अनशन तोड़ दिया अन्ना ने. जेल भरो भी अभी नहीं होगा. सोनिया-राहुल का घर भी फिलहाल नहीं घेरेंगे. अभी बहुत समय है आराम से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करेंगे. बीमार अन्ना ने अस्पताल जाने से पहले लगभग यही कहा. अन्ना क्रांति पार्ट टू के नतीजे में लोकसभा में सरकारी बिल पास होना हाथ आया.
पहला आन्दोलन - जन्तर मन्तर - अन्ना ने कहा था- उन्हें ऐसा रिस्पांस मिला जिसकी कतई उम्मीद नहीं थी. दूसरे आन्दोलन (रामलीला) में देश में बन गया अच्छा माहौल. पहले से दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया था, दूसरे से तो आउट ही हो गए थे. अब मुंबई में न तो जनता जुटी और न ही तबीयत ने साथ दिया. कुछ अन्नाई मीडिया को दोषी मान रहे हैं. सिर्फ लोकसभा में फोकस रखा था- हमारे आन्दोलन की हवा ही निकल गई.
सवाल बहुत से हैं. बिना किसी चिन्ताधारा (विचारधारा) के एनजीओ छाप लोगों ने लोकपाल मुद्दे को लेकर अन्ना को चने के झाड पर चढ़ाया. आँख-कान-मुंह बने चार-पांच लोग अपनी भूमिका से वाकिफ थे- हैं. विदेश-देश के सत्ता प्रतिष्ठानों से भारी भरकम फंड लेकर जनता का बाना पहनकर, जनता की भाषा में उग्र -क्रांतिकारी तेवर दिखाओ और जनता की परेशानियों से उपजते गुस्से को सेफ्टी वाल्व बनाकर उसकी हवा निकाल दो. यही सच विगत तीन दशकों में स्वयंसेवी संगठनों को लेकर सामने आया है. जनता को संगठित होने से रोकने के लिए इनके पास रेडीमेड संगठन तैयार हैं. जनता की पक्षधरता कितनी है, यह समूचा तीन दशक बताने के लिए पर्याप्त है. इनका दीं -ईमान क्या है इस पर बात भी करने की जरूरत नहीं है., क्योंकि ऐसी बात इनके शब्दकोश में ही नहीं है. अन्ना को कारपोरेट ने एनजीओ के जरिये हाईजैक किया.
देश में राजनीतिक माहौल है, उसमें संघर्ष के मुद्दों में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना भी प्रमुखतम है. लेकिन इसकी कमान पूर्णत: गैर राजनीतिक लोगों ने थाम ली और राजनीतिक तबके ने फिलहाल उन्हें उनकी औकात बता ही दी. अच्छा है अन्ना के करण के चालीस साल से अटका लोकपाल बिल लोकसभा में एक ही दिन में पास हो गया. लेकिन न तो अन्ना की चली न लेफ्ट की न राईट की. चली तो सरकार की ही. अब इसका फायदा भी चुनाव समर में उठाया जाएगा.
अन्ना टीम को असंगठित जनता (नेट-मोबाइल वालों) पर भरोसा था, उसे तो टूटना ही था. अच्छा है जल्दी टूट गया. पर इन्हें ये बात कभी समझ में नहीं आयेगी कि बदलाव की ताकत किसके पास होती है.- बेशक जनता के पास ही होती है, लेकिन वो कौन हैं, इसकी पहचान नहीं कर पाए, न कर पायेंगे.
सुधार से राहत मिल सकती है, बदलाव नहीं हो सकता. मार्क्सवादियों का उफान पूंजीवादियों को विनम्र बनाए रखा, सोवियत संघ के ध्वस्त होने के बात पूंजी का क्रूर होना स्वाभाविक था. वह अब विकराल रूप में अपनी नानाविध लीलाओं के साथ सामने है. साम्राज्यवादी लूट कार्पोरेट लूट के रूप में छा रहा है. इसके खिलाफ विद्रोह की धारा को मोड़ने की ऐसी ही चालें चली जाती रहेंगी. जरूरत इस बात की है कि बिना उन्माद के संगठित जनता के साथ सतत संघर्ष को शुरू किया जाए.
पहला आन्दोलन - जन्तर मन्तर - अन्ना ने कहा था- उन्हें ऐसा रिस्पांस मिला जिसकी कतई उम्मीद नहीं थी. दूसरे आन्दोलन (रामलीला) में देश में बन गया अच्छा माहौल. पहले से दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया था, दूसरे से तो आउट ही हो गए थे. अब मुंबई में न तो जनता जुटी और न ही तबीयत ने साथ दिया. कुछ अन्नाई मीडिया को दोषी मान रहे हैं. सिर्फ लोकसभा में फोकस रखा था- हमारे आन्दोलन की हवा ही निकल गई.
सवाल बहुत से हैं. बिना किसी चिन्ताधारा (विचारधारा) के एनजीओ छाप लोगों ने लोकपाल मुद्दे को लेकर अन्ना को चने के झाड पर चढ़ाया. आँख-कान-मुंह बने चार-पांच लोग अपनी भूमिका से वाकिफ थे- हैं. विदेश-देश के सत्ता प्रतिष्ठानों से भारी भरकम फंड लेकर जनता का बाना पहनकर, जनता की भाषा में उग्र -क्रांतिकारी तेवर दिखाओ और जनता की परेशानियों से उपजते गुस्से को सेफ्टी वाल्व बनाकर उसकी हवा निकाल दो. यही सच विगत तीन दशकों में स्वयंसेवी संगठनों को लेकर सामने आया है. जनता को संगठित होने से रोकने के लिए इनके पास रेडीमेड संगठन तैयार हैं. जनता की पक्षधरता कितनी है, यह समूचा तीन दशक बताने के लिए पर्याप्त है. इनका दीं -ईमान क्या है इस पर बात भी करने की जरूरत नहीं है., क्योंकि ऐसी बात इनके शब्दकोश में ही नहीं है. अन्ना को कारपोरेट ने एनजीओ के जरिये हाईजैक किया.
देश में राजनीतिक माहौल है, उसमें संघर्ष के मुद्दों में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना भी प्रमुखतम है. लेकिन इसकी कमान पूर्णत: गैर राजनीतिक लोगों ने थाम ली और राजनीतिक तबके ने फिलहाल उन्हें उनकी औकात बता ही दी. अच्छा है अन्ना के करण के चालीस साल से अटका लोकपाल बिल लोकसभा में एक ही दिन में पास हो गया. लेकिन न तो अन्ना की चली न लेफ्ट की न राईट की. चली तो सरकार की ही. अब इसका फायदा भी चुनाव समर में उठाया जाएगा.
अन्ना टीम को असंगठित जनता (नेट-मोबाइल वालों) पर भरोसा था, उसे तो टूटना ही था. अच्छा है जल्दी टूट गया. पर इन्हें ये बात कभी समझ में नहीं आयेगी कि बदलाव की ताकत किसके पास होती है.- बेशक जनता के पास ही होती है, लेकिन वो कौन हैं, इसकी पहचान नहीं कर पाए, न कर पायेंगे.
सुधार से राहत मिल सकती है, बदलाव नहीं हो सकता. मार्क्सवादियों का उफान पूंजीवादियों को विनम्र बनाए रखा, सोवियत संघ के ध्वस्त होने के बात पूंजी का क्रूर होना स्वाभाविक था. वह अब विकराल रूप में अपनी नानाविध लीलाओं के साथ सामने है. साम्राज्यवादी लूट कार्पोरेट लूट के रूप में छा रहा है. इसके खिलाफ विद्रोह की धारा को मोड़ने की ऐसी ही चालें चली जाती रहेंगी. जरूरत इस बात की है कि बिना उन्माद के संगठित जनता के साथ सतत संघर्ष को शुरू किया जाए.