।। प्रफ़ुल्ल बिदवई ।।
उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत के बीस साल पूरे होने के मौके पर इससे हुए नफ़े-नुकसान का आकलन करना जरूरी है. दुनिया की एक ’उभरती शक्ति’बनने की होड़ में भारत को जो नुकसान हुआ है, उससे काफ़ी सबक सीखे जा सकते हैं.
ठीक दो दशक पहले तब के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने भारत में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत की. इसकी 20वीं सालगिरह के मौके पर नव उदारवाद से जुड़ा भाई-भतीजावाद, अपराधीकरण और सार्वजनिक धन की लूट-खसोट पूरे शबाब पर है. नव उदारवाद के पैरोकार हालांकि घोटालों के साथ इसके किसी भी तरह के जुड़ाव से इनकार करते हैं और दावा करते हैं कि ’क्रोनी कैपटलिज्म’ जैसी कोई चीज होती ही नहीं.
यह ठीक उसी तरह है जैसे हम कहें कि 1990 का एनरॉन घोटाला, 2000 के तीन टेलीकॉम घोटाले या फ़िर हाल के टू जी, पॉस्को, कृष्णा-गोदावरी या गैस मूल्यों के घोटाले हुए ही नहीं. कुछ नवउदारवादी कहते हैं कि इसे अब अमेरिका की सहमति भी हासिल नहीं है. उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों का मसौदा अमेरिकी सरकार ने ही विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ मिलकर तैयार किया था. हालांकि इन नीतियों पर व्यापक सहमति अब भी है. यह न केवल ग्रीस और आयरलैंड जैसे देशों में क्रूरता के साथ अपनाया जा रहा है, वरन सौ से अधिक विकासशील देशों में इसे उसी बेरहमी के साथ थोपा जा चुका है. यह सही समय है, जब हमें भारत में नव उदारवाद के नफ़े-नुकसान का आकलन करना चाहिए.
इसका सबसे बड़ा गुण यह बताया जा रहा है कि इससे तेज विकास संभव हो सका है. यह दावा सकल घरेलू उत्पाद के विकास के आइने में किया जा रहा है, लेकिन ऐसा करने वाले इससे हुए सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय नुकसान को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे हैं. भारत आज एक ’उभरती हुई शक्ति’ है, क्योंकि इसका कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वैश्विक स्तर पर 12 वें से बढ़कर 10 वें स्थान पर पहुंच गया है, खरीदारी की क्षमता के मामले में यह 9 वें से बढ़कर चौथे स्थान पर पहुंच गया है, लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत आज भी दुनिया में कुछ सबसे पिछड़े देशों में शामिल है.
हालांकि नीतियों और विकास के बीच रिश्ता इतना सरल भी नहीं होता है. 1980 के दशक में नव उदारवाद के बिना भी भारत में जीडीपी की विकास दर ऊंची थी. विकास की रफ्तार बढ़ाने में अधिक निवेश, बचत दर और बेहतर बुनियादी सुविधाओं जैसे कुछ अन्य कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है. फ़िर भी विकास और इसके लाभ का वितरण दोनों अलग-अलग चीजें हैं. खासकर सेवा क्षेत्र, जिसकी राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी आधे से अधिक है, के मामले में भारत का विकास अत्यंत कम और पूरी तरह असमान है.
कृषि क्षेत्र, जिस पर देश के पांच में से तीन लोग ओश्रत हैं, का विकास करीब 20 फ़ीसदी कम हो गया है. औद्योगिक क्षेत्र का विकास इतना कम हुआ है कि कृषि क्षेत्र से खाली हुए श्रमिकों को इसमें खपाना संभव नहीं है. भारत के कृषि क्षेत्र का संकट अत्यंत गंभीर हो चुका है. इस कारण पिछले 12 वर्षो में दो लाख से अधिक किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो चुके हैं. यह भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी है.
इस दौरान हुए विकास का लाभ मुख्यत: अमीर लोगों को ही मिल पाया है, जिनकी संख्या कुल आबादी का 10 से 15 प्रतिशत है. इस विकास से न तो बहुसंख्य आबादी की आमदनी बढ़ पायी है और न ही गरीबी कम हुई है. आधिकारिक आशावादी अनुमानों के मुताबिक ग्रामीण गरीबी 1993-94 में 50.1 फ़ीसदी से घटकर 2004-05 में 41.8 फ़ीसदी, जबकि शहरी गरीबी 32.6 फ़ीसदी से घट कर 25.7 फ़ीसदी हुई है. बहुत से अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि इन आंकड़ों पर भी यकीन करें तो गरीबी में यह कमी अत्यंत मामूली है. अब भी करीब 40 करोड़ भारतीयों का जीवन जानवरों से भी बदतर है. वे शरीर के लिए जरूरी पोषण से काफ़ी कम का उपभोग कर पा रहे हैं. यही कारण है कि कथित तेज विकास के दो दशक के बाद भी भारत में गंदे और गरीब लोगों की तादाद दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है.
इन आंकड़ों में गरीबी और अभाव के गैर आय रूप, मसलन भूमि से बेदखली, पर्यावरणीय विनाश, व्यापक कुपोषण, लिंग आधारित गरीबी, दूषित पानी पीने और अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में जिंदा रहने की मजबूरी छिप जाती है. देश के आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, पांच में से दो वयस्कों के शरीर का विकास अत्यंत कम हो पाया है. ऐसे में यह कोई उपलब्धि नहीं कही जा सकती कि आज देश में जितने लोगों के पास शौचालय हैं, उससे कहीं ज्यादा के पास मोबाइल फ़ोन हैं.
तीव्र अभाव प्राथमिक मानवीय क्षमता विकसित करने की लोगों की योग्यता को नष्ट कर देता है. सम्मानजनक जीवन जीना और मनुष्य को जानवरों की अन्य प्रजातियों से अलग करने वाली क्षमता हासिल करना करोड़ों भारतीयों के लिए असंभव बना हुआ है. अर्थव्यवस्था के प्राकृतिक आधार और सार्वजनिक संसाधनों के बढ़ते निजीकरण के कारण पिछले दो दशक में अभावग्रस्त लोगों की संख्या लगातार बढ़ी है. कुल मिलाकर आय और संपत्ति के असमान वितरण और क्षेत्रीय असमानताओं ने दो तरह के भारत का निर्माण किया है. एक तरफ़ मध्य भारत में व्यापक गरीबी है, सामाजिक पिछड़ापन है, दूसरी तरफ़ दक्षिण से पश्चिम तक तेज विकास के बूते पनपा अमीरों का नया कुनबा है. यह असमानता जीवन के हर क्षेत्र में साफ़ परिलक्षित है. यदि आप गरीब हैं तो आपके पास पोषण पाने के लिए अमीरों की तुलना में काफ़ी कम साधन हैं. इलाज, शिक्षा, रोजगार और अन्य सेवाओं के मामले में भी यही असमानता है.
कुल मिलाकर उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर चलने से भारत की अमूल्य मानवीय क्षमता का व्यापक स्तर पर ह्रास हो रहा है, सामाजिक सहिष्णुता कम हो रही है, लिंग भेद बढ़ रहा है और इन सबसे आगे व्यवस्था में लोगों का विश्वास कम हो रहा है, जिससे राजनीतिक लोकतंत्र की नींव कमजोर हो रही है. दूसरी ओर पर्यावरणीय नुकसान हो रहा है, कीमती जंगलों का नाश हो रहा है, खनन गतिविधियां बढ़ने से प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है. भारत और उसके पड़ोसी देशों के लिए ’उभरती शक्ति’ बनने की इस होड़ में काफ़ी सबक छिपे हुए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत के बीस साल पूरे होने के मौके पर इससे हुए नफ़े-नुकसान का आकलन करना जरूरी है. दुनिया की एक ’उभरती शक्ति’बनने की होड़ में भारत को जो नुकसान हुआ है, उससे काफ़ी सबक सीखे जा सकते हैं.
ठीक दो दशक पहले तब के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने भारत में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की शुरुआत की. इसकी 20वीं सालगिरह के मौके पर नव उदारवाद से जुड़ा भाई-भतीजावाद, अपराधीकरण और सार्वजनिक धन की लूट-खसोट पूरे शबाब पर है. नव उदारवाद के पैरोकार हालांकि घोटालों के साथ इसके किसी भी तरह के जुड़ाव से इनकार करते हैं और दावा करते हैं कि ’क्रोनी कैपटलिज्म’ जैसी कोई चीज होती ही नहीं.
यह ठीक उसी तरह है जैसे हम कहें कि 1990 का एनरॉन घोटाला, 2000 के तीन टेलीकॉम घोटाले या फ़िर हाल के टू जी, पॉस्को, कृष्णा-गोदावरी या गैस मूल्यों के घोटाले हुए ही नहीं. कुछ नवउदारवादी कहते हैं कि इसे अब अमेरिका की सहमति भी हासिल नहीं है. उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों का मसौदा अमेरिकी सरकार ने ही विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के साथ मिलकर तैयार किया था. हालांकि इन नीतियों पर व्यापक सहमति अब भी है. यह न केवल ग्रीस और आयरलैंड जैसे देशों में क्रूरता के साथ अपनाया जा रहा है, वरन सौ से अधिक विकासशील देशों में इसे उसी बेरहमी के साथ थोपा जा चुका है. यह सही समय है, जब हमें भारत में नव उदारवाद के नफ़े-नुकसान का आकलन करना चाहिए.
इसका सबसे बड़ा गुण यह बताया जा रहा है कि इससे तेज विकास संभव हो सका है. यह दावा सकल घरेलू उत्पाद के विकास के आइने में किया जा रहा है, लेकिन ऐसा करने वाले इससे हुए सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय नुकसान को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे हैं. भारत आज एक ’उभरती हुई शक्ति’ है, क्योंकि इसका कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वैश्विक स्तर पर 12 वें से बढ़कर 10 वें स्थान पर पहुंच गया है, खरीदारी की क्षमता के मामले में यह 9 वें से बढ़कर चौथे स्थान पर पहुंच गया है, लेकिन प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत आज भी दुनिया में कुछ सबसे पिछड़े देशों में शामिल है.
हालांकि नीतियों और विकास के बीच रिश्ता इतना सरल भी नहीं होता है. 1980 के दशक में नव उदारवाद के बिना भी भारत में जीडीपी की विकास दर ऊंची थी. विकास की रफ्तार बढ़ाने में अधिक निवेश, बचत दर और बेहतर बुनियादी सुविधाओं जैसे कुछ अन्य कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है. फ़िर भी विकास और इसके लाभ का वितरण दोनों अलग-अलग चीजें हैं. खासकर सेवा क्षेत्र, जिसकी राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी आधे से अधिक है, के मामले में भारत का विकास अत्यंत कम और पूरी तरह असमान है.
कृषि क्षेत्र, जिस पर देश के पांच में से तीन लोग ओश्रत हैं, का विकास करीब 20 फ़ीसदी कम हो गया है. औद्योगिक क्षेत्र का विकास इतना कम हुआ है कि कृषि क्षेत्र से खाली हुए श्रमिकों को इसमें खपाना संभव नहीं है. भारत के कृषि क्षेत्र का संकट अत्यंत गंभीर हो चुका है. इस कारण पिछले 12 वर्षो में दो लाख से अधिक किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हो चुके हैं. यह भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी है.
इस दौरान हुए विकास का लाभ मुख्यत: अमीर लोगों को ही मिल पाया है, जिनकी संख्या कुल आबादी का 10 से 15 प्रतिशत है. इस विकास से न तो बहुसंख्य आबादी की आमदनी बढ़ पायी है और न ही गरीबी कम हुई है. आधिकारिक आशावादी अनुमानों के मुताबिक ग्रामीण गरीबी 1993-94 में 50.1 फ़ीसदी से घटकर 2004-05 में 41.8 फ़ीसदी, जबकि शहरी गरीबी 32.6 फ़ीसदी से घट कर 25.7 फ़ीसदी हुई है. बहुत से अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यदि इन आंकड़ों पर भी यकीन करें तो गरीबी में यह कमी अत्यंत मामूली है. अब भी करीब 40 करोड़ भारतीयों का जीवन जानवरों से भी बदतर है. वे शरीर के लिए जरूरी पोषण से काफ़ी कम का उपभोग कर पा रहे हैं. यही कारण है कि कथित तेज विकास के दो दशक के बाद भी भारत में गंदे और गरीब लोगों की तादाद दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है.
इन आंकड़ों में गरीबी और अभाव के गैर आय रूप, मसलन भूमि से बेदखली, पर्यावरणीय विनाश, व्यापक कुपोषण, लिंग आधारित गरीबी, दूषित पानी पीने और अस्वास्थ्यकर परिस्थितियों में जिंदा रहने की मजबूरी छिप जाती है. देश के आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, पांच में से दो वयस्कों के शरीर का विकास अत्यंत कम हो पाया है. ऐसे में यह कोई उपलब्धि नहीं कही जा सकती कि आज देश में जितने लोगों के पास शौचालय हैं, उससे कहीं ज्यादा के पास मोबाइल फ़ोन हैं.
तीव्र अभाव प्राथमिक मानवीय क्षमता विकसित करने की लोगों की योग्यता को नष्ट कर देता है. सम्मानजनक जीवन जीना और मनुष्य को जानवरों की अन्य प्रजातियों से अलग करने वाली क्षमता हासिल करना करोड़ों भारतीयों के लिए असंभव बना हुआ है. अर्थव्यवस्था के प्राकृतिक आधार और सार्वजनिक संसाधनों के बढ़ते निजीकरण के कारण पिछले दो दशक में अभावग्रस्त लोगों की संख्या लगातार बढ़ी है. कुल मिलाकर आय और संपत्ति के असमान वितरण और क्षेत्रीय असमानताओं ने दो तरह के भारत का निर्माण किया है. एक तरफ़ मध्य भारत में व्यापक गरीबी है, सामाजिक पिछड़ापन है, दूसरी तरफ़ दक्षिण से पश्चिम तक तेज विकास के बूते पनपा अमीरों का नया कुनबा है. यह असमानता जीवन के हर क्षेत्र में साफ़ परिलक्षित है. यदि आप गरीब हैं तो आपके पास पोषण पाने के लिए अमीरों की तुलना में काफ़ी कम साधन हैं. इलाज, शिक्षा, रोजगार और अन्य सेवाओं के मामले में भी यही असमानता है.
कुल मिलाकर उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के रास्ते पर चलने से भारत की अमूल्य मानवीय क्षमता का व्यापक स्तर पर ह्रास हो रहा है, सामाजिक सहिष्णुता कम हो रही है, लिंग भेद बढ़ रहा है और इन सबसे आगे व्यवस्था में लोगों का विश्वास कम हो रहा है, जिससे राजनीतिक लोकतंत्र की नींव कमजोर हो रही है. दूसरी ओर पर्यावरणीय नुकसान हो रहा है, कीमती जंगलों का नाश हो रहा है, खनन गतिविधियां बढ़ने से प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है. भारत और उसके पड़ोसी देशों के लिए ’उभरती शक्ति’ बनने की इस होड़ में काफ़ी सबक छिपे हुए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
ये ही तो जीवन है,
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