बुधवार, 17 अगस्त 2011

अन्ना की ताकत

तुषार गांधी


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अन्ना हजारे की आवाज दबाने के लिए सरकार ने जो रास्ता अपनाया, उसे दमन और क्रूरता के अलावा और कुछ नहीं कह सकते। शासकीय अहंकार की पराकाष्ठा में और अपनी कमजोरियों के उजागर होने पर यह सरकार की बौखलाहट का ही नतीजा है। सरकार में बैठे जो लोग सांविधानिकजिम्मेदारियों की दुहाई दे रहे हैं, वे जाने-अनजाने देश के वातावरण को बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। अगर उन्हें संविधान और नैतिकता की इतनी चिंता होती, तो अन्ना हजारे से बातचीत और समाधान के लिए दूसरे रास्ते तलाशे जाते। मगर सरकार बचकाने तर्क के साथ खड़ी है। हास्यास्पद है कि सरकार इसे पुलिस की अपनी कार्रवाई कहकर पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है।
इस प्रक्रिया में छिपे खतरों को भी समझना चाहिए। आप नक्सलवाद की बात करते हैं, अलग-अलग जगहों पर उठती भड़कती आग को बुझाने में लगे रहते हैं, लेकिन यह जानने का प्रयास नहीं करते कि ऐसा क्यों होता है। आखिर कौन-सी बात लोगों के मन में आक्रोश भरती है? जवाब यही है कि अगर शांति और अहिंसा के मार्ग पर चल रहे लोगों को आप शासक होने के नाते डराएंगे, धमकाएंगे, उनका उपहास उड़ाएंगे, तो समय के साथ क्रांति का बिगुल बज जाता है। आखिर लोगों का रोष कहीं तो निकलेगा।
एक डरी हुई सरकार जिस तरह गलती पर गलती करती जाती है, वही सब देखने को मिल रहा है। जरूरी नहीं कि अन्ना और उनके साथियों की सारी मांगें जायज हों। मगर सरकार ने जिस तरह हठधर्मिता दिखाई, उससे अन्ना के पक्ष में सहानुभूति की लहर दौड़ गई। सरकार की भूल है कि वह महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की भावना को नहीं समझ पा रही है।
अब कोई अन्ना हजारे से कहे कि चुनाव लड़ लो, आपको अपनी ताकत का पता लग जाएगा, तो फिर पूछना पड़ेगा कि क्या चुनाव ही सबसे बड़ी कसौटी है? अगर चुनाव की सफलता ही नैतिकता और आचरण का प्रतिबिंब होती, तो हमारी संसद और जनप्रतिनिधियों के आचरण में वह नजर आता।
अन्ना हजारे ने बार- बार गांधीजी के सिद्धांत और नैतिकता की बात दोहराई है। अपने आंदोलन में वह गांधीजी से आशीर्वाद लेते हुए दिख रहे हैं। साफ है कि हमारे देश में परिस्थितियां बदलती रहेंगी, समय के साथ बदलाव भी होते रहेंगे, लेकिन रास्ता वही रहेगा, जो गांधीजी समझा-बुझा गए हैं। सत्ता में बैठे हुए लोगों के लिए भी और उन लोगों के लिए भी जो शासन के सामने अपनी कुछ बातें कहना चाहते हैं। अन्ना का रास्ता विशुद्ध गांधीवादी है या नहीं, इस पर अपनी-अपनी राय हो सकती है। जितना हम अन्ना हजारे को जान पाएं हैं, उसमें हम यह कह सकते हैं कि मुद्दों पर और कई पहलुओं पर आप उनसे सहमत-असहमत हो सकते हैं, पर उनकी नैतिकता पर शायद ही कोई सवाल खड़ा करे। वैसे अन्ना हजारे जिस लोकपाल बिल की बात कर रहे हैं, उसमें भी कुछ मामलों में असहमति हो सकती हैं, लेकिन जिस तरह उनकी बात को दबाने की कोशिश हुई, लोगों ने यही आशय लिया कि सरकार कुछ छिपाना चाहती है। मैं खुद अन्ना हजारे के जनलोकपाल बिल के कुछ पहलुओं से असहमति रखता हूं। लेकिन अब जब बात उससे आगे जनाधिकार की आ गई है, तो स्वयं उनके आंदोलन से अपने को जोड़ते हुए देखता हूं।
गिरफ्तारी के समय अन्ना का यह सवाल ही वाजिब था कि आखिर उन्हें किस कारण गिरफ्तार किया जा रहा है। सरकार को उम्मीद रही होगी कि जिस तरह बाबा रामदेव के रामलीला मैदान में आंदोलन को झेल लिया गया, वैसे ही अन्ना का आंदोलन भी शांत हो जाएगा। यही भूल है। सरकार ने अपने को आईने में नहीं देखा। सरकार यह नहीं समझ पा रही है कि आम आदमी किस तरह और किन हालात में त्रस्त है, दुखी है। कितना अजब है कि लोग महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं और सरकार और सत्ता पार्टी के जिम्मेदार लोग प्रेस कांफ्रेंस करके सस्ते जुमलों के साथ चुटकी लेते हैं। सरकार और सत्ता पार्टी को भी अपनी बात कहने का हक है, पर कोई बात किस तरह कही जाए इसकी मर्यादा होती है।
आज हमारे देश में कई समस्याओं का आधार ही यह है कि सरकारों ने उनसे निजात पाने के बजाय उस पर अपनी राजनीति खेली। सरकार कितनी भी चालाक क्यों न हो, यह सवाल तो उसके सामने खड़ा ही है कि देश के तमाम उग्र संगठनों से तो आप बातचीत का हाथ बढ़ाते हैं, टेबल पर बातचीत की पहल करते हैं, यह हक अन्ना हजारे को क्यों नहीं दिया? उन्हें अपनी बात कहने पर जेल में क्यों डाला?
दरअसल देश में अभी आंदोलन की भूमिका बनी है। अन्ना हजारे इस मामले में सफल हुए हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में एक आह्वान छेड़ दिया है। उनकी गिरफ्तारी के बाद लोगों में गहरा आक्रोश झलकता है। असल आंदोलन अभी शुरू करने की जरूरत है। इस माहौल में उन खतरों से भी सजग रहना होगा, जिसमें राजनीतिक दल अपना फायदा टटोलना शुरू करता है। राजनीतिक पार्टियों की तरफ से मिली निराशा से भी अन्ना हजारे के आंदोलन को एक मंच मिला है। लोग यह नहीं चाहेंगे कि इसका इस्तेमाल विपक्षी राजनीतिक पार्टियां अपने हितों में कर सकें। इससे आंदोलन और उसकी राह भटक सकती है। देखना होगा कि अन्ना की गिरफ्तारी के बाद उनके साथी इस आंदोलन को किस तरह आगे ले जाते हैं।

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