बुधवार, 3 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार की महानदी

तवलीन सिंह :
अगर आप उनमें से हैं, जिन्होंने पिछले सप्ताह कर्नाटक के लोकायुक्त की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद तालियां बजाईं, तो तालियां बजाना बंद कीजिए कुछ क्षणों के लिए और इस लेख को ध्यान से पढ़िए। शायद पढ़ने के बाद आपको यकीन हो जाए कि न तो लोकायुक्त की 22,000 (तौबा तौबा) पन्नों की रिपोर्ट से भ्रष्टाचार कम होने वाला है और न ही एक मुख्यमंत्री के बरखास्त होने से। अंतर इतना जरूर होगा कि कर्नाटक का अगला मुख्यमंत्री निजी धन बटोरने का काम थोड़ी चतुराई से करेगा। इससे ज्यादा अंतर तब तक नहीं हो सकता, जब तक हमारे शासक यह न मानने को तैयार हो जाएं कि भ्रष्टाचार के साधन और काला धन कमाने के जरियों के बंद हुए बिना भारत देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलवाना महज एक सपना है।
कर्नाटक के लोकायुक्त ने खूब बहादुरी से काम किया। इसमें कोई शक नहीं। बुजदिल नहीं हैं न्यायमूर्ति हेगड़े साहब, इसलिए तो टीवी पर उन्होंने खुलकर कहा कि उनकी जान को खतरा है, लेकिन इसकी उन्हें परवाह नहीं है। शेरदिल हैं जज साहब, सो अपनी परवाह क्यों हो, परवाह है उन्हें तो उन अफसरों की जानों की जिन्होंने ईमानदारी से रिपोर्ट लिखने का काम किया। जज साहब की छवि इतनी चमक गई है इस रिपोर्ट के बाद कि कल अगर राष्ट्र के लोकपाल बन जाते हैं, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। समस्या यह है कि भ्रष्टाचार की महानदी बहती ही चलेगी जैसे चलती आई है, क्योंकि लोकपाल भी कुछ कर नहीं पाएंगे जब तक हम अनदेखी करते रहेंगे उन जरियों की, जिनसे पनपता है भ्रष्टाचार। समस्या यह है कि हमारे इस ‘सुफलाम सुजलाम’ देश में साधन अनेक हैं अवैध धन कमाने के और इन सबकी जानकारी हमारे शासकों को अच्छी तरह मालूम हो जाती है सत्ताधारी होने के कुछ ही महीनों बाद।
समस्या यह भी है कि जब काले धन के जरिये मालूम हो जाते हैं, तो उनको बंद करने का काम ईमानदार से ईमानदार राजनेता भी नहीं करते हैं, क्योंकि काले धन से ही चलती है भारतीय लोकतंत्र की गाड़ी। फर्क यह जरूर है कि जो ईमानदार राजनेता हैं, वे अपने काले धन को चुनाव जीतने में लगा देते हैं और जो बेईमान हैं, वे लगाते हैं अपने और अपने परिजनों का जीवन सुधारने में। ऊपर से समस्या यह भी है अपने देश में कि चतुर राजनेता समाज कल्याण के नाम पर ऐसी योजना बनाने में माहिर हो गए हैं, जिनमें छिपे रहते हैं भ्रष्टाचार के अनेक रास्ते। उदाहरण के तौर पर मनरेगा को लीजिए। इस योजना द्वारा बेरोजगारी देहातों में कम हुई हो या नहीं, लेकिन ग्रामीण अधिकारियों की अमीरी जरूर बढ़ी है। क्यों न बढ़े?
करोड़ों रुपये भेज रही भारत सरकार राज्य सरकारों को, जिसे बांटने का काम सौंपा जाता है छोटे-बड़े अफसरों की पूरी एक फौज को। गांव तक पहुंचते-पहुंचते आधे से ज्यादा पैसा गायब हो जाता है और जब पहुंचता है सरपंचों के बैंक खातों में, तो उनकी भी अकसर नीयत बिगड़ जाती है। सोचिए जरा, जिन लोगों ने लाख रुपये न देखे हों, उनके पास जब एक करोड़ रुपये पहुंचते हैं, तो कैसा लगता होगा? सो सरपंच साहब तैयार करवा लेते हैं रोजगार बांटने की झूठी सूचियां, जिनमें कई बार पाए गए हैं मरे हुए लोगों के नाम और गरीबों के भी, जो जानते ही नहीं कि उनको 100 दिन का रोजगार दिया हैं माई-बाप सरकार ने।
मनरेगा के समर्थक भी आजकल मानते हैं कि इस योजना द्वारा रोजगार कम और भ्रष्टाचार ज्यादा फैला है पूरे देश में, लेकिन योजना को बंद करने की अब किसकी हिम्मत है? मनरेगा जैसी कई अन्य योजनाएं हैं, जो समाज कल्याण ेंमें और भ्रष्टाचार के काम ज्यादा आती हैं, लेकिन एक बार अगर ऐसी व्यवस्था स्थापित हो जाती हैं, तो इनको बंद करना अतना कठिन है कि देश के अधिकतर राजनेता इसके बारे में सोचते ही नहीं हैं। विपक्षी दल भी मुद्दा नहीं बनाते हैं इन योजनाओं को इस डर से, कि कहीं गरीब मतदाता ऐसा न सोच बैठें कि वह उनका कल्याण नहीं चाहते हैं।
इन दिनों जब अन्ना हजारे और उनके साथियों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया है, एक नई समस्या पैदा हो गई है। अन्ना जी के साथी ज्यादातर ऐसे लोग हैं, जो वामपंथी विचारधारा में विश्वास रखते हैं। तो इनकी जबानें भी नहीं खुलती हैं, उन महंगी पिछड़ा समाज कल्याण योजनाओं के खिलाफ, जिनके द्वारा बिछ गया है पूरे देश में भ्रष्टाचार का महाजाल। उनकी राय में भ्रष्टाचार पैदा हुआ है भारत में सिर्फ 1991 के आर्थिकग सुधारों के बाद। यह सरासर झूठ है, लेकिन भ्रष्टाचार से इतना परेशान है इस देश का आम आदमी कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के खिलाफ कैसे बोल सकता है? भ्रष्टाचार ऐसे आंदोलनों से कम नहीं होने वाला है दोस्तो, लेकिन जैसे मिर्जा गालिब कभी कह गए थे, दिल के बहलाने का गालिब यह खयाल अच्छा है।

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