तरह आगे ले जाते हैं। |
बुधवार, 17 अगस्त 2011
अन्ना की ताकत
अनशन से आगे
राम पुनियानी::
देश के सामने किसी भी तरह की समस्या खड़े होने पर उससे निपटने की पहली जिम्मेदारी सरकार की होती है। आखिर कोई भी राजनीतिक पार्टी चुनाव के समय इस तरह के आश्वासन देकर ही सत्ता में आती है। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में केंद्र सरकार शुरू से ही गलती करती रही। उसने कभी यह एहसास नहीं दिलाया कि वह अपने विकल्पों के साथ किसी समाधान के लिए प्रयासरत है। बल्कि अपने अहंकारी रवैये और स्वयं का कुछ न बिगड़ने की सोच वाली धारणा के साथ वह पूरे मामले से निपटती दिखी।
अन्ना हजारे को आंदोलन करने से रोका नहीं जाना चाहिए था। जिस तरह उनकी गिरफ्तारी हुई और फिर नाटकीय बयानबाजी का दौर चलता रहा, उससे यही लगा कि सरकार को सूझ नहीं रहा कि वह मामले से किस तरह निपटे। इस तरह गिरफ्तारी तो होनी ही नहीं चाहिए थी। गृह मंत्री का यह कहना, कि अन्ना कहां हैं, उन्हें मालूम नहीं, सरकार की दिशाहीनता के बारे में ही बताता था। अन्ना और उनकेआंदोलन का रुख भांपने का भी उसमें तजुर्बा नहीं दिखा।
अन्ना हजारे ने जिस तरह मुहिम छेड़ी है, उसके दूसरे पहलू पर भी मंथन करना चाहिए। आंदोलन में एक गति जरूर दिखती है, लेकिन यह कहीं झोल खाता हुआ भी नजर आता है। आखिर समाज में कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। लेकिन अन्ना हजारे और उनके लोग जनलोकपाल विधेयक को ही सारी समस्याओं का समाधान मान रहे हैं। एक मुद्दे पर ही केंद्रित हो जाने की बात समझ में नहीं आती। सरकार को तो अड़ियल रवैया सुधारना ही चाहिए, संघर्ष करने वाले भी थोड़ा लचीला रुख अपनाएं, तो किसी समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है। संसद में किसी विधेयक में संशोधन की भी व्यवस्था होती है। कुछ कदम तो चलें। आगे तर्क-वितर्क और बहस से कुछ समाधान निकल सकता है।
आम आदमी त्रस्त है और राजनेताओं को इसकी चिंता नहीं है। इसी का नतीजा है कि तमाम तरह की विकृतियां हमारी व्यवस्था में समा गई है। व्यवस्था को साफ-सुथरा बनाने की इच्छाशक्ति कहीं नजर नहीं आती। इसलिए अन्ना हजारे ने जब आवाज उठाई, तो लोग उनके साथ जुड़ते चले गए। उनमें लोग अपनी समस्याओं का समाधान देख रहे हैं। पर अब भी अन्ना हजारे के साथ एक निश्चित वर्ग नजर आता है। इस आवाज को और व्यापक बनाया जा सकता है। महंगाई और भ्रष्टाचार विकराल रूप से हमारे सामने है। आम लोगों का जीवन कठिन होता जा रहा है। निराशा इस कारण भी है कि समस्याओं से निपटने की कोई कोशिश सरकार में नजर नहीं आती। पता नहीं, उसे यह सीख कहां से मिली कि सत्ता में रहते हुए विपक्ष की तरह चिल्लाओ, सवाल उठाने वालों पर कीचड़ उछालो, अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल कर दूसरों की नैतिकता को खत्म कर दो। तू, तुम की जुबान से देश नहीं चलता। ऐसा आचरण देश को शर्मसार करता है। नतीजा सामने है। सरकार और पार्टी, दोनों ने अपनी छवि खोई।
इस समय के हालात को आपातकाल की तरह बताया जा रहा है। बेशक दिक्कतें हैं, पर आपातकाल जैसी बात नहीं कह सकते। आपातकाल में तो संविधान को कुचला गया था। यहां तो अन्ना हजारे गरज रहे हैं। मीडिया को भी रोकने वाला कोई नहीं। इस आंदोलन में सरकार की कारगुजारी को मीडिया ने जिस तरह उछाला, वह क्या आपातकाल में संभव था। इसे आजादी की दूसरी लड़ाई भी नहीं कह सकते। आजादी आई है, इसीलिए आज हमारी अभिव्यक्ति और मुखर है। आजादी की लड़ाई ने हमें गहरी निराशा से बाहर निकाला था। आज हमारे पास बहुत कुछ अपना है। हां, कुछ ऐसे अधूरे संकल्प हैं, जिन्हें पूरा करना है।
अन्ना के आंदोलन का महत्व इस बात के लिए है कि वह गांधीवादी तरीका अपनाने की कोशिश करते हुए दिखते हैं। वह इस बात पर पूरे ईमानदार नजर आते हैं कि उनका तरीका अहिंसात्मक हो। वह अपने लक्ष्य को लेकर हड़बड़ी में नहीं दिखते। तथ्यों के आधार पर आप उनसे असहमत भले हो सकते हैं, लेकिन उनकी निष्ठा और जीवन मूल्य पर सवाल नहीं कर सकते। सवाल थोड़ी असहमति का है, तो इसलिए कि हम उनसे थोड़े लचीलेपन की उम्मीद करते हैं। हालांकि देखा जाए, तो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में भी कुछ कमियां थीं। वह आंदोलन और गहरा हो सकता था। फिर भी आज आंदोलनों को खड़ा करते हुए उससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। उस आंदोलन में हर तबका जुड़ गया था। अगर आज की तरह तब भी मीडिया इतना सक्षम होता, तो उसकी ऊष्मा दूर-दूर तक महसूस होती। आज की चुनौतियां विकट हैं और शासक निरंकुश है। यह बात हताशा की ओर ले जाती है।
अन्ना के आंदोलन से स्वर मुखर हुए हैं, लेकिन कठिनाइयां बहुत हैं। लक्ष्य इतने आसान भी नहीं हैं। आंदोलन एक या दो दिन का नहीं होता। जो समस्याएं हैं, उनसे लड़ाई लंबी है। पर डर यही है कि इसका फायदा दूसरी शक्तियां न उठा लें। अन्ना हजारे और उनके साथियों को इसे तरीके से नियंत्रित करना होगा। जरा भी लगे कि यह किसी राजनीतिक पार्टी का हथियार बनने जा रहा है, तो इसके नतीजे देश हित में नहीं होंगे। अन्ना हजारे की सबसे बड़ी लड़ाई तो यही है कि वह आंदोलन को साफ-सुथरा बनाए रखें और उसे जन-जन से जोड़ने की कोशिश करते रहें। यह उम्मीद उनसे है, क्योंकि वह ऐसा करने में सक्षम हैं।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
देश के सामने किसी भी तरह की समस्या खड़े होने पर उससे निपटने की पहली जिम्मेदारी सरकार की होती है। आखिर कोई भी राजनीतिक पार्टी चुनाव के समय इस तरह के आश्वासन देकर ही सत्ता में आती है। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में केंद्र सरकार शुरू से ही गलती करती रही। उसने कभी यह एहसास नहीं दिलाया कि वह अपने विकल्पों के साथ किसी समाधान के लिए प्रयासरत है। बल्कि अपने अहंकारी रवैये और स्वयं का कुछ न बिगड़ने की सोच वाली धारणा के साथ वह पूरे मामले से निपटती दिखी।
अन्ना हजारे को आंदोलन करने से रोका नहीं जाना चाहिए था। जिस तरह उनकी गिरफ्तारी हुई और फिर नाटकीय बयानबाजी का दौर चलता रहा, उससे यही लगा कि सरकार को सूझ नहीं रहा कि वह मामले से किस तरह निपटे। इस तरह गिरफ्तारी तो होनी ही नहीं चाहिए थी। गृह मंत्री का यह कहना, कि अन्ना कहां हैं, उन्हें मालूम नहीं, सरकार की दिशाहीनता के बारे में ही बताता था। अन्ना और उनकेआंदोलन का रुख भांपने का भी उसमें तजुर्बा नहीं दिखा।
अन्ना हजारे ने जिस तरह मुहिम छेड़ी है, उसके दूसरे पहलू पर भी मंथन करना चाहिए। आंदोलन में एक गति जरूर दिखती है, लेकिन यह कहीं झोल खाता हुआ भी नजर आता है। आखिर समाज में कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। लेकिन अन्ना हजारे और उनके लोग जनलोकपाल विधेयक को ही सारी समस्याओं का समाधान मान रहे हैं। एक मुद्दे पर ही केंद्रित हो जाने की बात समझ में नहीं आती। सरकार को तो अड़ियल रवैया सुधारना ही चाहिए, संघर्ष करने वाले भी थोड़ा लचीला रुख अपनाएं, तो किसी समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है। संसद में किसी विधेयक में संशोधन की भी व्यवस्था होती है। कुछ कदम तो चलें। आगे तर्क-वितर्क और बहस से कुछ समाधान निकल सकता है।
आम आदमी त्रस्त है और राजनेताओं को इसकी चिंता नहीं है। इसी का नतीजा है कि तमाम तरह की विकृतियां हमारी व्यवस्था में समा गई है। व्यवस्था को साफ-सुथरा बनाने की इच्छाशक्ति कहीं नजर नहीं आती। इसलिए अन्ना हजारे ने जब आवाज उठाई, तो लोग उनके साथ जुड़ते चले गए। उनमें लोग अपनी समस्याओं का समाधान देख रहे हैं। पर अब भी अन्ना हजारे के साथ एक निश्चित वर्ग नजर आता है। इस आवाज को और व्यापक बनाया जा सकता है। महंगाई और भ्रष्टाचार विकराल रूप से हमारे सामने है। आम लोगों का जीवन कठिन होता जा रहा है। निराशा इस कारण भी है कि समस्याओं से निपटने की कोई कोशिश सरकार में नजर नहीं आती। पता नहीं, उसे यह सीख कहां से मिली कि सत्ता में रहते हुए विपक्ष की तरह चिल्लाओ, सवाल उठाने वालों पर कीचड़ उछालो, अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल कर दूसरों की नैतिकता को खत्म कर दो। तू, तुम की जुबान से देश नहीं चलता। ऐसा आचरण देश को शर्मसार करता है। नतीजा सामने है। सरकार और पार्टी, दोनों ने अपनी छवि खोई।
इस समय के हालात को आपातकाल की तरह बताया जा रहा है। बेशक दिक्कतें हैं, पर आपातकाल जैसी बात नहीं कह सकते। आपातकाल में तो संविधान को कुचला गया था। यहां तो अन्ना हजारे गरज रहे हैं। मीडिया को भी रोकने वाला कोई नहीं। इस आंदोलन में सरकार की कारगुजारी को मीडिया ने जिस तरह उछाला, वह क्या आपातकाल में संभव था। इसे आजादी की दूसरी लड़ाई भी नहीं कह सकते। आजादी आई है, इसीलिए आज हमारी अभिव्यक्ति और मुखर है। आजादी की लड़ाई ने हमें गहरी निराशा से बाहर निकाला था। आज हमारे पास बहुत कुछ अपना है। हां, कुछ ऐसे अधूरे संकल्प हैं, जिन्हें पूरा करना है।
अन्ना के आंदोलन का महत्व इस बात के लिए है कि वह गांधीवादी तरीका अपनाने की कोशिश करते हुए दिखते हैं। वह इस बात पर पूरे ईमानदार नजर आते हैं कि उनका तरीका अहिंसात्मक हो। वह अपने लक्ष्य को लेकर हड़बड़ी में नहीं दिखते। तथ्यों के आधार पर आप उनसे असहमत भले हो सकते हैं, लेकिन उनकी निष्ठा और जीवन मूल्य पर सवाल नहीं कर सकते। सवाल थोड़ी असहमति का है, तो इसलिए कि हम उनसे थोड़े लचीलेपन की उम्मीद करते हैं। हालांकि देखा जाए, तो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में भी कुछ कमियां थीं। वह आंदोलन और गहरा हो सकता था। फिर भी आज आंदोलनों को खड़ा करते हुए उससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। उस आंदोलन में हर तबका जुड़ गया था। अगर आज की तरह तब भी मीडिया इतना सक्षम होता, तो उसकी ऊष्मा दूर-दूर तक महसूस होती। आज की चुनौतियां विकट हैं और शासक निरंकुश है। यह बात हताशा की ओर ले जाती है।
अन्ना के आंदोलन से स्वर मुखर हुए हैं, लेकिन कठिनाइयां बहुत हैं। लक्ष्य इतने आसान भी नहीं हैं। आंदोलन एक या दो दिन का नहीं होता। जो समस्याएं हैं, उनसे लड़ाई लंबी है। पर डर यही है कि इसका फायदा दूसरी शक्तियां न उठा लें। अन्ना हजारे और उनके साथियों को इसे तरीके से नियंत्रित करना होगा। जरा भी लगे कि यह किसी राजनीतिक पार्टी का हथियार बनने जा रहा है, तो इसके नतीजे देश हित में नहीं होंगे। अन्ना हजारे की सबसे बड़ी लड़ाई तो यही है कि वह आंदोलन को साफ-सुथरा बनाए रखें और उसे जन-जन से जोड़ने की कोशिश करते रहें। यह उम्मीद उनसे है, क्योंकि वह ऐसा करने में सक्षम हैं।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
मंगलवार, 16 अगस्त 2011
उदार अर्थव्यवस्था का क्रूर चेहरा
सुभाष चंद्र कुश्वाहा | |
वैश्विक बाजारों में एकाएक गिरावट से भारतीय बाजार का धराशायी होना, और पलक झपकते ही करोड़ों के वारे-न्यारे हो जाना उदारीकृत अर्थव्यवस्था से जन्मे लूटतंत्र का क्रूरतम खेल है। यही इस अर्थव्यवस्था का प्राण भी है। गरीब और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को संचालित करनेवाली महाशक्तियां उनकी नीतियों को अपने सापेक्ष तैयार करवाती हैं। बाजार अपने-आप नहीं गिरता, बल्कि ये महाशक्तियां जब चाहती हैं, तब तात्कालिक कारण पैदा कर बाजार को गिरा देती हैं। बाजार गिरते ही वे खरीदारी करने लगती हैं, फिर बाजार को चढ़ाकर अपना पैसा निकाल पुनः बाजार को गिरा देती हैं। इस प्रकार बाजार को चढ़ाने, उतारने का अंतहीन खेल शेयर बाजार में चलता रहता है। मुक्त अर्थव्यवस्था का ही परिणाम है कि हमारा बाजार विश्व के बड़े खिलाड़ियों के हाथों में चला गया है। विदेशी निवेशक कब हमें बरबाद कर बाहर चले जाएंगे, यह समझ पाना आसान नहीं है। हमारा तंत्र उनकी गतिविधियों को रोक नहीं सकता। खुली अर्थव्यवस्था का यह एक ऐसा खेल है, जिसमें बड़े खेलते हैं और छोटे पिटते हैं। यह सब कुछ कानूनसम्मत प्रक्रिया के तहत होता है। इस ‘लूट’ को आप लुट जाने के बावजूद लूट नहीं कह सकते। यह प्रक्रिया खून बेचने वाले मजबूरों के शोषण की तरह चलती है। मसलन, कोई गरीब पैसे के लिए रक्त बेचता है और बदले में खरीददार उसे खाने-पीने के लिए कुछ रकम दे देता है। रक्तदाता खा-पीकर रक्त बटोरता है और फिर खरीदार सूई लगाकर उसका रक्त निचोड़ लेता है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। मामला कानूनसम्मत है, इसलिए कोई विरोध नहीं कर सकता। मुक्त अर्थव्यवस्था इसी तरह गरीबों को लूटती है और इसमें सहयोगी होता है, देश का तंत्र । विगत शुक्रवार को शेयर बाजार औंधे मुंह गिर पड़ा। मुंबई शेयर बाजार के निवेशकों के 1.33 लाख करोड़ रुपये पल भर में लुट गए। फिर भी कहीं कोई बेचैनी नहीं देखी गई। वित्त मंत्री लुटते बाजार को शांत करते हुए कहते दिखे कि घरेलू बाजार में कुछ भी ऐसा नहीं हुआ है, जिससे घबड़ाने की जरूरत हो। उनका कहना था कि अमेरिकी बाजार की मंदी के कारण ऐसा हुआ है। अब ऐसी साफगोई सुन लुटा निवेशक करे, तो क्या करे? जब देश का बाजार विदेशी कारणों से लुटता हो, तब आप स्वयं को सार्वभौमिक गणराज्य कैसे कह सकते हैं? मजबूरी का आलम यह है कि रिजर्व बैंक को कहना पड़ता है कि भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव के साथ जीना सीखना चाहिए। कुल मिलाकर आशय यह कि हम कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। विश्व अर्थव्यवस्था को जिस रास्ते पर महाशक्तियां ले गई हैं, वह अनिश्चितता का बाजार है। ऐसे अनिश्चितता के बाजार में वही बचता है, जो चालाक और धूर्त होता है। जो सीधे-साधे होते हैं, वे लूट लिए जाते हैं। यहां छोटे खिलाड़ी बड़ों की घेरेबंदी में रहकर समय-समय पर अपनी गाढ़ी कमाई उनकी झोली में डालने को मजबूर होंगे। बड़े खिलाड़ी बिना युद्ध लड़े बहुतों पर शासन करते रहेंगे। देश के तमाम लेखक, बुद्धिजीवी बाजारवाद के दुष्परिणामों से लगातार आगाह करते रहे हैं और इसे औपनिवेशिक मुखौटा बताते रहे हैं, पर उनकी चेतावनियों को वामपंथियों का प्रलाप बताकर कुछ अंगरेजीदां विद्वान बाजारीकरण का गुणगान करते रहे हैं। लेकिन अब बाजारवाद की असलियत सामने आ गई है। पूरी दुनिया इस अर्थव्यस्था की विसंगतियों से कराह रही है। बढ़ती महंगाई, खाद्यान्न संकट और दुनिया भर में हो रहे विद्रोह इस बात के गवाह हैं कि गुलाबी तसवीरों से विश्व के बहुसंख्यक लोगों का पेट नहीं भरनेवाला। महाशक्तियां दुनिया पर आधिपत्य जमाने के लिए गरीब मुल्कों की अर्थव्यवस्था को अपने नियंत्रण में लेना चाहती हैं । वे चाहती हैं कि हम अपनी आजादी का उपभोग उनके निर्देशों पर करें। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था एक तरह से औपनिवेशिक सत्ता का ही बदला रूप है । देखना यह है कि हम कब तक सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव पर इतराते रहेंगे और कब तक रिमोट कंट्रोल से संचालित होने के बावजूद स्वयं को आजाद बताते रहेंगे! |
बीमारी नहीं, लक्षण है भ्रष्टाचार
मार्क टुली | |
किसी भी मुल्क के लिए चौंसठ वर्ष का सफर कम नहीं होता। जिस दौर में भारत ने आजादी हासिल की थी, वह संक्रमण का दौर था। देश में गरीबी थी, बेरोजगारी थी, अशिक्षा थी, स्वास्थ्य क्षेत्र का बुरा हाल था, चारों ओर अनिश्चितता का माहौल था। इन सभी मोरचों पर बीते छह दशकों में काफी प्रगति हुई है, रोजगार के नए अवसर पैदा हुए हैं, साक्षरता की दर बढ़ी है, औसत उम्र 65 वर्ष से ज्यादा हो चुकी है। लेकिन जैसी प्रगति होनी चाहिए थी, वैसी नहीं हुई, खास तौर से गरीबी कम नहीं हो सकी है। मैं बार-बार इस बात को रेखांकित करता हूं कि सरकारी प्रणाली आज भी अंगरेजी राज की छाया से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकी है। यह इस देश के लोकतंत्र की सबसे बड़ी खामी है। दरअसल स्वतंत्रता मिलने के बाद भारत ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपना तो लिया, लेकिन उसका लाभ आम आदमी तक ठीक से नहीं पहुंचा। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि औपनिवेशिक प्रणाली में जो खामियां थीं, उन्हें दूर नहीं किया गया। जो संशोधन और सुधार होने चाहिए थे, वे नहीं हुए। मसलन भारत में आज भी अंगरेजों के जमाने के अनेक कानून लागू हैं। देश की तरक्की और भविष्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए, क्योंकि जब तक लोकतंत्र के पाए मजबूत नहीं होंगे, देश मजबूत नहीं हो सकता। संसद, नौकरशाही और न्यायपालिका लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभ हैं। इन्हें एक-दूसरे के क्षेत्र में दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए। भारत में मुश्किल यह है कि राजनीतिक वर्ग अपने को सर्वोच्च समझने लगता है। राजनेताओं को लगता है कि चूंकि संसद सर्वोच्च है, इसलिए वह लोकतंत्र की दूसरी संस्थाओं के कामकाज में भी दखल दे सकते हैं। जबकि संसद की सर्वोच्चता का कतई यह मतलब नहीं है। दूसरी बात, आज भी देश में बाबू राज चल रहा है। नतीजतन कोई भी सरकारी काम करवाने में काफी वक्त लगता है, फाइलें अटकी रह जाती हैं। कंप्यूटर भी इस सुस्ती और अक्षमता को दूर नहीं कर सका है। जाहिर है, भारत के सामने प्रशासनिक सुधार और सुशासन दो बड़ी चुनौतियां हैं। आज भ्रष्टाचार का मुद्दा गरम है, वह इनसे ही जुड़ा हुआ है। भ्रष्टाचार को लेकर अन्ना हजारे का आंदोलन हो या बाबा रामदेव का, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि भ्रष्टाचार आज एक बड़ा मुद्दा है, क्योंकि देश की बड़ी आबादी का इससे रोज सामना होता है। सवाल यह है कि इससे कैसे निपटा जाए। 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ बहुत बड़ा आंदोलन हुआ था, उस आंदोलन को काफी हद तक सफलता भी मिली। लेकिन अंत में कुछ नहीं हुआ और देश फिर उसी ढर्रे पर आ गया। भ्रष्टाचार कोई बीमारी नहीं है, यह बीमारी का लक्षण है, इसलिए यह सोचना पड़ेगा कि आगे क्या किया जाए। इसलिए कई बार भ्रष्टाचार और प्रशासनिक सुधार के मुद्दों की चर्चा करते हुए राजनीतिक व्यवस्था पर भी सवाल उठाए जाते हैं। मगर हम इसे लोकतंत्र की खामी नहीं कह सकते। भारत के लोकतंत्र ने तो एक मिसाल ही कायम की है। भारत के साथ ही बने पाकिस्तान और फिर उससे अलग होकर नया राष्ट्र बने बांग्लादेश जैसे पड़ोसियों की ओर हम देखें, तो पता चलता है कि भारत का लोकतंत्र कितना मजबूत है। बांग्लादेश ने जब लोकतंत्र को छोड़कर फौजी हुकूमत की राह पकड़ी, तो उसकी दुर्दशा हो गई। मगर अब वह फिर लोकतंत्र की राह पर है और तरक्की कर रहा है। लोग आज भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने की बात करने लगे हैं, जबकि देश की एक बड़ी आबादी 20 रुपये से कम में जीने को मजबूर है। हमारी सबसे बड़ी चिंता यही होनी चाहिए। वर्तमान का ठीक से सामना किया जाए, तभी भविष्य अच्छा हो सकता है। नहीं तो आनेवाले कल में मुश्किल ज्यादा बड़ी हो सकती है। |
शुक्रवार, 5 अगस्त 2011
Lenin and the theory of imperialism
Lenin & the theory of Imperialism- A note by Karl-Heinz KauB
More than half a million children have died in Iraq and Afghanistan since 1990 as a result of United Nations' sanctions, War and civil wars. Millions are dying in Africa because of a lack of drugs to fight AIDS. This is the world at the beginning of the twentiefirst century.
Marxists call the world system that has dominated this century imperialism. It was Vladimir Lenin who analysed developments within capitalism in his pamphlet, Imperialism, the Highest Stage of Capitalism, published in 1916. He sought to explain the causes of the first world war, which was then raging, as being rooted within the stage of development that capitalism had reached rather than as a result of the policies of governments or the "accidents" of history.
Lenin argued that twentieth century capitalism was no longer dominated by individual capitalists operating in a market ruled by free competition. Instead, there had been a massive growth in monopolies ö huge corporations cornering the market and dominating it.
Monopolies were formed through the concentration of production in ever larger enterprises, through merger or buying up of competitors. This concentration often coincides with combination, that is the grouping together in a single enterprise of several different branches of industry e.g. a large steel plant that smelts iron ore, converts pig iron into steel, then rolls the steel into plate.
The endless push to maximise profit drives the capitalist to concentrate and combine, and so dominate more of the market. If a capitalist buys up or develop industries that provide raw materials or further processes products (combination) initial costs are cut so more profit is extracted from the finished goods. Once started this process is inexorable and the concentration of enterprises becomes so great that no competitors are left and the capitalist has a monopoly.
Lenin believed the end of free competition and its replacement with the rule of monopolies was largely completed by the beginning of the twentieth century. Yet it originated in the 1860s when free competition reached its peak. Capitalists began to see the advantages of monopolies and cartels (monopolists joining forces on an international basis ö also known as trusts) to reap greater profits from the booms and survive the slumps.
After the relatively long boom at the end of the nineteenth century and the crisis of 1900-1903, monopolies and cartels were established as "one of the foundations of economic life". In the US in 1904, 1.1 per cent of businesses were responsible for half of all production.
Lenin wrote: "Capitalism in its imperialist stage leads right up to the most comprehensive socialisation of production; it drags the capitalists, against their will and consciousness, into some sort of a new social order, a transitional one from complete free competition to complete socialisation."
But while "production becomes social... appropriation remains private. The social means of production remain the private property of a few."
The privileged position of the monopolies leads to a greater and greater contradiction between their advanced development and the lack of development of other sections of industry. The drive for domination leads inevitably to conflict and crises.
The tendency to concentrate is also apparent within finance capital. The banks developed from being "middlemen" used by the capitalists into powerful monopolies themselves, controlling the money capital of businesses, large parts of the means of production and the sources of raw materials nationally and abroad. They achieved this by directly annexing other banks and making them into their branches and indirectly by acquiring holdings and shares in banks and businesses.
The last years of the nineteenth century and the beginning of the twentieth saw massive expansion in the network of banks, their rapid concentration and a huge growth in their turnover. By 1909 the three big Paris banks had 1,229 branches in France and the number of accounts of the Credit Lyonnais had risen from 28,535 in 1875 to 653,539 in 1912.
From carrying out technical operations the banks had come into their own, the enormous scale of their dealings meant, said Lenin, that "a handful of monopolists subordinate to their will all the operations both commercial and industrial, of the whole of capitalist society; for they obtain the opportunity – by means of their banking connections, their current accounts and other financial operations – first, to ascertain exactly the financial position of the various capitalists, then to control them, to influence them by restricting or enlarging, facilitating or hindering credits, and finally entirely determine their fate, determine their income, deprive them of capital, or permit them to increase their capital rapidly and to enormous dimensions etc."
They become the "common bookkeepers" of the whole capitalist class, organised and socialised in the same way as industry. Through the acquisition of shares and holdings in industry and through the appointment of bank and industry directors onto each othersâ boards, the merging or union of the capital of industry and the banks progresses even further.
Added to this is the role of state officials and ex-state officials on the boards of banks and industry, creating a direct means for the banks and industry to gain political influence. By the turn of the century this process had resulted in domination of finance capital and the financial oligarchy that oversees it.
The dominance of the financial oligarchy also means the dominance of a handful of "financially powerful states". At the time Lenin was writing, the old capitalist countries of Britain and France and the new rapidly expanding capitalist countries of Germany and the United States owned 80 per cent of the worldâs finance capital between them.
These few rich countries accumulated capital in gigantic proportions and consequently sought means of making greater profits from this capital. Commodities had long been exported but the rise of finance capital saw the concurrent rise in the export of capital (loans and investment) itself both within undeveloped parts of Europe and the colonial world. The advantages are clear: profits are high because of the scarce capital already there, the cheap land and raw materials, and low wages of the workers. Money can be made from servicing loans, from commercial treaties, from requiring the debtor country to use your country for orders, contracts etc. And all the profits can be repatriated back to the imperialist country itself.
The imperialist nation states had by 1900 completed the seizure of all of the territories on the planet ö either directly by colonial rule or indirectly by tying countries into economic subservience while formally observing their independence (semi-colonies) as with Argentina, which was dominated by Britain because of the huge amount of British capital invested there.
Lenin argued that imperialism would not lead to stability but to increasing instability, and a greater tendency towards war and economic crises. The rival imperialist powers would fight over the division and re-division of the world. The history of the twentieth century has tragically proved him to be correct.
The division of the world was about obtaining profits, not promoting world harmony. The divisions were according to relative strength, resting on relative capital ö there was no virgin territory or market left, so instead of division, the cartels and imperialist nations would have to resort to re-division to increase their share, leading to instability and even war.
Overall Lenin predicted a tendency of the imperialist nations to become ever more parasitic on the rest of the world ö usurers, loan sharks, bullying less powerful nations to give up their goods and raw materials.
Despite their enormous power and influence "finance capital and the trusts do not diminish but increase the differences in the rate of growth of the various parts of the world economy". This creates massive contradictions and tensions around the globe, and for all the incredible advances in productive forces we have seen this century, imperialism has not even come close to solving those contradictions – as the 31 wars that took place last year alone prove.
Leninâs words, written during the first imperialist war are as true as ever: "what means other than war could there be under capitalism of removing the disparity between the development of productive forces and the accumulation of capital on the one side, and then division of colonies and "spheres of influence" for capital on the other?"
What does imperialism mean for the world working class? Exploitation, oppression and misery. Imperialism as an economic system relies on the exploitation of the non-imperialist world: colonies in Leninâs day, semi colonies today.
Imperialism also played a role in keeping the working class in the imperialist countries in check. As arch-imperialist Cecil Rhodes admitted in 1895:
"The Empire is a bread and butter question. If you want to avoid civil war, you must become imperialists."
In other words British bosses could deploy the greater profits made as a result of imperialism (super profits) to stop revolution at home. A section of the working class could be "bought off" (at least temporarily) with some of these super profits. As well as higher wages and better terms and conditions for this layer of workers ö the labour aristocracy ö improvements in sanitation, lighting and housing benefited the mass of workers.
The bitter legacy of this exploitation of the colonies and semi-colonies is not only the enduring poverty and oppression that blights Africa, Latin America and Asia, but the racism that was used to ideologically justify the subjugation of millions upon millions of people. The beginning of the imperialist age saw a huge rise in rabid nationalism, militarism and the first anti-immigration laws.
None of this means that the workers of the imperialist heartlands are lost forever to the cause of socialism. Every crisis forces the capitalists to turn on the working class ö including the aristocracy of labour. Every struggle contains the potential for generating the solidarity and class consciousness that undermine all divisions inside the working class, including racism. And, because of the very nature of the imperialist system ö characterised by war and crisis, the likelihood for such struggles increases.
Indeed, here was the final element of Leninâs theory of imperialism ö namely that it opened up an epoch of wars and revolutions. He was right. The list of revolutions this century is enormous, stretching from Russia in 1905 to North Africa 2011. Those revolutions are as much a part of the imperialist epoch as war and economic crisis. And those revolutions hold the key to overthrowing the imperialist world order. The question becomes: can revolutionary socialists win leadership of the masses in order to push those revolutions towards a final victory against capitalism? For Lenin the age of imperialism made the need for revolutionary internationalism literally a matter of life and death for the workers of the world. And so it remains for us today.
Marxists call the world system that has dominated this century imperialism. It was Vladimir Lenin who analysed developments within capitalism in his pamphlet, Imperialism, the Highest Stage of Capitalism, published in 1916. He sought to explain the causes of the first world war, which was then raging, as being rooted within the stage of development that capitalism had reached rather than as a result of the policies of governments or the "accidents" of history.
Lenin argued that twentieth century capitalism was no longer dominated by individual capitalists operating in a market ruled by free competition. Instead, there had been a massive growth in monopolies ö huge corporations cornering the market and dominating it.
Monopolies were formed through the concentration of production in ever larger enterprises, through merger or buying up of competitors. This concentration often coincides with combination, that is the grouping together in a single enterprise of several different branches of industry e.g. a large steel plant that smelts iron ore, converts pig iron into steel, then rolls the steel into plate.
The endless push to maximise profit drives the capitalist to concentrate and combine, and so dominate more of the market. If a capitalist buys up or develop industries that provide raw materials or further processes products (combination) initial costs are cut so more profit is extracted from the finished goods. Once started this process is inexorable and the concentration of enterprises becomes so great that no competitors are left and the capitalist has a monopoly.
Lenin believed the end of free competition and its replacement with the rule of monopolies was largely completed by the beginning of the twentieth century. Yet it originated in the 1860s when free competition reached its peak. Capitalists began to see the advantages of monopolies and cartels (monopolists joining forces on an international basis ö also known as trusts) to reap greater profits from the booms and survive the slumps.
After the relatively long boom at the end of the nineteenth century and the crisis of 1900-1903, monopolies and cartels were established as "one of the foundations of economic life". In the US in 1904, 1.1 per cent of businesses were responsible for half of all production.
Lenin wrote: "Capitalism in its imperialist stage leads right up to the most comprehensive socialisation of production; it drags the capitalists, against their will and consciousness, into some sort of a new social order, a transitional one from complete free competition to complete socialisation."
But while "production becomes social... appropriation remains private. The social means of production remain the private property of a few."
The privileged position of the monopolies leads to a greater and greater contradiction between their advanced development and the lack of development of other sections of industry. The drive for domination leads inevitably to conflict and crises.
The tendency to concentrate is also apparent within finance capital. The banks developed from being "middlemen" used by the capitalists into powerful monopolies themselves, controlling the money capital of businesses, large parts of the means of production and the sources of raw materials nationally and abroad. They achieved this by directly annexing other banks and making them into their branches and indirectly by acquiring holdings and shares in banks and businesses.
The last years of the nineteenth century and the beginning of the twentieth saw massive expansion in the network of banks, their rapid concentration and a huge growth in their turnover. By 1909 the three big Paris banks had 1,229 branches in France and the number of accounts of the Credit Lyonnais had risen from 28,535 in 1875 to 653,539 in 1912.
From carrying out technical operations the banks had come into their own, the enormous scale of their dealings meant, said Lenin, that "a handful of monopolists subordinate to their will all the operations both commercial and industrial, of the whole of capitalist society; for they obtain the opportunity – by means of their banking connections, their current accounts and other financial operations – first, to ascertain exactly the financial position of the various capitalists, then to control them, to influence them by restricting or enlarging, facilitating or hindering credits, and finally entirely determine their fate, determine their income, deprive them of capital, or permit them to increase their capital rapidly and to enormous dimensions etc."
They become the "common bookkeepers" of the whole capitalist class, organised and socialised in the same way as industry. Through the acquisition of shares and holdings in industry and through the appointment of bank and industry directors onto each othersâ boards, the merging or union of the capital of industry and the banks progresses even further.
Added to this is the role of state officials and ex-state officials on the boards of banks and industry, creating a direct means for the banks and industry to gain political influence. By the turn of the century this process had resulted in domination of finance capital and the financial oligarchy that oversees it.
The dominance of the financial oligarchy also means the dominance of a handful of "financially powerful states". At the time Lenin was writing, the old capitalist countries of Britain and France and the new rapidly expanding capitalist countries of Germany and the United States owned 80 per cent of the worldâs finance capital between them.
These few rich countries accumulated capital in gigantic proportions and consequently sought means of making greater profits from this capital. Commodities had long been exported but the rise of finance capital saw the concurrent rise in the export of capital (loans and investment) itself both within undeveloped parts of Europe and the colonial world. The advantages are clear: profits are high because of the scarce capital already there, the cheap land and raw materials, and low wages of the workers. Money can be made from servicing loans, from commercial treaties, from requiring the debtor country to use your country for orders, contracts etc. And all the profits can be repatriated back to the imperialist country itself.
The imperialist nation states had by 1900 completed the seizure of all of the territories on the planet ö either directly by colonial rule or indirectly by tying countries into economic subservience while formally observing their independence (semi-colonies) as with Argentina, which was dominated by Britain because of the huge amount of British capital invested there.
Lenin argued that imperialism would not lead to stability but to increasing instability, and a greater tendency towards war and economic crises. The rival imperialist powers would fight over the division and re-division of the world. The history of the twentieth century has tragically proved him to be correct.
The division of the world was about obtaining profits, not promoting world harmony. The divisions were according to relative strength, resting on relative capital ö there was no virgin territory or market left, so instead of division, the cartels and imperialist nations would have to resort to re-division to increase their share, leading to instability and even war.
Overall Lenin predicted a tendency of the imperialist nations to become ever more parasitic on the rest of the world ö usurers, loan sharks, bullying less powerful nations to give up their goods and raw materials.
Despite their enormous power and influence "finance capital and the trusts do not diminish but increase the differences in the rate of growth of the various parts of the world economy". This creates massive contradictions and tensions around the globe, and for all the incredible advances in productive forces we have seen this century, imperialism has not even come close to solving those contradictions – as the 31 wars that took place last year alone prove.
Leninâs words, written during the first imperialist war are as true as ever: "what means other than war could there be under capitalism of removing the disparity between the development of productive forces and the accumulation of capital on the one side, and then division of colonies and "spheres of influence" for capital on the other?"
What does imperialism mean for the world working class? Exploitation, oppression and misery. Imperialism as an economic system relies on the exploitation of the non-imperialist world: colonies in Leninâs day, semi colonies today.
Imperialism also played a role in keeping the working class in the imperialist countries in check. As arch-imperialist Cecil Rhodes admitted in 1895:
"The Empire is a bread and butter question. If you want to avoid civil war, you must become imperialists."
In other words British bosses could deploy the greater profits made as a result of imperialism (super profits) to stop revolution at home. A section of the working class could be "bought off" (at least temporarily) with some of these super profits. As well as higher wages and better terms and conditions for this layer of workers ö the labour aristocracy ö improvements in sanitation, lighting and housing benefited the mass of workers.
The bitter legacy of this exploitation of the colonies and semi-colonies is not only the enduring poverty and oppression that blights Africa, Latin America and Asia, but the racism that was used to ideologically justify the subjugation of millions upon millions of people. The beginning of the imperialist age saw a huge rise in rabid nationalism, militarism and the first anti-immigration laws.
None of this means that the workers of the imperialist heartlands are lost forever to the cause of socialism. Every crisis forces the capitalists to turn on the working class ö including the aristocracy of labour. Every struggle contains the potential for generating the solidarity and class consciousness that undermine all divisions inside the working class, including racism. And, because of the very nature of the imperialist system ö characterised by war and crisis, the likelihood for such struggles increases.
Indeed, here was the final element of Leninâs theory of imperialism ö namely that it opened up an epoch of wars and revolutions. He was right. The list of revolutions this century is enormous, stretching from Russia in 1905 to North Africa 2011. Those revolutions are as much a part of the imperialist epoch as war and economic crisis. And those revolutions hold the key to overthrowing the imperialist world order. The question becomes: can revolutionary socialists win leadership of the masses in order to push those revolutions towards a final victory against capitalism? For Lenin the age of imperialism made the need for revolutionary internationalism literally a matter of life and death for the workers of the world. And so it remains for us today.
बुधवार, 3 अगस्त 2011
भ्रष्टाचार की महानदी
तवलीन सिंह :
अगर आप उनमें से हैं, जिन्होंने पिछले सप्ताह कर्नाटक के लोकायुक्त की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद तालियां बजाईं, तो तालियां बजाना बंद कीजिए कुछ क्षणों के लिए और इस लेख को ध्यान से पढ़िए। शायद पढ़ने के बाद आपको यकीन हो जाए कि न तो लोकायुक्त की 22,000 (तौबा तौबा) पन्नों की रिपोर्ट से भ्रष्टाचार कम होने वाला है और न ही एक मुख्यमंत्री के बरखास्त होने से। अंतर इतना जरूर होगा कि कर्नाटक का अगला मुख्यमंत्री निजी धन बटोरने का काम थोड़ी चतुराई से करेगा। इससे ज्यादा अंतर तब तक नहीं हो सकता, जब तक हमारे शासक यह न मानने को तैयार हो जाएं कि भ्रष्टाचार के साधन और काला धन कमाने के जरियों के बंद हुए बिना भारत देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलवाना महज एक सपना है।
कर्नाटक के लोकायुक्त ने खूब बहादुरी से काम किया। इसमें कोई शक नहीं। बुजदिल नहीं हैं न्यायमूर्ति हेगड़े साहब, इसलिए तो टीवी पर उन्होंने खुलकर कहा कि उनकी जान को खतरा है, लेकिन इसकी उन्हें परवाह नहीं है। शेरदिल हैं जज साहब, सो अपनी परवाह क्यों हो, परवाह है उन्हें तो उन अफसरों की जानों की जिन्होंने ईमानदारी से रिपोर्ट लिखने का काम किया। जज साहब की छवि इतनी चमक गई है इस रिपोर्ट के बाद कि कल अगर राष्ट्र के लोकपाल बन जाते हैं, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। समस्या यह है कि भ्रष्टाचार की महानदी बहती ही चलेगी जैसे चलती आई है, क्योंकि लोकपाल भी कुछ कर नहीं पाएंगे जब तक हम अनदेखी करते रहेंगे उन जरियों की, जिनसे पनपता है भ्रष्टाचार। समस्या यह है कि हमारे इस ‘सुफलाम सुजलाम’ देश में साधन अनेक हैं अवैध धन कमाने के और इन सबकी जानकारी हमारे शासकों को अच्छी तरह मालूम हो जाती है सत्ताधारी होने के कुछ ही महीनों बाद।
समस्या यह भी है कि जब काले धन के जरिये मालूम हो जाते हैं, तो उनको बंद करने का काम ईमानदार से ईमानदार राजनेता भी नहीं करते हैं, क्योंकि काले धन से ही चलती है भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी। फर्क यह जरूर है कि जो ईमानदार राजनेता हैं, वे अपने काले धन को चुनाव जीतने में लगा देते हैं और जो बेईमान हैं, वे लगाते हैं अपने और अपने परिजनों का जीवन सुधारने में। ऊपर से समस्या यह भी है अपने देश में कि चतुर राजनेता समाज कल्याण के नाम पर ऐसी योजना बनाने में माहिर हो गए हैं, जिनमें छिपे रहते हैं भ्रष्टाचार के अनेक रास्ते। उदाहरण के तौर पर मनरेगा को लीजिए। इस योजना द्वारा बेरोजगारी देहातों में कम हुई हो या नहीं, लेकिन ग्रामीण अधिकारियों की अमीरी जरूर बढ़ी है। क्यों न बढ़े?
करोड़ों रुपये भेज रही भारत सरकार राज्य सरकारों को, जिसे बांटने का काम सौंपा जाता है छोटे-बड़े अफसरों की पूरी एक फौज को। गांव तक पहुंचते-पहुंचते आधे से ज्यादा पैसा गायब हो जाता है और जब पहुंचता है सरपंचों के बैंक खातों में, तो उनकी भी अकसर नीयत बिगड़ जाती है। सोचिए जरा, जिन लोगों ने लाख रुपये न देखे हों, उनके पास जब एक करोड़ रुपये पहुंचते हैं, तो कैसा लगता होगा? सो सरपंच साहब तैयार करवा लेते हैं रोजगार बांटने की झूठी सूचियां, जिनमें कई बार पाए गए हैं मरे हुए लोगों के नाम और गरीबों के भी, जो जानते ही नहीं कि उनको 100 दिन का रोजगार दिया हैं माई-बाप सरकार ने।
मनरेगा के समर्थक भी आजकल मानते हैं कि इस योजना द्वारा रोजगार कम और भ्रष्टाचार ज्यादा फैला है पूरे देश में, लेकिन योजना को बंद करने की अब किसकी हिम्मत है? मनरेगा जैसी कई अन्य योजनाएं हैं, जो समाज कल्याण ेंमें और भ्रष्टाचार के काम ज्यादा आती हैं, लेकिन एक बार अगर ऐसी व्यवस्था स्थापित हो जाती हैं, तो इनको बंद करना अतना कठिन है कि देश के अधिकतर राजनेता इसके बारे में सोचते ही नहीं हैं। विपक्षी दल भी मुद्दा नहीं बनाते हैं इन योजनाओं को इस डर से, कि कहीं गरीब मतदाता ऐसा न सोच बैठें कि वह उनका कल्याण नहीं चाहते हैं।
इन दिनों जब अन्ना हजारे और उनके साथियों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया है, एक नई समस्या पैदा हो गई है। अन्ना जी के साथी ज्यादातर ऐसे लोग हैं, जो वामपंथी विचारधारा में विश्वास रखते हैं। तो इनकी जबानें भी नहीं खुलती हैं, उन महंगी पिछड़ा समाज कल्याण योजनाओं के खिलाफ, जिनके द्वारा बिछ गया है पूरे देश में भ्रष्टाचार का महाजाल। उनकी राय में भ्रष्टाचार पैदा हुआ है भारत में सिर्फ 1991 के आर्थिकग सुधारों के बाद। यह सरासर झूठ है, लेकिन भ्रष्टाचार से इतना परेशान है इस देश का आम आदमी कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के खिलाफ कैसे बोल सकता है? भ्रष्टाचार ऐसे आंदोलनों से कम नहीं होने वाला है दोस्तो, लेकिन जैसे मिर्जा गालिब कभी कह गए थे, दिल के बहलाने का गालिब यह खयाल अच्छा है।
अगर आप उनमें से हैं, जिन्होंने पिछले सप्ताह कर्नाटक के लोकायुक्त की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद तालियां बजाईं, तो तालियां बजाना बंद कीजिए कुछ क्षणों के लिए और इस लेख को ध्यान से पढ़िए। शायद पढ़ने के बाद आपको यकीन हो जाए कि न तो लोकायुक्त की 22,000 (तौबा तौबा) पन्नों की रिपोर्ट से भ्रष्टाचार कम होने वाला है और न ही एक मुख्यमंत्री के बरखास्त होने से। अंतर इतना जरूर होगा कि कर्नाटक का अगला मुख्यमंत्री निजी धन बटोरने का काम थोड़ी चतुराई से करेगा। इससे ज्यादा अंतर तब तक नहीं हो सकता, जब तक हमारे शासक यह न मानने को तैयार हो जाएं कि भ्रष्टाचार के साधन और काला धन कमाने के जरियों के बंद हुए बिना भारत देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलवाना महज एक सपना है।
कर्नाटक के लोकायुक्त ने खूब बहादुरी से काम किया। इसमें कोई शक नहीं। बुजदिल नहीं हैं न्यायमूर्ति हेगड़े साहब, इसलिए तो टीवी पर उन्होंने खुलकर कहा कि उनकी जान को खतरा है, लेकिन इसकी उन्हें परवाह नहीं है। शेरदिल हैं जज साहब, सो अपनी परवाह क्यों हो, परवाह है उन्हें तो उन अफसरों की जानों की जिन्होंने ईमानदारी से रिपोर्ट लिखने का काम किया। जज साहब की छवि इतनी चमक गई है इस रिपोर्ट के बाद कि कल अगर राष्ट्र के लोकपाल बन जाते हैं, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। समस्या यह है कि भ्रष्टाचार की महानदी बहती ही चलेगी जैसे चलती आई है, क्योंकि लोकपाल भी कुछ कर नहीं पाएंगे जब तक हम अनदेखी करते रहेंगे उन जरियों की, जिनसे पनपता है भ्रष्टाचार। समस्या यह है कि हमारे इस ‘सुफलाम सुजलाम’ देश में साधन अनेक हैं अवैध धन कमाने के और इन सबकी जानकारी हमारे शासकों को अच्छी तरह मालूम हो जाती है सत्ताधारी होने के कुछ ही महीनों बाद।
समस्या यह भी है कि जब काले धन के जरिये मालूम हो जाते हैं, तो उनको बंद करने का काम ईमानदार से ईमानदार राजनेता भी नहीं करते हैं, क्योंकि काले धन से ही चलती है भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी। फर्क यह जरूर है कि जो ईमानदार राजनेता हैं, वे अपने काले धन को चुनाव जीतने में लगा देते हैं और जो बेईमान हैं, वे लगाते हैं अपने और अपने परिजनों का जीवन सुधारने में। ऊपर से समस्या यह भी है अपने देश में कि चतुर राजनेता समाज कल्याण के नाम पर ऐसी योजना बनाने में माहिर हो गए हैं, जिनमें छिपे रहते हैं भ्रष्टाचार के अनेक रास्ते। उदाहरण के तौर पर मनरेगा को लीजिए। इस योजना द्वारा बेरोजगारी देहातों में कम हुई हो या नहीं, लेकिन ग्रामीण अधिकारियों की अमीरी जरूर बढ़ी है। क्यों न बढ़े?
करोड़ों रुपये भेज रही भारत सरकार राज्य सरकारों को, जिसे बांटने का काम सौंपा जाता है छोटे-बड़े अफसरों की पूरी एक फौज को। गांव तक पहुंचते-पहुंचते आधे से ज्यादा पैसा गायब हो जाता है और जब पहुंचता है सरपंचों के बैंक खातों में, तो उनकी भी अकसर नीयत बिगड़ जाती है। सोचिए जरा, जिन लोगों ने लाख रुपये न देखे हों, उनके पास जब एक करोड़ रुपये पहुंचते हैं, तो कैसा लगता होगा? सो सरपंच साहब तैयार करवा लेते हैं रोजगार बांटने की झूठी सूचियां, जिनमें कई बार पाए गए हैं मरे हुए लोगों के नाम और गरीबों के भी, जो जानते ही नहीं कि उनको 100 दिन का रोजगार दिया हैं माई-बाप सरकार ने।
मनरेगा के समर्थक भी आजकल मानते हैं कि इस योजना द्वारा रोजगार कम और भ्रष्टाचार ज्यादा फैला है पूरे देश में, लेकिन योजना को बंद करने की अब किसकी हिम्मत है? मनरेगा जैसी कई अन्य योजनाएं हैं, जो समाज कल्याण ेंमें और भ्रष्टाचार के काम ज्यादा आती हैं, लेकिन एक बार अगर ऐसी व्यवस्था स्थापित हो जाती हैं, तो इनको बंद करना अतना कठिन है कि देश के अधिकतर राजनेता इसके बारे में सोचते ही नहीं हैं। विपक्षी दल भी मुद्दा नहीं बनाते हैं इन योजनाओं को इस डर से, कि कहीं गरीब मतदाता ऐसा न सोच बैठें कि वह उनका कल्याण नहीं चाहते हैं।
इन दिनों जब अन्ना हजारे और उनके साथियों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया है, एक नई समस्या पैदा हो गई है। अन्ना जी के साथी ज्यादातर ऐसे लोग हैं, जो वामपंथी विचारधारा में विश्वास रखते हैं। तो इनकी जबानें भी नहीं खुलती हैं, उन महंगी पिछड़ा समाज कल्याण योजनाओं के खिलाफ, जिनके द्वारा बिछ गया है पूरे देश में भ्रष्टाचार का महाजाल। उनकी राय में भ्रष्टाचार पैदा हुआ है भारत में सिर्फ 1991 के आर्थिकग सुधारों के बाद। यह सरासर झूठ है, लेकिन भ्रष्टाचार से इतना परेशान है इस देश का आम आदमी कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के खिलाफ कैसे बोल सकता है? भ्रष्टाचार ऐसे आंदोलनों से कम नहीं होने वाला है दोस्तो, लेकिन जैसे मिर्जा गालिब कभी कह गए थे, दिल के बहलाने का गालिब यह खयाल अच्छा है।
लोकपाल से आगे
विनीत नारायण::
अन्ना हजारे और उनके आंदोलन से जुड़े अरविंद केजरीवाल, स्वामी अग्निवेश और किरण बेदी ने पिछले दिनों कुछ खास लोगों को दिल्ली बुलाकर प्रस्तावित लोकपाल विधेयक पर खुली चर्चा की। इससे यह स्पष्ट हुआ कि इस विधेयक के मौजूदा प्रारूप को लेकर सिविल सोसाइटी में भारी मतभेद हैं। प्रस्तावित विधेयक में नेताओं और अफसरों के खिलाफ तो बेशक कड़े प्रावधान हैं, लेकिन समिति भूल रही है कि भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती। भ्रष्टाचार बढ़ाने में कुछ औद्योगिक घरानों की भी बड़ी भूमिका है, जो समय-समय पर राजनीतिक पार्टियों की मदद करते हैं और समय आने पर इसका लाभ लेते हैं। लिहाजा जब तक तमाम भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती, तब तक राजनीतिक भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता। फिर यह भी याद रखना होगा कि लोकपाल सभी मर्ज की दवा नहीं है। हमने जैन हवाला कांड में 1996 में ही देश के दर्जनों मंत्रियों, राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और बड़े अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में चार्जशीट दाखिल करवाया था। बाद के वर्षों में दूसरे घोटालों में जयललिता, लालू यादव, सुखराम, मधु कोड़ा, ए राजा और सुरेश कलमाडी जैसे राजनेता बिना लोकपाल के ही मौजूदा कानूनों के तहत पकड़े जा चुके हैं। अगर इन्हें सजा नहीं मिली, तो हमें सीबीआई की जांच प्रक्रिया की रुकावटों को दूर करने के साथ केंद्रीय सतर्कता आयोग की स्वायत्तता सुनिश्चित करनी चाहिए। एकदम से तमाम पुरानी व्यवस्थाओं को खारिज कर एक नई व्यवस्था खड़ी करना बुद्धिमानी नहीं होगा, जिसकी सफलता अभी परखी जानी है। बेशक न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है, लेकिन न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाना भी सही नहीं होगा। न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अलग से ‘न्यायपाल’ जैसी व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि उसकी और कार्यपालिका की कार्यप्रणाली में मूलभूत अंतर होता है। प्रस्तावित लोकपाल को केवल राजनेताओं पर निगाह रखने का काम दिया जाना चाहिए। इस तरह अपने लोकतंत्र में ‘चैक और बैलेंस’ की जो व्यवस्था है, वह बनी रहेगी। सबसे बड़ा सवाल ईमानदार लोकपाल को ढूंढकर लाने का है। जब न्यायपालिका ही विवादों से मुक्त नहीं है, तो फिर दूसरे की बात भला क्या करें! ऐसे में अगर लोकपाल को न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका पर निगरानी रखने का अधिकार दे दिया गया, तो भ्रष्ट लोकपाल पूरे देश का कबाड़ा कर देगा और कहीं बचने का रास्ता भी नहीं मिलेगा। भूलना नहीं चाहिए कि भ्रष्टाचार का तंत्र बड़ा विशाल है। मसलन, जो स्वयंसेवी संस्थाएं विदेशों से आर्थिक मदद लेती हैं, उसमें भी बड़े घोटाले होते हैं। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं भी भारत में बड़े घोटाले कर रही हैं। ऐसे सभी मामलों को जांच के दायरे में लेना चाहिए। पर इस विधेयक में अभी तक ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। भ्रष्टाचार से आम हिंदुस्तानी दुखी है और इससे निजात पाना चाहता है। इसलिए अन्ना हजारे का अनशन शहरी मध्यवर्ग के आक्रोश की अभिव्यक्ति बन गया। पर इस आंदोलन से जुड़े कुछ अहम सवाल भी उठ रहे हैं। पहला तो यह कि शांति भूषण और प्रशांत भूषण विवादों में घिरे हैं, फिर भी अन्ना उन्हें उस समिति में बनाए हुए हैं, जो भ्रष्टाचार से निपटने का कानून बनाने जा रही है। उल्लेखनीय है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस की नियुक्ति को चुनौती देने वाली प्रशांत भूषण की जनहित याचिका में तर्क दिया गया था कि ऐसे संवेदनशील पद पर बैठने वाले का आचरण ‘संदेह से परे’ होना चाहिए। वही तर्क शांति और प्रशांत भूषण पर भी लागू होना चाहिए। फिलहाल इस बहस को अगर यहीं छोड़ दें, तब भी यह सवाल अपनी जगह है ही कि इस ‘सिविल सोसाइटी’ ने परदे के पीछे बैठकर जल्दबाजी में सारे फैसले कैसे ले लिए। देश को न्यायविदों के नाम सुझाने का 24 घंटे का भी समय नहीं दिया और अपने स्तर पर चयन कर विवाद खड़ा कर दिया। सर्वेंट ऑफ इंडिया सोसाइटी और ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस समिति के सदस्यों ने ‘लोकपाल विधेयक’ पर उनका अरसे से चल रहा आंदोलन यह कहकर बंद करवा दिया कि इस मुद्दे पर सब मिलकर लड़ेंगे, फिर उनको ठेंगा दिखा दिया। योगगुरु बाबा रामदेव का भी क्षोभ है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध सारी हवा उन्होंने बनाई, इन लोगों को मंच, आस्था टीवी चैनल पर कवरेज और इनकी सभाओं में अपने समर्थक भेजकर भारी भीड़ जुटाई। पर जंतर-मंतर पर धरना शुरू होते ही अन्ना हजारे के लोगों ने बाबा से भी पल्ला झाड़ लिया। बाबा इससे आहत हैं और आगे की लड़ाई वह इन्हें साथ लिए बिना लड़ना चाहते हैं।
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