।। पुष्परंजन ।।
भारत में इस समय 29 विदेशी बैंक काम कर रहे हैं. इनमें से कई के विरुद्ध यूरोप-अमेरिका में बवाल मचा हुआ है. ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ के आंदोलनकारी यदि यहां भी सड़कों पर उतरे, तब क्या होगा?
कल तक कैरो के तहरीर चौक के फ़ेसबुकिया आंदोलन से आनंद उठाने वाले अमेरिकी-यूरोपीय नेता अब अपने घर में लगी आग से अक-बक हैं. कर्ज और बेरोजगारी से बेहाल यहां के शहरी गरीबों और मध्यवर्ग के लिए अब यह बर्दाश्त से बाहर है कि सरकारें दिवालिया बैंकों और कारपोरेट्स को ’बेल आउट पैकेज‘ दे-देकर उनके हितों की रक्षा कर रही हैं. इसी के खिलाफ़ इन लोगों ने न्यूयार्क के जूकोटी पार्क से गत 17 सितंबर को शुरू किया था ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ आंदोलन.
जूकोटी पार्क, जिसे कभी ’लिबर्टी पार्क‘ भी कहते थे, उसी सड़क पर है जहां वर्ल्ड ट्रेड सेंटर था. यह जगह अमेरिकी शेयर बाजार ’वॉल स्ट्रीट‘ से कोई चार किलोमीटर दूर निचले मैनहट्टन वाले इलाके में है. अब अमेरिका के 70 शहर इस आंदोलन की चपेट में हैं. आंदोलन का असर पूरे यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भी दिख रहा है. कई जगहों पर दंगे भी हुए हैं. एशिया के बिजनेस हब हांगकांग, ताइपे, टोक्यो में आंदोलनकारी सड़कों पर उतर चुके हैं, इसलिए भारत में ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ वाले नजारे देखने को तैयार रहिए.
कनाडा में बाजारवाद और उपभोक्तावाद के विरोध में ’एब्स्टर्स‘ नाम से एक पत्रिका निकलती है. इसकी एक लाख 20 हजार प्रतियां छपती हैं और इसमें कोई विज्ञापन नहीं होता. इसे प्रकाशित करने वाली संस्था ’एब्स्टर्स मीडिया फ़ाउंडेशन‘ ने इस साल जुलाई में सुझाव दिया था कि कॉरपोरेट और बैकों को संरक्षण देनेवाली सरकारों के खिलाफ़ हल्ला बोला जाना चाहिए. इसके लिए ’एब्स्टर्स मीडिया फ़ाउंडेशन‘ ने इमेल, ट्विटर, ब्लॉगिंग, फ़ेसबुक पर लाखों लोगों के विचार लिये, उन्हें संगठित किया और शुरू करा दिया आंदोलन. इस समय ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ पेज के कोई एक लाख 70 हजार फ़ैंस हैं. दुनिया के 1300 शहरों में ’राइटिंग शो इवेंट‘ चला कर 82 देशों की सरकारों की नींद हराम करने की इनकी योजना है.
अमेरिकी सत्ता को चला रहे डेमोक्रेट, जिनकी विचारधारा को हम अधिक उदार मानते हैं, में भी ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ को लेकर घबराहट है. कारण 2012 का आम चुनाव है. दूसरी ओर, कंजर्वेटिव कहे जानेवाले रिपब्लिकन नेता अमेरिकी पूंजीपतियों और बैंक चलाने वाले कॉरपोरेट्स को कहीं से नाराज नहीं करना चाहते. 2012 के चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति प्रत्याशी हर्मन कैन ने इसे ’एंटी कैपिटलिस्ट’ यानी पूंजीपतियों के विरुद्ध खड़ा किया गया आंदोलन कहा है. कैन कहते हैं, ’वॉल स्ट्रीट को क्यों कोसते हो. न ही बड़े बैंकों को दोष दो. यदि तुम अमीर नहीं हो और तुम्हारे पास काम-धंधा नहीं है, तो खुद को क्यों नहीं कोसते.‘ कैन के इस बयान से अमेरिकी राजनेताओं की संवेदनहीनता का अंदाजा आप स्वयं लगा सकते हैं. यह व्यक्ति यदि अमेरिका का राष्ट्रपति चुन लिया गया, तो दुनिया में गरीबी का क्या होगा?
अमेरिका समेत पूंजीवादी सरकारों के विरुद्ध जो ताकतें हैं, उनकी टिप्पणियां भी बहती गंगा में हाथ धोने के बराबर हैं. कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था में कई बार न्यूज एजेंसियों के माध्यम से सरकार का पक्ष रख दिया जाता है. इसी तर्ज पर चीन की सरकारी न्यूज एजेंसी ’शिन्ह्वा‘ की टिप्पणी थी, ’अमेरिका अब अपने घर को दुरुस्त करे, जो गलत राजनीतिक-आर्थिक नीतियों से खराब हुआ है.‘ उत्तर कोरिया ने न्यूज एजेंसी ‘डीपीआरके‘ के माध्यम से कमेंट किया कि यह शोषण और पूंजीपतियों के दमन के खिलाफ़ आंदोलन है.
रूस के पूर्व राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव इसे ’पेरस्त्रोइका‘ की वापसी और सुपर पावर का भरभरा कर गिरना मानते हैं. ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई कहते हैं कि भ्रष्ट बुनियाद को अमेरिकी जनता भुगत रही है. पोलैंड के पूर्व राष्ट्रपति लेख वालेसा ने आंदोलन को पूर्ण समर्थन दिया है. बेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो चाव़ेज ने वॉल स्ट्रीट आंदोलनकारियों को समर्थन देते हुए ’भीषण दमन‘ की भर्त्सना की है. दुनिया भर के मजदूर संगठनों के इसके समर्थन में उतर जाने से यही संदेश जा रहा है कि बैंकिंग व्यवस्था और कॉरपोरेट्स के विरुद्ध बड़े पैमाने पर लामबंदी हो रही है.
यूरोप भी इस बार बैंकों को बख्शने के मूड में नहीं दिख रहा है. यूरोपियन कमीशन के अध्यक्ष खोसे मानुअल बारेसो ने तो मांग कर दी है कि जो ’रफ़ बैंकर्स‘ हैं, जो बैंक नियमों को नहीं मानते, उन पर आपराधिक मामले चलने चाहिए. खोसे मानुअल बारेसो ’फ़ोस्र्ड कैपिटलाइजेशन‘ यानी ’बाध्यकारी पूंजीकरण‘ की नकेल फ़िर से बैंकों पर कसना चाहते हैं. इसका अर्थ यह होता है कि प्राइवेट बैंक सरकारी अनुदान लेंगे और उनके कामकाज में सरकारी दखल रहेगा. डॉयचे बैंक के प्रमुख जोसेफ़ आकरमान ने कहा कि ’फ़ोस्र्ड कैपिटलाइजेशन‘ को टालने की हर संभव कोशिश करूंगा. करेंसी और कर्ज संकट के लिए यूरोप के नेता जिम्मेदार हैं, हम नहीं.
ब्रिटिश विदेश मंत्री विलियम हेग मानते हैं कि बैंकिंग प्रणाली में बहत्तर छेद हैं. यूरोपियन सेंट्रल बैंक के भावी प्रमुख मारियो द्रागी ने स्वीकार किया कि युवाओं का आक्रोश बिल्कुल सही है. जर्मनी के हेम्बर्ग में ’एचएसएस नोर्डबांक‘ को पिछले हफ्ते प्रदर्शनकारियों ने घेर लिया था. फ्रेंकफ़र्ट में यूरोपियन सेंट्रल बैंक के आगे तो आंदोलकारियों ने टेंट गाड़ दिये. ऐसा नजारा यूरोप के कई बड़े शहरों में दिख रहा है. जर्मनी की मैर्केल सरकार में जूनियर गंठबंधन पार्टनर ’फ्री डेमोक्रेट‘ पूंजीपतियों की समर्थक पार्टी मानी जाती है. ’फ्री डेमोक्रेट‘ नेता राइने ब्रूडरले ने कहा कि सदियों पहले बैंक जैसे थे, आज भी उसी र्ढे पर हैं. यदि उन्होंने अपना ’होमवर्क‘ नहीं किया, तो उनके हाथ पकड़ने से हम हिचकेंगे नहीं.
भारत में इस समय 29 विदेशी बैंक काम कर रहे हैं. इनमें से कई ऐसे विदेशी बैंक और कॉरपोरेट हाउसेज हैं, जिनकी बेईमान नीतियों के विरुद्ध यूरोप-अमेरिका में बवाल मचा हुआ है. सवाल यह है कि ’ऑक्यूपाइ वॉल स्ट्रीट‘ के आंदोलनकारी यदि यहां भी सड़कों पर उतरे, तब क्या तसवीर होगी?
।। ईयू-ऐशया न्यूज के नयी दिल्ली स्थित संपादक हैं ।।
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