सुरेंद्र कुमार | |
अन्ना हजारे का उपवास और उसका नतीजा भारत के संसदीय लोकतंत्र के पचास वर्षों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है। हालांकि इसका ठोस परिणाम जनता की उच्च आकांक्षाओं से मेल खाता नहीं दिख रहा है। पखवाड़े भर पहले किसी को भी अन्ना के उपवास को इतने व्यापक समर्थन की उम्मीद नहीं थी। खुद अन्ना को भी नहीं। ठीक इसी तरह से कुछ ही लोग सरकार के इतनी जल्दी और इस तरह झुकने का कयास लगा रहे थे। इसे समझने के लिए कुछ बातों पर गहराई से विचार करना जरूरी होगा। जन लोकपाल बिल के मुद्दे पर राष्ट्रव्यापी प्रतिक्रिया दर्शाती है कि मौजूदा नेतृत्व से आमजन का भरोसा किस तरह टूट चुका है और वह किसी मुक्तिदाता की तलाश में है। अपनी स्पष्ट निष्ठा, ईमानदारी, गंभीरता और आज की राजनीति में दुर्लभ, बेदाग, सरल व निःस्वार्थ छवि वाले अन्ना अचानक ही देश के नेतृत्व में उपजे शून्य को भरने के लिए अनूठे नायक की तरह उभरे। दूसरी ओर केंद्र सरकार पहले ही घोटालों से घिरी हुई है और उसे बार-बार सुप्रीम कोर्ट की आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है। इससे यही संदेश गया कि सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ या तो लड़ना नहीं चाहती या वह बुरी तरह विफल है। मगर सरकार को अतीत की बातें परेशान कर रही थी, जब 1989 में राजीव गांधी की सरकार को बोफोर्स मामले में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते करारी चुनावी हार झेलनी पड़ी थी। लिहाजा, उसने यह जताने की कोशिश की कि वह कुछ भी नहीं छिपाना चाहती और भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरी तरह अन्ना के साथ है। ट्यूनीशिया और मिस्र की तरह अन्ना हजारे को मिले समर्थन में प्रौद्योगिकी और मीडिया की भी बड़ी भूमिका रही। इंटरनेट, संचार के नए माध्यम और मीडिया राष्ट्रीय मुद्दों को आगे लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, जो राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए एक चेतावनी है। इस सबके बावजूद अन्ना के प्रति पूरे आदर के साथ कहना पड़ रहा है कि वह कोई जादूगर नहीं हैं और भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी और मजबूत हैं कि उन्हें पूरी तरह जल्दी खत्म करना मुश्किल होगा। उनके अनशन से उपजे उन्माद के बावजूद किसी को भी सरल, अव्यावहारिक और अधकचरा समाधान नहीं सुझाना चाहिए और हमारे लोकतंत्र के स्तंभों को कमजोर नहीं करना चाहिए। ‘पकड़ो, जेल में डालो और फांसी दे दो’ जैसे फिल्मी सुझाव देने वाले सांविधानिक, सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थों से अनजान हैं। हमें भ्रष्टाचार से जरूर लड़ना चाहिए, दोषियों को दंड देना चाहिए। हमें प्रभावी, निष्पक्ष और समयबद्ध न्यायिक प्रणाली के लिए भी प्रयास करना चाहिए। मगर हम 1.21 अरब लोगों के देश को ‘बनाना गणराज्य’ के कंगारू कोर्ट में तबदील नहीं कर सकते। हमें कम से कम समय में दोषी को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के लिए कानून के राज और लोगों के सांविधानिक अधिकारों की रक्षा के बीच एक संतुलन बनाना होगा। हमें सोचना चाहिए कि क्या सरकार, संसद और न्यायपालिका के ऊपर बेलगाम शक्ति वाला ‘सुपरमैन’ जैसा लोकपाल 21वीं सदी में राष्ट्रहित को सुरक्षित रख पाएगा। उचित नियंत्रण और संतुलन लोकपाल पर भी लागू होना चाहिए, ताकि वह खुद को कानून से ऊपर न समझने लगे। भ्रष्टाचार के आरोपों को हिसाब बराबर करने या उत्पीड़न या ब्लैकमेल करने का औजार नहीं बनने देना चाहिए। असल में भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए एक दीर्घकालीन बहुआयामी प्रयास की जरूरत होगी। निश्चय ही राजनेताओं और अन्य बड़ी मछलियों की गिरफ्तारी और जेल में डालने के प्रावधान का प्रभावी असर होगा, लेकिन जमीनी वास्तविकताओं की वजह से भ्रष्टाचार विभिन्न स्तरों पर जारी रहेगा। मसलन, जंतर मंतर के निकट एक आइसक्रीम बेचने वाला अन्ना हजारे के समर्थकों की भारी उपस्थिति के कारण खूब बिक्री से काफी खुश था। उसने निःसंकोच बताया कि उसने आइसक्रीम बेचने देने के लिए वहां तैनात पुलिस वाले को घूस दी थी। वह अन्ना के भ्रष्टाचार रोकने का इंतजार नहीं कर सकता, क्योंकि उसे अपने परिवार का पेट भरना है। छोटे गांवों, कसबों और शहरों के लाखों भारतीय इसी तरह भ्रष्टाचार के साथ रोजमर्रा का जीवन जीने को विवश हैं। काश किसी ने जंतर-मंतर पर उन मूक पीड़ितों की आवाज उठाई होती। राजनेता, नौकरशाह, डॉक्टर, इंजीनियर, रक्षाकर्मी, न्यायाधीश, पायलट, खेल निकायों के प्रमुख, मीडिया प्रतिनिधि, उद्योग घरानों के लोग, सभी एक ही समाज का हिस्सा हैं। भ्रष्टाचार के आरोपियों को जेल भेजना निश्चय ही भ्रष्टाचार को हतोत्साहित करेगा, लेकिन यह तब तक खत्म नहीं होने वाला, जब तक इसकी जड़ पर प्रहार नहीं किया जाएगा। ऐसा लगता है कि हर कोई सही-गलत का विचार किए बिना तेजी से पैसा बनाना चाहता है। नैतिक मूल्यों को बचाने का काम घर से ही शुरू करना होगा और फिर उसे स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में मजबूत करने और सरकार, कॉरपोरेट क्षेत्र, संगठित व असंगठित नियोजकों और नागरिक समाज के संरक्षण और प्रोत्साहन की जरूरत होगी। अगर एक समाज धन के स्रोत की जांच किए बिना ही उसे मान-सम्मान देता है, तो दर्जनों अन्ना हजारे के बावजूद भ्रष्टाचार से पार नहीं पाया जा सकता। राज कपूर ने पांच दशक पहले श्री 420 और जागते रहो में जो दिखाया था, वह आज भी सच है। (अमर उजाला से साभार) |
बुधवार, 20 अप्रैल 2011
जादूगर नहीं अन्ना
बुधवार, 13 अप्रैल 2011
आप सब की पॉलिटिक्स क्या है?
बात पते की
नंद कश्यप
वास्तव में, मैं इस मत का हूं कि जो राजनीति और सभी राजनीतिज्ञों के बारे में आम तौर पर घृणा का माहौल फैलाने में लगे हैं, वे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं कर रहे- लालकृष्ण अडवाणी, शीर्ष भाजपा नेता, 12 अप्रैल 2011 को अपने ब्लॉग पर.
जो लोग राजनीतिज्ञों को गाली दे रहे हैं, उन्हें चुनाव जरूर लड़ना चाहिए. गैर सरकारी संगठनों द्वारा आयोजित किए जाने वाले धरना-प्रर्दशनों के लिए खर्च कहां से आता है, इसकी भी जांच होनी चाहिये -दिग्विजय सिंह, कांग्रेस नेता, 12 अप्रैल 2011 को एक पत्रकार वार्ता में.
लालकृष्ण अडवाणी और दिग्विजय सिंह के इन बयानों से एक बात स्पष्ट होकर उभर रही है कि भ्रष्टाचार का मुद्दा जनता को झकझोर गया है और इस बहाने जनता उस पर हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिये सड़कों पर उतरने के लिये आमादा दिख रही है. जनता के सडक़ों पर उतरने की प्रक्रिया राजसत्ता को हिलाती ही है. राजसत्ता से जुड़े राजनेताओं के सारे बयान इसी घबराहट का प्रतीक हैं.
जहां तक अन्ना के आंदोलन का प्रश्न है, आभास ऐसा होता है कि वह पूर्व निर्धारित था और उसके पीछे मार्केटिंग के बहुत मंझे हुए खिलाड़ी का दिमाग काम कर रहा था. और यदि ऐसा नहीं था तो सरकार ने बहुत चतुराई से विकसित हो रहे बड़े जनआंदोलन को उसकी भ्रूण अवस्था में खत्म करने में सफलता पा ली है. दोनों ही स्थितियां अन्ना हजारे के दूरगामी रणनीतिक सोच की कमजोरी को ही दर्शाती हैं.
देखा जाये तो महाराष्ट्र में भी वह बड़ी लड़ाई शुरू कर उसे निरंतरता प्रदान करने में असमर्थ रहे हैं. सामाजिक मुद्दों पर उनकी सांगठनिक क्षमता बहुत कमजोर रही है. रालेगांव सिद्धी में हरितका लाने वाले अन्ना अंग्रेजी मीडिया में जरूर छाये परंतु उसे बड़े आंदोलन में परिवर्तित करने में असफल रहे.
जंतर-मंतर में भी जो लोग अन्ना हजारे के समर्थन में सार्थक और निरंतर संघर्ष की प्रतिबद्धता से आये थे, उन्हें अन्ना ने निराश ही किया. अन्ना को घोषणा करनी पड़ी कि वह सारे देश का दौरा कर व्यापक संघर्ष की शुरूवात करेंगे. यक्ष प्रश्न यही है कि क्या अन्ना ऐसा कर पायेंगे. क्योंकि अन्ना की राजनीति क्या है, यह कम से कम जनता को नहीं पता है. अन्ना की पहल ने जनता के भीतर की बेचैनी को हवा तो दी है और छोटी चिंगारी भड़क भी सकती है. लेकिन क्या अन्ना और उनके दायें-बायें के लोग ऐसा चाहेंगे?
भ्रष्टाचार के इसी शोर के बीच सरकारी बजट के कई आंकड़े आये हैं जो बतलाते हैं कि 2005-2006 के बजट से लेकर आज तक यानी बजट 2010-2011 तक केंद्र सरकार ने कारपोरेट जगत का 3,74,937 करोड़ रुपये का आयकर माफ किया है. 2005-2006 के बजट में 34618 करोड़ रुपये माफ किया था और 2011 के बजट में 88263 करोड़ रुपया माफ किया गया है.
इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि हम प्रतिदिन 240 करोड़ रुपये पूंजीपतियों को कर माफी दे रहे हैं. उसके बदले ये पूंजीपति अपने ऐशो-आराम खरीद रहे हैं. कोई अपनी पत्नी को अरबों-खरबों के पानी जहाज उपहार में दे रहा है तो कोई 46 मंजिला घर बना रहा है. कोई और है जो इंग्लैंड की राजमहल वाली सड़क पर 10 गुना महंगा बंगला खरीद रहा है. ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी वाशिंगटन की रिपोर्ट अनुसार लगभग हर दिन भारत से तीनों तरह के कर भारत से कालेधन के रुप में बाहर जा रहा है.
एक तरफ जनता पर पानी, बिजली का टैक्स लगातार बढ़ता जा रहा है, दूसरी ओर सरकारी नीति के तहत कारपोरेट को लगातार छूट दी जा रही है. पिछले 6 सालों में सरकार ने 21,25,023 करोड़ रुपये की छूट कारपोरेट घरानों को दी है. इसी से संबंधित एक और मुद्दा स्थानीय स्तर पर चुने हुये प्रतिनिधियों का भी है, जिनके अधिकारों में लगातार कमी की जा रही है. कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही पार्टियों की सरकार जिन राज्यों में है, वहां इसी नीति पर अमल किया जा रहा है. छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में तो स्वायत्तशासी संस्थाओं के प्रतिनिधियों के अधिकारों में कटौती के लिये तो बजाप्ता सरकार ने नियमों में भारी-भरकम संशोधन किये है. इसी तरह गुजरात में पिछले 3 सालों से लोकायुक्त ही नहीं है. कर्नाटक में भी यही हाल है. सरकार के लिये संतोष हेगड़े स्वीकार्य नहीं हैं.
इन सारी स्थितियों को देखें तो पता चलता है कि ये सारे उपक्रम वस्तुतः लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ही कमजोर करते हैं. इन मुद्दों पर लालकृष्ण अडवाणी भी खामोशी की चादर ओढ़े रहते हैं और बड़बोले दिग्विजय सिंह भी. इन नेताओं की खामोशी दर्शाती है कि कारपोरेट हित में जनता और जनप्रतिनिधियों के अधिकारों की कटौती तो इन्हें स्वीकार है, लेकिन जनता को सशक्त करने वाले जन आंदोलन और उनकी पहल करने वाले इन्हें लोकतंत्र विरोधी नजर आते हैं. अपनी सारी खूबियों और कमियों को बावजूद अन्ना हजारे की पहल जनता को सशक्त करने की पहल है और इससे लोकतंत्र मजबूत ही होता है.
अपने दौर में हर समय संकटग्रस्त होता है और स्वयं जनता ही अपने को संकट से मुक्त कर आगे बढ़ती है. इसी जनता ने बड़े-बड़े साम्राज्य ध्वस्त किये हैं और आज के लोकतंत्र को स्थापित किया है. यही जनता फिर से आगे बढ़ेगी, बस उसे अपनी पक्षधरता पहचानने की जरुरत है.
मशहूर चित्रकार वॉन गॉग ने लगभग 130 साल पहले अपनी पक्षधरता के संबंध में जो कुछ कहा था, वह गौरतलब है- रहस्य तो बने रहते हैं और दुख और संताप भी. पर इस नकारात्मक ऊर्जा का निराकरण केवल सकारात्मक कार्यों से ही संभव है. अगर जीवन इतना ही सरल होता और स्थितियां उतनी ही सुलझी हुई होती, जितनी कि एक सुखांत कथा में या फिर एक पादरी के घिसे-पिटे प्रवचन में, तो अपनी राह खोजना उतना मुश्किल नहीं होता. सही-गलत वैसे ही अलग नहीं किये जा सकते, जैसे प्रकृति में काला-सफेद. हां, इसका पूरा ख्याल रखा जाना चाहिये कि हम पूरे काले या झूठ की तरफ न हो जायें. और उससे भी ज्यादा बचना चाहिये चुना पुती दीवार जैसी उस सफेदी से, जो एक दिखावा औऱ पाखंड होता है.
(raviwar.com से)
मंगलवार, 12 अप्रैल 2011
क्या महात्मा गांधी सचमुच भ्रष्ट हो जाते
(Amar Ujala से) | |
अन्ना हजारे के अनशन से जन लोकपाल विधेयक बनाने की बात पर तो सरकार से सहमति बन गई है, लेकिन जाहिर तौर पर भ्रष्टाचार और नैतिक मूल्यों वाली राजनीति बहुत बड़े विषय हैं और जब तक कानून बनाकर उस पर अमल करके कुछ ठोस परिणाम नहीं दिए जाते, इसको लेकर बहस चलती रहेगी। यह अच्छा भी है, क्योंकि इससे विधेयक बनाने और उसके व्यावहारिक पहलुओं को समझने-पकड़ने में मदद मिलेगी। लेकिन इस क्रम में कुछ लोग ऐसी दलीलें लेकर आ रहे हैं कि बड़े-बड़ों के होश उड़ जाएं। अन्ना के आंदोलन के दौरान ही सरकार द्वारा गठित मंत्री-समूह छोड़ने वाले नेता शरद पवार के दो सहयोगियों-देवी प्रसाद त्रिपाठी और तारिक अनवर ने आंदोलन को लेकर जो टिप्पणी की है, उसमें उनकी अपनी नाराजगी और कुंठा ज्यादा है, तर्क कम। पवार से अन्ना का बैर (निजी नहीं) पुराना है, इसलिए उनके लोग अन्ना का, उनके आंदोलन का, जन लोकपाल विधेयक का मजाक उड़ाएं, यह बात तो समझ में आती है, पर पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को भ्रष्टाचार खत्म होने का भरोसा क्यों नहीं है, यह थोड़ा हैरान करने वाली चीज है। वह किस कड़े कानून से भ्रष्टाचार पर अंकुश की बात करते हैं, यह भी स्पष्ट करना चाहिए। पर इस संदर्भ में सबसे चौंकाऊ और नाटकीय टिप्पणी कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी ने की है। उनका मानना है कि यदि महात्मा गांधी भी होते, तो आज भ्रष्टाचार के जाल से निकलने का रास्ता नहीं ढूंढ पाते। और वह भी भ्रष्टाचार के जरिये बैंक में धन इकट्ठा करते या राजनीति छोड़ देते। यह एक दिलचस्प टिप्पणी है और ऐसे ‘खिलाड़ी’ की टिप्पणी है, जिसने थोड़े से विधायकों के बल पर कर्नाटक में राज किया और भाजपा समेत सभी पार्टियों की नाक में दम कर दिया। उनका बयान ईमानदार आत्मस्वीकृति भी हो सकता है और गांधी के बारे में अज्ञानता का सुबूत भी। हालांकि कुमारस्वामी ने बाद में कहा कि मीडिया ने मेरे बयान को तोड़ा-मरोड़ा है, मगर फिर भी वह यह तो कहते ही रहे कि बिना भ्रष्टाचार के राजनीति नहीं हो सकती। गांधी का महत्व कुमारस्वामी को भले नहीं समझ आ रहा हो, पर दुनिया को आ रहा है। और अन्ना का अनशन या सत्याग्रह उसी राजनीति का एक अंश प्रस्तुत करता है, जिसमें अन्ना को भाड़े पर न हवाई जहाज-हेलिकॉप्टर लेने की जरूरत पड़ी, न मीडिया मैनेजमेंट की और न लोगों को पटाने की। चार दिन में ऐसा समर्थन जुट गया कि खुद अन्ना भी हैरान और महाबलि केंद्र सरकार परेशान। सो बेहतर है कि कुमारस्वामी, तारिक, त्रिपाठी जैसे लोग अपने अनुभव तक की बातों तक सीमित रहें, सूरज पर थूकने का प्रयास न करें। |
अमेरिकी दबाव में
सीताराम येचुरी | |
अगर इसके लिए अब भी किसी सुबूत की जरूरत थी, तो विकिलीक्स द्वारा भारत से संबंधित अमेरिकी कूटनीतिक संदेशों के उजागर किए जाने से यह सुबूत भी मिल चुका है। विकिलीक्स के हाथ लगे भारत से संबंधित 5,100 संदेश, जो करीब 60 लाख शब्दों के हैं, बिना किसी अस्पष्टता के यह सचाई उजागर कर देते हैं कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए सरकार ‘अधीनस्थ सहयोगी’ के रूप में अमेरिका के साथ गठजोड़ कर भारत की विदेश नीति में तो भारी बदलाव कर ही रही है, विभिन्न मुद्दों पर अमेरिकी दबाव के सामने ज्यादा से ज्यादा घुटने भी टेक रही है। इससे एक बार फिर यह साबित हो जाता है कि यूपीए की पहली सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम का अनुमोदन करने के साथ-साथ, जिसमें एक स्वतंत्र विदेश नीति के पालन का वचन दिया गया था, (अन्य चीजों के अलावा यह भी एक वायदा था, जो उस पहली यूपीए सरकार के लिए वाम पार्टियों का समर्थन हासिल करने के लिए जरूरी था), धोखाधड़ी कर अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ रणनीतिक रिश्ते मजबूत करने की नीति को भी आगे बढ़ाया था। सितंबर, 2005 में पहली बार भारत ने निर्णायक रूप से गुटनिरपेक्ष आंदोलन तथा विकासशील दुनिया की एकजुटता से रिश्ता तोड़ा था और अमेरिकी दबाव में अंतरराष्ट्रीय एटमी ऊर्जा एजेंसी के मंच पर ईरान के खिलाफ वोट दिया था। विकिलीक्स द्वारा उजागर किए गए संदेश साफ दिखाते हैं कि आइएईए में भारत का ईरान के खिलाफ वोट करना और भारत-अमेरिकी नाभिकीय सौदे के भविष्य के नाम पर महाशक्ति देश द्वारा डाला जा रहा दबाव किस तरह एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। यह अलग बात है कि यूपीए सरकार इस हकीकत से बराबर इनकार करती आई है। बहरहाल, इन रहस्योद्घाटनों से उसके झूठ का पूरी तरह परदाफाश हो गया है। यह शीशे की तरह साफ है कि भारत-ईरान गैस पाइपलाइन परियोजना से, जो भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण तथा सस्ती पड़ती, अमेरिकी दबाव में ही पांव पीछे खींचे गए। वास्तव में विकिलीक्स द्वारा उजागर किए गए संदेश दिखाते हैं कि भारत को ईरान की नाभिकीय महत्वाकांक्षाओं या उसके नाभिकीय शस्त्रीकरण कार्यक्रम या आतंकवाद के समर्थन के आरोपों के संबंध में कोई भ्रम नहीं था, फिर भी उसने इस मामले में अमेरिकापरस्त नीति को आगे बढ़ाने के लिए इन सभी मुद्दों पर अपनी समझ को उठाकर ताक पर रख दिया था। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि अमेरिकी कूटनीतिक संदेशों में इसे भारत की ओर से, ‘एक रूपांतरित अमेरिकी-भारत संबंधों का निर्माण करने की यूपीए की वचनबद्धता का सबसे महत्वपूर्ण संकेत’ बताया जा रहा था। विकिलीक्स के रहस्योद्घाटनों से यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका भारत के निर्णयों में केवल दखलंदाजी ही नहीं करता रहा है, बल्कि वह हमारी सरकार के महत्वपूर्ण निर्णयों को सीधे-सीधे प्रभावित भी करता रहा है। ईरान के खिलाफ विवादास्पद वोटिंग के बाद, जनवरी, 2006 में हमारे यहां केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल हुआ था। उस फेरबदल में तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर को हटाया गया था। तभी यह माना जा रहा था कि वह निर्णय इसलिए लिया गया था कि मणिशंकर अय्यर का भारत-ईरान पाइपलाइन परियोजना के प्रस्ताव को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाना अमेरिकियों को हजम नहीं हो रहा था। भारत-अमेरिकी परमाणु सौदे के रास्ते पर इकतरफा तरीके से आगे बढ़ने के सरकार के फैसले के बाद यूपीए से वाम पार्टियों ने तो नाता 2008 की जुलाई में तोड़ा था, लेकिन इससे दो साल पहले अमेरिकी राजदूत ने अपने संदेश में यह आकलन पेश कर दिया था । मंत्रिमंडलीय फेरबदल के अकाट्य अमेरिकापरस्त झुकाव से वामपंथ विक्षुब्ध है, जो इसे चुनौती देने और खुले युद्ध के लिए आमंत्रण के रूप में देखेगा।’ अमेरिका का खेल बिलकुल साफ था । इस अमेरिकापरस्त यूपीए सरकार को मजबूत करो, लेकिन यह सुनिश्चित करते हुए कि उसे वामपंथ के समर्थन की जरूरत ही नहीं रह जाए। नई दिल्ली में अमेरिकी राजदूत ने विकिलीक्स द्वारा उजागर किए गए एक संदेश में बाकायदा यह दर्ज किया है कि यूपीए ने बड़ी संख्या में ऐसे वर्तमान सांसदों को सरकार में शामिल किया है, जो सार्वजनिक रूप से खुद को हमारी रणनीतिक साझेदारी के साथ जोड़ते आए हैं। पुनः वह यह भी कहते हैं कि यह सुनिश्चित करने के लिए कि राष्ट्रपति (बुश जूनियर) के दौरे से पहले विदेश नीति संबंधी शोर न उठे, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विदेश मंत्रालय का महत्वपूर्ण विभाग अपने पास बनाए रखा है और यह पद तब तक उनके पास ही रहने की संभावना है, जब तक संसद का अगला सत्र पूरा नहीं हो जाता और कांग्रेस, मई (2006) के केरल तथा पश्चिम बंगाल के महत्वपूर्ण चुनावों का सामना नहीं कर लेती। विकिलीक्स के इन खुलासों से इतना तो स्पष्ट हो ही चुका है कि अमेरिका भारत के सार्वजनिक जीवन में और नीति-निर्धारण की प्रक्रियाओं के अनेकानेक क्षेत्रों में भी हस्तक्षेप कर रहा है। जाहिर है, इसमें अमेरिका का अधीनस्थ सहयोगी बनने की यूपीए सरकार की इच्छा सक्रिय रूप से मददगार साबित हो रही है। अनेक देशभक्त तथा सदाशयी भारतीयों को इन खुलासों से काफी झटका लगेगा। यूपीए सरकार को देश की जनता के सामने इसका जवाब देना ही होगा कि कैसे उसके राज ने चुपके-चुपके देश की संप्रभुता को खोखला किया है और शक्तिशाली भारत को अमेरिका का अधीनस्थ सहयोगी बनाकर छोड़ दिया है। |
कैसे मिटे भूख
सीताराम येचुरी | |
बेशक, यह संसद का एक अभूतपूर्व कदम था। दोनों सदनों ने सरकार से आग्रह किया था कि वह मुद्रास्फीति के नकारात्मक प्रभावों से आम आदमी का बचाव करे। इसके बावजूद आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में महंगाई लगातार बनी हुई है और आम जनता के जीवन स्तर को खोखला कर रही है। सरकार ने पिछले ही दिनों मूल्य सूचकांक की एक नई शृंखला चालू की है, जिसके लिए 2004-05 को आधार वर्ष बनाया गया है। मूल्य सूचकांक शृंखलाओं के बदले जाने के पीछे अकसर यह नीयत रहती है कि ऐसे आंकड़े हासिल किए जाएं, जो अर्थव्यवस्था की सुनहरी तसवीर पेश करते हों। बहरहाल, मूल्य सूचकांक की शृंखला बदले जाने के बावजूद, 30 सितंबर को समाप्त हुए सप्ताह में खाद्य मुद्रास्फीति की दर 16.44 फीसद पर पहुंच गई। सरकार को यह भी कहा गया कि आवश्यक वस्तुओं में तमाम वायदा/ अग्रिम कारोबार पर पाबंदी लगाई जाए, ताकि सटोरियों द्वारा संचालित मूल्यवृद्धि पर अंकुश लगाया जा सके। उस बहस के दौरान वित्त मंत्री ने आश्वस्त किया था कि इस मुद्दे की पड़ताल की जाएगी और अगर जरूरी हुआ, तो कम से कम अस्थायी तौर पर ही सही, ऐसा कदम जरूर उठाया जाएगा। लेकिन सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया, जिसका उल्लेख किया जा सकता हो। सरकार का यह रवैया आश्चर्यजनक नहीं है। जाहिर है कि इस तरह के कदम की सीधी चोट सट्टे बाजाराना कारोबार में लगी कॉरपोरेट कंपनियों के अनाप-शनाप मुनाफे पर पड़ती, जो सरकार को शायद मंजूर नहीं था। इसी कारण सरकार तर्क देती रही है कि इस तरह के कारोबार से मुद्रास्फीति पैदा नहीं होती है। बहरहाल, इस मुद्दे पर हमारे रुख के सही होने की घोषणा भोजन के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र की विशेष रिपोर्ट में की गई है। वर्ष 2007-08 के दौरान सामने आए विश्व खाद्य संकट और इसी सिलसिले में खाद्य वस्तुओं की कीमतों में अस्थिरता, खाद्य पदार्थों की मूल्यवृद्धि और सट्टा बाजार के प्रभाव पर इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आवश्यक खाद्य पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी तथा भारी अस्थिरता के एक उल्लेखनीय हिस्से को सट्टे बाजाराना बुलबुले के उभरने के सहारे ही व्याख्यायित किया जा सकता है। खास तौर पर यह विश्वास करने का आधार है कि खाद्य वस्तुओं पर आधारित डेरीवेटिव्स के बाजारों में हेज फंड, पेंशन फंड तथा निवेश बैंक जैसे शक्तिशाली निवेशकर्ताओं के प्रवेश ने उल्लेखनीय भूमिका अदा की थी। दरअसल वायदा कारोबार की बुनियादी शर्त ही है कि यह कारोबार तभी होगा, जब किसी आनेवाले समय में संबंधित माल का भाव मौजूदा भाव से ज्यादा रहने की अपेक्षा हो। जाहिर है कि इतनी बड़ी मात्रा में और इतनी विशाल राशि का यह सट्टे बाजाराना कारोबार तभी चल सकता है, जब आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में लगातार बढ़ोतरी होती रहे और इस तरह अनाप-शनाप कमाई बटोरने का मौका बना रहे। देश की जनता को बड़ी पूंजी के ऐसे बेहिसाब मुनाफों के लिए बढ़ते दामों के रूप में बहुत भारी कीमत अदा करनी पड़ रही है। जाहिर है, अगर खरीददार भविष्य के सौदे के लिए पहले से ज्यादा कीमत देने को तैयार हो, तो वह यह अपेक्षा करता है कि उस माल की कीमत और बढ़ेगी। इसलिए अगर वस्तुओं के वायदा कारोबार में कीमतें बढ़ती हैं, तो यह हाजिर बाजारों में विक्रेताओं के लिए संकेत होता है कि वे कीमतें बढ़ा दें। शिकागो के मर्केंटाइल एक्सचेंज में अनाज के लिए वायदा कारोबार में जो दरें निर्धारित की जाती हैं, वे दुनिया भर में अनाज के व्यापार के सौदों में शामिल होती नजर आती हैं। संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की उस कुख्यात थीसिस को भी गलत साबित कर दिया है, जिसे जॉर्ज बुश ने सारी दुनिया के सामने पेश करते हुए कहा था कि चीन और भारत में प्रतिव्यक्ति आय में अपेक्षाकृत तेज बढ़ोतरी के कारण खाद्यान्न की खपत बढ़ी है, जो अनाज की कीमत में बढ़ोतरी के लिए जिम्मेदार है। इसके बजाय यह रिपोर्ट बताती है कि वास्तव में चीन और भारत ने सकल तथा प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपभोग में गिरावट ही प्रदर्शित की है। संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट की विभिन्न सिफारिशों में तमाम डेरीवेटिवों के व्यापार में चौतरफा सुधार की मांग की गई है। इसके साथ ही रिपोर्ट में माल डेरीवेटिवों तथा वित्तीय डेरीवेटिवों और जायज वाणिज्यिक व्यापारियों तथा शुद्ध सटोरियों के बीच कानूनी अंतर करने का भी आग्रह किया गया है। इसमें संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों का आह्वान किया गया है कि वे गंभीरता से इन सिफारिशों पर विचार करें, ताकि सरकारें सबको भोजन उपलब्ध कराने वाली जरूरी जवाबदारी पूरी करने में समर्थ हो सकें। अपने देश में परजीवी पूंजीवाद का बोलबाला है। टेलीकॉम का 2-जी घोटाला, अवैध खनन घोटाला, आईपीएल घोटाला, कॉमनवेल्थ खेल घोटाला आदि पिछले कुछ अरसे में उजागर हुए घोटाले इस परजीवी पूंजीवाद के और फलने-फूलने के ही सुबूत हैं। ऐसे में इस सरकार से यह उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही है कि वह जनता को राहत दिलाने के लिए बाजार का नियमन करेगी। बहरहाल, अगर आम आदमी के हितों की रक्षा करनी है और अगर देश की संसद द्वारा एक स्वर से व्यक्त की गई भावना का सम्मान करना है, तो यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार को खाद्य पदार्थों से जुड़े सट्टा बाजार पर तत्काल रोक लगानी चाहिए। बिना खाद्य वस्तुओं के सट्टा बाजार पर रोक लगाए सरकार के लिए किसी भी सूरत में अनाजों की बढ़ती कीमत को कम करना संभव नहीं है। |
वोट की कीमत
सीताराम येचुरी | ||
राज्य विधानसभाओं के बहु-चरणीय चुनाव की प्रक्रिया बाकायदा शुरू हो चुकी है। जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा था, हरेक राज्य के अपने खास मुद्दों के अलावा भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे चुनाव में छाए हुए हैं। यह बात तमिलनाडु के संबंध में तो और भी ज्यादा सच है, जहां द्रमुक के नेतृत्ववाला सत्ताधारी गठजोड़ कांग्रेस के समर्थन से सरकार पर कब्जा बनाए रखने की कोशिश कर रहा है। द्रमुक ने हरेक परिवार को रंगीन टेलीविजन आदि की जो खैरात बांटी है उसके चलते 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले का मुद्दा आज राज्य के हर घर तक पहुंच चुका है। अब तक के सारे घोटालों का बाप कहे जा सकने वाले इस घोटाले ने तमिलनाडु के स्थानीय स्तर के अन्य घोटालों के साथ उच्च पदों के भ्रष्टाचार के मुद्दे को इस चुनाव में केंद्र में ला दिया है। मगर भ्रष्टाचार का मुद्दा सिर्फ तमिलनाडु तक सीमित नहीं रहा। पिछले कुछ अरसे में ही सामने आए राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी घोटाला, एंट्रेक्स-इसरो घोटाला, वोट के लिए नोट घोटाला, अवैध खनन घोटाला, आईपीएल घोटाला आदि ने यूपीए-द्वितीय की सरकार को उच्च पदों पर भ्रष्टाचार का बदतरीन संरक्षक साबित किया है। वास्तव में इन घोटालों ने अली बाबा और चालीस चोर की अमर कथा को नए सिरे से प्रासंगिक बना दिया है। अचरज नहीं कि भ्रष्टाचार के इस पहलू को जनता बखूबी पहचान रही है कि यह सार्वजनिक संसाधनों की ऐसी लूट का मामला है, जो उसे बेहतर जीवन तथा रोजगार से वंचित कर रही है। यह जागृति भी बढ़ रही है कि ऐसी अवैध कमाई को खुद जनता को ही भ्रष्ट बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और वोट खरीदने की कोशिशें की जाती हैं। विधानसभा चुनावों के मौजूदा चक्र में तमिलनाडु में यह खेल सबसे नंगई से सामने आ रहा है। सभी जानते हैं कि पूर्व दूरसंचार मंत्री तथा द्रमुक नेता ए राजा 2 जी घोटाले के सिलसिले में अभी जेल में हैं। द्रमुक के ही एक और नेता केंद्रीय रसायन व उर्वरक मंत्री इस समय अग्रिम जमानत पर हैं, जो शायद अपनी तरह का पहला मामला होगा। चुनाव आयोग के आदेश पर तमिलनाडु में वाहनों की तलाशियों के क्रम में कई करोड़ रुपए अब तक पकड़े भी जा चुके हैं। वास्तव में चुनाव आयोग को हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा है, ताकि राज्य में पुलिस के वाहनों में भरकर ऐसे अवैध धन लाए-ले जाए जाने पर अंकुश लगाया जा सके। पिछले दिनों एक बस पकड़ी गई थी, जिसमें करोड़ों रुपए ले जाए जा रहे थे! भ्रष्टाचार इस तरह देश में संसदीय जनतंत्र को भारी क्षति पहुंचा रहा है। इसमें अकेले द्रमुक ही नहीं है। उसकी सहयोगी कांग्रेस भी इसमें जुटी हुई है और देश की जनता उसे उच्च पदों पर फैले भ्रष्टाचार के मुख्य संरक्षक के रूप में देखती है। भ्रष्टाचार सिर्र्फ एक नैतिक मुद्दा नहीं है, यह खुल्लम-खुल्ला अपराध का मामला है। फिर यह भी जरूरी है कि ऐसी अवैध कमाई से जुटाए काले धन को, जिसे दूसरे देशों (करवंचक स्वर्गों) में छुपाकर रखा जा रहा है, देश में वापस लाया जाए और जनता के लिए बेहतर जिंदगी सुनिश्चित करने में उसे लगाया जाना चाहिए। मैंने पहले भी रेखांकित किया है कि किस तरह अकेले 2 जी घोटाले में ही सरकारी खजाने की जो लूट हुई है, उतनी रकम से पूरे दो साल तक गरीबी की रेखा के नीचे और ऊपर के सभी भारतीय परिवारों को पर्याप्त खाद्य सुरक्षा मुहैया कराई जा सकती थी। इस रकम से संसद द्वारा पारित किए गए शिक्षा का अधिकार कानून को एक सचाई में तबदील किया जा सकता था। याद रहे कि इस कानून को लागू कराने के लिए अगले पांच साल तक 35,000 करोड़ रुपये सालाना खर्च करने होंगे, ताकि नए स्कूल खोले जा सकें, पर्याप्त संख्या में शिक्षक भरती किए जा सकें, स्कूली बच्चों के लिए दोपहर के भोजन की व्यवस्था की जा सके। जाहिर है, इस महा-भ्रष्टाचार ने लोगों को इन सबसे वंचित कर दिया है। नव-उदारवादी आर्थिक सुधारों ने ‘दरबारी पूंजीवाद’ के फलने-फूलने के जरिये, भ्रष्टाचार के लिए अब तक अनजाने रास्ते खोले हैं। सचाई यह है कि देश में समूची जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य तथा बेहतर जिंदगी मुहैया कराने के लिए संसाधनों की कमी नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय संसाधनों की लूट लोगों को बेहतर जिंदगी के जरूरी संसाधनों से वंचित कर रही है। आखिर व्यवस्था से इस बीमारी को कैसे मिटाया जा सकता है? वास्तव में राजनीतिक नेतृत्व को जनता के प्रति जवाबदेही से छूट नहीं मिल सकती है। सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक हिस्से द्वारा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर छेड़े गए आंदोलन ने जनता के बीच व्यापक रूप से फैली भावनाओं को ही स्वर दिया है। बहरहाल, लोकपाल के स्वरूप तथा उसकी अंतर्वस्तु पर चर्चा से इस तात्कालिक जरूरत की ओर से जरा भी ध्यान नहीं हटने दिया जाना चाहिए कि जो भी घोटाले सामने आए हैं, उनके लिए आपराधिक जिम्मेदारी तय करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए और विदेशी बैंकों में जमा भारी रकम को वापस लाने के लिए फौरन कदम उठाए जाने चाहिए। खुशी की बात है कि चौतरफा दबाव के चलते संसद के आगामी सत्र में लोकपाल कानून बनाए जाने और विधेयक को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में राजनीतिक पार्टियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सबसे बढ़कर जनता के साथ इस व्यवस्था के स्वरूप पर विशद चर्चा की दिशा में कुछ प्रगति भी हुई है। |
शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011
नज़्में और ग़ज़लें
फै़ज़ की शायरी का यह खंड सारे सुखन हमारे (सं. अब्दुल बिस्मिल्लाह, प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. नयी
दिल्ली) से साभार लिया गया है।
जहान तेरी मुहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के
वीरां है मयकदा, ख़ुमो-साग़र उदास हैं
तुम क्या गये कि रूठ गये दिन बहार के
इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिलफ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
भूले से मुस्करा तो दिये थे वो आज ‘फ़ैज़’
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार1 के
1. अनुभवहीन दिल
-----------
कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो आलम1 से
मगर दिल है कि उसकी ख़ानावीरानी नहीं जाती
कई बार इसकी ख़ातिर ज़र्रे-ज़र्रे का जिगर चीरा
मगर ये चश्मे-हैरां, जिसकी हैरानी नहीं जाती
नहीं जाती मताए-लालो-गौहर2 की गरांयाबी3
मताए-ग़ैरतो-ईमां4 की अरज़ानी5 नहीं जाती
मेरी चश्मे-तन आसां6 को बसीरत7 मिल गयी जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती
सरे-खुसरौ8 से नाज़े-कजकुलाही9 छिन भी जाता है
कुलाहे-खुसरौ10 से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती
ब-जुज़ दीवानगी वां और चारा ही कहो क्या है
जहां अक़्लो-ख़िरद11 की एक भी मानी नहीं जाती
1. लोक-परलोक की सुंदरता, 2. हीरे-मोती की दौलत, 3. महंगापन 4. स्वाभिमान और सच्चाई की दौलत, 5.
सस्तापन, 6. आलसी, निकम्मा, 7. ज्ञान-चक्षु, देखने की शक्ति, 8. बादशाह खुसरौ का सर, 9. राजत्व का गौरव,
10. खुसरौ का ताज,़ 11. समझ-बूझ
---------------
इज्ज़े-अह्ले-सितम1 की बात करो
इश्क़, के दम-क़दम की बात करो
बज़्मे-अह्ले-तरब2 को शरमाओ
बज़्मे-असहाबे-ग़म3 की बात करो
बज़्मे-सरवत4 के ख़ुशनसीबों से
अज़्मते-चश्मे-नम5 की बात करो
है वही बात यूं भी और यूं भी
तुम सितम या करम की बात करो
खैर हैं अह्ले-दैर जैसे हैं
आप अह्ले-हरम की बात करो
हिज्र की शब तो कट ही जायेगी
रोज़े-वस्ले-सनम6 की बात करो
जान जायेंगे जानने वाले
‘फ़ैज़’ फ़रहादो-जम7 की बात करो
1. अत्याचार करनेवालों की बेबसी, 2. सुखी लोग, 3. दुखी लोगों की दुनिया, 4. समृद्धि की महफ़िल, 5. भीगी
आंखों की महानता, 6. प्रिय-मिलन का दिन, 7. फ़रहाद और बादशाह जमशेद
दिल्ली) से साभार लिया गया है।
जहान तेरी मुहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के
वीरां है मयकदा, ख़ुमो-साग़र उदास हैं
तुम क्या गये कि रूठ गये दिन बहार के
इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिलफ़रेब हैं ग़म रोज़गार के
भूले से मुस्करा तो दिये थे वो आज ‘फ़ैज़’
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार1 के
1. अनुभवहीन दिल
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कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो आलम1 से
मगर दिल है कि उसकी ख़ानावीरानी नहीं जाती
कई बार इसकी ख़ातिर ज़र्रे-ज़र्रे का जिगर चीरा
मगर ये चश्मे-हैरां, जिसकी हैरानी नहीं जाती
नहीं जाती मताए-लालो-गौहर2 की गरांयाबी3
मताए-ग़ैरतो-ईमां4 की अरज़ानी5 नहीं जाती
मेरी चश्मे-तन आसां6 को बसीरत7 मिल गयी जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती
सरे-खुसरौ8 से नाज़े-कजकुलाही9 छिन भी जाता है
कुलाहे-खुसरौ10 से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती
ब-जुज़ दीवानगी वां और चारा ही कहो क्या है
जहां अक़्लो-ख़िरद11 की एक भी मानी नहीं जाती
1. लोक-परलोक की सुंदरता, 2. हीरे-मोती की दौलत, 3. महंगापन 4. स्वाभिमान और सच्चाई की दौलत, 5.
सस्तापन, 6. आलसी, निकम्मा, 7. ज्ञान-चक्षु, देखने की शक्ति, 8. बादशाह खुसरौ का सर, 9. राजत्व का गौरव,
10. खुसरौ का ताज,़ 11. समझ-बूझ
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इज्ज़े-अह्ले-सितम1 की बात करो
इश्क़, के दम-क़दम की बात करो
बज़्मे-अह्ले-तरब2 को शरमाओ
बज़्मे-असहाबे-ग़म3 की बात करो
बज़्मे-सरवत4 के ख़ुशनसीबों से
अज़्मते-चश्मे-नम5 की बात करो
है वही बात यूं भी और यूं भी
तुम सितम या करम की बात करो
खैर हैं अह्ले-दैर जैसे हैं
आप अह्ले-हरम की बात करो
हिज्र की शब तो कट ही जायेगी
रोज़े-वस्ले-सनम6 की बात करो
जान जायेंगे जानने वाले
‘फ़ैज़’ फ़रहादो-जम7 की बात करो
1. अत्याचार करनेवालों की बेबसी, 2. सुखी लोग, 3. दुखी लोगों की दुनिया, 4. समृद्धि की महफ़िल, 5. भीगी
आंखों की महानता, 6. प्रिय-मिलन का दिन, 7. फ़रहाद और बादशाह जमशेद
बुधवार, 6 अप्रैल 2011
Militarized Conservatism and End(s) of Higher Education
Tuesday 5 April 2011 by: Henry A. Giroux, Truthout (Image: Jared Rodriguez / t r u t h o u t)
The Pathologies of War There can be little doubt that America has become a permanent warfare state.(1) Not only is it waging a war in three countries, but its investment in military power is nearly as much as all of the military budgets of every other country in the world combined. The Stockholm International Peace Research Institute states, "The USA's military spending accounted for 43 per cent of the world total in 2009, followed by China with 6.6 per cent; France with 4.3 per cent and the UK with 3.8 per cent."(2) The conflicts in Iraq and Afghanistan have cost Americans a staggering $1 trillion to date, second only in inflation-adjusted dollars to the $4 trillion price tag for World War II."(3) Pentagon spending for 2011 will be more than $700 billion. To make matters worse, as Tom Englehardt points out, "We dominate the global arms trade, monopolizing almost 70% of the arms business in 2008, with Italy coming in a vanishingly distant second. We put more money into the funding of war, our armed forces and the weaponry of war than the next 25 countries combined (and that's without even including Iraq and Afghan war costs)."(4) Moreover, the United States maintains a massive ring of military bases and global presence around the world, occupying "over 560 bases and other sites abroad"(5) and deploying over 300,000 troops abroad, "even as our country finds itself incapable of paying for basic services."(6) In spite of how much military expenditures drain much-needed funds from social programs, the military budget is rarely debated in Congress or a serious object of discussion among the public. Rather than avoid squandering resources and human lives on foreign wars, we avoid "the realities and costs of war."(7) War is now normalized even as the United States becomes more militarized, moving closer to a national security state at home and an imperial/policing power abroad. Military historian Andrew Bacevich is right in arguing, "The misleadingly named Department of Defense serves in fact as a Ministry of Global Policing."(8) War has become central to American character, but what is often unacknowledged is that its perpetual wars abroad are increasingly matched by a number of wars being waged on the domestic front. Such a disconnect becomes clear in the refusal of politicians, anti-public intellectuals and the general public to acknowledge how the federal deficit has been run up by our military adventures. As Frank Rich argues, "The cultural synergy between the heedless irresponsibility we practiced in Iraq and our economic collapse at home could not be more naked. The housing bubble, inflated by no-money-down mortgage holders on Main Street and high-risk gamblers on Wall Street, was fueled by the same greedy disregard for the laws of fiscal gravity that governed the fight-now-play later war[s]" in Iraq and Afghanistan and more recently in Libya.(9) Similarly, as the spirit of a hyper-militarized America bleeds into everyday life, politics increasingly becomes an extension of war, and right-wing, liberal and conservative politicians eagerly embrace a militaristic approach to policy and the need to cleanse the social order of any institution, mode of dissent, social group and public sphere willing to question its state of permanent war and its militarized and unchecked embrace of economic Darwinism. These foreign and domestic wars are not unrelated, given that they are waged in the interests of right-wing militarists, neoconservatives, liberals and corporate moguls - all of whom have a political and economic stake in such military incursions abroad and wars at home. Wars make the economic elite even richer just as they undermine civil liberties, public services and public dissent. A hyper-militarized America has not only fueled violations of executive power, it has also promoted armed conflicts that are directly related to an economic crisis that has produced a wave of political extremism in the United States, while furthering the rise of a punishing state that places the burdens of the current economic crisis on the backs of the poor. We seem to have no trouble in spending money for the production of organized violence designed to kill people, but we have little money to spend on education, health care, or other serious social problems facing the United States. As one educational journal pointed out: This juxtaposition of robust war spending and inadequate support for education highlights the moral bankruptcy of political and economic leaders who seem to find endless piles of money to kill people abroad but not much to educate them at home. And, of course, the relationship is plain: The more dollars spent on war, the fewer available for human needs - whether alternative energy, food stamps, in-home elder care, public libraries or keeping teachers in their classrooms.(10) War is not merely the outgrowth of polices designed to protect the security and well-being of the United States. It is also, as President Dwight Eisenhower pointed out, part of a military metaphysics - a complex of forces that includes corporations, defense industries, politicians, financial institutions and universities. Rich conservatives not only produce moral panics and fund collective rage and anger; they also lobby for and finance the military-industrial-academic complex.(11) War provides jobs, profits, political payoffs, research funds and forms of political and economic power that reach into every aspect of society. As a mode of public pedagogy, a state of permanent war needs willing subjects to abide by its values, ideology and narratives of fear and violence. Such legitimation is largely provided through a culture addicted to the production of organized violence, largely circulated through various registers of popular and media culture that extend from high fashion, television and Hollywood movies to the production of violent video games and music concerts sponsored by the Pentagon. The spectacle of war demands a culture of conformity, quiet intellectuals and a largely passive republic of consumers. A hyper-militarized America lives amid a thick fog of historical and social amnesia more than willing to forget that wars not only cause economic distress, but also, as my colleague David L. Clark points out, renders human beings into machines, "converts economies into factories of death" and "threatens to transform the world into a vast graveyard."(12) But war is not something that takes place elsewhere, out of sight and out of mind; it also produces military-like interventions that take the form of a corporate war on the social state and a right-wing war on any mode of critical education. The war on the social state is in high gear and is most evident in a range of polices designed to punish unions, abrogate the bargaining rights of workers, cut social protections and disinvest in higher education as a site of critical learning while reorganizing it according to the interests and values of a market-driven culture. The mean-spirited and ideologically dogmatic nature of the assault on labor can be seen in Maine's Republican Gov. Paul LePage's call to remove a 36-foot, 11-panel mural by Judy Taylor from the foyer in the state's Department of Labor building in Augusta.(13) LePage claims that a number of business officials complained about the mural, echoing a sentiment he received in a fax that claimed that the mural "was reminiscent of communist North Korea where they use these murals to brainwash the masses."(14) But LePage's contempt for workers, unions, teachers and their struggles did not end with the removal of the mural; he also ordered seven conference rooms to be renamed, given that few of them were named after notable labor organizers, including Cesar Chavez, a heroic figure who "led the United Farm Workers union in the sixties and seventies."(15) LePage's actions mirror the same disdain for democracy and the social state that is being exhibited by Republican governors in Wisconsin and a number of other states in which draconian measures are being imposed on the unemployed, working poor, middle class, students, and others who are outside of the radar of politicians in the service of the corporate rich. Waging War on the Social State The second war, inextricably connected to the war on the social state and democracy itself, takes the form of a highly ideological and politicized assault on higher education. Under the regime of market fundamentalism, institutions that were meant to educate young people as critically engaged citizens, willing to address major social problems and question the operations of official power have been either weakened or abolished, as have many of those public spheres where thinking is not circumscribed by appeals to instrumental rationality.(16) This shift from the basic tenets of the social contract to savage forms of corporate sovereignty is part of a broader process of "reducing state support of social goods [and] means that states - the institutions best placed to defend the gains workers and other popular forces have made in previous struggles - are instead abandoning them."(17) Faced with massive deficits, states are refusing to raise taxes on the rich or corporations while enacting massive cuts in everything from Medicaid programs, food banks and worker retirement funds to higher education and health care programs for children. For example, Florida's Gov. Rick Scott "[has] proposed slashing corporate income and property taxes, laying off 6,700 state employees, cutting education funding by $4.8 billion and cutting Medicaid by almost $4 billion. Scott's ultimate plan is to phase the Sunshine State's corporate income tax out entirely. He [wants] to gut Florida's unemployment insurance system, leaving unemployed workers 'with much less economic protection than unemployed workers in any other state in the country.'"(18) Tom Branstad, the Republican governor of Iowa, has proposed a $200 million tax cut on commercial property taxes and corporate income, but at the same time, wants to cut $42 million to state universities and lay off hundreds of state workers.(19) The neoliberal culture of cruelty seems to know no bounds in Maine given that Republican lawmakers are attempting to repeal the state's child labor laws. This is a move that is gleefully welcomed by the state's hospitality and tourism industries in spite of a major study published by the respected journal, Child Development, that found "that teens who worked more than 20 hours a week were at a higher risk for bad grades and behavior problems such as drug use and delinquency."(20) While the politics of austerity is invoked, the hypocritical nature of such cuts is evident in the passing of legislation for which taxing the rich and corporations is off the table as is any self-criticism about lowering their taxes. But there is more than hypocrisy at work here, there is also a mean-spiritedness fueled by an ideological rigidity and fundamentalism that is evident in actions of Gov. John Kasich of Ohio. Typical of his fellow Tea Party extremists, Kasich has proposed cutting "$1 million from food banks, $12 million from children's hospitals and $15.9 million from an adoption program for children with special needs."(21) He also proposes "tax cuts for oil companies, a repeal of the Ohio estate tax and an income tax cut for the rich ... [and he plans] to open his state's parks to oil and gas drilling."(22) What is particularly shameful about Kasich's reforms is that his office admits that they have little to do with deficits and great deal to do with a ruthless form of economic Darwinism. How else might one interpret a comment by one of his office staff who claimed that "even if there weren't an $8 billion deficit, we'd probably be proposing many of the same things."(23) Gov. Chris Christie has become a poster-child for the Republican engineered culture of cruelty, largely because of his mean-spirited attacks on public sector workers, which The New York Times claims he views, appropriating the coded, racist ideology of former President Reagan, as the "new welfare queens."(24) Central to Christi's free-market ideology is the fashionable notion that "public-sector unions - teachers, cops and firefighters ... are driving up local taxes beyond what the citizenry can afford, while also demanding the kind of lifetime security that most private-sector workers have already lost."(25) Actually, what Christie leaves out of this form of ideological scapegoating is the fact that the economic sacrifices he calls for will not be shared by the rich. Not only has Christie vetoed a bill that would have raised taxes on the extremely wealthy, but he has actually lowered taxes for the top 2 percent of New Jersey taxpayers. The cost in lost revenue has been estimated at about $1 billion. The real "welfare queens" are not public-sector workers, but new, Gilded Age rich who are laughing all the way to the bank. What is clear here is that the attack is not on public-sector workers because they are privileged, an obvious and bogus lie, but because their work is in public service, rather than in the for-profit marketplace. As the rich and powerful rewrite the script of politics, they are largely assisted by a number of Republican governors are not only breaking the backs of labor unions but are also firing police officers and fire fighters, curtailing benefits for the unemployed, denying poor people access to health services and "cutting medical, rehabilitative, home care or other services needed by low-income people who are elderly or have disabilities or are significantly increasing the cost of these services."(26) As social problems are privatized and public spaces commodified, there has been an increased emphasis on individual solutions to socially produced problems, while at the same time market relations and the commanding institutions of capital are divorced from matters of politics, ethics and responsibility. How else to explain the lack of massive protests over the recent revelations that mega-corporations such as General Electric and the Bank of America paid no taxes in spite of accruing massive financial profits. The commodification of thought and the depoliticization of everyday life have created both a culture of illiteracy and cruelty in which notions of the public good, community and the obligations of citizenship are replaced by the overburdened demands of individual responsibility and an utterly privatized ideal of freedom. In the current market-driven society, with its ongoing uncertainties and collectively induced anxieties, core public values regarding compassion for the common good and especially the poor have been abandoned under the regime of a market society that promotes a survival of the fittest economic doctrine. As Jeffrey Sachs points out, "Income inequality is at historic highs, but the rich claim they have no responsibility to the rest of society. They refuse to come to the aid of the destitute and defend tax cuts at every opportunity. Almost everybody complains, almost everybody aggressively defends their own narrow, short-term interests and almost everybody abandons any pretense of looking ahead or addressing the needs of others."(27) Shared sacrifice and shared responsibilities now give way to shared fears and a disdain for investing in the common good. Conservatives and liberals alike seem to view public values, public spheres and the notion of the common good as either a hindrance to the profit-seeking goals of a market-driven society or a drain on the market-driven social order, treated as a sign of weakness, if not pathology, or even worse, dangerous.(28) The War Against Higher Education Public spheres that once offered at least the glimmer of progressive ideas, enlightened social policies, non-commodified values and critical exchange have been increasingly commercialized or replaced by private spaces and corporate settings, whose ultimate fidelity is to expanding profit margins. For example, higher education is increasingly defined as another core element of corporate power and culture, and as such, has to be stripped of its role as a democratic public sphere vital to the ideals of democratization. In the current climate, what has become clear is that the neoliberal attack on the social state, workers and unions is now being matched by a full-fledged assault on higher education. Such attacks are not happening just in the United States, but in many other parts of the globe where neoliberalism is waging a savage battle to eliminate all of those public spheres which might offer a glimmer of opposition to market-driven policies, institutions, ideology and values. Higher education is being targeted by conservative politicians and governments because it embodies, at least ideally, a sphere in which students learn that democracy is, as Jacques Rancière suggests, a rupture, a relentless critique and dialogue about official power, its institutions and its never-ending attempts to silent dissent.(29) As Ellen Schrecker points out, "Today the entire enterprise of higher education, not just its dissident professors, is under attack, both internally and externally."(30) In England and the United States, universities and businesses are forming stronger ties, the humanities are being underfunded, student tuition is rising at astronomical rates, knowledge is being commodified and research is valued through the lens of an audit culture. In England, the Browne Report has established modes of governance, financing and evaluation that, for all intent and purposes, makes higher education an adjunct of corporate values and interests.(31) Delivering improved employability has reshaped the connection between knowledge and power, while rendering faculty and students as professional entrepreneurs and budding customers. The notion of the university as a center of critique and democratic public sphere vitally necessary in providing the knowledge, skills and values necessary for the production of a democratic polity is giving way to a view of the university as a marketing machine essential to the production of neoliberal subjects.(32) The Browne Report's guiding assumptions suggest that student choice, a consumer model of pedagogy, an instrumental culture of auditing practices and market-driven values are at the heart of the neoliberal university. Like most neoliberal models of education, higher education matters to the extent that it drives economic growth, innovation, transformation and promotes national prosperity.(33) Even though tuition will be tripled in some cases, numerous schools closed and higher education effectively remade according to the dictates of a corporate culture, the conservative-liberal government appears indifferent to the devastating consequences its policies will produce. Simon Head has suggested that the Browne's policies represent a severe threat to academic freedom. In actuality, the neoliberal policies it embodies represents a threat to one of the few remaining institutions left in which dissent, critical dialogue and social problems can be critically engaged.(34) What is often lost in such criticisms is that democracy demands a critical formative culture and set of institutions in which complicated ideas can be engaged, authority challenged, power held accountable and public intellectuals produced. All of this is now threatened in England and other countries pushing neoliberal reforms. Under this economic model, there is no talk of social justice, addressing social problems, promoting critical thinking, addressing matters of social responsibility or engaging critically non-commodified values that might challenge the neoliberal world view. Where the British differ from their American counterparts is that the labor unions, workers, young people, students and members of the middle class are protesting in huge numbers the attack on the social state and the university as a social good. In the United States, this neoliberal model takes a somewhat different form since states control the budgets for higher education. Under the call for austerity, states have begun the process of massively defunding public universities while they simultaneously provide massive tax breaks for corporations and the rich. At the same time, higher education in its search for funding has "adopted the organizational trappings of medium-sized or large corporations."(35) University presidents are now viewed as CEOs, faculty as entrepreneurs and students as consumer. It gets worse. In some universities, new college deans are shifting their focus outside of the campus in order to take "on some of the fund-raising, strategic planning and partner-seeking duties that were once the bailiwick of the university president."(36) Academic leadership is now defined in part through one's ability to raise funds, engage in strategic planning and partner up with corporate donors. In fact, deans are increasingly viewed as the head of complex businesses and their job performance ratings are dependent on their fund-raising performances. As business culture permeate higher education, all manner of school practices from food service and specific modes of instruction to hiring temporary faculty are now outsourced to private contractors. Moreover, the most important value of higher education is now tied to the need for credentials. Disciplines and subjects that do not fall within the purview of mathematical utility and economic rationality are now seen as dispensable.(37) In the search for adopting market values and cutting costs, classes have ballooned in size, there is an increased emphasis on rote learning and standardized testing, and tuition fees have skyrocketed, making it impossible for thousands of working-class youth to gain access to higher education. One of the most serious consequences facing higher education in the United States under the reign of neoliberal austerity and disciplinary measures is the increased casualization of academic labor and the ongoing attacks on tenure and academic freedom. College presidents not only now align themselves with business values, but they willingly and openly associate themselves with corporate interests. Moreover, as universities adopt models of corporate governance, they are aggressively eliminating tenure positions, increasing part-time and full-time positions without the guarantee of tenure and attacking faculty unions. In a number of states such as Ohio and Utah, legislatures have passed bills outlawing tenure, while in Wisconsin, the governor has abrogated the bargaining rights of state university faculty.(38) At a time when higher education is becoming increasingly vocationalized, the ranks of tenure-track faculty are being drastically depleted in the United States, furthering the loss of faculty as stakeholders. Currently, only 27 percent of faculty are either on a tenure track of have a full-time tenure position. As faculty are demoted to contingency forms of labor, they not only lose their power to influence the conditions of their work, but they are seeing their workloads increase, paid poorly, deprived of office space and supplies, refused travel money and subject to policies that allow them to be fired at will.(39) The latter is particularly egregious, because when coupled with an ongoing series of attacks by right-wing ideologues against left-oriented and progressive academics, many nontenured faculty censor themselves in their classes. At a time when critics within the academy are often fired for their political beliefs, have their names posted on right-wing web sites, are forced to turn over their email correspondence to right-wing groups,(40) and are harassed in the conservative press, it is all the more crucial that protections be put in place that safeguard faculty positions and academics to exercise the rights of academic freedom.(41) What is clear is that the United States is in a state of permanent war and that the casualties are not just on foreign soil. The war at home is being conducted by the same people who benefit from wars abroad. Right-wing conservatives, politicians and corporate billionaires who engage in a full-fledged attack to destroy higher education as a democratic public sphere exhibit not only an almost pathological scorn for the social state, trade unions and workers, but also for any institution capable of producing "an educated population [willing] to sustain a vibrant democracy and culture that provides a key component of the good life."(42) Viewed as simply a training ground for the corporate order, higher education has defaulted on its promise of a democratic future for young people. It has also failed in its traditional call to invest in a social state capable of creating the conditions in which it becomes possible for young people to imagine another world outside of a permanent warfare state and its accompanying economic Darwinism that now bears down on every aspect of their lives. While the complexity of such struggles cannot be exaggerated, it is time to develop a new political language and broader social movements that connect the dots between the war at home and abroad and make visible that the current and egregious war being waged on higher education is aimed not at solving budget deficits, but the destruction of any vestige of higher education as a public good and democratic public sphere. Destroying education as a social good has serious consequences for a democracy. And questions we might want to ask are what kind of society are we becoming and what is going to have to be done to stop the arrogant and formidable assault on all elements of democratic life now being waged by the financial elite, corporations, Neanderthal conservatives, reactionary think tanks, authoritarian politicians and a right-wing media that eschews any vestige of decency, social responsibility and the truth? One starting point is to make clear to the American public that some institutions are simply not for sale and this is particularly true of higher education. Clearly, if higher education is responsible for anything it is to teach students, in particular, that not everything can be reduced to a cash nexus or the dictates of the bottom line. Hopefully, the emerging opposition to the new assault on social services, public service workers and higher education will be seen as part of a new kind of militaristic and ideological assault on democracy itself. This is truly a war over what kind of future we are willing to give our children and what it means to reinvent America within rather than outside of the ideals and promise of a democracy to come. There is more at stake in the current struggles than simply the abrogation of workers' bargaining rights and a gratuitous increase in university tuition rates; there is the more urgent question of whether America can any longer recognize itself as a struggling democracy.
The Pathologies of War There can be little doubt that America has become a permanent warfare state.(1) Not only is it waging a war in three countries, but its investment in military power is nearly as much as all of the military budgets of every other country in the world combined. The Stockholm International Peace Research Institute states, "The USA's military spending accounted for 43 per cent of the world total in 2009, followed by China with 6.6 per cent; France with 4.3 per cent and the UK with 3.8 per cent."(2) The conflicts in Iraq and Afghanistan have cost Americans a staggering $1 trillion to date, second only in inflation-adjusted dollars to the $4 trillion price tag for World War II."(3) Pentagon spending for 2011 will be more than $700 billion. To make matters worse, as Tom Englehardt points out, "We dominate the global arms trade, monopolizing almost 70% of the arms business in 2008, with Italy coming in a vanishingly distant second. We put more money into the funding of war, our armed forces and the weaponry of war than the next 25 countries combined (and that's without even including Iraq and Afghan war costs)."(4) Moreover, the United States maintains a massive ring of military bases and global presence around the world, occupying "over 560 bases and other sites abroad"(5) and deploying over 300,000 troops abroad, "even as our country finds itself incapable of paying for basic services."(6) In spite of how much military expenditures drain much-needed funds from social programs, the military budget is rarely debated in Congress or a serious object of discussion among the public. Rather than avoid squandering resources and human lives on foreign wars, we avoid "the realities and costs of war."(7) War is now normalized even as the United States becomes more militarized, moving closer to a national security state at home and an imperial/policing power abroad. Military historian Andrew Bacevich is right in arguing, "The misleadingly named Department of Defense serves in fact as a Ministry of Global Policing."(8) War has become central to American character, but what is often unacknowledged is that its perpetual wars abroad are increasingly matched by a number of wars being waged on the domestic front. Such a disconnect becomes clear in the refusal of politicians, anti-public intellectuals and the general public to acknowledge how the federal deficit has been run up by our military adventures. As Frank Rich argues, "The cultural synergy between the heedless irresponsibility we practiced in Iraq and our economic collapse at home could not be more naked. The housing bubble, inflated by no-money-down mortgage holders on Main Street and high-risk gamblers on Wall Street, was fueled by the same greedy disregard for the laws of fiscal gravity that governed the fight-now-play later war[s]" in Iraq and Afghanistan and more recently in Libya.(9) Similarly, as the spirit of a hyper-militarized America bleeds into everyday life, politics increasingly becomes an extension of war, and right-wing, liberal and conservative politicians eagerly embrace a militaristic approach to policy and the need to cleanse the social order of any institution, mode of dissent, social group and public sphere willing to question its state of permanent war and its militarized and unchecked embrace of economic Darwinism. These foreign and domestic wars are not unrelated, given that they are waged in the interests of right-wing militarists, neoconservatives, liberals and corporate moguls - all of whom have a political and economic stake in such military incursions abroad and wars at home. Wars make the economic elite even richer just as they undermine civil liberties, public services and public dissent. A hyper-militarized America has not only fueled violations of executive power, it has also promoted armed conflicts that are directly related to an economic crisis that has produced a wave of political extremism in the United States, while furthering the rise of a punishing state that places the burdens of the current economic crisis on the backs of the poor. We seem to have no trouble in spending money for the production of organized violence designed to kill people, but we have little money to spend on education, health care, or other serious social problems facing the United States. As one educational journal pointed out: This juxtaposition of robust war spending and inadequate support for education highlights the moral bankruptcy of political and economic leaders who seem to find endless piles of money to kill people abroad but not much to educate them at home. And, of course, the relationship is plain: The more dollars spent on war, the fewer available for human needs - whether alternative energy, food stamps, in-home elder care, public libraries or keeping teachers in their classrooms.(10) War is not merely the outgrowth of polices designed to protect the security and well-being of the United States. It is also, as President Dwight Eisenhower pointed out, part of a military metaphysics - a complex of forces that includes corporations, defense industries, politicians, financial institutions and universities. Rich conservatives not only produce moral panics and fund collective rage and anger; they also lobby for and finance the military-industrial-academic complex.(11) War provides jobs, profits, political payoffs, research funds and forms of political and economic power that reach into every aspect of society. As a mode of public pedagogy, a state of permanent war needs willing subjects to abide by its values, ideology and narratives of fear and violence. Such legitimation is largely provided through a culture addicted to the production of organized violence, largely circulated through various registers of popular and media culture that extend from high fashion, television and Hollywood movies to the production of violent video games and music concerts sponsored by the Pentagon. The spectacle of war demands a culture of conformity, quiet intellectuals and a largely passive republic of consumers. A hyper-militarized America lives amid a thick fog of historical and social amnesia more than willing to forget that wars not only cause economic distress, but also, as my colleague David L. Clark points out, renders human beings into machines, "converts economies into factories of death" and "threatens to transform the world into a vast graveyard."(12) But war is not something that takes place elsewhere, out of sight and out of mind; it also produces military-like interventions that take the form of a corporate war on the social state and a right-wing war on any mode of critical education. The war on the social state is in high gear and is most evident in a range of polices designed to punish unions, abrogate the bargaining rights of workers, cut social protections and disinvest in higher education as a site of critical learning while reorganizing it according to the interests and values of a market-driven culture. The mean-spirited and ideologically dogmatic nature of the assault on labor can be seen in Maine's Republican Gov. Paul LePage's call to remove a 36-foot, 11-panel mural by Judy Taylor from the foyer in the state's Department of Labor building in Augusta.(13) LePage claims that a number of business officials complained about the mural, echoing a sentiment he received in a fax that claimed that the mural "was reminiscent of communist North Korea where they use these murals to brainwash the masses."(14) But LePage's contempt for workers, unions, teachers and their struggles did not end with the removal of the mural; he also ordered seven conference rooms to be renamed, given that few of them were named after notable labor organizers, including Cesar Chavez, a heroic figure who "led the United Farm Workers union in the sixties and seventies."(15) LePage's actions mirror the same disdain for democracy and the social state that is being exhibited by Republican governors in Wisconsin and a number of other states in which draconian measures are being imposed on the unemployed, working poor, middle class, students, and others who are outside of the radar of politicians in the service of the corporate rich. Waging War on the Social State The second war, inextricably connected to the war on the social state and democracy itself, takes the form of a highly ideological and politicized assault on higher education. Under the regime of market fundamentalism, institutions that were meant to educate young people as critically engaged citizens, willing to address major social problems and question the operations of official power have been either weakened or abolished, as have many of those public spheres where thinking is not circumscribed by appeals to instrumental rationality.(16) This shift from the basic tenets of the social contract to savage forms of corporate sovereignty is part of a broader process of "reducing state support of social goods [and] means that states - the institutions best placed to defend the gains workers and other popular forces have made in previous struggles - are instead abandoning them."(17) Faced with massive deficits, states are refusing to raise taxes on the rich or corporations while enacting massive cuts in everything from Medicaid programs, food banks and worker retirement funds to higher education and health care programs for children. For example, Florida's Gov. Rick Scott "[has] proposed slashing corporate income and property taxes, laying off 6,700 state employees, cutting education funding by $4.8 billion and cutting Medicaid by almost $4 billion. Scott's ultimate plan is to phase the Sunshine State's corporate income tax out entirely. He [wants] to gut Florida's unemployment insurance system, leaving unemployed workers 'with much less economic protection than unemployed workers in any other state in the country.'"(18) Tom Branstad, the Republican governor of Iowa, has proposed a $200 million tax cut on commercial property taxes and corporate income, but at the same time, wants to cut $42 million to state universities and lay off hundreds of state workers.(19) The neoliberal culture of cruelty seems to know no bounds in Maine given that Republican lawmakers are attempting to repeal the state's child labor laws. This is a move that is gleefully welcomed by the state's hospitality and tourism industries in spite of a major study published by the respected journal, Child Development, that found "that teens who worked more than 20 hours a week were at a higher risk for bad grades and behavior problems such as drug use and delinquency."(20) While the politics of austerity is invoked, the hypocritical nature of such cuts is evident in the passing of legislation for which taxing the rich and corporations is off the table as is any self-criticism about lowering their taxes. But there is more than hypocrisy at work here, there is also a mean-spiritedness fueled by an ideological rigidity and fundamentalism that is evident in actions of Gov. John Kasich of Ohio. Typical of his fellow Tea Party extremists, Kasich has proposed cutting "$1 million from food banks, $12 million from children's hospitals and $15.9 million from an adoption program for children with special needs."(21) He also proposes "tax cuts for oil companies, a repeal of the Ohio estate tax and an income tax cut for the rich ... [and he plans] to open his state's parks to oil and gas drilling."(22) What is particularly shameful about Kasich's reforms is that his office admits that they have little to do with deficits and great deal to do with a ruthless form of economic Darwinism. How else might one interpret a comment by one of his office staff who claimed that "even if there weren't an $8 billion deficit, we'd probably be proposing many of the same things."(23) Gov. Chris Christie has become a poster-child for the Republican engineered culture of cruelty, largely because of his mean-spirited attacks on public sector workers, which The New York Times claims he views, appropriating the coded, racist ideology of former President Reagan, as the "new welfare queens."(24) Central to Christi's free-market ideology is the fashionable notion that "public-sector unions - teachers, cops and firefighters ... are driving up local taxes beyond what the citizenry can afford, while also demanding the kind of lifetime security that most private-sector workers have already lost."(25) Actually, what Christie leaves out of this form of ideological scapegoating is the fact that the economic sacrifices he calls for will not be shared by the rich. Not only has Christie vetoed a bill that would have raised taxes on the extremely wealthy, but he has actually lowered taxes for the top 2 percent of New Jersey taxpayers. The cost in lost revenue has been estimated at about $1 billion. The real "welfare queens" are not public-sector workers, but new, Gilded Age rich who are laughing all the way to the bank. What is clear here is that the attack is not on public-sector workers because they are privileged, an obvious and bogus lie, but because their work is in public service, rather than in the for-profit marketplace. As the rich and powerful rewrite the script of politics, they are largely assisted by a number of Republican governors are not only breaking the backs of labor unions but are also firing police officers and fire fighters, curtailing benefits for the unemployed, denying poor people access to health services and "cutting medical, rehabilitative, home care or other services needed by low-income people who are elderly or have disabilities or are significantly increasing the cost of these services."(26) As social problems are privatized and public spaces commodified, there has been an increased emphasis on individual solutions to socially produced problems, while at the same time market relations and the commanding institutions of capital are divorced from matters of politics, ethics and responsibility. How else to explain the lack of massive protests over the recent revelations that mega-corporations such as General Electric and the Bank of America paid no taxes in spite of accruing massive financial profits. The commodification of thought and the depoliticization of everyday life have created both a culture of illiteracy and cruelty in which notions of the public good, community and the obligations of citizenship are replaced by the overburdened demands of individual responsibility and an utterly privatized ideal of freedom. In the current market-driven society, with its ongoing uncertainties and collectively induced anxieties, core public values regarding compassion for the common good and especially the poor have been abandoned under the regime of a market society that promotes a survival of the fittest economic doctrine. As Jeffrey Sachs points out, "Income inequality is at historic highs, but the rich claim they have no responsibility to the rest of society. They refuse to come to the aid of the destitute and defend tax cuts at every opportunity. Almost everybody complains, almost everybody aggressively defends their own narrow, short-term interests and almost everybody abandons any pretense of looking ahead or addressing the needs of others."(27) Shared sacrifice and shared responsibilities now give way to shared fears and a disdain for investing in the common good. Conservatives and liberals alike seem to view public values, public spheres and the notion of the common good as either a hindrance to the profit-seeking goals of a market-driven society or a drain on the market-driven social order, treated as a sign of weakness, if not pathology, or even worse, dangerous.(28) The War Against Higher Education Public spheres that once offered at least the glimmer of progressive ideas, enlightened social policies, non-commodified values and critical exchange have been increasingly commercialized or replaced by private spaces and corporate settings, whose ultimate fidelity is to expanding profit margins. For example, higher education is increasingly defined as another core element of corporate power and culture, and as such, has to be stripped of its role as a democratic public sphere vital to the ideals of democratization. In the current climate, what has become clear is that the neoliberal attack on the social state, workers and unions is now being matched by a full-fledged assault on higher education. Such attacks are not happening just in the United States, but in many other parts of the globe where neoliberalism is waging a savage battle to eliminate all of those public spheres which might offer a glimmer of opposition to market-driven policies, institutions, ideology and values. Higher education is being targeted by conservative politicians and governments because it embodies, at least ideally, a sphere in which students learn that democracy is, as Jacques Rancière suggests, a rupture, a relentless critique and dialogue about official power, its institutions and its never-ending attempts to silent dissent.(29) As Ellen Schrecker points out, "Today the entire enterprise of higher education, not just its dissident professors, is under attack, both internally and externally."(30) In England and the United States, universities and businesses are forming stronger ties, the humanities are being underfunded, student tuition is rising at astronomical rates, knowledge is being commodified and research is valued through the lens of an audit culture. In England, the Browne Report has established modes of governance, financing and evaluation that, for all intent and purposes, makes higher education an adjunct of corporate values and interests.(31) Delivering improved employability has reshaped the connection between knowledge and power, while rendering faculty and students as professional entrepreneurs and budding customers. The notion of the university as a center of critique and democratic public sphere vitally necessary in providing the knowledge, skills and values necessary for the production of a democratic polity is giving way to a view of the university as a marketing machine essential to the production of neoliberal subjects.(32) The Browne Report's guiding assumptions suggest that student choice, a consumer model of pedagogy, an instrumental culture of auditing practices and market-driven values are at the heart of the neoliberal university. Like most neoliberal models of education, higher education matters to the extent that it drives economic growth, innovation, transformation and promotes national prosperity.(33) Even though tuition will be tripled in some cases, numerous schools closed and higher education effectively remade according to the dictates of a corporate culture, the conservative-liberal government appears indifferent to the devastating consequences its policies will produce. Simon Head has suggested that the Browne's policies represent a severe threat to academic freedom. In actuality, the neoliberal policies it embodies represents a threat to one of the few remaining institutions left in which dissent, critical dialogue and social problems can be critically engaged.(34) What is often lost in such criticisms is that democracy demands a critical formative culture and set of institutions in which complicated ideas can be engaged, authority challenged, power held accountable and public intellectuals produced. All of this is now threatened in England and other countries pushing neoliberal reforms. Under this economic model, there is no talk of social justice, addressing social problems, promoting critical thinking, addressing matters of social responsibility or engaging critically non-commodified values that might challenge the neoliberal world view. Where the British differ from their American counterparts is that the labor unions, workers, young people, students and members of the middle class are protesting in huge numbers the attack on the social state and the university as a social good. In the United States, this neoliberal model takes a somewhat different form since states control the budgets for higher education. Under the call for austerity, states have begun the process of massively defunding public universities while they simultaneously provide massive tax breaks for corporations and the rich. At the same time, higher education in its search for funding has "adopted the organizational trappings of medium-sized or large corporations."(35) University presidents are now viewed as CEOs, faculty as entrepreneurs and students as consumer. It gets worse. In some universities, new college deans are shifting their focus outside of the campus in order to take "on some of the fund-raising, strategic planning and partner-seeking duties that were once the bailiwick of the university president."(36) Academic leadership is now defined in part through one's ability to raise funds, engage in strategic planning and partner up with corporate donors. In fact, deans are increasingly viewed as the head of complex businesses and their job performance ratings are dependent on their fund-raising performances. As business culture permeate higher education, all manner of school practices from food service and specific modes of instruction to hiring temporary faculty are now outsourced to private contractors. Moreover, the most important value of higher education is now tied to the need for credentials. Disciplines and subjects that do not fall within the purview of mathematical utility and economic rationality are now seen as dispensable.(37) In the search for adopting market values and cutting costs, classes have ballooned in size, there is an increased emphasis on rote learning and standardized testing, and tuition fees have skyrocketed, making it impossible for thousands of working-class youth to gain access to higher education. One of the most serious consequences facing higher education in the United States under the reign of neoliberal austerity and disciplinary measures is the increased casualization of academic labor and the ongoing attacks on tenure and academic freedom. College presidents not only now align themselves with business values, but they willingly and openly associate themselves with corporate interests. Moreover, as universities adopt models of corporate governance, they are aggressively eliminating tenure positions, increasing part-time and full-time positions without the guarantee of tenure and attacking faculty unions. In a number of states such as Ohio and Utah, legislatures have passed bills outlawing tenure, while in Wisconsin, the governor has abrogated the bargaining rights of state university faculty.(38) At a time when higher education is becoming increasingly vocationalized, the ranks of tenure-track faculty are being drastically depleted in the United States, furthering the loss of faculty as stakeholders. Currently, only 27 percent of faculty are either on a tenure track of have a full-time tenure position. As faculty are demoted to contingency forms of labor, they not only lose their power to influence the conditions of their work, but they are seeing their workloads increase, paid poorly, deprived of office space and supplies, refused travel money and subject to policies that allow them to be fired at will.(39) The latter is particularly egregious, because when coupled with an ongoing series of attacks by right-wing ideologues against left-oriented and progressive academics, many nontenured faculty censor themselves in their classes. At a time when critics within the academy are often fired for their political beliefs, have their names posted on right-wing web sites, are forced to turn over their email correspondence to right-wing groups,(40) and are harassed in the conservative press, it is all the more crucial that protections be put in place that safeguard faculty positions and academics to exercise the rights of academic freedom.(41) What is clear is that the United States is in a state of permanent war and that the casualties are not just on foreign soil. The war at home is being conducted by the same people who benefit from wars abroad. Right-wing conservatives, politicians and corporate billionaires who engage in a full-fledged attack to destroy higher education as a democratic public sphere exhibit not only an almost pathological scorn for the social state, trade unions and workers, but also for any institution capable of producing "an educated population [willing] to sustain a vibrant democracy and culture that provides a key component of the good life."(42) Viewed as simply a training ground for the corporate order, higher education has defaulted on its promise of a democratic future for young people. It has also failed in its traditional call to invest in a social state capable of creating the conditions in which it becomes possible for young people to imagine another world outside of a permanent warfare state and its accompanying economic Darwinism that now bears down on every aspect of their lives. While the complexity of such struggles cannot be exaggerated, it is time to develop a new political language and broader social movements that connect the dots between the war at home and abroad and make visible that the current and egregious war being waged on higher education is aimed not at solving budget deficits, but the destruction of any vestige of higher education as a public good and democratic public sphere. Destroying education as a social good has serious consequences for a democracy. And questions we might want to ask are what kind of society are we becoming and what is going to have to be done to stop the arrogant and formidable assault on all elements of democratic life now being waged by the financial elite, corporations, Neanderthal conservatives, reactionary think tanks, authoritarian politicians and a right-wing media that eschews any vestige of decency, social responsibility and the truth? One starting point is to make clear to the American public that some institutions are simply not for sale and this is particularly true of higher education. Clearly, if higher education is responsible for anything it is to teach students, in particular, that not everything can be reduced to a cash nexus or the dictates of the bottom line. Hopefully, the emerging opposition to the new assault on social services, public service workers and higher education will be seen as part of a new kind of militaristic and ideological assault on democracy itself. This is truly a war over what kind of future we are willing to give our children and what it means to reinvent America within rather than outside of the ideals and promise of a democracy to come. There is more at stake in the current struggles than simply the abrogation of workers' bargaining rights and a gratuitous increase in university tuition rates; there is the more urgent question of whether America can any longer recognize itself as a struggling democracy.
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