शनिवार, 26 मार्च 2011

आपबीती दास्तान दो¹े

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
हमारे शायरों को हमेशा यह शिकायत रही है कि ज़माने ने उनकी क़द्र नहीं की। ... हमें इससे उलट शिकायत यह है कि हम पे लुत्फ़ो-इनायात की इस क़दर बारिश रही है; अपने दोस्तों की तरफ़ से, अपने मिलनेवालों की तरफ़ से और उनकी जानिब से भी जिनको हम जानते भी नहीं कि अक्सर दिल में हिचक महसूस होती है कि इतनी तारीफ़ और वाहवाही पाने का हक़दार होने के लिए जो थोड़ा-बहुत काम हमने किया है, उससे बहुत ज़ियादा हमें करना चाहिए था।
यह कोई आज की बात नहीं है। बचपन ही से इस क़िस्म का असर औरों पर रहा है। जब हम बहुत छोटे थे, स्कूल में पढ़ते थे, तो स्कूल के लड़कों के साथ भी कुछ इसी क़िस्म के तअल्लुक़ात क़ायम हो गये थे। ख़ाहमख़ाह  उन्होंने हमें अपना लीडर मान लिया था, हालांकि लीडरी के गुन हमें नहीं थे। या तो आदमी बहुत लट्ठबाज़ हो कि दूसरे उनका रौब मानें, या वह सबसे बड़ा विद्वान हो। हम पढ़ने-लिखने में ठीक थे, खेल भी लेते थे, लेकिन पढ़ाई में हमने कोई ऐसा कमाल पैदा नहीं किया था कि लोग हमारी तरफ़ ज़रूर ध्यान दें। बचपन का मैं सोचता हूं तो एक यह बात ख़ास तौर से याद आती है कि हमारे घर में औरतों का एक हुजूम था। हम जो तीन भाई थे उनमें हमारे छोटे भाई (इनायत) और बड़े भाई (तुफ़ैल) घर की औरतों से बाग़ी होकर खेलकूद में जुट रहते थे। हम अकेले उन ख़वातीन के हाथ आ गये। इसका कुछ नुक़सान भी हुआ और कुछ फ़ायदा भी। फ़ायदा तो यह हुआ कि उन महिलाओं ने हमको इंतिहाई शरीफ़ाना ज़िंदगी बसर करने पर मजबूर किया; जिसकी वजह से कोई असभ्य या उजड्ड क़िस्म की बात उस ज़माने में हमारे मुंह से नहीं निकलती थी। अब भी नहीं निकलती। नुक़सान यह हुआ, जिसका मुझे अक्सर अफ़सोस होता है, कि बचपन के खिलंदड़ेपन या एक तरह की मौजी ज़िंदगी गुज़ारने से हम कटे रहे। मसलन यह कि गली में कोई पतंग उड़ा रहा है, कोई गोलियां खेल रहा है, कोई लट्टू चला रहा है; हम सब खेलकूद देखते रहे थे, अकेले बैठकर। ‘होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे’ वाला मामला। हम उन तमाशों के सिर्फ़ तमाशाई बने रहते, और उनमें शरीक होने की हिम्मत इसलिए नहीं होती थी कि उसे शरीफ़ाना शग़ूल या शरीफ़ाना काम नहीं समझते थे।
उस्ताद भी हम पर मेहरबान रहे। आजकल की मैं नहीं जानता, हमारे ज़माने में तो स्कूल में सख़्त ¹ फ़ैज़ के काव्य-संग्रह ‘शामे-शहरे यारां’ का आरंभिक गद्य-भाग। संपादक पिटाई होती थी। हमारे वक़्तों के उस्ताद तो निहायत ही जल्लाद क़िस्म के लोग थे। सिर्फ़ यही नहीं कि उनमें से किसी ने हमको हाथ नहीं लगाया बल्कि हर क्लास में मॉनिटर बनाते थे: बल्कि (साथी लड़कों को) सज़ा देने का मंसब भी हमारे हवाले करते थे, यानी-फ़लां को चांटा लगाओ, फ़लां को थप्पड़ मारो।
इस काम से हमें बहुत-कोफ़्त होती थी, और हम कोशिश करते थे कि जिस क़दर भी मुमकिन हो यों सज़ा दें कि हमारे शिकार को वह सज़ा महसूस न हो। तमाचे की बजाय गाल थपथपा दिया, या कान आहिस्ता से खींचा, वगै़रह। कभी हम पकड़े जाते तो उस्ताद कहते ‘यह क्या कर रहे हो! ज़ोर से चांटा मारो!’ इसके दो प्रभाव बहुत गहरे पड़े। एक तो यह कि बच्चों की जो दिलचस्पियां होती हैं उनसे वंचित रहे। दूसरे यह कि अपने दोस्तों,  क्लासवालों और उस्तादों से हमें बेहद स्नेह आशीष, खुलापन और अपनाव मिला; जो बाद के ज़माने के दोस्तों और समकालीनों से मिला, और आज भी मिल रहा है। सुबह हम अपने अब्बा के साथ फ़ज्र की नमाज़ पढ़ने मस्जिद जाया करते थे। मामूल (नियम) यह था कि अज़ान के साथ हम उठ बैठे, अब्बा के साथ मस्जिद गये, नमाज़ अदा की; और घंटा-डेढ़ घंटा मौलवी इब्राहीम मीर सियालकोटी से, जो अपने वक़्त के बड़े फ़ाजिल (विद्वान) थे, क़ुरान-शरीफ़ का पाठ पढ़ा-समझा; अब्बा के साथ डेढ़-दो घंटों की सैर के लिये गये; फिर स्कूल। रात को अब्बा बुला लिया करते, ख़त लिखने के लिए। उस ज़माने में उन्हें ख़त लिखने में कुछ दिक़्क़त होती थी। हम उनके सेक्रेटरी का काम अंजाम देते थे। उन्हें अख़बार भी पढ़कर सुनाते थे। इन कई कामों में लगे रहने की वजह से हमें बचपन में बहुत फ़ायदा हुआ। उर्दू-अंग्रेज़ी अख़बारात पढ़ने और ख़त लिखने की वजह से हमारी
जानकारी काफ़ी बढ़ी।
एक और याद ताज़ा हुई। हमारे घर से मिली हुई एक दुकान थी, जहां किताबें किराये पर मिलती
थीं। एक किताब का किराया दो पैसे होता। वहां एक साहब हुआ करते थे जिन्हें सब ‘भाई साहब’ कहते
थे। भाई साहब की दुकान में उर्दू साहित्य का बहुत बड़ा भंडार था। हमारी छठी-सातवीें जमात के
विद्यार्थी-युग में जिन किताबों का रिवाज था, वह आजकल क़रीब-क़रीब नापैद हो चुकी हैं,
जैसे तिलिस्मे-होशरुबा, फ़सानए-आज़ाद, अब्दुल हलीम शरर के नॉवेल, वग़ैरह। ये सब किताबें पढ़ डालीं इसके बाद शायरों का कलाम पढ़ना शुरू किया। दाग़ का कलाम पढ़ा। मीर का कलाम पढ़ा। ग़ालिब तो उस वक़्त बहुत ज़ियादा हमारी समझ में नहीं आया। दूसरों का कलाम भी आधा समझ में आता था, और आधा नहीं आता था। लेकिन उनका दिल पर असर कुछ अजब क़िस्म का होता था। यों, शेर से लगाव पैदा हुआ, और साहित्य में दिलचस्पी होने लगी। हमारे अब्बा के मुंशी घर के एक तरह के मैनेजर भी थे। हमारा उनसे किसी बात पर मतभेद हो गया तो उन्होंने कहा ‘अच्छा, आज हम तुम्हारी शिकायत करेंगे कि तुम नॉवेल पढ़ते हो; स्कूल की
किताबें पढ़ने की बजाय छुपकर अंट-शंट किताबें पढ़ते हो।’ हमें इस बात से बहुत डर लगा, और हमने उनकी बहुत मिन्नत की कि शिकायत न करें; मगर वह न माने और अब्बा से शिकायत कर ही दी। अब्बा ने हमें बुलाया और कहा ‘मैंने सुना है, तुम नॉवेल पढ़ते हो।’ मैंने कहा ‘जी हां।’ कहने लगे ‘नॉवेल ही पढ़ना है तो अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ो, उर्दू के नॉवेल अच्छे नहीं होते। शहर के क़िले में जो लायब्रेरी है, वहां से नॉवेल लाकर पढ़ा करो।’
हमने अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ना शुरू किये। डिकेंस, हार्डी, और न जाने क्या-क्या पढ़ डाला। वह भी आधा  समझ में आता था और आधा पल्ले न पड़ता था। मगर इस पढ़ने की वजह से हमारी अंग्रेज़ी बेहतर हो गयी। दसवीं जमात में पहुंचने तक महसूस हुआ कि बाज़ उस्ताद पढ़ाने में ग़लतियां कर जाते हैं। हम उनकी अंग्रेज़ी दुरुस्त करने लगे। इस पर हमारी पिटाई तो न हुई; अलबत्ता वो उस्ताद कभी ख़फ़ा हो जाते और कहते ‘अगर तुम्हें हमसे अच्छी अंग्रेज़ी आती है तो फिर तुम ही पढ़ाया करो, हमसे क्यों पढ़ते हो!’
उस ज़माने में कभी-कभी मुझ पर एक ख़ास क़िस्म का भाव छा जाता था। जैसे, यकायक आस्मान का रंग बदल गया है बाज़ चीज़ें़ कहीं दूर चली गयी हैं.... धूप का रंग अचानक मेंहदी का-सा हो गया है... पहले जो देखने में आता था, उसकी सूरत बिल्कुल बदल गयी है। दुनिया एक तरह की पर्दए-तस्वीर के क़िस्म की चीज़ महसूस होने लगती थी। इस कैफ़ीयत (भावना) का बाद में भी कभी-कभी एहसास हुआ है, मगर अब नहीं होता। मुशायरे भी हुआ करते थे। हमारे घर से मिली हुई एक हवेली थी जहां सर्दियों के ज़माने में मुशायरे किये जाते थे। सियालकोट में पंडित राजनारायन ‘अरमान’ हुआ करते थे, जो इन मुशायरों के इंतिज़ामात किया करते थे। एक बुज़्ाुर्ग मुंशी सिराजदीन मरहूम थे अल्लामा इक़बाल के दोस्त, श्रीनगर में महाराजा कश्मीर के मीर मुंशी, वह सदारत किया करते थे। जब दसवीं जमात में पहुंचे तो हमने भी तुकबंदी शुरू कर दी, और एक-दो मुशायरों में शेर पढ़ दिये। मुंशी सिराजदीन ने हमसे कहा ‘मियां, ठीक है, तुम बहुत तलाश से (परिश्रम से) शेर कहते हो, मगर यह काम छोड़ दो। अभी तो तुम पढ़ो-लिखो, और जब तुम्हारे दिलो-दिमाग़ में पुख़्तगी आ जाये तब यह काम करना। इस वक़्त यह महज़ वक़्त की बर्बादी है।’ हमने शेर कहना बंद कर दिया। अब हम मरे कालेज सियालकोट में दाखि़ल हुए, और वहां प्रोफ़ेसर यूसुफ़ सलीम चिश्ती उर्दू पढ़ाने आये, जो इक़बाल के मुफ़स्सिर (भाष्यकार) भी हैं। तो उन्होंने मुशायरे की तरह डाली। और कहा ‘तरह’ पर1 शेर कहो! हमने कुछ शेर कहे, और हमें बहुत दाद मिली। चिश्ती साहब ने मुंशी सिराजदीन से बिल्कुल उलटा मशविरा दिया और कहा फ़ौरन इस तरफ़ तवज्जुह करो, शायद तुम किसी दिन शायर हो जाओ! गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर चले गये। जहां बहुत ही फ़ाज़िल और मुश्फ़िक़ (विद्वान और स्नेही) उस्तादों से नियाज़मंदी हुई। पतरस बुख़ारी थे; इस्लामिया कालेज में डॉक्टर तासीर थे; बाद में सूफ़ी तबस्सुम साहब आ गये। इनके अलावा शहर के जो बड़े साहित्यकार थे इम्तियाज़ अली ताज थे; चिराग़हसन हसरत, हफ़ीज़ जालंधरी साहब थे; अख़्तर शीरानी थे उन सबसे निजी राह-रस्म हो गयी। उन दिनों पढ़ानेवालों और लिखनेवालों का रिश्ता अदब (साहित्य) के साथ-साथ कुछ दोस्ती का-सा भी होता था। कॉलेज की क्लासों में तो शायद हमने कुछ ज़ियादा नहीं पढ़ा; लेकिन उन बुज़्ाुगों की सुह्बत और मुहब्बत से बहुत-कुछ सीखा। उनकी महफ़िलों में हम पर शफ़क़त2 होती थी, और हम वहां से बहुत-कुछ हासिल करके उठते थे। हमने अपने दोस्तों से भी बहुत सीखा। जब शेर कहते तो सबसे पहले ख़ास दोस्तों ही को सुनाते 1. दिये हुए सांचे पर 2. स्नेहयुक्त आशीष की भावना थे। उनसे दाद मिलती तो मुशायरों में पढ़ते। अगर कोई शेर ख़ुद पसंद न आया, या दोस्तों ने कहा, निकाल दो, तो उसे काट देते। एम.ए. में पहुंचने तक बाक़ायदा लिखना शुरू कर दिया था।
हमारे एक दोस्त हैं ख़्वाजा ख़ुर्शीद अनवर। उनकी वजह से हमें संगीत में दिलचस्पी पैदा हुई। ख़ुर्शीद अनवर पहले तो दहशतपसंद (क्रांतिकारी) थे, भगतसिंह गु्रप में शामिल। उन्हें सज़ा भी हुई, जो बाद में माफ़ कर दी गयी। दहशतपसंदी तर्क करके वह संगीत की तरफ़ आ गये। हम दिन में कॉलेज जाते और शाम को ख़ुर्शीद अनवर के वालिद ख़्वाजा फ़ीरोज़्ाुद्दीन मरहूम की बैठक में बड़े-बड़े उस्तादों का गाना सुनते। यहां उस ज़माने के सब ही उस्ताद आया करते थे; उस्ताद तवक्कुल हुसैन ख़ां, उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ां, उस्ताद आशिक़ अली ख़ां, और छोटे गु़लाम अली ख़ां, वग़ैरह। इन उस्तादों के साथ के और हमारे दोस्त रफ़ीक़ ग़ज़नवी मरहूम से भी सुह्बत होती थी। रफ़ीक़ ला-कॉलेज में पढ़ते थे। पढ़ते तो ख़ाक थे, बस रस्मी तौर पर कॉलेज में दाखि़ला ले रक्खा था। कभी ख़ुशींद अनवर के कमरे में और कभी रफ़ीक़ के कमरे में बैठक हो जाती थी। ग़रज़ इस तरह हमें इस फ़न्ने-तलीफ़ (ललित-कला) से आनंद का काफ़ी मौक़ा मिला।
जब हमारे वालिद गुज़र गये तो पता चला कि घर में खाने तक को कुछ नहीं है। कई साल तक दर-ब-दर फिरे और फ़ाक़ामस्ती की। इसमें भी लुत्फ़ आया, इसलिए कि इसकी वजह से ‘तमाशाए-अहले-करम’3 देखने का बहुत मौक़ा मिला, ख़ास तौर से अपने दोस्तों से। कॉलेज में एक छोटा-सा हल्क़ा (मंडली) बन गया था। कोयटा के हमारे दोस्त थे, एहतिशामुद्दीन और शेख़ अहमद हुसैन, डॉ. हमीदुद्दीन भी इस हल्क़े में शामिल थे। इनके साथ शाम को महफ़िल रहा करती। जवानी के दिनों में जो दूसरे वाक़िआत होते हैं वह भी हुए, और हर किसी के साथ होते हैं।
गर्मियों में कॉलेज बंद होते, तो हम कभी ख़ुर्शीद अनवर और भाई तुफ़ैल के साथ श्रीनगर चले जाया करते, और कभी अपनी बहन के पास लायलपुर पहुंच जाते। लायलपुर में बारी अलीग और उनके गिरोह के दूसरे लोगों से मुलाक़ात रहती। कभी अपनी सबसे बड़ी बहन के यहां धरमशाला चले जाते, जहां पहाड़ की सीनरी देखने का मौक़ा मिलता, और दिल पर एक ख़ास क़िस्म का नक़्श (गहरा प्रभाव) होता। हमें इनसानों से जितना लगाव रहा, उतना कु़दरत के मनाज़िर (सीन-सीनरी) और नेचर के हुस्न को देखने-परखने का नहीं रहा। फिर भी उन दिनों मैंने महसूस किया कि शहर के जो गली-मुहल्ले हैं, उनमें भी अपना एक हुस्न है जो दरिया और सहरा, कोहसार या सर्व-ओ-समन से कम नहीं। अलबत्ता उसको देखने के लिए बिल्कुल दूसरी तरह की नज़र चाहिए।
मुझे याद है, हम मस्ती दरवाज़े के अंदर रहते थे। हमारा घर ऊंची सतह पर था। नीचे नाला बहता था। छोटा-सा एक चमन भी था। चार-तरफ़ बाग़ात थे। एक रात चांद निकला हुआ था। चांदनी नाले और इर्द-गिर्द के कूड़े-करकट के ढेर पर पड़ रही थी। चांदनी और साये, ये सब मिलकर कुछ अजब भेद-भरा-सा मंज़र बन गये थे। चांद की इनायत से उस सीन पर भद्दा पहलू छुप गया था और कुछ अजीब ही क़िस्म का हुस्न पैदा हो गया था; जिसे मैंने लिखने की कोशिश भी की है। एकाध नज़्म में यह मंज़र खेंचा है जब शहर की गलियों, मुहल्लों और कटरों में कभी दोपहर के वक़्त कुछ इसी क़िस्म 3. पैसेवालों की कृपा का नाटक
(ग़ालिब का शेर है: बनाकर फ़क़ीरों का हम भेस गा़लिब/तमाशाए-अहले-करम देखते हैं)
का रूप आ जाता है जैसे मालूम हो कोई परिस्तान है। ‘नीम-शब’, ‘चांद’, ‘ख़ुदफ़रामोशी’, ‘बाम्-ओ-दर ख़ामुशी के बोझ से चूर’, वगै़रह उसी ज़माने से संबंध रखती हैं। एम.ए. में पहुंचे तो कभी क्लास में जाने की ज़रूरत महसूस हुई, कभी बिल्कुल जी न चाहा। दूसरी किताबें जो कोर्स में नहीं थीं, पढ़ते रहे। इसलिए इम्तिहान में कोई ख़ास पोज़ीशन हासिल नहीं की। लेकिन मुझे मालूम था कि जो लोग अव्वल-दोअम आते हैं, हम उनसे ज़ियादा जानते हैं, चाहे हमारे नंबर उनसे कम ही क्यों न हों। यह बात हमारे उस्ताद लोग भी जानते थे। जब किसी उस्ताद का, जैसे प्रोफ़ेसर डिकिन्सन या प्रोफ्ऱेसर कटपालिया थे, लेक्चर देने को जी न चाहता तो हमसे कहते हमारी बजाय तुम लेक्चर दो; एक ही बात है! अलबत्ता प्रोफ़ेसर बुख़ारी बड़े क़ायदे के प्रोफ़ेसर थे। वह ऐसा नहीं करते थे। प्रोफ़ेसर डिकिन्सन के ज़िम्मे उन्नीसवीं सदी का नस्री अदब (गद्य साहित्य) था; मगर उन्हें उससे
दरअस्ल कोई दिलचस्पी नहीं थी। इसलिए हमसे कहा दो-तीन लेक्चर तैयार कर लो! दूसरे जो दो-तीन लायक़ लड़के हमारे साथ थे, उनसे भी कहा दो-दो तीन-तीन लेक्चर तुम लोग भी तैयार कर दो! किताबों वग़ैरह के बारे में कुछ पूछना हो तो आके हमसे पूछ लेना। चुनांचे, नीमउस्ताद4 हम उसी ज़माने में हो गये थे।
शुरू-शुरू में शायरी के दौरान में, या कॉलेज के ज़माने में हमें कोई ख़याल ही न गुज़रा कि हम शायर बनेंगे। सियासत वग़ैरह तो उस वक़्त जे़ह्न में बिल्कुल ही न थी। अगरचे उस वक़्त की तहरीकों (आंदोलनों) मसल्न कांग्रेस तहरीक, खि़लाफ़त तहरीक, या भगतसिंह की दहशतपसंद तहरीक के असर तो जे़ह्न में थे, मगर हम ख़ुद इनमें से किसी क़िस्से में शरीक नहीं थे। शुरू में ख़याल हुआ कि हम कोई बड़े क्रिकेटर बन जायें, क्योंकि लड़कपन से क्रिकेट का शौक़ था और बहुत खेल चुके थे। फिर जी चाहा, उस्ताद बनना चाहिए; रिसर्च करने का शौक़ था। इनमें से कोई बात भी न बनी। हम क्रिकेटर बने न आलोचक; और न रिसर्च किया, अलबत्ता उस्ताद (प्राध्यापक) होकर अमृतसर चले गये।
हमारी ज़िंदगी का शाद सबसे ख़ुशगवार ज़माना अमृतसर ही का था; और कई एतिबार से। एक तो कई इस वजह से, कि जब हमें पहली दफ़ा पढ़ाने का मौक़ा मिला तो बहुत लुत्फ़ आया। अपने विद्यार्थियों से दोस्ती का लुत्फ़; उनसे मिलने और रोज़मर्रा की रस्मो-राह का लुत्फ़; उनसे कुछ सीखने, और उन्हें पढ़ाने का लुत्फ़। उन लोगों से दोस्ती अब तक क़ायम है। दूसरे यह कि, उस ज़माने में कुछ संज़ीदगी से शेर लिखना शुरू किया। तीसरे यह कि, अमृतसर ही में पहली बार सियासत में थोड़ी-बहुत सूझ-बूझ अपने कुछ साथियों की वजह से पैदा हुई; जिनमें महमूदुज़्ज़फ़र थे, डॉक्टर रशीद जहां थीं, बाद में डॉक्टर तासीर आ गये थे। यह एक नयी दुनिया साबित हुई। मज़दूरों में काम शुरू किया। सिविल लिबर्टीज़5 की एक अंजुमन (संस्था) बनी, तो उसमें काम किया, तरक़्क़ीपसंद तहरीक शुरू हुई तो उसके संगठन में काम किया। इन सबसे जे़ह्नी तस्कीन (मानसिक-बौद्धिक संतोष) का एक बिल्कुल नया मैदान हाथ आया।
तरक़्क़ीपसंद अदब के बारे में बहसें शुरू हुई, और उनमें हिस्सा लिया। ‘अदबे-लतीफ़’ के संपादन 4. आधे (अधकचरे) अध्यापक (नीमहक़ीम के वज़न पर)  5. जनता के मौलिक अधिकारों की स्वतंत्राता की पेशकश हुई तो दो-तीन बरस उसका काम किया। उस ज़माने में लिखनेवालों के दो बड़े गिरोह थे; एक अदब-बराय-अदब (‘साहित्य साहित्य के लिए’) वाले, दूसरे तरक़्क़ी-पसंद थे। कई बरस तक इन दोनों के दरमियान बहसें चलती रहीं; जिसकी वजह से काफ़ी मसरूफ़ियत रही जो, अपनी जगह ख़ुद एक बहुत ही दिलचस्प और तस्कीनदेह तजुर्बा था। पहली बार उपमहाद्वीप में रेडियो शुरू हुआ। रेडियो में हमारे दोस्त थे। एक सैयद रशीद अहमद थे, जो रेडियो पाकिस्तान के डायरेक्टर जनरल (महाधीक्षक) हुए। दूसरे, सोमनाथ चिब थे, जो  आजकल6 हिंदुस्तान में पर्यटन विभाग के अध्यक्ष हैं। दोनों बारी-बारी से लाहौर के स्टेशन डायरेक्टर मुक़र्रर हुए। हम और हमारे साथ शहर के दो-चार और अदीब (साहित्यकार) डॉक्टर तासीर, हसरत, सूफ़ी साहब और हरिचंद ‘अख़्तर’ वगै़रह रेडियो आने-जाने लगे। उस ज़माने में रेडियो का प्रोग्राम डायरेक्टर ऑफ़ प्रोग्राम्ज़ नहीं बनाता था, हम लोग मिलकर बनाया करते थे। नयी-नयी बातें सोचते थे और उनसे प्रोग्राम का ख़ाका तैयार करते थे। उन दिनों हमने ड्रामे लिखे, फ़ीचर लिखे, दो-चार कहानियां लिखीं। यह सब एक बंधा हुआ काम था। रशीद जब दिल्ली चले गये, तो हम देहली जाने लगे। वहां नये-नये लोगों से मुलाक़ात हुईं। देहली और लखनऊ के लिखनेवाले गिरोहों से जान-पहचान हुई। मजाज़, सरदार जाफ़री, जॉनिसार अख़्तर, जज़्बी और मख़दूम मरहूम से रेडियो के वास्ते से राबिता (संपर्क) पैदा हुआ; जिससे दोस्ती के अलावा समझ और सूझ-बूझ में तरह-तरह के इज़ाफ़े हुए। वह सारा ज़माना मसरूफ़ियत (व्यस्तता) का भी था, और एक तरह से बेफ़िक्री का भी।
प्रस््रस्तुति: मिर्जा ज़फ़रुल हसन
उर्र्दूू से अनुवाद: शमशेर बहादुर सिंहं
 (     जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नयापथ के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ विशषांक से साभार)

आपबीती दास्तान- एक

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने 7 मार्च 1984 ई. को अपनी मृत्यु से आठ महीने पहले एशियन स्टडी ग्रुप के निमंत्राण पर
इस्लामाबाद के एक सम्मेलन में बेबाक अंदाज़ में अपनी ज़िंदगी के लंबे सफ़र को जिस तरह बयान किया था, उसे पाठकों के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है; ज़िंदगी के इस सफ़र को ‘पाकिस्तान टाइम्स’ ने दो किस्तों में फ़ैज़ की सालगिरह के अवसर पर 13, 14 जनवरी 1990 के संस्करण में पहली बार प्रकाशित किया था। फ़ैज़ की इस आपबीती को साभार पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है।
मेरा जन्म उन्नीसवीं सदी के एक ऐसे फक्कड़ व्यक्ति के घर में हुआ था जिसकी ज़िंदगी मुझसे कहीं ज़्यादा रंगीन अंदाज़ में गुज़री। मेरे पिता सियालकोट के एक छोटे से गांव में एक भूमिहीन किसान के घर पैदा हुए, यह बात मेरे पिता ने बतायी थी और इसकी तस्दीक गांव के दूसरे लोगों द्वारा भी हुई थी।
मेरे दादा के पास चूंकि कोई ज़मीन नहीं थी इसलिए मेरे पिता गांव के उन किसानों के पशुओं को चराने का काम करते थे जिनकी अपनी ज़मीन थी। मेरे पिता कहा करते थे कि पशुओं को चराने गांव के बाहर ले जाते थे जहां एक स्कूल था। वह पशुओं को चरने के लिए छोड़ देते और स्कूल में जाकर शिक्षा प्राप्त करते, इस तरह उन्होंने प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूरी की। चूंकि गांव में इससे आगे की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी, वह गांव से भाग कर लाहौर पहुंच गये। उन्होंने लाहौर की एक मस्जिद में शरण ली।
मेरे पिता कहते थे कि वह शाम को रेलवे स्टेशन चले जाया करते थे और वहां कुली के रूप में काम करते थे। उस ज़माने में ग़रीब और अक्षम छात्रा मस्जिदों में रहते थे और मस्जिद के इमाम से या आस-पास के मदरसों में निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। इलाक़े के लोग उन छात्रों को भोजन उपलब्ध कराते थे। जब मेरे पिता मस्जिद में रहा करते थे तो उस ज़माने में एक अफ़गानी नागरिक जो पंजाब सरकार का मेयर था, मस्जिद में नमाज़ पढ़ने आया करता था। उसने मेरे पिता से पूछा कि क्या वह अफ़ग़ानिस्तान में अंग्रेज़ी अनुवादक के तौर पर काम करना पसंद करेंगे, तो मेरे पिता ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए अफ़ग़ानिस्तान जाने का इरादा कर लिया। यह वह समय था जब अफ़ग़ानिस्तान के राजमहल में आये दिन परिवर्तन होता रहता था। अफ़ग़ानिस्तान और इंग्लैंड के बीच डूरंड संधि की आवश्यकता का अनुभव भी उसी समय में हुआ और इसीलिए अफ़ग़ानिस्तान के राजा ने मेरे पिता को अंग्रेज़ों के साथ बात-चीत करने में सहायता करने के उद्देश्य से दरबार से अनुबंधित कर लिया। इसके बाद वह मुख्य सचिव और फिर मंत्राी भी नियुक्त हुए। उनके ज़माने में विभिन्न क़बीलों का दमन किया गया जिसके परिणामस्वरूप हारने वाले क़बाइल (क़बीला का बहुवचन) की ख़ास औरतों को राजमहल के कारिंदों में वितरित कर दिया जाता था। ये औरतें मेरे पिता के हिस्से में भी आयीं, नहीं मालूम उनकी संख्या तीन थी या चार।
बहरहाल अफ़ग़ानिस्तान के राजमहल में पंद्रह साल सेवा देने के बाद वह तंग आ गये और उनका ऊब जाना स्वाभाविक भी था क्योंकि राजा के अफ़ग़ानी मूल के कर्मचारियों को एक विदेशी का दरबार में प्रभावी होना खटकता था। मेरे पिता को प्रायः ब्रितानी एजेंट घोषित किया जाता और जब उस अपराध के फलस्वरूप उन्हें मृत्युदंड दिये जाने की घोषणा होती तो नियत समय पर यह सिद्ध हो जाता के वह निर्दोष हैं और उन्हें आगे पदोन्नति दे दी जाती। लेकिन एक दिन उन्होंने फ़कीर का भेस बदला और अफ़गानिस्तान के राजमहल से फ़रार हो गये और लाहौर वापस आ गये लेकिन यहां वापस आते ही उन्हें अफ़ग़ानी जासूस होने के आरोप में पकड़ लिया गया। मेरे पिता की तरह फक्कड़ाना स्वभाव रखने वाली एक अंग्रेज़ महिला भी उस ज़माने में डाक्टर के रूप में दरबार से जुड़ी थी। उसका नाम हैमिल्टन था। उससे मेरे पिता की मित्राता हो गयी थी। अफ़ग़ानिस्तान के राजा से उसे जो भी पुरस्कार मिला था उसे उसने लंदन में सुरक्षित कर रखा था। इस प्रकार जब मेरे पिता अफ़ग़ानिस्तान से निकल भागे तो उसने उन्हें लिखा ‘तुम लंदन आ जाओ’। इस आमंत्राण पर मेरे पिता लंदन पहुंच गये और जब ब्रिटेन की सरकार को उनके लंदन आगमन की सूचना मिली तो मेरे पिता को यह संदेश मिला कि चूंकि अब तुम लंदन में हो तो मेरे दूत क्यों नहीं बन जाते? मेरे पिता ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। और साथ ही उन्होंने कैंब्रिज में अपनी आगे की शिक्षा का क्रम भी जारी रखा। वहीं उन्होंने क़ानून की डिग्री भी प्राप्त की। मेरे पिता का नाम सुल्तान था इसलिए मैं फ़ारसी का यह मुहावरा तो अपने लिए दुहरा ही सकता हूं कि ‘पिदरम सुल्तान बूद’ (मेरे पिता राजा थे)।
क़ानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद मेरे पिता सियालकोट लौट आये। मेरी आरंभिक शिक्षा मुहल्ले की एक मस्जिद में हुई। शहर में दो स्कूल थे एक स्कॉच मिशन की और दूसरा अमरीकी मिशन की निगरानी में चलता था। मैंने स्कॉच मिशन के स्कूल में प्रवेश ले लिया। यह हमारे घर से नज़दीक था। यह ज़माना ज़बरदस्त राजनीतिक उथल-पुथल का था। प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था और भारत में कई राष्ट्रीय आंदोलन आकर्षण का केंद्र बन रहे थे। कांग्रेस के आंदोलन में हिंदू और मुसलमान दोनों ही क़ौमें हिस्सा ले रही थीं लेकिन इस आंदोलन में हिंदुओं की बहुलता थी। दूसरी ओर मुसलमानों की तरफ़ से चलाया जाने वाला खि़लाफ़त आंदोलन था। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर परिदृश्य यह था कि तुर्क क़ौम ब्रितानी और यूनानी आक्रांताओं
के विरुद्ध पंक्तिबद्ध थी परंतु उस्मान वंशीय खि़लाफ़त को बचाया नहीं जा सका और तुर्की अंततः कमाल
अतातुर्क के क्रांतिकारी विचारों के प्रभाव में आ गया जिन्हें आधुनिक तुर्की का निर्माता कहा जाता है।
एक तीसरा आंदोलन सिक्खों का अकाली आंदोलन था जो सिक्खों के सभी गुरुद्वारों को अपने अधीन
लेने के लिए आंदोलनरत था। इस प्रकार लगभग छः सात साल तक हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख तीनों
ही अंग्रेज़ के विरुद्ध एक साझे एजेंडे के तहत आंदोलन चलाते रहे।
हमारे छोटे से शहर सियालकोट में जब भी महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू और सिक्खों के नेता आते
थे तो पूरा शहर सजाया जाता, बड़े-बड़े स्वागत द्वार फूलों से बनाये जाते थे और पूरा शहर उन नेताओं
के स्वागत में उमड़ पड़ता था। राजनीतिक गहमागहमी का यह दौर हमारे मन पर अपने प्रभाव छोड़ने
का कारण बना।
इसी दौरान रूस में अक्टूबर क्रांति घटित हो चुकी थी और उसका समाचार सियालकोट तक भी पहुंच रहा था। मैंने लोगों को कहते हुए सुना कि रूस में लेनिन नाम के एक व्यक्ति ने वहां के बादशाह का तख़्ता उलट दिया है और सारी संपत्ति श्रमजीवियों में बांट दी है। स्कूल की पढ़ाई का यही वह ज़माना था जब शायरी में मेरी रुचि उत्पन्न हुई। इसके पीछे दो कारण थे। हमारे घर के पास एक नौजवान किताबें किराये पर पढ़ने के लिए दिया करता था। मैंने उससे किराये पर किताबें लेनी शुरू कर दीं और धीरे-धीरे मैंने उसकी ऐसी सभी किताबें पढ़ डालीं जो क्लासिक साहित्य से संबंधित थीं। मेरा सारा जेब ख़र्च भी किताबें किराये पर लेने में खर्च हो जाता था। उस ज़माने में सियालकोट का एक प्रसिद्ध साहित्यिक व्यक्तित्व अल्लामा इक़बाल का था जिनकी नज़्मों को बड़े शौक से सभाओं में गाया और पढ़ा जाता था। वहां एक प्राथमिक विद्यालय भी था जिसमें मैं पढ़ता था। वहां
मुशायरे भी होते थे, यह मेरे स्कूल की शिक्षा के अंतिम दिन थे। हमारे हेडमास्टर ने हमसे एक दिन कहा
कि मैं तुम्हें एक मिसरा देता हूं, तुम इस पर आधारित पांच छः शेर लिखो, हम तुम्हारे कलाम (ग़ज़ल)
को शायर इक़बाल के उस्ताद के पास भेजेंगे और वह जिस कलाम को पुरस्कार का अधिकारी घोषित
करेंगे उसे ही पुरस्कार मिलेगा। इस तरह मैंने शायरी के उस पहले मुक़ाबले में पुरस्कार के रूप में एक
रुपया प्राप्त किया था, जो उस ज़माने में बहुत समझा जाता था। सियालकोट में दो साल गुज़ारने के
बाद मैंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में प्रवेश ले लिया। सियालकोट से लाहौर आना रोमांच से भरपूर
था। यूं लगा जैसे कोई गांव छोड़ के किसी अजनबी शहर में आ गया हो। उसकी वजह यह भी थी कि
उस ज़माने में सियालकोट में न बिजली थी और न पानी के नल थे। भिश्ती पानी भरते थे या फिर कुंओं
से पानी भरा जाता था। कुछ बड़े घरों में पीने के पानी के कुंए उपलब्ध थे। हम सब ही उस ज़माने में
मिट्टी के तेल से जलने वाली लालटेनों की रौशनी में पढ़ते थे। यह लालटेन बड़ी ख़ूबसरूत हुआ करती
थी। सियालकोट में मोटर कभी नहीं देखी। वहां के सभी अधिकारी बग्घियों में आते जाते थे। मेरे पिता
के पास दो घोड़ों वाली बग्घी थी। जब मैं लाहौर आया तो हैरान रह गया। यहां मोटरें थीं, औरतें बिना
बुर्क़े के नज़र आ रही थीं। और लोग अजनबी पहनावे अपने बदन पर पहने हुए थे। हमारे कॉलेज में
आधे से अधिक शिक्षक अंग्रेज़ थे। हमारे अंग्रेज़ी के शिक्षक लैंघम (स्ंदहीवउ) थे, जो बहुत कड़े स्वभाव
के थे, लेकिन शिक्षक बहुत अच्छे थे। मैंने अंग्रेज़ी के पर्चे में 150 में से 63 नंबर लिये तो सब दंग
रह गये। कॉलेज में मेरा क़द बढ़ गया। और मुझे यह सलाह दी जाने लगी कि मैं इंडियन सिविल सर्विस
की परीक्षा की तैयारी करूं। मैंने निश्चय कर लिया कि मैं परीक्षा में बैठूंगा लेकिन मैं इंडियन सिविल
सर्विस की परीक्षा की तैयारी करने के बजाय धीरे-धीरे शायरी करने लगा। इस परिस्थति के लिए कई
कारण ज़िम्मेदार थे। एक यह कि डिग्री प्राप्त करने से पहले ही मेरे पिता का निधन हो गया और हमें
यह पता चला कि वह जो कुछ संपत्ति छोड़ गये हैं उससे कहीं अधिक कर्ज़ चुकाने के लिए छोड़ गये
थे और इस तरह शहर का एक खाता-पीता ख़ानदान हालात के झटके में ग़रीब और असहाय हो गया।
दूसरा जो मेरे और मेरे ख़ानदान की परेशानियों का कारण बना वह व्यापक आर्थिक संकट और मंदी था
जिसके प्रभाव से उस ज़माने में कोई भी व्यक्ति सुरक्षित न रह सका। मुसलमानों पर इसका प्रभाव अधिक
पड़ा, चूंकि उनमें बहुतायत खेतिहर लोगों की थी। मंदी का प्रभाव कृषि पर अधिक पड़ा था। नतीजा यह
हुआ कि गांव से शहर की ओर पलायन आरंभ हो गया क्योंकि छोटी जगहों में रोज़गार उपलब्ध कराने
वाले संसाधन नहीं थे और ऐसे संसाधन पर प्रायः हिंदुओं का क़ब्जा था। सरकारी नौकरी भी एक रास्ता था लेकिन चूंकि मुसलमान शिक्षा के क्षेत्रा में काफ़ी पिछडे़ हुए थे इसलिए यहां भी उनके लिए अधिक
अवसर नहीं थे। मेरे और मेरे ख़ानदान के लिए यह ज़माना राजनीतिक और वैयक्तिक कारणों से परीक्षा
और परेशानियों का था। इस तनाव और सोच-विचार को अभिव्यक्ति के माध्यम की आवश्यकता थी सो
यह शायरी ने पूरी कर दी।
मेरी उम्र 17-18 साल के आस-पास थी और जैसा कि होता है मैं बचपन से ही साथ खेलने वाली एक अफ़ग़ान लड़की की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गया। वह बचपन में तो सियालकोट में थी लेकिन बाद में उसका ख़ानदान आज के फैसलाबाद के समीप एक गांव में आबाद हो गया था। मेरी एक बहन की उसी गांव में शादी हुई थी। जब मैं अपनी बहन के पास गया तो उसके घर भी गया, वह लड़की तब पर्दा करने लगी थी। एक सुबह मैंने उसे तोते को कुछ खिलाते हुए देखा। वह बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और एक दूसरे की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गये। हम छुप-छुप के मिलते रहे और एक दिन जैसा कि होता है उसकी कहीं शादी हो गयी और जुदाई का यह अनुभव छः-सात बरस तक मुझे उदास करता रहा। इस अवधि में मेरी शिक्षा भी जारी रही और शायरी भी। स्थानीय मुशायरे में तीसरी बार जब मुझे भाग लेने का अवसर मिला तो मेरी शायरी को काफ़ी सराहा गया और इस तरह लाहौर जैसे शहर की बड़ी साहित्यिक हस्तियां मेरी शायरी से परिचित हुईं और सबने मुझे अपना आशीर्वाद देना चाहा। मैं अब अच्छा ख़ासा शायर बन चुका था।
यही वह दौर था जब उपमहाद्वीप में उग्रपंथ के पहले आंदोलन का आरंभ हुआ। उस आंदोलन के प्रभाव हमारे कॉलेज के अंदर भी पहुंच रहे थे और मेरा एक अभिन्न मित्रा जिसे बाद में एक प्रसिद्ध संगीतकार ख़्वाजा ख़ुर्शीद अनवर के रूप में जाना गया, उस आंदोलन का सक्रिय कार्यकर्त्ता था। वह बम बनाने के लिए कॉलेज की  प्रयोगशाला से तेज़ाब चुराने के अपराध में गिरफ़्तार कर लिया गया। उसे तीन साल की सज़ा भी सुनायी गयी। वह कुछ समय तक ज़रूर जेल में रहा था लेकिन बाद में वह अपने प्रभावशाली पिता के रसूख के कारण छूट गया। मेरी बहुत सी जानकारियों का माध्यम वही था। वह अक्सर अपने आंदोलन का साहित्य मेरे कमरे में छोड़ जाता और जब कभी मैं उसे पढ़ता तो मेरे ऊपर जुनून सा छा जाता था, क्योंकि मेरे पिता अंग्रेज़ों के वफ़ादार और उपाधि प्राप्त थे लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि मैं उग्रपंथियों के आंदोलन और उसके बहुत से  राजनीतिक समूहों से परिचित हो गया। मेरे ऊपर उसका कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन वह सब कुछ मेर लिए महत्वहीन नहीं था। तीन चार साल बाद मैंने पहले अंग्रेज़ी में और फिर अरबी में एम.ए. कर लिया और फिर मैंने शिक्षण का कार्य अपना लिया। उससे मुझे काफ़ी सहारा मिला और खानदान को आर्थिक संकटों से उबारने में सहायता भी। इस अवधि में मेरे कॉलेज के ज़माने के दो साथी आक्सफ़ोर्ड से मार्क्सिस्ट होकर लौटे थे। उनके अलावा उच्च घरानों के कुछ और लड़के भी इंग्लैंड की यूनवर्सिर्टियों से कम्युनिस्ट विचार लेकर
लौटे थे। उनमें से कुछ तो राजनीतिक दृष्टिकोण से व्यस्त हो गये, कुछ ने नौकरी के चक्कर में इस तरह
के विचार को छोड़ दिया। लेकिन इसी टोली के नेतृत्व में साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन का आंरभ हुआ। यह साहित्यिक आंदोलन, कम्युनिस्ट या मार्क्सिस्ट आंदोलन नहीं था। वैसे उसमें सक्रिय भाग लेने वालों में कुछ कम्युनिस्ट भी थे और मार्क्सिस्ट भी। असल में प्रगतिशील आंदोलन साहित्य में सामाजिक यथार्थ को बढ़ावा देने से संबंध रखता था और रूढ़िबद्ध होकर कविता करने को बुरा समझता था। भाषा की कलाबाज़ी भी इस आंदोलन के लिए व्यर्थ थी। इस आंदोलन के प्रभावस्वरूप यथार्थवादी और राजनीतिक गीतों के चलन को बढ़ावा मिला। इस प्रकार का साहित्यिक चलन यूरोप और अमेरिका में भी फ़ासीवाद विरोधी साहित्यिक प्रवृत्ति के रूप में उभरा, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक सरोकार वाले साहित्य का जन्म हुआ।
1932-35 के मध्य का यही वह समय था जब उस साहित्यिक, राजनीतिक आंदोलन से मेरा जुड़ाव शुरू हुआ। मज़दूरों, श्रमजीवियों और किसानों के आंदोलनधर्मी गीत और राजनीतिक अभिव्यक्ति और नयी-पुरानी काव्य पद्धति के मिश्रण को लोगों ने सराहा और उन्हें पसंद भी किया। जब 1941 में मेरा पहला संग्रह प्रकाशित हुआ तो वह तेज़ी से बिक गया। फिर द्वितीय विश्व युद्ध की लहर आयी लेकिन हम लोगों ने उसका ज़्यादा नोटिस नहीं लिया। हमारे विचार में उस युद्ध से ब्रिटेन और जर्मनी का सरोकार था मगर 1941 में जापान भी उस युद्ध में शामिल हो गया तो हमें कुछ आभास हुआ। क्योंकि उस समय अगर एक ओर जापानी भारत की सीमा तक आ गये थे तो दूसरी ओर नाज़ियों और फासिस्टों के क़द़म मास्को और लेनिनग्राद तक पहुंच गये थे और तभी हमने महसूस किया कि युद्ध से हमारा संबद्ध होना आवश्यक है। इसलिए हम फ़ौज में शामिल हो गये। मुझे याद है पहले दिन जनसंपर्क विभाग के निरीक्षक एक ब्रिगेडियर के सामने मेरी पेशी हुई। वह आपैचारिक रूप से फ़ौजी नहीं था, वह बहुत ज़िंदादिल आइरिश था और लंदन टाइम्स से संबंध रखने वाला एक पत्राकार था। मुझे देखकर उसने कहा तुम्हारे बारे में पुलिस की खुफ़िया रिपोर्ट कहती है कि तुम एक पक्के कम्युनिस्ट हो, बताओ हो या नहीं। मैंने कहा मुझे नहीं पता कि पक्का कम्युनिस्ट कौन होता है। मेरा यह उत्तर सुनकर उसने कहा मुझे इससे
कोई मतलब नहीं, चाहे तुम फ़ासीवादी विचार ही क्यों न रखते हो, जब तक तुम हमें कोई धोखा नहीं देते; मैं समझता हूं तुम धोखा नहीं दोगे। मैंने समर्थन में सिर हिला दिया।
यही वह ज़माना था जब ब्रिटेन और मित्रा देशों के बीच संबंध बहुत अच्छे नहीं थे। उधर महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ कर दिया था, जो पूरे देश में आग की तरह फैल गया था। ब्रिटेन के सामने दो संकट थे। एक तो फ़ौज़ में लोगों की भर्ती और दूसरे सरकार के विरुद्ध ज़ोर पकड़ता हुआ जन आंदोलन। ब्रिटेन की फ़ौज के ब्रिगेडियर ने मुझसे इस आंदोलन के विषय में विचार-विमर्श करते हुए पूछा तो मैंने कहा कि ब्रिटेन अपने अस्तित्व के लिए भाग ले रहा है, जापान ब्रिटेन के लिए एक बड़ा ख़तरा है और अगर जापान तथा जर्मनी विजयी होते हैं तो ब्रिटेन को सौ-दो सौ साल तक गु़लाम रहने का दंश झेलना होगा, और इसका मतलब यह है कि हमें अपने देश को इस कष्ट से सुरक्षित रखने के लिए ब्रिटेन की फ़ौज का हिस्सा बनकर लड़ना चाहिए। अंग्रेज़ अपने लिए नहीं लड़ रहा है वह भारत के लिए लड़ रहा है। मेरे इस तर्क को सुनकर उसने कहा तुम जो कुछ कह रहे हो ये तो सब राजनीति है मगर इस तर्क को फ़ौज के लिए स्वीकार्य कैसे बनाया जाये? मैंने कहा कि इस विचार को फ़ौज के लिए स्वीकार्य बनाने का तरीक़ा वही होना चाहिए जो कम्युनिस्टों का है। उसने चौंककर पूछा क्या मतलब? मेरा जवाब था, हम कम्युनिस्ट एक छोटी टोली बनाते हैं। फ़ौज के हर यूनिट में इस तरह की
एक विशेष टोली बनाने के बाद हम अफ़सरों को यह बताते हैं कि फ़ासिज़्म क्या है और उन्हें यह भी समझाते हैं कि जापान और इटली वालों के इरादे क्या हैं। इसके बाद उन अफ़सरों से कहा जाता है कि वे उक्त टोली में बतायी जाने वाली बातों को अपने यूनिटों के सिपाहियों को जाकर समझायें और बतायें। इस तरह हम इस रणनीति के तहत पहले फ़ौजी अफ़सरों को मानसिक रूप से सुदृढ़ करते थे और फिर उनके माध्यम से आशिक्षित सिपाहियों को भी एक दिशा देते थे। इस पद्धति का विरोध भी बहुत हुआ।
बात वायसराय, कमांडर-इन-चीफ़ और फिर इंडिया आफ़िस तक पहुंची। मुझसे कहा गया कि मैं अपनी
योजना को लिखित रूप में प्रस्तुत करूं। अंततः इस योजना को मंज़ूरी मिल गयी और हमने फिर ‘जोश
ग्रुप’ बनाये जो बहुत सफल रहा और इसके परिणामस्वरूप मैं ब्रिटेन द्वारा सम्मानित किया गया और
तीन सालों में कर्नल बना दिया गया। उस ज़माने में ब्रितानी फ़ौज में एक भारतीय के लिए इससे ऊंचा
फ़ौजी पद कोई और नहीं था। उस ज़माने में मुझे फ़ौज की कार्य पद्धति और ब्रितानी सरकार को जानने
का अवसर मिला। मुझे पत्राकारिता का अनुभव भी उसी ज़माने में हुआ, क्योंकि सभी मोर्चे पर भारतीय
फ़ौज के प्रचार का काम मेरे ही जिम्मे था और मैं बहुत हद तक भारतीय फ़ौज के लिए राजनीतिक अधिकारी (पॉलीटिकल कमिश्नर) का काम करने लगा। युद्ध की समाप्ति पर मैं फ़ौज से अलग हो गया। उस समय मेरे सामने दो रास्ते थे या तो विदेश सेवा से संबंद्ध हो जाता या फिर सिविल सेवा से। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।
यह वह ज़माना था जब पाकिस्तान के लिए आंदोलन और भारतीय कांग्रेस का स्वाधीनता आंदोलन अपने चरम पर था। मेरे एक पुराने मित्रा जो एक बड़े ज़मींदार भी थे और जो पंजाब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहने के बाद मुस्लिम लीग में आ गये थे मुझसे कहने लगे कि मैं सिविल सेवा में जाने की इच्छा समाप्त कर दूं क्योंकि वह लाहौर से एक अंग्रेज़ी दैनिक निकालने की योजना बना रहे थे। उन्होंने उस अख़बार का संपादन करने का प्रस्ताव दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया और मैंने जनवरी 1947 में लाहौर आकर पाकिस्तान टाइम्स का संपादन संभाल लिया। मैं चार साल पाकिस्तान टाइम्स का संपादक रहा। इसी अवधि में पाकिस्तान टेªड यूनियन का उपाध्यक्ष भी मुझे बना दिया गया। 1948 में नागासाकी और हिरोशिमा पर होने वाली बमबारी के बाद कोरियाई युद्ध भी छिड़ गया। इस बीच स्काटहोम से यह अपील आयी कि हम शांति-स्थापना के लिए आंदोलन चलायें। उस अपील के समर्थन में अमन कमेटी की स्थापना हुई और मुझे उसका संचालक बना दिया गया। अब मैं ट्रेड यूनियन, अमन कमेटी और पाकिस्तान टाइम्स तीनों मोर्चे पर सक्रिय था और सक्रियता तथा कार्यशैली के लिहाज़ से यह बहुत व्यस्त समय था। उसी ज़माने में आई.एल.ओ की एक मीटिंग में भाग लेने के लिए पहली बार देश से बाहर जाने का अवसर मिला। मैंने सन फ्ऱांसिस्को के अतिरिक्त जेनेवा में भी दो अधिवेशनों में भाग लिया और इस तरह अमेरिका और यूरोप से मैं पहली बार परिचित हुआ।
1950 में मेरी मुलाक़ात अपने एक पुराने मित्रा से हुई। यह जनरल अकबर ख़ान थे जो उस वक़्त
फ़ौज में चीफ़ आफ़ जनरल स्टाफ़ नियुक्त हुए थे। जनरल अकबर ने बर्मा और कश्मीर के मोर्चे पर होने वाले युद्धों में बड़ा नाम कमाया था। मैं इस साल मरी में छुट्टियां बिताने गया हुआ था। वहीं उनसे भेंट हुई। बातों के दौरान उन्होंने कहा कि हम लोग फ़ौज में हैं। उन्होंने यह भी बताया कि जिन्होंने कश्मीर में हुई मोर्चेबंदी का सामना किया है वे देश की वर्तमान परिस्थिति से असंतुष्ट हैं और यह मानते हैं कि देश का नेतृत्व कायरों के हाथों में है। हम अभी तक अपना कोई संविधान नहीं बना पाये। चारों ओर अव्यवस्था और वंशवाद का चलन है। चुनाव की कोई संभावना नहीं, हम लोग कुछ करना चाहते हैं। मैंने पूछा क्या करना चाहते हो? उनका जवाब था हम सरकार का तख़्ता पलटना चाहते हैं और एक विपक्षी सरकार बनाना चाहते हैं। मैंने कहा यह तो ठीक है लेकिन उन्होंने मेरी राय भी मांगी। मैंने कहा यह तो सब फ़ौजी क़दम है। इसमें मैं क्या राय दे सकता हूं। इस पर जनरल अकबर ख़ान ने मुझे अपनी गोष्ठियों में आने और उनकी योजनाओं के बारे में जानकारी लेने की बात कही। मैं अपने दो ग़ैर-फ़ौजी दोस्तों के साथ उनकी गोष्ठी में गया और उनकी योजनाओं से अवगत हुआ। उनकी योजना यह थी कि राष्ट्रपति भवन, रेडियो स्टेशन वगै़रह पर क़ब्ज़ा कर लिया जाये और फिर राष्ट्रपति से यह घोषणा करवा दी जाये कि सरकार का तख़्ता पलट दिया गया है और एक विपक्षी सरकार सत्ता में आ गयी है। छः महीने के भीतर चुनाव कराये जायेंगे और देश का संविधान निर्मित किया जायेगा। इसके अरिक्ति अनगिनत सुधार किये जायेंगे। इस पर पांच छः घंटे तक बहस होती रही और अंततः यह तय हुआ कि अभी कुछ न किया जाये क्योंकि अभी देश किसी भी ऐसी स्थिति से नहीं जूझ रहा है कि जिसके आधार पर जनता को आंदोलित किया जाये। दूसरे, इस तरह की योजनाओं के क्रियान्वयन में ख़तरों का सामना करना पड़ता है। उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्राी लियाक़त अली ख़ान थे। किसी तरह इस योजना की ख़बर सरकार के कानों तक पहुंच गयी। मैं तो इस अवधि में उन सभी घटनाओं को भूल चुका था कि अचानक सुबह चार बजे मेरे घर को फ़ौजियों ने घेर लिया और मुझसे कहा गया कि मैं उनके साथ चलूं। मैंने कारण पूछा तो मुझे जवाब मिला कि मुझे गवर्नर जनरल के आदेश से गिरफ़्तार किया जा रहा है। चार महीने तक मुझे कै़द रखा गया और फिर मुझे मालूम हुआ कि मुझे क्यों क़ैद किया गया। संवधिान सभा ने एक विशेष अधिनियम को पारित किया और उसे रावलपिंडी षड्यंत्रा अधिनियम का नाम दिया गया। उस अधिनियम के तहत हम पर गुप्त मुक़द्दमा चलाया गया। अंग्रेज़ों के ज़माने से ही षड्यंत्रा संबंधी क़ानून बड़े ख़राब थे। आप कुछ कर नहीं सकते थे। अगर यह सिद्ध हो जाये कि दो व्यक्तियों ने मिलकर क़ानून तोड़ने की योजना बनायी है तो उसे षड्यंत्रा का नाम दे दिया जाता था और अगर कोई तीसरा व्यक्ति इसकी गवाही दे दे तो फिर अपराध सिद्ध मान लिया जाता था। सरकार ने अधिनियम बनाकर बचाव करने की सभी संभावनाओं को समाप्त कर दिया था। बनाये जाने वाले अधिनियम के तहत तो केवल सज़ा ही मिल सकती थी, भागने का कोई रास्ता भी नहीं था। यह मुक़द्दमा डेढ़ साल तक  चलता रहा और हममें से हर एक के लिए उसके पद के अनुसार भिन्न-भिन्न दंड निश्चित किये गये। जनरल को दस साल, ब्रिगेडियर को सात साल, कर्नल को छः साल और हम सब असैनिकों को उससे कम यानी चार साल की क़ैद की सज़ा सुनायी गयी।
मेरी हिरासत का यही वह समय था जो रचनात्मक रूप से मेरे लिए बहुत उर्वर सिद्ध हुआ। मेरे पास लिखने-पढ़ने के लिए वक़्त ही वक़्त था, फिर मुझमें शासकों के विरुद्ध बहुत आक्रोश और क्रोध था, क्योंकि मैं निर्दोष था। इसी अवधि में मेरी शायरी के दो संग्रह, काल कोठरी के उस दौर में तैयार हो गये। एक तो हिरासत के दिनों में ही प्रकाशित हो गया था और दूसरा मेरी रिहाई के बाद प्रकाशित हुआ। जब आप को चार साल के क़रीब जेल में रखा गया हो और बंदी होने का दुख भी आपके हिस्से में आया हो, तो निश्चित रूप से बाहर की  दुनिया में आपका मूल्य बढ़ जाता है। जब मैं जेल से बाहर आया तो मुझे अनुभव हुआ कि मैं पहले की तुलना में अधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय हो गया हूं। मैं दोबारा पाकिस्तान टाइम्स से जुड़ गया और मैंने अमन कमेटी तथा ट्रेड यूनियन से अपने संबंध फिर से स्थापित कर लिये। यह तीन चार साल का समय ऐसी ही गहमागहमी में गुज़र गया। पाकिस्तान में वामपंथी आंदोलनों पर पाबंदी लगा दी गयी। यही स्थिति तीन चार साल तक जारी थी कि देश में पहला मार्शल लॉ लागू हो गया और पहली सैनिक सरकार स्थापित हो गयी, जिसका अर्थ था कि किसी भी व्यक्ति को बिना किसी अपराध के गिरफ़्तार किया जा सकता है। उस समय के मार्शल लॉ ने एक अत्याचार यह भी किया कि हर उस व्यक्ति को पकड़ना शुरू कर दिया गया जिसका नाम 1920 के बाद की पुलिस रिपोर्टों में दर्ज़ मिला था। इस तरह जेल में हमें नब्बे साल और अस्सी साल के बूढ़े मिले, कुछ की तपेदिक तथा अन्य बीमारियों के कारण जेल में ही मृत्यु हो गयी। मैंने लाहौर क़िला में डेढ़ महीने गुज़ारा और फिर चार पांच महीने के बाद मुझे रिहा कर दिया गया। मैंने फिर पाकिस्तान टाइम्स के दफ़्तर की ओर रुख़ किया और तब
मैंने देखा कि उसका दफ़्तर पुलिस के घेरे में था। मेरे पूछने पर पता चला कि पाकिस्तान टाइम्स पर फ़ौजी सरकार ने क़ब्जा कर लिया है और इस तरह मेरी पत्राकारिता का अंत हो गया। मैं ऊहापोह में था कि क्या करूं। उन दिनों एक अमीर वर्ग जो मेरी शायरी को पसंद करता था, मेरी चिंता से अवगत था। उन लोगों ने पूछा आप क्या करना चाहते हैं? मैंने कहा मुझे नहीं मालूम तो किसी ने सुझाव दिया, क्यों न संस्कृति से संबंधित कोई गतिविधि आरंभ की जाये। मैंने कहा यह अच्छा विचार है और इस प्रकार हमने लाहौर में ‘आर्ट कौंसिल’ की स्थापना की। कौंसिल एक पुराने और टूटे-फूटे घर में थी जो आज के आलीशान भवन जैसा आकर्षक नहीं था। कौंसिल का आरंभ हुआ और उसके भवन में प्रदर्शनियों, नाटकों और आयोजनों का तांता लगा रहता था। तीन चार साल तक यह गतिविधि चलती रही और मैं इसी अवधि में बीमार पड़ गया। पहली बार दिल का दौरा पड़ा। और इसी बीच मुझे लेनिन विश्व शांति पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई। किसी ने मुझे फोन पर ख़बर सुनायी तो मुझे विश्वास नहीं हुआ,
मैंने जवाब में कहा बकवास मत करो, मैं पहले ही बीमार हूं। मेरे साथ ऐसा मज़ाक न करो। उसने उत्तर में कहा, मैंने टेलीप्रिंटर पर यह ख़बर ख़ुद देखी है, तुम्हारे साथ पुरस्कार पाने वालों में पिकासो और दूसरे भी हैं। जब मैं स्वस्थ हो गया तो मुझे पुरस्कार ग्रहण करने और मास्को आने के लिए आमंत्रित किया गया। मैं मास्को के बाद लंदन चला गया और लंदन में दो वर्ष तक रहा। मैं लंदन से लाहौर आने के बजाय कराची लौट आया। कराची में मैं मिस्टर महमूद हारून के निवास स्थान पर ठहरा। उनकी बहन जो डाक्टर थीं और मेरी मित्रा थीं, उन्होंने मुझे लिखा कि श्रीमाती हारून बीमार हैं और आपको देखना और मिलना चाहती हैं। मेरे आने पर श्रीमती हारून ने मुझे बताया कि उनका जो फ़लाही फ़ाउंडेशन है उसके अधीन स्कूल, अस्पताल और अनाथालय चल रहा है। उनके लड़के के पास फ़ाउंडेशन चलाने के लिए समय नहीं है क्योंकि वह व्यापार तथा राजनीतिक गतिविधियों में व्यस्त रहे हैं। अच्छा होगा कि फ़ाउंडेशन की व्यवस्था मैं संभाल लूं। मैंने फ़ाउंडेशन के स्थान पर उसकी गतिविधियों का निरीक्षण किया तो देखा कि वह गंदी बस्ती का इलाक़ा था, जहां मछुआरे, ऊंट वाले, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त व्यक्ति रहा करते थे। मुझे यह इलाक़ा अच्छा लगा, और हमने इस क्षेत्रा में अपनी गतिविधि तेज़ कर दी। स्कूल को कॉलेज में परिवर्तित कर दिया, एक तकनीकी संस्थान भी स्थापित किया और अनाथालय की भी व्यवस्था की। इस प्रकार कोई आठ साल तक मैं शैक्षणिक और प्रशासनिक गतिविधियों से जुड़ा रहा। इस बीच 65 और 71 के युद्ध भी हुए। इन दोनों युद्धों के दौरान मैं अत्यधिक मानसिक तनाव से प्रभावित रहा। उसका कारण यह था कि मुझसे बार-बार देशभक्ति के
गीत लिखने की फ़रमाइश की जा रही थी। मेरे इनकार पर यह ज़ोर दिया जाता कि देशभक्ति और मातृभूमि की मांग यही है कि मैं युद्ध के या देशभक्ति के गीत लिखूं। लेकिन मेरा तर्क यह था कि युद्ध अनगिनत व्यक्तियों के लिए मृत्यु का कारण बनेगा और दूसरे पाकिस्तान को इस युद्ध से कुछ नहीं मिलने वाला है। इसलिए मैं युद्ध के लिए कोई गीत नहीं लिखूंगा। लेकिन मैंने 65 और 71 के युद्धों के विषय में नज़्में लिखीं, 65 के युद्ध से संबंधित मेरी दो नज़्में हैं।...
बांग्लादेश युद्ध के ज़माने में मैंने तीन-चार नज़्में लिखीं। लेकिन उन नज़्मों की रचना में युद्ध गीतों का आग्रह करने वालों को मुझसे और भी निराशा हुई। परिणामस्वरूप मुझे सिंध में भूमिगत हो जाना पड़ा। युद्ध समाप्त हुआ तो पाकिस्तान के दो टुकड़े हो चुके थे। चुनाव के बाद फ़ौजी सरकार समाप्त हो गयी थी और भुट्टो के नेतृत्व में पीपुल्स पार्टी की सरकार स्थापित हो चुकी थी। उनसे मेरे अच्छे संबंध थे उस ज़माने में जब वह विदेश मंत्राी थे और उस समय भी जब वह विपक्षी पार्टी के नेता थे। उन्होंने मुझे अपने साथ काम करने के लिए आमंत्रित  किया। मैंने पूछा मेरा काम क्या होगा, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि मैं पहले से ही सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदार रह चुका हूं। क्यों न उसी क्षेत्रा में राष्ट्रीय स्तर पर कुछ काम करूं। मैंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और
नेशनल कौंसिल ऑफ़ आर्ट्स (राष्ट्रीय कला परिषद्) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त मैंने ‘फ़ोक आटर््स’ जो अब ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ोक हेरिटेज’ है, की स्थापना की। मैं इन परिषदों की देख-रेख में चार साल तक व्यस्त रहा कि सरकार फिर से बदल गयी। इस अवधि में मेरा गद्य और पद्य लिखने का क्रम लगातार जारी रहा। इसी अवधि में मेरी शायरी का अंग्रेज़ी, फ्ऱांसीसी, रूसी तथा अन्य दूसरी भाषाओं में अनुवाद होता रहा। ज़ियाउल हक़ के शासन काल में मेरे प्रभाव को नकार दिया गया। वैसे भी इस सरकार में संस्कृति का महत्व पहले जैसा नहीं रहा था, मैंने सोचा मुझे कुछ और करना चाहिए। मैं एशियाई और अफ्ऱीकी साहित्यकार संगठन के लिए कुछ-न-कुछ करता ही रहता था। उनकी गोष्ठियों में भी भागीदारी होती रहती थी। उस संगठन का दफ़्तर काहिरा में था जहां से उस संगठन की पत्रिका लोटस (स्वजने) का प्रकाशन होता था।
कैंप डेविड समझौते के बाद अरब के लोगों का यह अनुरोध था कि उसका दफ़्तर काहिरा से कहीं और स्थानांतरित कर दिया जाये। लोटस का मुख्य संपादक जो संगठन का सचिव भी था, उसकी साइप्रस में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी। अब लोटस का संपादन करने वाला कोई नहीं था। इस समय एफ्ऱो-एशियाई साहित्यकार संगठन का दफ़्तर कहीं नहीं था। इस पत्रिका के संपादन के लिए मुझे आमंत्रित किया गया और यह भी फैसला हुआ कि संगठन का दफ़्तर बैरूत में स्थानांतरित कर दिया जाये। मैं अफ्ऱीकी एशियाई साहित्यकारों के संगठन और उसकी पत्रिका लोटस से चार साल तक जुड़ा रहा और फिर हमें इससे फ़ुर्सत मिल गयी।
बैरूत पर आक्रमण के एक महीने बाद मैं किसी-न-किसी तरह वहां से निकलने में सफल हो गया और पाकिस्तान पहुंच गया। यहां आते ही मैं एक बार फिर बीमार हो गया। अब जो यह एलिस के बारे में आप लोग पूछ रहे हैं तो मैं बताऊं। जब मैं कॉलेज में पढ़ाने लगा था तो जैसा मैंने बताया, मेरे कुछ साथी आक्सफ़ोर्ड से  वापस लौटे तो वे मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक थे। उसी में एक साथी जो मार्क्सिस्ट था उसकी पत्नी जो  अंग्रेज़ थी वह भी मार्क्सिस्ट थी। एक दिन उसने मुझसे पूछा, तुम उदास और निराश क्यों रहते हो, फिर स्वयं ही बोली, तुम्हें इश्क़ हो गया है क्या? तुम बीमार लगते हो। उसने कुछ किताबें मुझे दीं और कहा कि उन्हें पढ़ूं उसने स्पष्ट किया, तुम्हारा दुख बहुत कुछ व्यक्तिगत ढंग का है। ज़रा पूरे हिंदुस्तान पर नज़र डालो, अनगिनत लोग भूख और बीमारी के शिकार हैं। तुम्हारा दुख तो उनकी तुलना में कुछ भी नहीं है। और तब प्रेम के विषय से मेरा ध्यान हट गया और मैंने व्यापक संदर्भों में सोचना आरंभ कर दिया। मेरी नज़्म ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी
महबूब न मांग’ इसी बदलते हुए सोच का परिणाम थी। मेरे मित्रा जिनकी पत्नी का उल्लेख मैंने किया वह एक अच्छे साहित्यकार थे और एक कॉलेज के प्रिंसिपल भी थे। उनके साथ शिक्षण के कार्य में व्यस्त हो गया। कोई तीन चार साल बाद मेरे मित्रा की अंग्रेज़ पत्नी की एक बहन उन लोगों से मिलने अमृतसर आयी, जहां मैं पढ़ा रहा था। मेरी उस महिला से जब मुलाक़ात हुई तो हम मित्रा बन गये लेकिन उन्हीं दिनों युद्ध छिड़ गया और वह महिला अपने देश वापस न लौट सकी। मैं भी कैंब्रिज जाने वाला था मगर न जा सका और इस तरह हमारी मित्राता गहरी होती गयी और एक दिन हमने शादी कर ली। वह महिला एलिस थी। जहां तक बैरूत में मेरे प्रवास का संबंध है तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं फ़िलिस्तीनियों का समर्थक था जिन्हें एक षड्यंत्रा द्वारा अपने देश से निकाल दिया गया था। यह अजीब बात थी कि इज़राइली जिन्हें नाज़ियों के हाथों कठोर यातना झेलनी पड़ी थी, वे भी अब फ़िलिस्तीनियों को इसी प्रकार कष्ट देने के लिए उतारू थे, जबकि फ़िलिस्तीनियों ने इज़राइलियों का कुछ नहीं बिगाड़ा था। लेकिन शायद इज़राइलियों के अत्याचारी व्यवहार के पीछे हिंसक मनोग्रंथि काम कर रही थी। शक्तिशाली का साथ तो सब देते ही हैं क्योंकि उसमें कोई हानि नहीं होती। कमज़ोर का साथ देने वाले कम होते हैं और उसमें केवल हानि ही हिस्से में आती है। मैंने बैरूत प्रवास के दिनों में कमज़ोर का साथ देने को अपना रचनात्मक धर्म स्वीकार किया था।
उर्र्दूू से अनुवाद: मो.े. ज़फ़र इक़बाल
(     जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नयापथ के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ विशषांक से साभार)

गुरुवार, 24 मार्च 2011

Global Economy in Crisis

PRASENJIT BOSE
It is widely recognized, even within the international economic policy
establishment, that the economic crisis which engulfed the global
economy since mid-2008 is the biggest since the Great Depression of
the 1930s. It has been over two years now that the crisis unfolded with
the bursting of the real estate bubble in the United States, leading to
widespread mortgage defaults and collapse of financial giants like
the Lehman Brothers. Since then, the financial crisis developed into
a deep recession in the US, eventually affecting the entire world
economy by the end of 2008. In 2009, world output experienced a
contraction, with GDP in the advanced capitalist countries taken
together falling by over 3%.1 This was the first annual decline in
world output in more than fifty years, leading to its official
characterisation as the ‘Great Recession’. World trade fell by over 10%
in 2009 from the previous year, which was the sharpest annual fall
since 1970.
CRISIS CONTINUES
In the first half of 2010, however, the IMF and the World Bank
announced that the ‘Great Recession’ was over and the world economy
was on the path of a ‘recovery’. The IMF’s World Economic Outlook
published in April 2010 said: “The global recovery has evolved better
than expected.” The IMF forecast was also upbeat:
Global growth is projected at about 4¼ percent in 2010 and
2011…Advanced economies are now expected to expand by 2¼ percent
in 2010, following a more than 3 percent decline in output in 2009, and by
2½ percent in 2011. Growth in emerging and developing economies is
expected to be over 6¼ percent during 2010-11, following a modest 2½
percent in 2009.
The World Bank’s Global Economic Prospects released in June
2010 noted that “the recovery is transitioning toward a more mature
phase during which the influence of rebound factors (such as fiscal
stimulus) fades, and GDP gains will increasingly depend on private
investment and consumption.” Its projections were, however, less
optimistic than that of the IMF.
The World Bank projects global GDP to expand between 2.9 and 3.3
percent in 2010 and 2011, strengthening to between 3.2 and 3.5 percent in
2012, reversing the 2.1 percent decline in 2009. Developing economies are
expected to grow between 5.7 and 6.2 percent each year from 2010-2012.
High-income countries, however, are projected to grow by between 2.1
and 2.3 percent in 2010 – not enough to undo the 3.3 percent contraction
in 2009 – followed by between 1.9 and 2.4 percent growth in 2011.
The latest World Economic Outlook released by the IMF in
October 2010, has turned cautious. It talks about “economic
recovery…proceeding broadly as expected, although downside risks
remain elevated.” The reason behind the ‘elevated’ downside risk
becomes clearer in the IMF’s latest forecast:
…global activity is forecast to expand by 4.8 percent in 2010 and 4.2
percent in 2011, with a temporary slowdown during the second half of 2010
and the first half of 2011. Output of emerging and developing economies is
projected to expand at rates of 7.1 percent and 6.4 percent in 2010 and
2011, respectively. In advanced economies, however, growth is projected to
be only 2.7 percent and 2.2 percent, respectively. (emphasis added)
The signs of slowdown have already become visible in the
advanced capitalist economies. An assessment made by the OECD in
September 2010 states:2
Recent high-frequency indicators point to a slowdown in the pace of
recovery of the world economy that is somewhat more pronounced than
previously anticipated…growth could slow in the G7 economies to an
annualised rate of about 1½ per cent in the second half of the year…It is
not yet clear whether the loss of momentum in the recovery is temporary…
In reality, economic forecasts by the international economic policy
establishment in the recent years, particularly those by the IMF, have
turned out to be entirely bogus. For instance, the IMF forecast of
world GDP growth for 2008 was 4.8% in October 2007, 3.7% in April
2008 and 3.9% in October 2008. It actually turned out to be 2.8% as
per IMF’s own estimates, and 1.7% as per the estimate of the World
Bank. Similarly, the IMF forecasted 3.7% world GDP growth for
2009 in April 2008 and 3% in October 2008. World GDP growth
actually turned out to be negative in 2009, - 0.6% by IMF’s estimate
and – 2.1% by World Bank’s estimate.
The reason why the IMF has been behind the curve as far as its
growth forecasts are concerned is not difficult to understand. Blind
ideological commitment to neoliberal orthodoxy coupled with
pressures from vested interests, which seek to preserve the status quo,
have overwhelmed its apparatus. Providing over-optimistic growth
forecasts serve the important purposes of generating the ‘feel good’
factor in financial markets on the one hand and jettisoning any attempt
to question or change the dominant policy paradigm on the other.
GDP Growth Estimates & Projections: IMF and World Bank
IMF World Economic Outlook, October 2010
World Output Advanced Economies Emerging and Developing
Economies
2008 2009 2010 2011 2008 2009 2010 2011 2008 2009 2010 2011
2.8 -0.6 4.8 4.2 0.2 -3.2 2.7 2.2 6.0 2.5 7.1 6.4
World Bank Global Economic Prospects, June 2010
World Output High Income Countries Developing Countries
2008 2009 2010 2011 2008 2009 2010 2011 2008 2009 2010 2011
1.7 -2.1 3.3 3.3 0.4 -3.3 2.3 2.4 5.7 1.7 6.2 6.0
Note: Figures for 2008 and 2009 are estimates, while that for 2010 and 2011 are forecasts
This has, however, considerably eroded the credibility of these growth
forecasts. The divergence between the GDP estimates and forecasts of the
IMF and the World Bank is also telling. It is noteworthy that this
divergence is not so much for the advanced economies. That is because
data collection and estimation methodologies in the advanced capitalist
countries are fairly robust, which does not provide room for much
manipulation. For most developing countries, however, data collection and
estimation are not carried out as rigorously, on account of both
institutional weaknesses as well as resource constraints. As a result,
there is a pronounced bias towards overestimating GDP growth in
developing countries, especially since such growth is viewed as an
exclusive indicator of economic success in the neoliberal era. Many of
the optimistic growth forecasts for the global economy are therefore
based on this overestimated GDP growth in developing countries.
The IMF is clearly overestimating the GDP growth in the developing
countries compared to the World Bank, which also accounts for its
overestimation of world output growth as a whole.
In this backdrop, the ‘temporary’ slowdown currently being
projected by the IMF for the second half of 2010 and first half of 2011
is nothing but an admission of the fact that the global economic crisis
is far from over. The myth of ‘recovery’ has been blown. The fact that
this slowdown in 2010/2011 is being projected primarily for the
advanced economies, on top of the deep recession of 2009, further
testifies for the depth of the crisis in the advanced capitalist world.
IMPACT OF THE CONTINUING CRISIS
The burden of this severe crisis has mostly fallen on the workers and
the poor, both in the advanced capitalist countries as well as the
developing countries. The average unemployment rate in the 33
advanced economies of the OECD rose from 6% in 2008 to 8.3% in
2009 and stood at 8.5% in August 2010.3 OECD’s Employment Outlook
2010 released in July 2010 reports 47 million people to be officially
unemployed in OECD countries, with 17 million more people out
of work from the beginning of the crisis in 2007. It further states that
taking into account those who have given up looking for work or are
working part-time but want to work full-time, the actual number of
unemployed and under-employed in OECD countries could be about
80 million. Unemployment rates in the US and Europe touched 10% in
2009 and has continued to remain at those high levels in 2010. The
US Bureau of Labour Statistics reports 14.8 million unemployed
persons in the US in September 2010, with the unemployment rate
remaining at 9.6%. Unemployment rate in the 16 countries of the
Eurozone was 10.1% in August 2010, with 15.8 million persons being
unemployed. Unemployment rate has climbed above 10% in several
European countries like France, Portugal, Hungary, Ireland and
Slovak Republic in 2010 and has crossed 20% in Spain. Such high
levels of unemployment currently being witnessed in the advanced
capitalist countries are unprecedented in the post-war period. The
ILO’s World of Work Report 2010 paints a grim picture of the global
unemployment scenario:
…new clouds have emerged on the employment horizon and the prospects
have worsened significantly…In many other countries in which
employment growth was positive at the end of 2009, more recent trends
suggest a weakening of the job recovery or even a “double dip”. The longer
the labour market recession, the greater the difficulties for jobseekers to
obtain new employment…In the 35 countries for which data exist, nearly
40 per cent of jobseekers have been without work for more than one year
and therefore run significant risks of demoralisation, loss of self-esteem
and mental health problems. Importantly, young people are
disproportionately hit by unemployment and, when they find a job, it
often tends to be precarious and does not match their skills. Because the
labour market has been depressed for so long, many unemployed people
are getting discouraged and leave the labour market altogether. Already,
close to 4 million jobseekers had stopped looking for work by the end of
2009 in the countries for which information is available.
This assessment suggests that the actual level of unemployment
prevailing in the world today is much higher than what official
estimates show. The global economic crisis has also increased poverty
across the developing world. The Millennium Development Goals
Report 2010 released by the UN in September 2010 notes:
Newly updated estimates from the World Bank suggest that the crisis will
leave an additional 50 million people in extreme poverty in 2009 and some
64 million by the end of 2010 relative to a no-crisis scenario, principally in
sub-Saharan Africa and Eastern and South-Eastern Asia. Moreover, the
effects of the crisis are likely to persist: poverty rates will be slightly higher
in 2015 and even beyond, to 2020, than they would have been had the
world economy grown steadily at its pre-crisis pace.
This increase in poverty rates is indeed alarming, because the
World Bank poverty estimates grossly underestimate actual poverty.
The MDG targets, based on these poverty estimates are equally absurd.
For instance, the UN claims that the MDG target would be met even
as the absolute number of people living in extreme poverty (i.e. below
$1.25 a day) is projected to be 920 million in 2015. It now appears that
even this abysmally low and virtually meaningless MDG target of
poverty reduction would also not be met, because of the continuing
crisis.
WHY DOES THE CRISIS CONTINUE?
Following the severe recession in 2009, governments and central banks
across the world initially adopted coordinated fiscal and monetary
measures. These mainly comprised of cutting interest rates to near
zero levels, bailing out failing banks and financial institutions and
substantially enhancing public spending. Realizing that the major
capitalist economies (G 7) were incapable of meeting the crisis alone,
some developing countries were also included in the efforts to rescue
the global economy in the form of the G 20.4 As per IMF estimates,
the fiscal stimulus measures (increased public spending and tax cuts)
adopted by the G 20 governments taken together amounted to $820
billion in 2009, equivalent to 2% of the combined GDP of the G 20
countries. China, South Korea, Japan, Russia and Saudi Arabia adopted
the most extensive stimulus programmes among the G 20 countries
in 2009, amounting to over 3% of their GDPs.
The fiscal stimulus measures had some impact in reviving output
growth by the beginning of 2010. The G 20 summit held in end-June
2010 at Toronto saw world leaders patting on each others’ back:5
Our efforts to date have borne good results. Unprecedented and globally
coordinated fiscal and monetary stimulus is playing a major role in helping
to restore private demand and lending…Strengthening the recovery is
key. To sustain recovery, we need to follow through on delivering existing
stimulus plans, while working to create the conditions for robust private
demand. At the same time, recent events highlight the importance of
sustainable public finances and the need for our countries to put in place
credible, properly phased and growth-friendly plans to deliver fiscal
sustainability, differentiated for and tailored to national circumstances.
(Emphasis added.)
Thus, by mid-2010 the focus started shifting to fiscal consolidation
and neoliberal orthodoxy. This was not surprising, since the forces
which precipitated the crisis in the first place had come out relatively
unscathed from the crisis. International finance capital – the bloc of
giant global banks and financial companies – which created the
speculative bubbles in real estate and asset markets in the advanced
capitalist countries, secured massive bail-out packages from the
governments after the bubbles burst. As long as such state-funded
bailouts were being administered, expansionary fiscal policies in the
shape of greater public spending were tolerated. Once international
finance regained its muscle, it started applying pressure on
governments to stop the drift towards Keynesian policies within the
advanced countries.
The most strident opposition to Keynesian policies was raised by
the European governments, as a fallout of the sovereign debt crisis in
Europe in early-2010. The outbreak of the European crisis occurred
in Greece, whose economy suffered gravely from the impact of the
2008-09 recession because of its over dependence on sectors like
tourism and shipping. As growth collapsed, dwindling government
revenues pushed the fiscal deficit in Greece to 13.6% and overall
public debt to 115% of GDP by the end of 2009, spreading panic in
international financial markets over a sovereign debt default and
making it impossible for the government to borrow from the market
anymore.
Eventually the Greek authorities entered into an agreement with
the European Union and IMF in May 2010 to implement a drastic
austerity programme in exchange of international assistance worth
• 110 billion ($145 billion) to meet debt obligations. The austerity
measures involve massive cuts in public spending through cuts in
government salaries, freeze in wages and pensions, raising the
retirement age etc. alongwith raising indirect taxes like VAT and excise
duties, in order to bring down the fiscal deficit to below 3% by 2014.
The IMF itself recognizes that unemployment in Greece will grow
from the current levels of 10-11% to about 15% in the next two years as
a result of these austerity measures. Yet, these deflationary neoliberal
policies were imposed on Greece by the EU-IMF combine, utilizing
the debt crisis. The debt crisis then spread to other European countries.
Following the sharp downturn in economic growth in 2008-09, the
average budget deficit of the 16 countries of the Eurozone had
increased from 0.6% of their GDP in 2007 to 6.3% in 2009. While this
was far less than the near 12% of GDP budget deficit incurred by the
US and the UK to fight the recession, the total public debt of the
Eurozone countries as a proportion of their GDP stood at much
higher levels. Speculators in the international financial markets used
this to create pressure on the European countries to cut down on
deficits and public spending. Countries like Portugal, Spain, Ireland,
Italy, Hungary and Latvia, which witnessed widening fiscal deficits
and sharp increases in public debt to GDP ratios since 2008, bore the
brunt with severe public spending cuts imposed by their governments,
irrespective of whether they were rightwing conservative or socialdemocratic.
The major economies of Europe, like Germany and France, also
started advocating public spending cuts from mid-2010. With the
advent of the Conservative led government in the UK in May 2010,
the austerity drive gathered further momentum. The June 2010 G 20
summit in Toronto saw European leaders strongly advocating a global
shift towards fiscal austerity, with the German Chancellor Angela
Merkel leading the charge. Among the advanced capitalist countries,
only the US administration under Barack Obama remained lukewarm
towards this aggressive austerity trend.
However, the fiscal stimulus in the US has itself proved to be
inadequate. 55% of the $787 billion stimulus plan launched through
the 2009 Recovery Act was actually devoted to tax relief for individuals
and companies as well as fiscal relief for state and local governments.
The federal spending plan amounted to only around 45% of the total
stimulus amount. Moreover, relief for the state and local governments
did not compensate for the plunging tax revenues at the state and
local levels. Overall, given the depth of the recession, and the recovery
plan in the US has fallen between two stools. Its inadequacy prevented
any major dent in unemployment. And the persistence of high
unemployment has been used by the rightwing conservatives to
launch a tirade against any further fiscal expansion.
The only way for the advanced capitalist countries to come out of
the economic crisis was through a coordinated reflation of the
economy through enhanced public spending. While this trajectory
was initiated in 2009, the developments since early-2010 have reversed
this course. European governments are currently implementing
drastic cuts on public spending in order to curb budget deficit, at a
time when high levels of unemployment persists in all advanced
economies. The initial fiscal stimulus in the US has also run its course
and no further fiscal expansion seems to be on the offing. This prepares
the ground, not only for prolonging the crisis but deepening it
considerably.
POLITICAL ECONOMY OF CRISIS
This return to neoliberal orthodoxy in the advanced economies
signifies the undiminished power of international finance capital,
which is intrinsically hostile towards any effort to enhance economic
activity and employment through public spending. This hostility
arises because of two reasons. First, an increase in public spending
also enhances the intervention and role of the state in the economy.
Enhanced state intervention implies redistribution of income from
the rich towards the poor on the one hand and greater state regulation
and control over resources on the other. If policy is to move in this
Keynesian/social-democratic direction in the advanced economies
far enough, the power and mobility of finance capital will come under
threat. Thus, finance capital views increasing state intervention as
fundamentally antithetical to its interests.
Second, the smooth operation of globalised finance capital across
asset markets requires monetary stability, which in turn requires price
and wage stability across borders. This stability is ensured only through
the persistence of unemployment, which helps to depress the value of
labour and wages. A regime of low real activity and employment
alongwith stable commodity prices is therefore preferable from the
financial point of view.6 It is precisely because of these imperatives of
international finance capital that the growth regime in the advanced
capitalist countries in the 1970s witnessed a shift from Keynesian
demand management to the neoliberal trajectory of debt and assetprice
bubble induced and export oriented growth.7
The growth regime under globalisation had predictably given
rise to significant global imbalances. The current account deficit in
the US had increased from around $400 billion in 2001 to reach
record levels of over $800 billion in 2006, accounting for 6% of US
GDP. The massive expansion of US imports during the first half of
this decade provided the market for successful exporters from Asia
and Europe. Such huge external deficits could be run by the US on
the basis of dollar hegemony, whereby countries across the world held
their wealth in dollars and finance flowed into the US to fuel the asset
bubbles in its economy. With the bursting of the bubble, however,
these imbalances have kicked in. Following the crisis, the US current
account deficit fell sharply to $378 billion in 2009, squeezing the
market for exporters of goods and services across the world. In the
absence of growth revival in the US economy, the prospects for the
export oriented growth across the world look grim.
At the heart of the crisis in Europe also lies the imbalanced nature
of development ushered in under the European Union. Germany,
with its superior technological capacity has emerged as the clear
beneficiary of the EU regime over the years, capturing the markets of
the poorer Eurozone countries. Rather than sharing the benefits of
productivity growth with their workers, Germany used it to cheapen
its exports vis-à-vis other countries and generate large export surpluses,
which were then used to export capital to other countries. This meant
that growth in the relatively backward countries of the Eurozone was
increasingly based on capital inflows from the surplus countries like
Germany, which financed booms in real estate, construction and other
sectors. As a result their current account deficits widened. With the
onset of the global recession, growth in these countries collapsed,
leading to shrinking government revenues, widening budget deficits
and enlarged public debt.8
Having adopted the Euro as a common currency, the relatively
backward countries of the Eurozone have already given up the option
of devaluing their currencies to increase exports and reduce their
current account deficits. Rather than helping these deficit countries
by restructuring their public debt and allowing them to maintain or
increase public spending to revive growth, the European Commission
and the IMF, at the behest of the German government on the one
hand and international financiers on the other, have imposed austerity
measures across the Eurozone. Besides aggravating the crisis,
squeezing the incomes of working people and increasing unemployment,
these measures have led to disillusionment with European
integration.
The continuing economic crisis in the advanced economies along
with the persistence of high levels of unemployment is having
significant political impact. The failure of the recovery plan in the
US to reduce unemployment has severely affected the popularity of
President Obama and the Democratic Party. The Republicans have
cashed in the rising discontent through the ‘Tea Party’ movement, a
rightwing backlash against state intervention and expansionary fiscal
policies with strong racial undercurrents. The half-hearted
Keynesianism of Obama, reflected in his ambiguous posturing on
crucial issues like healthcare and job creation, seems to have already
paved the way for the Republicans to stage a strong comeback in the
congressional elections of November 2010.
The political shift to the right is more pronounced in Europe.
Not only have the governments converged on the pursuit of rightwing
austerity measures, but increasing joblessness is also providing fertile
grounds for the rise of the far right and neo-fascist forces. Most
governments in major European countries are led by rightwing
conservatives today. These rightwing conservative governments are
also playing upon the racist, anti-immigrant hysterias and
Islamophobic agendas of the far right forces in order to consolidate
their support. Policy decisions like restrictions on immigrants and
bans and prohibitions on cultural symbols of religious minorities,
particularly Islamic symbols like burqas, mosques, minarets etc. are
becoming common in the European countries.9
The leftwing forces have tried to effectively intervene in some of
the European countries. The KKE (Communist Party of Greece)
and the PAME (trade union organisation) have launched militant
mass struggles against the anti-people austerity measures imposed by
the social-democratic PASOK Government in Greece. A series of
strikes and demonstrations have taken place there since mid-2010
with impressive participation of the workers and the youth. The
Portuguese Communist Party (PCP) along with the trade union
CGTP/IN is also leading the movement against the austerity measures
in Portugal, where massive protest actions have been held over the
past few months across the country. Countries like France, Spain,
Italy and Romania are also witnessing massive strike actions against
the anti-worker austerity measures. Success in resisting the rightwing
austerity measures is crucial for the advance of the Left and progressive
forces in Europe today.
UNFOLDING CONTRADICTIONS
The G 20 replacing the G 7 in the wake of the economic crisis, as the
premier global forum to deal with the crisis, reflected a relative decline
in the power of the US and other advanced capitalist countries.
Although the G 20 does not represent the interests of all the developing
countries with the absence of major economies like Iran, Venezuela
and other countries from Africa and Asia, its growing importance
does reflect an increase in the weight of some developing countries in
the international economic order. The share of some of the major
developing economies in world output has risen steadily in recent
times compared to the G 7 countries. Given the relatively higher
growth rates being witnessed by the developing countries, the share
of the developing countries in the total GDP of G 20 is projected to
increase from 35% in 2008 to 50% by 2020.10 A Policy Brief of the
Carnegie Endowment titled The World Order in 2050 goes even further
to argue:11
The economy of the G20 is expected to grow at an average annual rate of
3.5 percent, rising from $38.3 trillion in 2009 to $160.0 trillion in 2050 in
real dollar terms. Over 60 percent of this $121 trillion dollar expansion will
come from six countries: Brazil, Russia, India, China, Indonesia (the
traditional “Big Five” economies), and Mexico. U.S. dollar GDP in these
six economies will grow at an average rate of 6 percent per year; their share
of G20 GDP will rise from 19.6 percent in 2009 to 50.6 percent in 2050. By
contrast, GDP in the G7 will grow by less than 2.1 percent annually, and
their share of G20 GDP will decline from 72.3 percent to 40.5 percent.
The basic problem with such projections, however, lies in their
assumption of the current GDP growth differential between the G 7
economies and the ‘Big Five’ economies persisting for four long
decades without any interruption. Such unrealistic assumptions and
over-optimistic GDP projections are then used to arrive at dramatic
conclusions about an imminent ‘power shift’ in the international order.
This story of the emergence of a new post-crisis world economic
order under the aegis of the G 20 seems to have captured the
imagination of international and national policy establishments in
recent times.12 However, there are three obvious problems with this
story, all arising from a gross misunderstanding of the neoliberal
growth regime underlying globalisation.
First, the neoliberal growth regime essentially ushers in jobless
growth. The high GDP growth rates experienced by some of the
developing countries in recent times have not led to any commensurate
growth in employment generation, so as to absorb the enormous
pool of surplus labour existing in these countries. The stubborn
persistence of unemployment, under-employment and informal
employment in these countries has prevented wages from rising at
any meaningful rate, to catch up with the earnings of the workers in
the advanced capitalist countries. In fact, one of the reasons why some
of these developing countries have been able to attract private
investment including FDI from the advanced economies and
experience export-led growth is the availability of super-cheap labour.
This pattern of growth, however, does not raise real wages, living
standards or domestic purchasing power of the masses, precisely
because the cheapness of labour is the very prerequisite of this
investment and growth regime. Conversely, any trend towards
convergence of wages between the developing countries and the
advanced economies would discourage FDI and private investment
and undermine the growth regime in the former.
Second, since the purchasing power of the masses remains
restricted under the neoliberal growth regime, demand is generated
either through an export-oriented strategy or by promoting asset
bubbles and debt induced elite consumption or a combination of
both. However, given the dependence of these exports to import
demand from the US, the export successes of the developing countries
have come under increasing strain in the backdrop of the continuing
recession in the US economy. With the domestic unemployment rate
rising to near 10% levels, protectionist pressures have increased
manifold in the US in recent times. This is getting manifested in the
pressure being built upon China to appreciate its currency in order to
reduce US imports from China and export some US unemployment
to China.13 New restrictions on outsourcing are also affecting Indian
services exports. With expansionary fiscal policies facing a backlash
within the US, beggar-thy-neighbour trade policies on the part of the
US are bound to intensify, making the export performance of
developing countries tenuous in the near future.
Third, the unsustainability of a growth trajectory based on asset
bubbles and debt induced elite consumption has been borne out by
the experience of the US economy itself. India has been particularly
prone to this pattern of growth in the past few years, with bubbles
building up repeatedly in the equity and real estate markets. The
recent surge in FII inflows into India have once again created an
equity bubble and led to an appreciation of the currency.14 The Indian
government is directly contributing to this bubble through its
disinvestment programme, offloading chunks of equity of profitmaking
public sector enterprises in the stock market. There are reports
of a housing bubble in some cities of China too.15 Like all bubbles,
these will also burst at some point, adversely impacting the growth
prospects of the developing countries.
The parable of developing countries of the G 20 growing at a fast
pace to join the ranks of the US and other advanced economies over
the next few decades, is therefore an untenable one. If the developing
countries continue in their present trajectories, the more likely
outcome seems to be a repeat of what eventually happened in South
East Asia in the late 1990s and Latin American countries in the early
2000s.
CONCLUSION
The global economic crisis has persisted precisely because the
coordinated expansionary fiscal strategies adopted by the advanced
capitalist countries in the immediate aftermath of the crisis have given
way to the neoliberal orthodoxy of cuts in public spending and
balancing budgets. International finance capital, which received a
setback in the aftermath of the crisis, has reasserted it hegemony. The
expectation of recovery under the aegis of the G 20 is premised on
continued high growth in developing countries like China and India,
along with other countries like Brazil, Russia, Mexico, South Korea
etc. These economies will find it difficult to sustain their growth if the
US refuses to keep its domestic market open for their exports. It is
unlikely that the US will continue to run current account deficits of
the order seen over the past decade and be the engine of global growth
in the near future. The growth pattern of the developing countries is
also not immune from speculative asset price bubbles in real estate
and financial markets, which precipitated the crisis in the US economy.
The prospects for the global economy therefore remain highly
uncertain today.
Sustainable growth alongside balanced and equitable
development are possible only if the global economy moves away
from the paradigm of imperialist globalisation and export oriented
growth, and refocuses on state intervention within individual countries
to expand domestic demand by enhancing the purchasing power of
the working people. That would also entail an end to the unbridled
cross-border flows of speculative finance capital, which has caused
the financial meltdown and precipitated the crisis in the first place.
US and EU led imperialism, backed by international finance capital
and the elites within developing countries, continues to be the biggest
roadblock to this paradigm shift, which can restructure the global
economy in a sustainable direction.

सोमवार, 21 मार्च 2011

Libya: Stop The Aggression

The Polit Bureau of the CPI(M) strongly condemns the aerial bombardment by aircrafts and ship-based missiles on Libya by the Nato forces. The military strikes by the Nato forces comprising France, Britain and the United States are a dangerous act of aggression. The Nato is now repeating what it did in Iraq, which led to deaths of millions of people and large scale destruction. Already forty eight people are reported dead in the attacks on the first day.
 
Despite the rhetoric about protecting the Libyan people, this act of aggression is a gross violation of Libya’s sovereignty and a calculated intervention in an internal conflict to bring about regime change. The hypocrisy of the Western powers can be seen in their connivance with the Saudi military intervention to crush the popular and peaceful revolt in Bahrain. The West has no compunction in resorting to force to secure its interests in oil-rich Libya and the Middle East.
 
The Security Council resolution on Libya has been utilized by the Nato for this attack. The five members of the Security Council, which includes India, who abstained on the resolution should immediately demand a review of the resolution. Till then there has to be a halt to the military action by Nato.
 
The CPI(M) calls upon all the democratic and progressive forces in India to strongly protest yet another military aggression by America and its allies on an Arab-African country.

बुधवार, 16 मार्च 2011

हिम्मत करो जीने को

फैज़ अहमद फैज़

फैज़ अहमद फैज़
इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अँधेरा न सवेरा
आँखों के दरीचे में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आख़िरी फेरा
शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा
इक बैर न इक महर न इक रब्त न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा
माना कि ये सुन-सान घड़ी सख़्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है
हिम्मत करो जीने को अभी उम्र पड़ी है

हम देखेंगे

फैज़ अहमद फैज़

हम देखेंगे

लाज़िम है के हम भी देखेंगे
वो दिन की जिसका वादा है
जो लौहे-अज़ल पे लिखा है
जब जुल्मो-सितम के कोहे-गरां
रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़े-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहले-सफा मर्दूदे-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेग अल्लाह का
जो गायब भी है, हाज़िर भी
जो मंज़र भी है, नाज़िर भी
उठ्ठेगा अनलहक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज़ करेगी खल्क़े-खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो

गुरुवार, 10 मार्च 2011

रामदेव का रास्ता

विनीत नारायण
मीडिया और मध्यवर्गीय समाज के लोग प्रायः जिन्हें धर्मयोद्धा बनाकर पेश करते हैं, वे असल में कागज के शेर होते हैं। जाहिर है, असली शेरों को लाकर वे अपने अस्तित्व के लिए खतरा पैदा नहीं करना चाहते। इसीलिए उनके हर प्रयास चर्चा में तो खूब रहते हैं, पर परिणाम तक नहीं ले जा पाते। परिणाम तक ले जाने का न तो उनका इरादा होता है और न ही जीवट। इसलिए वे लोग लड़ाई में कूदते नहीं, उसकी चर्चा भर करते हैं। शायद बाबा रामदेव इस तथ्य से परिचित नहीं। इसलिए प्रायः उनके मंचों पर वही चर्चित चेहरे दिखाई पड़ते हैं, जो टीवी चैनलों की बहसों में दिखते हैं। इन चेहरों का पेशा ही चर्चा में बने रहना है। किसी मुद्दे के प्रति समर्पण नहीं, पर हर मुद्दे पर राय देने को तैयार। बाबा रामदेव अगर धर्मसत्ता के ही दायरे में सीमित रहें और राजसत्ता, परिवार सत्ता और समाज सत्ता को मजबूत करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाएं, तो इस युग के इतिहास पुरुष बन सकते हैं। 

मंगलवार, 8 मार्च 2011

Why Libya is not Egypt or Tunisia

Suhasini Haidar
Libyan leader Muammar Qadhafi waves to supporters as he arrives to speak in Tripoli, Libya, on March 2, 2011. Photo: AP
Libyan leader Muammar Qadhafi waves to supporters as he arrives to speak in Tripoli, Libya, on March 2, 2011. Photo: AP
To put the country in the same basket of other ‘revolutions' would be a mistake.
It's a slap that echoed around the world — and without exaggeration, struck fear in the hearts of dozens of regimes across it. Every cliché from ‘forest fire' to ‘dominos' to a ‘house of cards' has been used in the past weeks to describe what's happened in West Asia ever since 24-year-old Mohammed Bouazizi was pushed around by a policewoman in Tunis. The slap was reportedly the final straw of humiliation for the vegetable seller, already weighed down by inflation and the responsibility of caring for his mother and six brothers and sisters. Bouazizi protested in the most horrific way imaginable, setting himself on fire. That fire grew unbelievably quickly and within a couple of weeks claimed Tunisian President Zinedine Ben Ali's position and forced him and his family out of the country. The pictures of hundreds of thousands swarming Tunis's main boulevard were dramatic, yet had this been the end of it, the world could have moved on.
Except within days, crowds were gathering at other capital city centres in the region, and then another — Tahrir Square in Cairo, the Pearl roundabout in Manama, the University main square in Sana'a, and on and on — until about 20 contiguous countries saw mass protests. After Ben Ali, it was Hosni Mubarak's turn to go, and the next may be Bahraini Prime Minister Shaikh Khalifa, or Yemeni President Ali Abdullah Saleh. In many places like Jordan the people were given assurances that the current rulers would not seek a re-election. Other regimes have tried to throw money at the problem. The Emir of Kuwait simply handed out bonuses of 1,000 dinars (about $3,000) transferred to every bank account, the Saudi Arabian King Abdullah injected $37 billion in pay rises and grants to students — many Gulf countries have raised oil and fuel subsidies, Tunisia promised 1,00,000 new jobs, while even Muammar Qadhafi offered to recharge mobiles with 100 Libyan Dinars each time someone sent an SMS out in praise of him.
To put Libya in the same basket of other ‘revolutions', though, would be a mistake. To begin with, each of the countries that are seeing demonstrations has more or less weathered them. Often, because the ‘real' power has been not the head of government, but someone else. In Iran it is the Mullahs; in Jordan, Morocco, Qatar, Oman and Kuwait, it is the monarchy that holds the key. In Bahrain, it is the Crown Prince Salman bin-Hamad Al-Khalifa, who has been able to broker peace with the protesters who want the Prime Minister (the King's uncle) to go.
In Egypt, it is not the monarchy, but the military that fulfils that role. Many now say the Tahrir Square protests may have pushed Mubarak out, but the real break came some months earlier, after he rigged elections and proposed his son a successor, and the army felt he had broken his contract with it. That may explain why, in a move without any precedent worldwide, the Egyptian military put out a statement clearly supporting the ‘legitimate struggle of the people', and refused to open fire on the protesters. The ‘M' factor of the power behind the seat of power has in fact led to a strange scenario — where pro-democracy protesters are targeting their Prime Ministers and Presidents, but not their Army or royalty.
Libya's Qadhafi, and as a result, Qadhafi's Libya are different. Col. Qadhafi seized power in 1969 when, with the help of his own militia and the backing of other tribes, he deposed King Idris. In the decades that followed, he never disbanded his own militia that remains loyal personally to him. He also never allowed his army to be strengthened, spending more resources on building a strong intelligence network instead, that has kept a closer eye on revolt within the country than on an attack from outside. In addition, his sons command their own battalions, and his Al Qadhadfa tribesmen hold key positions in the government and the forces. Despite his comic utterances, Qadhafi's grip on his government is so tight that Indian officials dealing with getting clearances for evacuation flights from Libya, reported the sense that he was personally deciding every landing permit himself.
Also, unlike Egypt and Tunisia, Libya is less susceptible to pressure from the outside world. In his bestselling book, ‘The Prize,' Daniel Yergin calls oil Qadhafi's 'jackpot', detailing how the country's vast reserves of crude ensure that Qadhafi has had less to worry from the West cutting ties with him, than the West has to worry if he decides to shut off his pipelines to the Mediterranean. To add to that the IMF now estimates that the Central Bank of Libya has about $110 billion in international reserves, enough to cover at least three years of imports.
Meanwhile as talk of sanctions and a no-fly zone gain ground in the international community, it must also be remembered that before Qadhafi's rehabilitation in recent years, he spent decades as an international outcaste. After he was charged with ordering the bombing of two planes — one French and the other American — that left 400 dead in the 1980s, Libya fell under and withstood strict sanctions till 2002. Qadhafi's own home was bombed, a fact he won't let anyone forget, even as he stood to give one of defiant speeches last week from one of the shelled buildings still preserved from that era.
Qadhafi understands the symbolism of that and many other gestures that frighten both the West and his own people. His bombing of key oil-terminal towns and opening artillery fire on protesters are far more serious than the surreal scene in Cairo's Tahrir Square, when pro-Mubarak riders on camels and horses rode in to attack the crowds.
Clearly the revolt in Libya may have begun as a copycat effect of regional unrest, but its leader Qadhafi will have more to do with scripting how it ends — whether he digs in for a long and bloody civil war or in the chaos he will leave behind after.
(Suhasini Haidar is Deputy Foreign Editor, CNN-IBN. She is the only Indian journalist reporting from Tripoli.)

सोमवार, 7 मार्च 2011

No Intervention in Libya

The CPI(M) expresses its strong opposition to the moves for military intervention in Libya by the United States, Britain and the Nato. The United States has positioned its warships off the coast of Libya. There is talk of imposing a ‘no fly zone’ over Libya. Both the US and the British government leaders have talked about using all options to end the crisis in Libya.
 It is for the people of Libya to decide how to resolve their problems and what type of political system they require. The US and its allies have no right whatsoever to violate the sovereignty of Libya in the name of a humanitarian intervention. Just as in Iraq earlier, the western powers are interested mainly in the oil wealth of Libya and seek to utilize the revolt against the Gaddafi regime to pursue their own interests.
 The Government of India should unambiguously declare that no military intervention of any sort should be resorted to by the United States or Nato. Its whole concentration should be to ensure the evacuation of all Indian nationals from Libya.

बुधवार, 2 मार्च 2011

फ़ैज़ से मेरी मुलाक़ात

सूफ़ी गुलाम मुस्स्तफ़ा ‘तबस्सुमुम’
‘शामे शहरे यारां’ नामक फ़ैज़ के संग्रह की भूमिका में उनके कालेज के छात्रा जीवन की कुछ यादें
उनके शिक्षक तबस्सुम साहब ने दर्ज़ की हैं, ख़ासकर, परीक्षा के सभागार में सिगरेट पीने पर पाबंदी
के कारण बेचैनी और फिर इजाज़त मिल जाने पर कलम की चाल और सिगरेट की कश में
मुक़ाबले की दिलचस्प दास्तान। संन् 1931 था और अक्टूबर का महीना। मुझे सेंट्रल टेनिंग
कॉलेज से गर्वमेंट कॉलेज में आये हुए कोई तीन हफ़्ते गुज़रे थे। पिछले स्कूल में पढ़ने-पढ़ाने की
ख़ुश्क फ़ज़ा और अनुशासन की सख़्ती से तबीयत घुटी-घुटी सी थी। नये कॉलेज में आते ही
तबीयत में खुशी की एक लहर दौड़ गयी। शेरो-शायरी का शौक़ फिर से उभरा। चुनांचे
‘बज़्मे-सुख़न’ की ओर से एक बड़े मुशायरे की सदारत (अध्यक्षता) प्रो. पतरस बुख़ारी के सुपुर्द हुई।
शाम होते ही कॉलेज का हाल छात्रों से भर गया। स्टेज की एक तरफ़ ‘नियाजमंदाने-लाहौर’
अपनी पूरी शान से विराजमान थे। दूसरी ओर सामने लाहौर की तमाम साहित्यिक संस्थाओं के
नुमाइंदे क़तार में सजे बैठे थे। दोनों तरफ़ से सहृदयता और स्पर्धा के माहौल के बावजूद सारी
सभा एक-दूसरे का ख़ैर मक़दम (स्वागत) कर रही थी। रिबायती दस्तूर के मुताबिक अध्यक्ष ने
अपने कॉलेज के छात्रों से शेर पढ़ने का एलान किया। दो-एक छात्रा आये और बड़े अदब और
विनम्रता से कलाम पढ़कर चले गये। अचानक एक दुबला-पतला सा लड़का स्टेज पर प्रकट हुआ।
सियाह रंग, सादा लिबास, अंदाज़ में गंभीरता बल्कि रूखापन, चेहरे पर अजनबी होने का गहरा
एहसास। इधर-उधर कुछ फुसफुसाहट होने लगी। इतने में उसने कहा: अर्ज़ किया है। कलाम में
शुरुआती रियाज़ के बावजूद पुख़्तगी और शैली में सहजता थी। सब ने दाद दी। ये हफ़ीज़
होशियारपुरी थे।
फिर एक नौजवान आये, गोरे चिट्टे, चौड़ा माथा, चाल में शालीनता, आंखें और होंठ जैसे एक ही
समय में हल्की मुस्कान में डूबे हुए। शेर बड़े ढंग और सलीक़े से पढ़े। इशारे हुए, पतरस ने कुछ
मानीख़ेज नज़रों में लाहौर के ‘नियाज़मंदों’ से बातें कीं और उनकी हलकी ख़ामोशी को रज़ा
(सहमति) समझकर दोनों नौजवानों को दोबारा स्टेज पर बुलाया गया। नयी शायरी सुनी। फ़ैज़
साहब ने ग़ज़ल के अलावा एक नज़्म भी सुनायी। ग़ज़ल और नज़्म दोनों में सोच का अंदाज़ और
बयान का अछूता ढंग था। मुशायरा ख़त्म हुआ। तय पाया कि सभी दोस्त इन दोनों को साथ लेकर
ग़रीबख़ाने पर जमा हों।
रात काफ़ी गुज़र चुकी थी, उन्हें बोर्डिंग में पहुंचना था। बुख़ारी साहब ने उनकी ग़ैरहाज़िरी का
ज़िम्मा लिया और फिर घंटे भर के लिए शेरो-शायरी पर बातचीत होती रही। ये उनकी शायरी का
उस्तादों की हौसला अफ़ज़ाई का इम्तिहान था। दोनों कामयाब रहे।
अभी पूरा महीना भी नहीं गुज़रा था कि कॉलेज के इम्तिहान शुरू हुए। जिस दिन की मैं बात कर
रहा हूं उस दिन पतरस साहब कॉलेज हॉल में इम्तिहानात के कर्ताधर्ता थे और हम जैसे नये
तजर्बेकारों को छोटे कमरे सुपुर्द किये गये थे। मुझे कॉलेज की दूसरी मंज़िल में तैनात किया गया।
यहां एम.ए. इंग्लिश के छात्रा थे और उनमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी थे। इम्तिहान का कमरा पाबंदी
वाली जगह होती है। उम्मीदवारों के दिमाग़ी इम्तिहान के साथ-साथ धैर्य और अनुशासन का भी
इम्तिहान होता है। सिगरेट पीना मना था। मैंने अपनी आदत को दबाने के लिए पान का इंतज़ाम
कर लिया था। मगर फ़ैज़ साहब कभी सवालात के पर्चे पर नज़र डालते और कभी मेरी तरफ़
हल्की मुस्कराती नज़रों से देखते और फिर क़लम को उठाकर सर को खु़जाते और कभी ख़ामोशी
से अपने पड़ोसियों का हालचाल लेते, कभी-कभी उनका बायां हाथ ऐसे हरकत करता जैसे किसी
नामालूम राय को टटोल रहे हैं। मैं सोच रहा था। इतने में वो उठे और हमसे पूछा हमें यहां
सिगरेट पीने की इजाज़त है? मैंने कहा, मैं अभी बताता हूं। इतने में पतरस दूसरे कमरों का
मुआयना करते-करते मेरे कमरे के बाहर आकर खड़े हो गये। मैं जब सम्मान में प्लेटफ़ार्म से
उतरकर दरवाज़े पर पहुंचा तो उन्होंने, पूछा: सब कुछ ठीक है? मैंने कहा, जी!
मैंने अर्ज़ किया: प्रोफेसर साहब (मैं उन्हें प्रोफेसर साहब कहा करता था) कुछ छात्रा सिगरेट पीना
चाहते हैं। इजाज़त है? पतरस ने मेरे कान में दबी आवाज़ में कहा: ‘जब तक प्रोफेसर जोधसिंह
इस कॉलेज के प्रिंसीपल नहीं बनते, उस वक्त तक पी सकते हैं।’ और फिर मुस्करा कर चले गये।
मैंने अंदर आते ही फ़ैज़ साहब की तरफ़ देखा और इशारों से सिगरेट पीने का एलान किया। फ़ैज़
साहब के हाथ में फ़ौरन एक सिगरेट प्रकट हुआ। जैसे क़लम ही से उभर आया हो। फिर क़लम
की चाल और सिगरेट के कश में मुक़ाबिला शुरू हुआ और इस कशमकश में सुगंधित धुएं के
ग़्ाुब्बारे पूरे कमरे में फैल गये। मैं उस्ताद (शिक्षक) था, अनुशासन की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ बैठा
रहा और क़िवामदार पान को छोड़कर इस ख़ुशबू से अपने सिगरेट पीने के शौक़ के सुकून में डूब
गया। क्या मालूम था कि धुएं के ये ग्ुब्बारे कॉलेज की चारदीवारी से दूर-दूर तक फ़ज़ा में फैल
जायेंगे और उनमें सिगरेट पीने वाले की सुगंधित सांसों की खुशबूएं भी लहरायेंगी और शेरो-शायरी
और अदब की दुनिया को अपने आग़ोश (गोद) में ले लेंगी।
उर्र्दू से अनुवाद: गोबिंदं प्रसाद

The Great Food Crisis Of 2011

Lester R. Brown
As the new year begins, the price of wheat is setting an all-time high in the United Kingdom. Food riots are spreading across Algeria. Russia is importing grain to sustain its cattle herds until spring grazing begins. India is wrestling with an 18-percent annual food inflation rate, sparking protests. China is looking abroad for potentially massive quantities of wheat and corn. The Mexican government is buying corn futures to avoid unmanageable tortilla price rises. And on January 5, the U.N. Food and Agricultural organization announced that its food price index for December hit an all-time high.
But whereas in years past, it's been weather that has caused a spike in commodities prices, now it's trends on both sides of the food supply/demand equation that are driving up prices. On the demand side, the culprits are population growth, rising affluence, and the use of grain to fuel cars. On the supply side: soil erosion, aquifer depletion, the loss of cropland to nonfarm uses, the diversion of irrigation water to cities, the plateauing of crop yields in agriculturally advanced countries, and—due to climate change —crop-withering heat waves and melting mountain glaciers and ice sheets. These climate-related trends seem destined to take a far greater toll in the future.
There's at least a glimmer of good news on the demand side: World population growth, which peaked at 2 percent per year around 1970, dropped below 1.2 percent per year in 2010. But because the world population has nearly doubled since 1970, we are still adding 80 million pe ople each year. Tonight, there will be 219,000 additional mouths to feed at the dinner table, and many of them will be greeted with empty plates. Another 219,000 will join us tomorrow night. At some point, this relentless growth begins to tax both the skills of farmers and the limits of the earth's land and water resources.
Beyond population growth, there are now some 3 billion people moving up the food chain, eating greater quantities of grain-intensive livestock and poultry products. The rise in meat, milk, and egg consumption in fast-growing developing countries has no precedent. Total meat consumption in China today is already nearly double that in the United States.
The third major source of demand growth is the use of crops to produce fuel for cars. In the United States, which harvested 416 million tons of grain in 2009, 119 million tons went to ethanol distilleries to produce fuel for cars. That's enough to feed 350 million people for a year. The massive U.S. investment in ethanol distilleries sets the stage for direct competition between cars and people for the world grain harvest. In Europe, where much of the auto fleet runs on diesel fuel, there is growing demand for plant-based diesel oil, principally from rapeseed and palm oil. This demand for oil-bearing crops is not only reducing the land available to produce food crops in Europe, it is also driving the clearing of rainforests in Indonesia and Malaysia for palm oil plantations.
The combined effect of these three growing demands is stunning: a doubling in the annual growth in world grain consumption from an average of 21 million tons per year in 1990-2005 to 41 million tons per year in 2005-2010. Most of this huge jump is attributable to the orgy of investment in ethanol distilleries in the United States in 2006-2008.
While the annual demand growth for grain was doubling, new constraints were emerging on the supply side, even as longstanding ones such as soil erosion intensified. An estimated one third of the world's cropland is losing topsoil faster than new soil is forming through natural processes—and thus is losing its inherent productivity. Two huge dust bowls are forming, one across northwest China, western Mongolia, and central Asia; the other in central Africa. Each of these dwarfs the U.S. dust bowl of the 1930s.
Satellite images show a steady flow of dust storms leaving these regions, each one typically carrying millions of tons of precious topsoil. In North China, some 24,000 rural villages have been abandoned or partly depopulated as grasslands have been destroyed by overgrazing and as croplands have been inundated by migrating sand dunes.
In countries with severe soil erosion, such as Mongolia and Lesotho, grain harvests are shrinking as erosion lowers yields and eventually leads to cropland abandonment. The result is spreading hunger and growing dependence on imports. Haiti and North Korea, two countries with severely eroded soils, are chronically dependent on food aid from abroad.
Meanwhile aquifer depletion is fast shrinking the amount of irrigated area in many parts of the world; this relatively recent phenomenon is driven by the large-scale use of mechanical pumps to exploit underground water. Today, half the world's people live in countries where water tables are falling as overpumping depletes aquifers. Once an aquifer is depleted, pumping is necessarily reduced to the rate of recharge unless it is a fossil (nonreplenishable) aquifer, in which case pumping ends altogether. But sooner or later, falling water tables translate into rising food prices.
Irrigated area is shrinking in the Middle East, notably in Saudi Arabia, Syria, Iraq, and possibly Yemen. In Saudi Arabia, which was totally dependent on a now-depleted fossil aq uifer for its wheat self-sufficiency, production is in a freefall. From 2007 to 2010, Saudi wheat production fell by more than two thirds. By 2012, wheat production will likely end entirely, leaving the country totally dependent on imported grain.
The Arab Middle East is the first geographic region where spreading water shortages are shrinking the grain harvest. But the really big water deficits are in India, where the World Bank numbers indicate that 175 million people are being fed with grain that is produced by overpumping. In China, overpumping provides food for some 130 million people. In the United States, the world's other leading grain producer, irrigated area is shrinking in key agricultural states such as California and Texas.
The last decade has witnessed the emergence of yet another constraint on growth in global agricultural productivity: the shrinking backlog of untapped technologies. In some agriculturally advanced countries, farmers are using all available technologies to raise yields. In Japan, the first country to see a sustained rise in grain yield per acre, rice yields have been flat now for 14 years. Rice yields in South Korea and China are now approaching those in Japan. Assuming that farmers in these two countries will face the same constraints as those in Japan, more than a third of the world rice harvest will soon be produced in countries with little potential for further raising rice yields.
A similar situation is emerging with wheat yields in Europe. In France, Germany, and the United Kingdom, wheat yields are no longer rising at all. These three countries together account for roughly one-eighth of the world wheat harvest. Another trend slowing the growth in the world grain harvest is the conversion of cropland to nonfarm uses. Suburban sprawl, industrial construction, and the paving of land for roads, highways, and parking lots are claiming cropland in the Central Valley of California , the Nile River basin in Egypt, and in densely populated countries that are rapidly industrializing, such as China and India. In 2011, new car sales in China are projected to reach 20 million—a record for any country. The U.S. rule of thumb is that for every 5 million cars added to a country's fleet, roughly 1 million acres must be paved to accommodate them. And cropland is often the loser.
Fast-growing cities are also competing with farmers for irrigation water. In areas where all water is being spoken for, such as most countries in the Middle East, northern China, the southwestern United States, and most of India, diverting water to cities means less irrigation water available for food production. California has lost perhaps a million acres of irrigated land in recent years as farmers have sold huge amounts of water to the thirsty millions in Los Angeles and San Diego.
The rising temperature is also making it more difficult to expand the world grain harvest fast enough to keep up with the record pace of demand. Crop ecologists have their own rule of thumb: For each 1 degree Celsius rise in temperature above the optimum during the growing season, we can expect a 10 percent decline in grain yields. This temperature effect on yields was all too visible in western Russia during the summer of 2010 as the harvest was decimated when temperatures soared far above the norm.
Another emerging trend that threatens food security is the melting of mountain glaciers. This is of particular concern in the Himalayas and on the Tibetan plateau, where the ice melt from glaciers helps sustain not only the major rivers of Asia during the dry season, such as the Indus, Ganges, Mekong, Yangtze, and Yellow rivers, but also the irrigation systems dependent on these rivers. Without this ice melt, the grain harvest would drop precipitously and prices would rise accordingly.
And finally, over the longer term, melting ice sheets in Greenland and West Antarctica, combined with thermal expansion of the oceans, threaten to raise the sea level by up to six feet during this century. Even a three-foot rise would inundate half of the riceland in Bangladesh. It would also put under water much of the Mekong Delta that produces half the rice in Vietnam, the world's number two rice exporter. Altogether there are some 19 other rice-growing river deltas in Asia where harvests would be substantially reduced by a rising sea level.
The current surge in world grain and soybean prices, and in food prices more broadly, is not a temporary phenomenon. We can no longer expect that things will soon return to normal, because in a world with a rapidly changing climate system there is no norm to return to.
The unrest of these past few weeks is just the beginning. It is no longer conflict between heavily armed superpowers, but rather spreading food shortages and rising food prices—and the political turmoil this would lead to—that threatens our global future. Unless governments quickly redefine security and shift expenditures from military uses to investing in climate change mitigation, water efficiency, soil conservation, and population stabilization, the world will in all likelihood be facing a future with both more climate instability and food price volatility. If business as usual continues, food prices will only trend upward.
Earth-policy.org