दिल्ली के उपराज्यपाल और राज्य सरकार के बीच जारी रस्साकसी के मामले में उच्चतम न्यायालय का फैसला अहम है. यह जनता के प्रति जवाबदेही तथा निर्वाचित सरकारों की प्रतिष्ठा व सर्वोच्चता स्थापित करता है और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए भविष्य में भी मार्गदर्शक साबित होगा. दिल्ली चूंकि पूर्ण राज्य नहीं है, इसलिए वहां केंद्र सरकार का उपराज्यपाल के माध्यम से अनेक मामलों में सीधा हस्तक्षेप होता है. यद्यपि संविधान में सारे अधिकार सुस्पष्ट रूप से व्याख्यायित हैं, उसके बाद भी तालमेल बिठाना कौशल का काम समझा जाता है. केन्द्र सरकार में बहुमत की सरकार और दिल्ली में प्रचंड बहुमत की सरकार बैठने के साथ तनावभरा समय गुजरा तथा उपराज्यपाल व राज्य सरकार के बीच तनातनी के माहौल ने स्थायी रूप से कामकाज पर प्रभाव डाला है. दिल्ली राज्य सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर छिड़ी जंग ने केन्द्र व केजरीवाल सरकार आमने-सामने खड़ा दिया था. उच्चतम न्यायालय के संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि उपराज्यपाल, जिसकी नियुक्ति केन्द्र करता है, वह विघ्नकारक रूप में काम नहीं कर सकते. संविधान पीठ तीन अलग-अलग लेकिन सहमति से दिए फैसले में कहा है कि उपराज्यपाल के पास स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार नहीं है. इस व्यवस्था ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सही ठहरा दिया है. पीठ ने उपराज्यपाल के लिए पहली बार स्पष्ट दिशा निर्देश प्रतिपादित किया है और दिल्ली राज्य सरकार के लिए विधायकों का जनता द्वारा चुने जाने का हवाला देते हुए उसकी सर्वोच्चता पर मुहर लगा दी है. केजरीवाल क्रमश: नजीब जंग और अनिल बैजल पर आरोप लगाते रहे हैं कि वे केन्द्र सरकार के इशारे पर ठीक से काम नहीं करने दे रहे हैं. इस लिहाज से संविधान पीठ का निर्णय आप सरकार के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ी जीत मानी जा सकती है. शीर्ष अदालत ने कहा है कि सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस और भूमि के अलावा दिल्ली सरकार को अन्य विषयों पर कानून बनाने और शासन करने का अधिकार है. अन्य राज्यों की तरह दिल्ली में भी उपराज्यपाल की भूमिका मंत्रिमंडल की सलाह के चलने तथा अपवाद स्वरूप किन्हीं विशेष मामलों को राष्ट्रपति के पास निराकरण हेतु भेजने के प्रावधान तक सीमित है. आम आदमी पार्टी सहित अन्य दलों के पास अपने-अपने तर्क हो सकते हैं और अपने स्तर पर व्याख्या कर हार-जीत की परिभाषाएं भी गढ़ सकते हैं. लेकिन उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने लोकतंत्र की मूल भावना और जनता की सर्वोच्चता की याद दिलाई है तथा संविधान व लोकतंत्र की मर्यादा के अनुरूप जनता के हित में काम करने का निर्देश दिया है, जहां अराजकता और मनमानी का कोई स्थान नहीं हो सकता. जनता सरकार के प्रति जवाबदेह हो और उपलब्ध हो, यही लोकतंत्र की मूल भावना है, जिसकी विजय हुई है.
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