सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

अभिव्यजना के अनुपम शायर

फिराक गोरखपुरी 'गालिब' और 'असगर' गोंडवी की भाति 'फैज' ने भी बहुत कम लिखा है। उनके केवल तीन छोटे-छोटे कविता-सग्रह नक्शे-फरियादी, दस्तेसबा और जिंदानामा है। 'गालिब' और असगर की तरह 'फैज' ने भी अपने कलाम में बहुत काट-छाटकर उसे प्रकाशित किया है। इसीलिए उनकी जो कविता है, वह बोलती हुई है, जो पक्ति है, वह पत्थर की लकीर बन जाती है। उनकी दृष्टि स्पष्टत: सामाजिक है किन्तु उनकी चेतना भावना के उद्रेक तक ही सीमित नहीं,उसमें बौद्धिकता और भावुकता के उचित सामजस्य के आधार पर बड़ी गहराई पैदा हो गई है और इसी विशेषता ने उनकी कविता को राजनीतिक अथवा सामाजिक प्रचार होने से बचा लिया है। 'फैज' की अभिव्यजना की विशेषता उनका भावनात्मक यथार्थवाद है। सीधे-सादे शब्दों में- केवल ध्वनियों के कलापूर्ण सामजस्य और भावना के अनुरूप उचित शब्दों के प्रयोग के आधार पर- वे अद्वितीय प्रभाव पैदा कर देते है। उपमाओं तथा अन्य अलकारों का प्रयोग वे या तो करते ही नहीं या फिर नई उपमाएं और नए शब्द-विन्यास इस खूबी के साथ गढ़ते है कि अभिव्यजना में सिर्फ नवीनता ही नहीं पैदा होती बल्कि आने वाली पीढि़यों के लिए नए रास्ते खुल जाते है। आधुनिक कवियों में शायद 'फैज' ने ही उर्दू को सबसे अधिक अभिव्यजना-शक्ति प्रदान की है। उदाहरण के लिए उनकी एक छोटी नज्म तन्हाई दी जा रही है-
फिर कोई आया, दिले-जार! नहीं, कोई नहीं
राह रौ होगा, कहीं और चला जाएगा
ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख्वाबीदा चराग
सो गई रास्ता तक-तक के हर इक राह गुजार
अजनबी खाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग
गुल करो शमएं, बढ़ा दो मैं-ओ-मीना-ओ-अयाग
अपने बेख्वाब किवाड़ों को मुकफ्फल कर लो
अब यहा कोई नहीं, कोई नहीं आएगा!

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