।। प्रफ़ुल्ल बिदवई ।।
भारत के लिए ऐसे संयंत्र का निर्माण आत्मघाती कदम होगा. ये संयंत्र स्वास्थ्य और जान-माल के भीषण खतरों की कीमत पर बिजली मुहैया करायेंगे. जबकि अक्षय ऊर्जा के रूप में हमारे देश में परमाणु ऊर्जा के अत्यंत सुरक्षित और किफ़ायती विकल्प उपलब्ध हैं.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा अपने दक्षिण भारत के दौरे के दौरान कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के खिलाफ़ आंदोलन कर रहे लोगों के तिरस्कार का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता था. वे आंदोलकारियों के प्रतिनिधियों से 7 अक्तूबर को बात करने के लिए राजी तो हो गये, लेकिन इस दौरान परमाणु ऊर्जा विभाग के सचिव श्रीकुमार बनर्जी ने प्रतिनिधियों को सिर्फ़ परमाणु ऊर्जा के फ़ायदों का लेक्चर सुना दिया. यह बैठक परियोजना को रद करने की मुख्य मांग के संबंध में विचार के लिए हुई थी. इस मांग को सौ से अधिक लोगों ने 12 दिन तक अनशन कर अपना नैतिक समर्थन दिया था, जिसके बाद तमिलनाडु सरकार परियोजना के निर्माण कार्य को स्थगित करने पर मजबूर हो गयी थी.
आंदोलन के प्रतिनिधियों को मुखर्जी का भाषण झेलना पड़ा, जिन्होंने हाल में भारतीय वैज्ञानिक समुदाय को शर्मिदा किया था. जापान में मार्च में भीषण तबाही मचाने वाली फ़ुकुशिमा संयंत्र की दुर्घटना के बाद उन्होंने इसकी गंभीरता को खारिज कर दिया था. उन्होंने कहा था कि यह कोई परमाणु आपातकाल नहीं, केवल एक रासायनिक प्रतिक्रिया है!
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पहले कुडनकुलम में रूस निर्मित दोनों परमाणु रियेक्टरों का काम रोकने का वादा किया, लेकिन तत्काल बाद अपनी बात से मुकर गये. तब प्रदर्शनकारियों ने फ़िर से अनशन शुरू कर दिया और परियोजना स्थल पर उनके समर्थन में करीब दस हजार लोग पहुंच गये.
आंदोलनकारियों के साथ उपेक्षित और दिग्भ्रमित बच्चों की तरह व्यवहार नहीं किया जा सकता है, जिन्हें अनुशासन सिखाने के लिए एक कोच की जरूरत होती है. उनके नेता जाने-माने पेशेवर लोग हैं. मसलन एसपी उदयकुमार अमेरिका के विश्वविद्यालयों में पढ़ा चुके हैं. एम पुष्पआर्यन जाने-माने वकील हैं. उनके तर्क विचारणीय हैं. यहां हजार मेगावाट के दो रियेक्टर निर्माणाधीन हैं, जिनसे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन नहीं किया गया है. इन्हें पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी इआइए (इन्वायर्नमेंटल इंपैक्ट एसेसमेंट) की प्रक्रिया शुरू होने से पांच साल पहले मिली थी. इसमें परमाणु रियेक्टर के आंतरिक खतरों का ख्याल नहीं रखा गया था. ये रियेक्टर रोजाना लाखों लीटर ताजे पानी का उपयोग करेंगे और गर्म पानी को समुद्र में छोड़ेगे. इससे मछलियों का जीवन संकट में पड़ जायेगा, जिस पर तटीय इलाकों के लाखों लोग आश्रित हैं. ये घनी आबादी वाले क्षेत्र के एक किलोमीटर के दायरे में बन रहे हैं, जबकि नियम कहता है कि परमाणु संयंत्र के 1.6 किलोमीटर के दायरे में आबादी नहीं होनी चाहिए. इन रियेक्टरों से नियमित रूप से अपशिष्ट पदार्थ निकलेंगे. रेडियोधर्मिता युक्त उत्सर्जन भी होगा, जो एक ऐसा जहर है जिसे न तो आंखों से देखा जा सकेगा और न ही इसका गंध महसूस होगा.
सात देशों के 136 परमाणु संयंत्र स्थलों के वैज्ञानिक अध्ययनों में इसके आसपास के बच्चों में ल्यूकेमिया (एक प्रकार का रक्त कैंसर) की दर काफ़ी अधिक पायी गयी है. यहां जन्मजात विकृति, अंग क्षति और वयस्कों में भी कैंसर के मामले अधिक पाये गये हैं. परमाणु गतिविधियों से ऐसे अपशिष्ट पदार्थ पैदा होते हैं, जो हजारों साल तक नष्ट नहीं होते. विज्ञान अब तक इनके सुरक्षित निपटान के तरीके नहीं तलाश पाया है. इसके अलावा चेनरेबिल और फ़ुकुशिमा जैसी प्रलयंकारी दुर्घटनाओं की आशंका दुनिया के सभी परमाणु रियेक्टरों में बनी रहती है. चेनरेबिल में अलग-अलग अनुमानों के मुताबिक 34 से 95 हजार लोग मारे जा चुके हैं और यह संख्या अब भी बढ़ रही है. रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण दुर्घटना के 25 साल बाद भी करीब तीन लाख लोग अपने घर नहीं लौट सकते हैं. इसी तरह फ़ुकुशिमा में संकट अब भी नहीं टला है, जबकि 50 अरब डॉलर खर्च किये जा चुके हैं.
इस तरह हम कह सकते हैं कि परमाणु रियेक्टर मुश्किल से नियंत्रित होने वाले परमाणु बम हैं, जहां लगातार होने वाली श्रंखलाबद्ध परमाणु प्रतिक्रियाओं को पानी डालकर और सुरक्षा उपकरणों की मदद से काबू किया जाता है. लेकिन ये उपाय विफ़ल भी हो सकते हैं. इन्हें किसी कारण से पर्याप्त ठंडक नहीं मिलने पर इंधन लगातार गर्म होते चले जाते हैं और ये तबाही मचाने लगते हैं. यही फ़ुकुशिमा में हुआ. इसके संचालकों का कहना है कि रिक्टर पैमाने पर 9 की तीव्रता वाले भूकंप को यह रियेक्टर सहन नहीं कर पाया. बाद में आयी सुनामी ने खतरे को और बढ़ा दिया, जिससे यह भीषण दुर्घटना हुई. कारण चाहे जो भी रहे हों, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि परमाणु रियेक्टर कभी भी तबाही मचा सकते हैं.
कुडनकुलम में स्थानीय पंचायत, चर्च और धार्मिक संस्थाओं को मिलाकर बना संगठन इस खतरे को समझता है. वे संभवत: रूस निर्मित परमाणु संयंत्रों के बारे में भी काफ़ी कुछ जानते हैं. नार्वे के एक प्रमुख संगठन ने रूस के परमाणु सुरक्षा विशेषज्ञों से बातचीत के बाद एक स्पेशल रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि रूसी रियेक्टर आपदा प्रबंधन के लिए काफ़ी कम तैयार होते हैं. इस रिपोर्ट को तैयार करने में अनेक अन्य स्र्ोतों से सूचनाएं जुटायी गयी हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि रूसी रियेक्टरों में 31 गंभीर खामियां हैं. खासकर इनमें भूकंप के खतरों से बचने के पर्याप्त उपाय नहीं हैं. ये खुलासे सचेत करने वाले हैं. भारत के लिए ऐसे संयंत्र का निर्माण आत्मघाती कदम होगा. ये संयंत्र स्वास्थ्य और जानमाल के भीषण खतरों की कीमत पर बिजली मुहैया करायेंगे. जबकि अक्षय ऊर्जा के रूप में हमारे देश में परमाणु ऊर्जा के अत्यंत सुरक्षित और किफ़ायती विकल्प उपलब्ध हैं. भविष्य भी अक्षय ऊर्जा का ही है.
।। लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ।।
भारत के लिए ऐसे संयंत्र का निर्माण आत्मघाती कदम होगा. ये संयंत्र स्वास्थ्य और जान-माल के भीषण खतरों की कीमत पर बिजली मुहैया करायेंगे. जबकि अक्षय ऊर्जा के रूप में हमारे देश में परमाणु ऊर्जा के अत्यंत सुरक्षित और किफ़ायती विकल्प उपलब्ध हैं.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा अपने दक्षिण भारत के दौरे के दौरान कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के खिलाफ़ आंदोलन कर रहे लोगों के तिरस्कार का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता था. वे आंदोलकारियों के प्रतिनिधियों से 7 अक्तूबर को बात करने के लिए राजी तो हो गये, लेकिन इस दौरान परमाणु ऊर्जा विभाग के सचिव श्रीकुमार बनर्जी ने प्रतिनिधियों को सिर्फ़ परमाणु ऊर्जा के फ़ायदों का लेक्चर सुना दिया. यह बैठक परियोजना को रद करने की मुख्य मांग के संबंध में विचार के लिए हुई थी. इस मांग को सौ से अधिक लोगों ने 12 दिन तक अनशन कर अपना नैतिक समर्थन दिया था, जिसके बाद तमिलनाडु सरकार परियोजना के निर्माण कार्य को स्थगित करने पर मजबूर हो गयी थी.
आंदोलन के प्रतिनिधियों को मुखर्जी का भाषण झेलना पड़ा, जिन्होंने हाल में भारतीय वैज्ञानिक समुदाय को शर्मिदा किया था. जापान में मार्च में भीषण तबाही मचाने वाली फ़ुकुशिमा संयंत्र की दुर्घटना के बाद उन्होंने इसकी गंभीरता को खारिज कर दिया था. उन्होंने कहा था कि यह कोई परमाणु आपातकाल नहीं, केवल एक रासायनिक प्रतिक्रिया है!
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पहले कुडनकुलम में रूस निर्मित दोनों परमाणु रियेक्टरों का काम रोकने का वादा किया, लेकिन तत्काल बाद अपनी बात से मुकर गये. तब प्रदर्शनकारियों ने फ़िर से अनशन शुरू कर दिया और परियोजना स्थल पर उनके समर्थन में करीब दस हजार लोग पहुंच गये.
आंदोलनकारियों के साथ उपेक्षित और दिग्भ्रमित बच्चों की तरह व्यवहार नहीं किया जा सकता है, जिन्हें अनुशासन सिखाने के लिए एक कोच की जरूरत होती है. उनके नेता जाने-माने पेशेवर लोग हैं. मसलन एसपी उदयकुमार अमेरिका के विश्वविद्यालयों में पढ़ा चुके हैं. एम पुष्पआर्यन जाने-माने वकील हैं. उनके तर्क विचारणीय हैं. यहां हजार मेगावाट के दो रियेक्टर निर्माणाधीन हैं, जिनसे पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन नहीं किया गया है. इन्हें पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी इआइए (इन्वायर्नमेंटल इंपैक्ट एसेसमेंट) की प्रक्रिया शुरू होने से पांच साल पहले मिली थी. इसमें परमाणु रियेक्टर के आंतरिक खतरों का ख्याल नहीं रखा गया था. ये रियेक्टर रोजाना लाखों लीटर ताजे पानी का उपयोग करेंगे और गर्म पानी को समुद्र में छोड़ेगे. इससे मछलियों का जीवन संकट में पड़ जायेगा, जिस पर तटीय इलाकों के लाखों लोग आश्रित हैं. ये घनी आबादी वाले क्षेत्र के एक किलोमीटर के दायरे में बन रहे हैं, जबकि नियम कहता है कि परमाणु संयंत्र के 1.6 किलोमीटर के दायरे में आबादी नहीं होनी चाहिए. इन रियेक्टरों से नियमित रूप से अपशिष्ट पदार्थ निकलेंगे. रेडियोधर्मिता युक्त उत्सर्जन भी होगा, जो एक ऐसा जहर है जिसे न तो आंखों से देखा जा सकेगा और न ही इसका गंध महसूस होगा.
सात देशों के 136 परमाणु संयंत्र स्थलों के वैज्ञानिक अध्ययनों में इसके आसपास के बच्चों में ल्यूकेमिया (एक प्रकार का रक्त कैंसर) की दर काफ़ी अधिक पायी गयी है. यहां जन्मजात विकृति, अंग क्षति और वयस्कों में भी कैंसर के मामले अधिक पाये गये हैं. परमाणु गतिविधियों से ऐसे अपशिष्ट पदार्थ पैदा होते हैं, जो हजारों साल तक नष्ट नहीं होते. विज्ञान अब तक इनके सुरक्षित निपटान के तरीके नहीं तलाश पाया है. इसके अलावा चेनरेबिल और फ़ुकुशिमा जैसी प्रलयंकारी दुर्घटनाओं की आशंका दुनिया के सभी परमाणु रियेक्टरों में बनी रहती है. चेनरेबिल में अलग-अलग अनुमानों के मुताबिक 34 से 95 हजार लोग मारे जा चुके हैं और यह संख्या अब भी बढ़ रही है. रेडियोधर्मी प्रदूषण के कारण दुर्घटना के 25 साल बाद भी करीब तीन लाख लोग अपने घर नहीं लौट सकते हैं. इसी तरह फ़ुकुशिमा में संकट अब भी नहीं टला है, जबकि 50 अरब डॉलर खर्च किये जा चुके हैं.
इस तरह हम कह सकते हैं कि परमाणु रियेक्टर मुश्किल से नियंत्रित होने वाले परमाणु बम हैं, जहां लगातार होने वाली श्रंखलाबद्ध परमाणु प्रतिक्रियाओं को पानी डालकर और सुरक्षा उपकरणों की मदद से काबू किया जाता है. लेकिन ये उपाय विफ़ल भी हो सकते हैं. इन्हें किसी कारण से पर्याप्त ठंडक नहीं मिलने पर इंधन लगातार गर्म होते चले जाते हैं और ये तबाही मचाने लगते हैं. यही फ़ुकुशिमा में हुआ. इसके संचालकों का कहना है कि रिक्टर पैमाने पर 9 की तीव्रता वाले भूकंप को यह रियेक्टर सहन नहीं कर पाया. बाद में आयी सुनामी ने खतरे को और बढ़ा दिया, जिससे यह भीषण दुर्घटना हुई. कारण चाहे जो भी रहे हों, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि परमाणु रियेक्टर कभी भी तबाही मचा सकते हैं.
कुडनकुलम में स्थानीय पंचायत, चर्च और धार्मिक संस्थाओं को मिलाकर बना संगठन इस खतरे को समझता है. वे संभवत: रूस निर्मित परमाणु संयंत्रों के बारे में भी काफ़ी कुछ जानते हैं. नार्वे के एक प्रमुख संगठन ने रूस के परमाणु सुरक्षा विशेषज्ञों से बातचीत के बाद एक स्पेशल रिपोर्ट जारी की है, जिसमें कहा गया है कि रूसी रियेक्टर आपदा प्रबंधन के लिए काफ़ी कम तैयार होते हैं. इस रिपोर्ट को तैयार करने में अनेक अन्य स्र्ोतों से सूचनाएं जुटायी गयी हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि रूसी रियेक्टरों में 31 गंभीर खामियां हैं. खासकर इनमें भूकंप के खतरों से बचने के पर्याप्त उपाय नहीं हैं. ये खुलासे सचेत करने वाले हैं. भारत के लिए ऐसे संयंत्र का निर्माण आत्मघाती कदम होगा. ये संयंत्र स्वास्थ्य और जानमाल के भीषण खतरों की कीमत पर बिजली मुहैया करायेंगे. जबकि अक्षय ऊर्जा के रूप में हमारे देश में परमाणु ऊर्जा के अत्यंत सुरक्षित और किफ़ायती विकल्प उपलब्ध हैं. भविष्य भी अक्षय ऊर्जा का ही है.
।। लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ।।
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