शनिवार, 26 मार्च 2011

आपबीती दास्तान- एक

-फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने 7 मार्च 1984 ई. को अपनी मृत्यु से आठ महीने पहले एशियन स्टडी ग्रुप के निमंत्राण पर
इस्लामाबाद के एक सम्मेलन में बेबाक अंदाज़ में अपनी ज़िंदगी के लंबे सफ़र को जिस तरह बयान किया था, उसे पाठकों के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है; ज़िंदगी के इस सफ़र को ‘पाकिस्तान टाइम्स’ ने दो किस्तों में फ़ैज़ की सालगिरह के अवसर पर 13, 14 जनवरी 1990 के संस्करण में पहली बार प्रकाशित किया था। फ़ैज़ की इस आपबीती को साभार पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है।
मेरा जन्म उन्नीसवीं सदी के एक ऐसे फक्कड़ व्यक्ति के घर में हुआ था जिसकी ज़िंदगी मुझसे कहीं ज़्यादा रंगीन अंदाज़ में गुज़री। मेरे पिता सियालकोट के एक छोटे से गांव में एक भूमिहीन किसान के घर पैदा हुए, यह बात मेरे पिता ने बतायी थी और इसकी तस्दीक गांव के दूसरे लोगों द्वारा भी हुई थी।
मेरे दादा के पास चूंकि कोई ज़मीन नहीं थी इसलिए मेरे पिता गांव के उन किसानों के पशुओं को चराने का काम करते थे जिनकी अपनी ज़मीन थी। मेरे पिता कहा करते थे कि पशुओं को चराने गांव के बाहर ले जाते थे जहां एक स्कूल था। वह पशुओं को चरने के लिए छोड़ देते और स्कूल में जाकर शिक्षा प्राप्त करते, इस तरह उन्होंने प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूरी की। चूंकि गांव में इससे आगे की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी, वह गांव से भाग कर लाहौर पहुंच गये। उन्होंने लाहौर की एक मस्जिद में शरण ली।
मेरे पिता कहते थे कि वह शाम को रेलवे स्टेशन चले जाया करते थे और वहां कुली के रूप में काम करते थे। उस ज़माने में ग़रीब और अक्षम छात्रा मस्जिदों में रहते थे और मस्जिद के इमाम से या आस-पास के मदरसों में निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। इलाक़े के लोग उन छात्रों को भोजन उपलब्ध कराते थे। जब मेरे पिता मस्जिद में रहा करते थे तो उस ज़माने में एक अफ़गानी नागरिक जो पंजाब सरकार का मेयर था, मस्जिद में नमाज़ पढ़ने आया करता था। उसने मेरे पिता से पूछा कि क्या वह अफ़ग़ानिस्तान में अंग्रेज़ी अनुवादक के तौर पर काम करना पसंद करेंगे, तो मेरे पिता ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए अफ़ग़ानिस्तान जाने का इरादा कर लिया। यह वह समय था जब अफ़ग़ानिस्तान के राजमहल में आये दिन परिवर्तन होता रहता था। अफ़ग़ानिस्तान और इंग्लैंड के बीच डूरंड संधि की आवश्यकता का अनुभव भी उसी समय में हुआ और इसीलिए अफ़ग़ानिस्तान के राजा ने मेरे पिता को अंग्रेज़ों के साथ बात-चीत करने में सहायता करने के उद्देश्य से दरबार से अनुबंधित कर लिया। इसके बाद वह मुख्य सचिव और फिर मंत्राी भी नियुक्त हुए। उनके ज़माने में विभिन्न क़बीलों का दमन किया गया जिसके परिणामस्वरूप हारने वाले क़बाइल (क़बीला का बहुवचन) की ख़ास औरतों को राजमहल के कारिंदों में वितरित कर दिया जाता था। ये औरतें मेरे पिता के हिस्से में भी आयीं, नहीं मालूम उनकी संख्या तीन थी या चार।
बहरहाल अफ़ग़ानिस्तान के राजमहल में पंद्रह साल सेवा देने के बाद वह तंग आ गये और उनका ऊब जाना स्वाभाविक भी था क्योंकि राजा के अफ़ग़ानी मूल के कर्मचारियों को एक विदेशी का दरबार में प्रभावी होना खटकता था। मेरे पिता को प्रायः ब्रितानी एजेंट घोषित किया जाता और जब उस अपराध के फलस्वरूप उन्हें मृत्युदंड दिये जाने की घोषणा होती तो नियत समय पर यह सिद्ध हो जाता के वह निर्दोष हैं और उन्हें आगे पदोन्नति दे दी जाती। लेकिन एक दिन उन्होंने फ़कीर का भेस बदला और अफ़गानिस्तान के राजमहल से फ़रार हो गये और लाहौर वापस आ गये लेकिन यहां वापस आते ही उन्हें अफ़ग़ानी जासूस होने के आरोप में पकड़ लिया गया। मेरे पिता की तरह फक्कड़ाना स्वभाव रखने वाली एक अंग्रेज़ महिला भी उस ज़माने में डाक्टर के रूप में दरबार से जुड़ी थी। उसका नाम हैमिल्टन था। उससे मेरे पिता की मित्राता हो गयी थी। अफ़ग़ानिस्तान के राजा से उसे जो भी पुरस्कार मिला था उसे उसने लंदन में सुरक्षित कर रखा था। इस प्रकार जब मेरे पिता अफ़ग़ानिस्तान से निकल भागे तो उसने उन्हें लिखा ‘तुम लंदन आ जाओ’। इस आमंत्राण पर मेरे पिता लंदन पहुंच गये और जब ब्रिटेन की सरकार को उनके लंदन आगमन की सूचना मिली तो मेरे पिता को यह संदेश मिला कि चूंकि अब तुम लंदन में हो तो मेरे दूत क्यों नहीं बन जाते? मेरे पिता ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। और साथ ही उन्होंने कैंब्रिज में अपनी आगे की शिक्षा का क्रम भी जारी रखा। वहीं उन्होंने क़ानून की डिग्री भी प्राप्त की। मेरे पिता का नाम सुल्तान था इसलिए मैं फ़ारसी का यह मुहावरा तो अपने लिए दुहरा ही सकता हूं कि ‘पिदरम सुल्तान बूद’ (मेरे पिता राजा थे)।
क़ानून की डिग्री प्राप्त करने के बाद मेरे पिता सियालकोट लौट आये। मेरी आरंभिक शिक्षा मुहल्ले की एक मस्जिद में हुई। शहर में दो स्कूल थे एक स्कॉच मिशन की और दूसरा अमरीकी मिशन की निगरानी में चलता था। मैंने स्कॉच मिशन के स्कूल में प्रवेश ले लिया। यह हमारे घर से नज़दीक था। यह ज़माना ज़बरदस्त राजनीतिक उथल-पुथल का था। प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हो चुका था और भारत में कई राष्ट्रीय आंदोलन आकर्षण का केंद्र बन रहे थे। कांग्रेस के आंदोलन में हिंदू और मुसलमान दोनों ही क़ौमें हिस्सा ले रही थीं लेकिन इस आंदोलन में हिंदुओं की बहुलता थी। दूसरी ओर मुसलमानों की तरफ़ से चलाया जाने वाला खि़लाफ़त आंदोलन था। प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर परिदृश्य यह था कि तुर्क क़ौम ब्रितानी और यूनानी आक्रांताओं
के विरुद्ध पंक्तिबद्ध थी परंतु उस्मान वंशीय खि़लाफ़त को बचाया नहीं जा सका और तुर्की अंततः कमाल
अतातुर्क के क्रांतिकारी विचारों के प्रभाव में आ गया जिन्हें आधुनिक तुर्की का निर्माता कहा जाता है।
एक तीसरा आंदोलन सिक्खों का अकाली आंदोलन था जो सिक्खों के सभी गुरुद्वारों को अपने अधीन
लेने के लिए आंदोलनरत था। इस प्रकार लगभग छः सात साल तक हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख तीनों
ही अंग्रेज़ के विरुद्ध एक साझे एजेंडे के तहत आंदोलन चलाते रहे।
हमारे छोटे से शहर सियालकोट में जब भी महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू और सिक्खों के नेता आते
थे तो पूरा शहर सजाया जाता, बड़े-बड़े स्वागत द्वार फूलों से बनाये जाते थे और पूरा शहर उन नेताओं
के स्वागत में उमड़ पड़ता था। राजनीतिक गहमागहमी का यह दौर हमारे मन पर अपने प्रभाव छोड़ने
का कारण बना।
इसी दौरान रूस में अक्टूबर क्रांति घटित हो चुकी थी और उसका समाचार सियालकोट तक भी पहुंच रहा था। मैंने लोगों को कहते हुए सुना कि रूस में लेनिन नाम के एक व्यक्ति ने वहां के बादशाह का तख़्ता उलट दिया है और सारी संपत्ति श्रमजीवियों में बांट दी है। स्कूल की पढ़ाई का यही वह ज़माना था जब शायरी में मेरी रुचि उत्पन्न हुई। इसके पीछे दो कारण थे। हमारे घर के पास एक नौजवान किताबें किराये पर पढ़ने के लिए दिया करता था। मैंने उससे किराये पर किताबें लेनी शुरू कर दीं और धीरे-धीरे मैंने उसकी ऐसी सभी किताबें पढ़ डालीं जो क्लासिक साहित्य से संबंधित थीं। मेरा सारा जेब ख़र्च भी किताबें किराये पर लेने में खर्च हो जाता था। उस ज़माने में सियालकोट का एक प्रसिद्ध साहित्यिक व्यक्तित्व अल्लामा इक़बाल का था जिनकी नज़्मों को बड़े शौक से सभाओं में गाया और पढ़ा जाता था। वहां एक प्राथमिक विद्यालय भी था जिसमें मैं पढ़ता था। वहां
मुशायरे भी होते थे, यह मेरे स्कूल की शिक्षा के अंतिम दिन थे। हमारे हेडमास्टर ने हमसे एक दिन कहा
कि मैं तुम्हें एक मिसरा देता हूं, तुम इस पर आधारित पांच छः शेर लिखो, हम तुम्हारे कलाम (ग़ज़ल)
को शायर इक़बाल के उस्ताद के पास भेजेंगे और वह जिस कलाम को पुरस्कार का अधिकारी घोषित
करेंगे उसे ही पुरस्कार मिलेगा। इस तरह मैंने शायरी के उस पहले मुक़ाबले में पुरस्कार के रूप में एक
रुपया प्राप्त किया था, जो उस ज़माने में बहुत समझा जाता था। सियालकोट में दो साल गुज़ारने के
बाद मैंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में प्रवेश ले लिया। सियालकोट से लाहौर आना रोमांच से भरपूर
था। यूं लगा जैसे कोई गांव छोड़ के किसी अजनबी शहर में आ गया हो। उसकी वजह यह भी थी कि
उस ज़माने में सियालकोट में न बिजली थी और न पानी के नल थे। भिश्ती पानी भरते थे या फिर कुंओं
से पानी भरा जाता था। कुछ बड़े घरों में पीने के पानी के कुंए उपलब्ध थे। हम सब ही उस ज़माने में
मिट्टी के तेल से जलने वाली लालटेनों की रौशनी में पढ़ते थे। यह लालटेन बड़ी ख़ूबसरूत हुआ करती
थी। सियालकोट में मोटर कभी नहीं देखी। वहां के सभी अधिकारी बग्घियों में आते जाते थे। मेरे पिता
के पास दो घोड़ों वाली बग्घी थी। जब मैं लाहौर आया तो हैरान रह गया। यहां मोटरें थीं, औरतें बिना
बुर्क़े के नज़र आ रही थीं। और लोग अजनबी पहनावे अपने बदन पर पहने हुए थे। हमारे कॉलेज में
आधे से अधिक शिक्षक अंग्रेज़ थे। हमारे अंग्रेज़ी के शिक्षक लैंघम (स्ंदहीवउ) थे, जो बहुत कड़े स्वभाव
के थे, लेकिन शिक्षक बहुत अच्छे थे। मैंने अंग्रेज़ी के पर्चे में 150 में से 63 नंबर लिये तो सब दंग
रह गये। कॉलेज में मेरा क़द बढ़ गया। और मुझे यह सलाह दी जाने लगी कि मैं इंडियन सिविल सर्विस
की परीक्षा की तैयारी करूं। मैंने निश्चय कर लिया कि मैं परीक्षा में बैठूंगा लेकिन मैं इंडियन सिविल
सर्विस की परीक्षा की तैयारी करने के बजाय धीरे-धीरे शायरी करने लगा। इस परिस्थति के लिए कई
कारण ज़िम्मेदार थे। एक यह कि डिग्री प्राप्त करने से पहले ही मेरे पिता का निधन हो गया और हमें
यह पता चला कि वह जो कुछ संपत्ति छोड़ गये हैं उससे कहीं अधिक कर्ज़ चुकाने के लिए छोड़ गये
थे और इस तरह शहर का एक खाता-पीता ख़ानदान हालात के झटके में ग़रीब और असहाय हो गया।
दूसरा जो मेरे और मेरे ख़ानदान की परेशानियों का कारण बना वह व्यापक आर्थिक संकट और मंदी था
जिसके प्रभाव से उस ज़माने में कोई भी व्यक्ति सुरक्षित न रह सका। मुसलमानों पर इसका प्रभाव अधिक
पड़ा, चूंकि उनमें बहुतायत खेतिहर लोगों की थी। मंदी का प्रभाव कृषि पर अधिक पड़ा था। नतीजा यह
हुआ कि गांव से शहर की ओर पलायन आरंभ हो गया क्योंकि छोटी जगहों में रोज़गार उपलब्ध कराने
वाले संसाधन नहीं थे और ऐसे संसाधन पर प्रायः हिंदुओं का क़ब्जा था। सरकारी नौकरी भी एक रास्ता था लेकिन चूंकि मुसलमान शिक्षा के क्षेत्रा में काफ़ी पिछडे़ हुए थे इसलिए यहां भी उनके लिए अधिक
अवसर नहीं थे। मेरे और मेरे ख़ानदान के लिए यह ज़माना राजनीतिक और वैयक्तिक कारणों से परीक्षा
और परेशानियों का था। इस तनाव और सोच-विचार को अभिव्यक्ति के माध्यम की आवश्यकता थी सो
यह शायरी ने पूरी कर दी।
मेरी उम्र 17-18 साल के आस-पास थी और जैसा कि होता है मैं बचपन से ही साथ खेलने वाली एक अफ़ग़ान लड़की की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गया। वह बचपन में तो सियालकोट में थी लेकिन बाद में उसका ख़ानदान आज के फैसलाबाद के समीप एक गांव में आबाद हो गया था। मेरी एक बहन की उसी गांव में शादी हुई थी। जब मैं अपनी बहन के पास गया तो उसके घर भी गया, वह लड़की तब पर्दा करने लगी थी। एक सुबह मैंने उसे तोते को कुछ खिलाते हुए देखा। वह बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और एक दूसरे की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गये। हम छुप-छुप के मिलते रहे और एक दिन जैसा कि होता है उसकी कहीं शादी हो गयी और जुदाई का यह अनुभव छः-सात बरस तक मुझे उदास करता रहा। इस अवधि में मेरी शिक्षा भी जारी रही और शायरी भी। स्थानीय मुशायरे में तीसरी बार जब मुझे भाग लेने का अवसर मिला तो मेरी शायरी को काफ़ी सराहा गया और इस तरह लाहौर जैसे शहर की बड़ी साहित्यिक हस्तियां मेरी शायरी से परिचित हुईं और सबने मुझे अपना आशीर्वाद देना चाहा। मैं अब अच्छा ख़ासा शायर बन चुका था।
यही वह दौर था जब उपमहाद्वीप में उग्रपंथ के पहले आंदोलन का आरंभ हुआ। उस आंदोलन के प्रभाव हमारे कॉलेज के अंदर भी पहुंच रहे थे और मेरा एक अभिन्न मित्रा जिसे बाद में एक प्रसिद्ध संगीतकार ख़्वाजा ख़ुर्शीद अनवर के रूप में जाना गया, उस आंदोलन का सक्रिय कार्यकर्त्ता था। वह बम बनाने के लिए कॉलेज की  प्रयोगशाला से तेज़ाब चुराने के अपराध में गिरफ़्तार कर लिया गया। उसे तीन साल की सज़ा भी सुनायी गयी। वह कुछ समय तक ज़रूर जेल में रहा था लेकिन बाद में वह अपने प्रभावशाली पिता के रसूख के कारण छूट गया। मेरी बहुत सी जानकारियों का माध्यम वही था। वह अक्सर अपने आंदोलन का साहित्य मेरे कमरे में छोड़ जाता और जब कभी मैं उसे पढ़ता तो मेरे ऊपर जुनून सा छा जाता था, क्योंकि मेरे पिता अंग्रेज़ों के वफ़ादार और उपाधि प्राप्त थे लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि मैं उग्रपंथियों के आंदोलन और उसके बहुत से  राजनीतिक समूहों से परिचित हो गया। मेरे ऊपर उसका कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन वह सब कुछ मेर लिए महत्वहीन नहीं था। तीन चार साल बाद मैंने पहले अंग्रेज़ी में और फिर अरबी में एम.ए. कर लिया और फिर मैंने शिक्षण का कार्य अपना लिया। उससे मुझे काफ़ी सहारा मिला और खानदान को आर्थिक संकटों से उबारने में सहायता भी। इस अवधि में मेरे कॉलेज के ज़माने के दो साथी आक्सफ़ोर्ड से मार्क्सिस्ट होकर लौटे थे। उनके अलावा उच्च घरानों के कुछ और लड़के भी इंग्लैंड की यूनवर्सिर्टियों से कम्युनिस्ट विचार लेकर
लौटे थे। उनमें से कुछ तो राजनीतिक दृष्टिकोण से व्यस्त हो गये, कुछ ने नौकरी के चक्कर में इस तरह
के विचार को छोड़ दिया। लेकिन इसी टोली के नेतृत्व में साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन का आंरभ हुआ। यह साहित्यिक आंदोलन, कम्युनिस्ट या मार्क्सिस्ट आंदोलन नहीं था। वैसे उसमें सक्रिय भाग लेने वालों में कुछ कम्युनिस्ट भी थे और मार्क्सिस्ट भी। असल में प्रगतिशील आंदोलन साहित्य में सामाजिक यथार्थ को बढ़ावा देने से संबंध रखता था और रूढ़िबद्ध होकर कविता करने को बुरा समझता था। भाषा की कलाबाज़ी भी इस आंदोलन के लिए व्यर्थ थी। इस आंदोलन के प्रभावस्वरूप यथार्थवादी और राजनीतिक गीतों के चलन को बढ़ावा मिला। इस प्रकार का साहित्यिक चलन यूरोप और अमेरिका में भी फ़ासीवाद विरोधी साहित्यिक प्रवृत्ति के रूप में उभरा, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक सरोकार वाले साहित्य का जन्म हुआ।
1932-35 के मध्य का यही वह समय था जब उस साहित्यिक, राजनीतिक आंदोलन से मेरा जुड़ाव शुरू हुआ। मज़दूरों, श्रमजीवियों और किसानों के आंदोलनधर्मी गीत और राजनीतिक अभिव्यक्ति और नयी-पुरानी काव्य पद्धति के मिश्रण को लोगों ने सराहा और उन्हें पसंद भी किया। जब 1941 में मेरा पहला संग्रह प्रकाशित हुआ तो वह तेज़ी से बिक गया। फिर द्वितीय विश्व युद्ध की लहर आयी लेकिन हम लोगों ने उसका ज़्यादा नोटिस नहीं लिया। हमारे विचार में उस युद्ध से ब्रिटेन और जर्मनी का सरोकार था मगर 1941 में जापान भी उस युद्ध में शामिल हो गया तो हमें कुछ आभास हुआ। क्योंकि उस समय अगर एक ओर जापानी भारत की सीमा तक आ गये थे तो दूसरी ओर नाज़ियों और फासिस्टों के क़द़म मास्को और लेनिनग्राद तक पहुंच गये थे और तभी हमने महसूस किया कि युद्ध से हमारा संबद्ध होना आवश्यक है। इसलिए हम फ़ौज में शामिल हो गये। मुझे याद है पहले दिन जनसंपर्क विभाग के निरीक्षक एक ब्रिगेडियर के सामने मेरी पेशी हुई। वह आपैचारिक रूप से फ़ौजी नहीं था, वह बहुत ज़िंदादिल आइरिश था और लंदन टाइम्स से संबंध रखने वाला एक पत्राकार था। मुझे देखकर उसने कहा तुम्हारे बारे में पुलिस की खुफ़िया रिपोर्ट कहती है कि तुम एक पक्के कम्युनिस्ट हो, बताओ हो या नहीं। मैंने कहा मुझे नहीं पता कि पक्का कम्युनिस्ट कौन होता है। मेरा यह उत्तर सुनकर उसने कहा मुझे इससे
कोई मतलब नहीं, चाहे तुम फ़ासीवादी विचार ही क्यों न रखते हो, जब तक तुम हमें कोई धोखा नहीं देते; मैं समझता हूं तुम धोखा नहीं दोगे। मैंने समर्थन में सिर हिला दिया।
यही वह ज़माना था जब ब्रिटेन और मित्रा देशों के बीच संबंध बहुत अच्छे नहीं थे। उधर महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ कर दिया था, जो पूरे देश में आग की तरह फैल गया था। ब्रिटेन के सामने दो संकट थे। एक तो फ़ौज़ में लोगों की भर्ती और दूसरे सरकार के विरुद्ध ज़ोर पकड़ता हुआ जन आंदोलन। ब्रिटेन की फ़ौज के ब्रिगेडियर ने मुझसे इस आंदोलन के विषय में विचार-विमर्श करते हुए पूछा तो मैंने कहा कि ब्रिटेन अपने अस्तित्व के लिए भाग ले रहा है, जापान ब्रिटेन के लिए एक बड़ा ख़तरा है और अगर जापान तथा जर्मनी विजयी होते हैं तो ब्रिटेन को सौ-दो सौ साल तक गु़लाम रहने का दंश झेलना होगा, और इसका मतलब यह है कि हमें अपने देश को इस कष्ट से सुरक्षित रखने के लिए ब्रिटेन की फ़ौज का हिस्सा बनकर लड़ना चाहिए। अंग्रेज़ अपने लिए नहीं लड़ रहा है वह भारत के लिए लड़ रहा है। मेरे इस तर्क को सुनकर उसने कहा तुम जो कुछ कह रहे हो ये तो सब राजनीति है मगर इस तर्क को फ़ौज के लिए स्वीकार्य कैसे बनाया जाये? मैंने कहा कि इस विचार को फ़ौज के लिए स्वीकार्य बनाने का तरीक़ा वही होना चाहिए जो कम्युनिस्टों का है। उसने चौंककर पूछा क्या मतलब? मेरा जवाब था, हम कम्युनिस्ट एक छोटी टोली बनाते हैं। फ़ौज के हर यूनिट में इस तरह की
एक विशेष टोली बनाने के बाद हम अफ़सरों को यह बताते हैं कि फ़ासिज़्म क्या है और उन्हें यह भी समझाते हैं कि जापान और इटली वालों के इरादे क्या हैं। इसके बाद उन अफ़सरों से कहा जाता है कि वे उक्त टोली में बतायी जाने वाली बातों को अपने यूनिटों के सिपाहियों को जाकर समझायें और बतायें। इस तरह हम इस रणनीति के तहत पहले फ़ौजी अफ़सरों को मानसिक रूप से सुदृढ़ करते थे और फिर उनके माध्यम से आशिक्षित सिपाहियों को भी एक दिशा देते थे। इस पद्धति का विरोध भी बहुत हुआ।
बात वायसराय, कमांडर-इन-चीफ़ और फिर इंडिया आफ़िस तक पहुंची। मुझसे कहा गया कि मैं अपनी
योजना को लिखित रूप में प्रस्तुत करूं। अंततः इस योजना को मंज़ूरी मिल गयी और हमने फिर ‘जोश
ग्रुप’ बनाये जो बहुत सफल रहा और इसके परिणामस्वरूप मैं ब्रिटेन द्वारा सम्मानित किया गया और
तीन सालों में कर्नल बना दिया गया। उस ज़माने में ब्रितानी फ़ौज में एक भारतीय के लिए इससे ऊंचा
फ़ौजी पद कोई और नहीं था। उस ज़माने में मुझे फ़ौज की कार्य पद्धति और ब्रितानी सरकार को जानने
का अवसर मिला। मुझे पत्राकारिता का अनुभव भी उसी ज़माने में हुआ, क्योंकि सभी मोर्चे पर भारतीय
फ़ौज के प्रचार का काम मेरे ही जिम्मे था और मैं बहुत हद तक भारतीय फ़ौज के लिए राजनीतिक अधिकारी (पॉलीटिकल कमिश्नर) का काम करने लगा। युद्ध की समाप्ति पर मैं फ़ौज से अलग हो गया। उस समय मेरे सामने दो रास्ते थे या तो विदेश सेवा से संबंद्ध हो जाता या फिर सिविल सेवा से। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।
यह वह ज़माना था जब पाकिस्तान के लिए आंदोलन और भारतीय कांग्रेस का स्वाधीनता आंदोलन अपने चरम पर था। मेरे एक पुराने मित्रा जो एक बड़े ज़मींदार भी थे और जो पंजाब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहने के बाद मुस्लिम लीग में आ गये थे मुझसे कहने लगे कि मैं सिविल सेवा में जाने की इच्छा समाप्त कर दूं क्योंकि वह लाहौर से एक अंग्रेज़ी दैनिक निकालने की योजना बना रहे थे। उन्होंने उस अख़बार का संपादन करने का प्रस्ताव दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया और मैंने जनवरी 1947 में लाहौर आकर पाकिस्तान टाइम्स का संपादन संभाल लिया। मैं चार साल पाकिस्तान टाइम्स का संपादक रहा। इसी अवधि में पाकिस्तान टेªड यूनियन का उपाध्यक्ष भी मुझे बना दिया गया। 1948 में नागासाकी और हिरोशिमा पर होने वाली बमबारी के बाद कोरियाई युद्ध भी छिड़ गया। इस बीच स्काटहोम से यह अपील आयी कि हम शांति-स्थापना के लिए आंदोलन चलायें। उस अपील के समर्थन में अमन कमेटी की स्थापना हुई और मुझे उसका संचालक बना दिया गया। अब मैं ट्रेड यूनियन, अमन कमेटी और पाकिस्तान टाइम्स तीनों मोर्चे पर सक्रिय था और सक्रियता तथा कार्यशैली के लिहाज़ से यह बहुत व्यस्त समय था। उसी ज़माने में आई.एल.ओ की एक मीटिंग में भाग लेने के लिए पहली बार देश से बाहर जाने का अवसर मिला। मैंने सन फ्ऱांसिस्को के अतिरिक्त जेनेवा में भी दो अधिवेशनों में भाग लिया और इस तरह अमेरिका और यूरोप से मैं पहली बार परिचित हुआ।
1950 में मेरी मुलाक़ात अपने एक पुराने मित्रा से हुई। यह जनरल अकबर ख़ान थे जो उस वक़्त
फ़ौज में चीफ़ आफ़ जनरल स्टाफ़ नियुक्त हुए थे। जनरल अकबर ने बर्मा और कश्मीर के मोर्चे पर होने वाले युद्धों में बड़ा नाम कमाया था। मैं इस साल मरी में छुट्टियां बिताने गया हुआ था। वहीं उनसे भेंट हुई। बातों के दौरान उन्होंने कहा कि हम लोग फ़ौज में हैं। उन्होंने यह भी बताया कि जिन्होंने कश्मीर में हुई मोर्चेबंदी का सामना किया है वे देश की वर्तमान परिस्थिति से असंतुष्ट हैं और यह मानते हैं कि देश का नेतृत्व कायरों के हाथों में है। हम अभी तक अपना कोई संविधान नहीं बना पाये। चारों ओर अव्यवस्था और वंशवाद का चलन है। चुनाव की कोई संभावना नहीं, हम लोग कुछ करना चाहते हैं। मैंने पूछा क्या करना चाहते हो? उनका जवाब था हम सरकार का तख़्ता पलटना चाहते हैं और एक विपक्षी सरकार बनाना चाहते हैं। मैंने कहा यह तो ठीक है लेकिन उन्होंने मेरी राय भी मांगी। मैंने कहा यह तो सब फ़ौजी क़दम है। इसमें मैं क्या राय दे सकता हूं। इस पर जनरल अकबर ख़ान ने मुझे अपनी गोष्ठियों में आने और उनकी योजनाओं के बारे में जानकारी लेने की बात कही। मैं अपने दो ग़ैर-फ़ौजी दोस्तों के साथ उनकी गोष्ठी में गया और उनकी योजनाओं से अवगत हुआ। उनकी योजना यह थी कि राष्ट्रपति भवन, रेडियो स्टेशन वगै़रह पर क़ब्ज़ा कर लिया जाये और फिर राष्ट्रपति से यह घोषणा करवा दी जाये कि सरकार का तख़्ता पलट दिया गया है और एक विपक्षी सरकार सत्ता में आ गयी है। छः महीने के भीतर चुनाव कराये जायेंगे और देश का संविधान निर्मित किया जायेगा। इसके अरिक्ति अनगिनत सुधार किये जायेंगे। इस पर पांच छः घंटे तक बहस होती रही और अंततः यह तय हुआ कि अभी कुछ न किया जाये क्योंकि अभी देश किसी भी ऐसी स्थिति से नहीं जूझ रहा है कि जिसके आधार पर जनता को आंदोलित किया जाये। दूसरे, इस तरह की योजनाओं के क्रियान्वयन में ख़तरों का सामना करना पड़ता है। उस समय पाकिस्तान के प्रधानमंत्राी लियाक़त अली ख़ान थे। किसी तरह इस योजना की ख़बर सरकार के कानों तक पहुंच गयी। मैं तो इस अवधि में उन सभी घटनाओं को भूल चुका था कि अचानक सुबह चार बजे मेरे घर को फ़ौजियों ने घेर लिया और मुझसे कहा गया कि मैं उनके साथ चलूं। मैंने कारण पूछा तो मुझे जवाब मिला कि मुझे गवर्नर जनरल के आदेश से गिरफ़्तार किया जा रहा है। चार महीने तक मुझे कै़द रखा गया और फिर मुझे मालूम हुआ कि मुझे क्यों क़ैद किया गया। संवधिान सभा ने एक विशेष अधिनियम को पारित किया और उसे रावलपिंडी षड्यंत्रा अधिनियम का नाम दिया गया। उस अधिनियम के तहत हम पर गुप्त मुक़द्दमा चलाया गया। अंग्रेज़ों के ज़माने से ही षड्यंत्रा संबंधी क़ानून बड़े ख़राब थे। आप कुछ कर नहीं सकते थे। अगर यह सिद्ध हो जाये कि दो व्यक्तियों ने मिलकर क़ानून तोड़ने की योजना बनायी है तो उसे षड्यंत्रा का नाम दे दिया जाता था और अगर कोई तीसरा व्यक्ति इसकी गवाही दे दे तो फिर अपराध सिद्ध मान लिया जाता था। सरकार ने अधिनियम बनाकर बचाव करने की सभी संभावनाओं को समाप्त कर दिया था। बनाये जाने वाले अधिनियम के तहत तो केवल सज़ा ही मिल सकती थी, भागने का कोई रास्ता भी नहीं था। यह मुक़द्दमा डेढ़ साल तक  चलता रहा और हममें से हर एक के लिए उसके पद के अनुसार भिन्न-भिन्न दंड निश्चित किये गये। जनरल को दस साल, ब्रिगेडियर को सात साल, कर्नल को छः साल और हम सब असैनिकों को उससे कम यानी चार साल की क़ैद की सज़ा सुनायी गयी।
मेरी हिरासत का यही वह समय था जो रचनात्मक रूप से मेरे लिए बहुत उर्वर सिद्ध हुआ। मेरे पास लिखने-पढ़ने के लिए वक़्त ही वक़्त था, फिर मुझमें शासकों के विरुद्ध बहुत आक्रोश और क्रोध था, क्योंकि मैं निर्दोष था। इसी अवधि में मेरी शायरी के दो संग्रह, काल कोठरी के उस दौर में तैयार हो गये। एक तो हिरासत के दिनों में ही प्रकाशित हो गया था और दूसरा मेरी रिहाई के बाद प्रकाशित हुआ। जब आप को चार साल के क़रीब जेल में रखा गया हो और बंदी होने का दुख भी आपके हिस्से में आया हो, तो निश्चित रूप से बाहर की  दुनिया में आपका मूल्य बढ़ जाता है। जब मैं जेल से बाहर आया तो मुझे अनुभव हुआ कि मैं पहले की तुलना में अधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय हो गया हूं। मैं दोबारा पाकिस्तान टाइम्स से जुड़ गया और मैंने अमन कमेटी तथा ट्रेड यूनियन से अपने संबंध फिर से स्थापित कर लिये। यह तीन चार साल का समय ऐसी ही गहमागहमी में गुज़र गया। पाकिस्तान में वामपंथी आंदोलनों पर पाबंदी लगा दी गयी। यही स्थिति तीन चार साल तक जारी थी कि देश में पहला मार्शल लॉ लागू हो गया और पहली सैनिक सरकार स्थापित हो गयी, जिसका अर्थ था कि किसी भी व्यक्ति को बिना किसी अपराध के गिरफ़्तार किया जा सकता है। उस समय के मार्शल लॉ ने एक अत्याचार यह भी किया कि हर उस व्यक्ति को पकड़ना शुरू कर दिया गया जिसका नाम 1920 के बाद की पुलिस रिपोर्टों में दर्ज़ मिला था। इस तरह जेल में हमें नब्बे साल और अस्सी साल के बूढ़े मिले, कुछ की तपेदिक तथा अन्य बीमारियों के कारण जेल में ही मृत्यु हो गयी। मैंने लाहौर क़िला में डेढ़ महीने गुज़ारा और फिर चार पांच महीने के बाद मुझे रिहा कर दिया गया। मैंने फिर पाकिस्तान टाइम्स के दफ़्तर की ओर रुख़ किया और तब
मैंने देखा कि उसका दफ़्तर पुलिस के घेरे में था। मेरे पूछने पर पता चला कि पाकिस्तान टाइम्स पर फ़ौजी सरकार ने क़ब्जा कर लिया है और इस तरह मेरी पत्राकारिता का अंत हो गया। मैं ऊहापोह में था कि क्या करूं। उन दिनों एक अमीर वर्ग जो मेरी शायरी को पसंद करता था, मेरी चिंता से अवगत था। उन लोगों ने पूछा आप क्या करना चाहते हैं? मैंने कहा मुझे नहीं मालूम तो किसी ने सुझाव दिया, क्यों न संस्कृति से संबंधित कोई गतिविधि आरंभ की जाये। मैंने कहा यह अच्छा विचार है और इस प्रकार हमने लाहौर में ‘आर्ट कौंसिल’ की स्थापना की। कौंसिल एक पुराने और टूटे-फूटे घर में थी जो आज के आलीशान भवन जैसा आकर्षक नहीं था। कौंसिल का आरंभ हुआ और उसके भवन में प्रदर्शनियों, नाटकों और आयोजनों का तांता लगा रहता था। तीन चार साल तक यह गतिविधि चलती रही और मैं इसी अवधि में बीमार पड़ गया। पहली बार दिल का दौरा पड़ा। और इसी बीच मुझे लेनिन विश्व शांति पुरस्कार दिये जाने की घोषणा हुई। किसी ने मुझे फोन पर ख़बर सुनायी तो मुझे विश्वास नहीं हुआ,
मैंने जवाब में कहा बकवास मत करो, मैं पहले ही बीमार हूं। मेरे साथ ऐसा मज़ाक न करो। उसने उत्तर में कहा, मैंने टेलीप्रिंटर पर यह ख़बर ख़ुद देखी है, तुम्हारे साथ पुरस्कार पाने वालों में पिकासो और दूसरे भी हैं। जब मैं स्वस्थ हो गया तो मुझे पुरस्कार ग्रहण करने और मास्को आने के लिए आमंत्रित किया गया। मैं मास्को के बाद लंदन चला गया और लंदन में दो वर्ष तक रहा। मैं लंदन से लाहौर आने के बजाय कराची लौट आया। कराची में मैं मिस्टर महमूद हारून के निवास स्थान पर ठहरा। उनकी बहन जो डाक्टर थीं और मेरी मित्रा थीं, उन्होंने मुझे लिखा कि श्रीमाती हारून बीमार हैं और आपको देखना और मिलना चाहती हैं। मेरे आने पर श्रीमती हारून ने मुझे बताया कि उनका जो फ़लाही फ़ाउंडेशन है उसके अधीन स्कूल, अस्पताल और अनाथालय चल रहा है। उनके लड़के के पास फ़ाउंडेशन चलाने के लिए समय नहीं है क्योंकि वह व्यापार तथा राजनीतिक गतिविधियों में व्यस्त रहे हैं। अच्छा होगा कि फ़ाउंडेशन की व्यवस्था मैं संभाल लूं। मैंने फ़ाउंडेशन के स्थान पर उसकी गतिविधियों का निरीक्षण किया तो देखा कि वह गंदी बस्ती का इलाक़ा था, जहां मछुआरे, ऊंट वाले, नशीली दवाओं का व्यापार करने वाले और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त व्यक्ति रहा करते थे। मुझे यह इलाक़ा अच्छा लगा, और हमने इस क्षेत्रा में अपनी गतिविधि तेज़ कर दी। स्कूल को कॉलेज में परिवर्तित कर दिया, एक तकनीकी संस्थान भी स्थापित किया और अनाथालय की भी व्यवस्था की। इस प्रकार कोई आठ साल तक मैं शैक्षणिक और प्रशासनिक गतिविधियों से जुड़ा रहा। इस बीच 65 और 71 के युद्ध भी हुए। इन दोनों युद्धों के दौरान मैं अत्यधिक मानसिक तनाव से प्रभावित रहा। उसका कारण यह था कि मुझसे बार-बार देशभक्ति के
गीत लिखने की फ़रमाइश की जा रही थी। मेरे इनकार पर यह ज़ोर दिया जाता कि देशभक्ति और मातृभूमि की मांग यही है कि मैं युद्ध के या देशभक्ति के गीत लिखूं। लेकिन मेरा तर्क यह था कि युद्ध अनगिनत व्यक्तियों के लिए मृत्यु का कारण बनेगा और दूसरे पाकिस्तान को इस युद्ध से कुछ नहीं मिलने वाला है। इसलिए मैं युद्ध के लिए कोई गीत नहीं लिखूंगा। लेकिन मैंने 65 और 71 के युद्धों के विषय में नज़्में लिखीं, 65 के युद्ध से संबंधित मेरी दो नज़्में हैं।...
बांग्लादेश युद्ध के ज़माने में मैंने तीन-चार नज़्में लिखीं। लेकिन उन नज़्मों की रचना में युद्ध गीतों का आग्रह करने वालों को मुझसे और भी निराशा हुई। परिणामस्वरूप मुझे सिंध में भूमिगत हो जाना पड़ा। युद्ध समाप्त हुआ तो पाकिस्तान के दो टुकड़े हो चुके थे। चुनाव के बाद फ़ौजी सरकार समाप्त हो गयी थी और भुट्टो के नेतृत्व में पीपुल्स पार्टी की सरकार स्थापित हो चुकी थी। उनसे मेरे अच्छे संबंध थे उस ज़माने में जब वह विदेश मंत्राी थे और उस समय भी जब वह विपक्षी पार्टी के नेता थे। उन्होंने मुझे अपने साथ काम करने के लिए आमंत्रित  किया। मैंने पूछा मेरा काम क्या होगा, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि मैं पहले से ही सांस्कृतिक गतिविधियों में भागीदार रह चुका हूं। क्यों न उसी क्षेत्रा में राष्ट्रीय स्तर पर कुछ काम करूं। मैंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और
नेशनल कौंसिल ऑफ़ आर्ट्स (राष्ट्रीय कला परिषद्) की स्थापना की। इसके अतिरिक्त मैंने ‘फ़ोक आटर््स’ जो अब ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ोक हेरिटेज’ है, की स्थापना की। मैं इन परिषदों की देख-रेख में चार साल तक व्यस्त रहा कि सरकार फिर से बदल गयी। इस अवधि में मेरा गद्य और पद्य लिखने का क्रम लगातार जारी रहा। इसी अवधि में मेरी शायरी का अंग्रेज़ी, फ्ऱांसीसी, रूसी तथा अन्य दूसरी भाषाओं में अनुवाद होता रहा। ज़ियाउल हक़ के शासन काल में मेरे प्रभाव को नकार दिया गया। वैसे भी इस सरकार में संस्कृति का महत्व पहले जैसा नहीं रहा था, मैंने सोचा मुझे कुछ और करना चाहिए। मैं एशियाई और अफ्ऱीकी साहित्यकार संगठन के लिए कुछ-न-कुछ करता ही रहता था। उनकी गोष्ठियों में भी भागीदारी होती रहती थी। उस संगठन का दफ़्तर काहिरा में था जहां से उस संगठन की पत्रिका लोटस (स्वजने) का प्रकाशन होता था।
कैंप डेविड समझौते के बाद अरब के लोगों का यह अनुरोध था कि उसका दफ़्तर काहिरा से कहीं और स्थानांतरित कर दिया जाये। लोटस का मुख्य संपादक जो संगठन का सचिव भी था, उसकी साइप्रस में गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी। अब लोटस का संपादन करने वाला कोई नहीं था। इस समय एफ्ऱो-एशियाई साहित्यकार संगठन का दफ़्तर कहीं नहीं था। इस पत्रिका के संपादन के लिए मुझे आमंत्रित किया गया और यह भी फैसला हुआ कि संगठन का दफ़्तर बैरूत में स्थानांतरित कर दिया जाये। मैं अफ्ऱीकी एशियाई साहित्यकारों के संगठन और उसकी पत्रिका लोटस से चार साल तक जुड़ा रहा और फिर हमें इससे फ़ुर्सत मिल गयी।
बैरूत पर आक्रमण के एक महीने बाद मैं किसी-न-किसी तरह वहां से निकलने में सफल हो गया और पाकिस्तान पहुंच गया। यहां आते ही मैं एक बार फिर बीमार हो गया। अब जो यह एलिस के बारे में आप लोग पूछ रहे हैं तो मैं बताऊं। जब मैं कॉलेज में पढ़ाने लगा था तो जैसा मैंने बताया, मेरे कुछ साथी आक्सफ़ोर्ड से  वापस लौटे तो वे मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक थे। उसी में एक साथी जो मार्क्सिस्ट था उसकी पत्नी जो  अंग्रेज़ थी वह भी मार्क्सिस्ट थी। एक दिन उसने मुझसे पूछा, तुम उदास और निराश क्यों रहते हो, फिर स्वयं ही बोली, तुम्हें इश्क़ हो गया है क्या? तुम बीमार लगते हो। उसने कुछ किताबें मुझे दीं और कहा कि उन्हें पढ़ूं उसने स्पष्ट किया, तुम्हारा दुख बहुत कुछ व्यक्तिगत ढंग का है। ज़रा पूरे हिंदुस्तान पर नज़र डालो, अनगिनत लोग भूख और बीमारी के शिकार हैं। तुम्हारा दुख तो उनकी तुलना में कुछ भी नहीं है। और तब प्रेम के विषय से मेरा ध्यान हट गया और मैंने व्यापक संदर्भों में सोचना आरंभ कर दिया। मेरी नज़्म ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी
महबूब न मांग’ इसी बदलते हुए सोच का परिणाम थी। मेरे मित्रा जिनकी पत्नी का उल्लेख मैंने किया वह एक अच्छे साहित्यकार थे और एक कॉलेज के प्रिंसिपल भी थे। उनके साथ शिक्षण के कार्य में व्यस्त हो गया। कोई तीन चार साल बाद मेरे मित्रा की अंग्रेज़ पत्नी की एक बहन उन लोगों से मिलने अमृतसर आयी, जहां मैं पढ़ा रहा था। मेरी उस महिला से जब मुलाक़ात हुई तो हम मित्रा बन गये लेकिन उन्हीं दिनों युद्ध छिड़ गया और वह महिला अपने देश वापस न लौट सकी। मैं भी कैंब्रिज जाने वाला था मगर न जा सका और इस तरह हमारी मित्राता गहरी होती गयी और एक दिन हमने शादी कर ली। वह महिला एलिस थी। जहां तक बैरूत में मेरे प्रवास का संबंध है तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं फ़िलिस्तीनियों का समर्थक था जिन्हें एक षड्यंत्रा द्वारा अपने देश से निकाल दिया गया था। यह अजीब बात थी कि इज़राइली जिन्हें नाज़ियों के हाथों कठोर यातना झेलनी पड़ी थी, वे भी अब फ़िलिस्तीनियों को इसी प्रकार कष्ट देने के लिए उतारू थे, जबकि फ़िलिस्तीनियों ने इज़राइलियों का कुछ नहीं बिगाड़ा था। लेकिन शायद इज़राइलियों के अत्याचारी व्यवहार के पीछे हिंसक मनोग्रंथि काम कर रही थी। शक्तिशाली का साथ तो सब देते ही हैं क्योंकि उसमें कोई हानि नहीं होती। कमज़ोर का साथ देने वाले कम होते हैं और उसमें केवल हानि ही हिस्से में आती है। मैंने बैरूत प्रवास के दिनों में कमज़ोर का साथ देने को अपना रचनात्मक धर्म स्वीकार किया था।
उर्र्दूू से अनुवाद: मो.े. ज़फ़र इक़बाल
(     जनवादी लेखक संघ की पत्रिका नयापथ के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ विशषांक से साभार)

1 टिप्पणी:

  1. गुजरे ज़माने की कुछ शानदार छिपी हुई बातो को पढने का सौभाग्य आप के ब्लॉग को पढ़ कर हुआ
    धन्यवाद
    बहुत बढ़िया संकलन
    manish Jaiswal
    Bilaspur

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