सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

फैज की दो कालजयी नज्में

तेरा गम है, तो गमे-दहर का झगड़ा क्या है?
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है
तू जो मिल जाए तो तकदीर नगूं हो जाए
यों न था, मैंने फकत चाहा था, यों हो जाए
और भी दुख है जमाने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी है वस्ल की राहत के सिवा
अनगिनत सदियों के तारीक बहेमाना तिलिस्म!
रेशम व इतलस व कमखाब में बनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए, कूचा व बाजार में जिस्म खाक में लुथड़े हुए,खून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है, इधर को भी नजर क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजे
और भी दुख है जमाने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी है वस्ल की राहत के सिवा
बोल
बोल, कि लब अब आजाद है तेरे
बोल, जबा अब तक तेरी है
तेरा सुतवा जिस्म है तेरा
बोल, कि जा अब तक तेरी है
देख कि आहगर की टुका में
तुंद है शोले, सुर्ख है आहन
खुलने लगे कुफलों के दहाने
फैला हर इक जंजीर का दामन
बोल, यह थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्म व जबा की मौत से पहले
बोल, कि सच जिंदा है अब तक
बोल, जो कुछ कहना है, कह ले

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