शनिवार, 3 दिसंबर 2011

विदेशी हितों को तरजीह

[खुदरा कारोबार में एफडीआइ को किसानों, उपभोक्ताओं और निर्माताओं, तीनों के लिए घाटे का सौदा मान रहे है देविंदर शर्मा]
ऐसे समय जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुदरा कारोबार में एफडीआइ खोलने के फैसले को देशहित में बताते हुए इसे वापस लेने से इंकार कर रहे है, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की राय इससे उलट है। 26 नवंबर को उन्होंने ट्वीट किया-अपनी पसंदीदा स्थानीय दुकान से सामान खरीदकर छोटे व्यापारियों का समर्थन करे। ओबामा अपने देश के हित की बात कर रहे है, जबकि मनमोहन सिंह अमेरिकी हितों को सुरक्षित करने की। मनमोहन सिंह की यह दलील तथ्यों पर खरी नहीं उतरती कि रिटेल एफडीआइ से हमारे देश को फायदा होगा, ग्रामीण ढांचागत सुविधाओं में सुधार होगा, कृषि उत्पादों की बर्बादी कम होगी और हमारे किसान अपनी फसल के बेहतर दाम हासिल कर सकेंगे। परेशानी की बात यह है कि वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दलीलों का कोई आर्थिक आधार नहीं है। इनकी महज राजनीतिक उपयोगिता है। इनसे यही पता चलता है कि सत्ताधारी दल के राजनीतिक एजेंडे को न्यायोचित ठहराने के लिए आर्थिक तथ्यों को किस तरह तोड़ा-मरोड़ा और गढ़ा जा सकता है।
मल्टी ब्रांड रिटेल के पक्ष में सबसे बड़ी दलील यह है कि इससे सन 2020 तक एक करोड़ रोजगार पैदा होंगे। इस दावे के पीछे कोई तर्क नहीं है। अमेरिका में रिटेल कारोबार में वालमार्ट का वर्चस्व है। इसका कुल कारोबार चार सौ अरब डॉलर [लगभग 20 लाख करोड़ रुपये] है, जबकि इसमें महज 21 लाख लोग काम करते है। विडंबना है कि भारत का कुल रिटेल क्षेत्र भी 20 लाख करोड़ रुपये का है, जबकि इसमें 4.40 करोड़ व्यक्ति काम करते है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय रिटेल कहीं बड़ा नियोक्ता है और वालमार्ट सरीखे विदेशी रिटेलरों को भारत में बुलाने से करोड़ों लोगों का रोजगार छिन जाएगा। इंग्लैंड में दो बड़ी रिटेल चेन टेस्को और सेंसबरी है। दोनों ने पिछले दो वर्षो में 24,000 रोजगार देने का वायदा किया था, जबकि इस बीच इन्होंने 850 लोगों को नौकरी से निकाल दिया।
आनंद शर्मा का कहना है कि रिटेल एफडीआइ से किसानों की आमदनी 30 प्रतिशत बढ़ जाएगी। इससे बड़ा झूठ कुछ हो ही नहीं सकता। उदाहरण के लिए अगर वालमार्ट किसानों की आमदनी बढ़ाने में सक्षम होती तो अमेरिकी सरकार को यूएस फार्म बिल 2008 के तहत 307 अरब डॉलर [करीब 15.35 लाख करोड़ रुपये] की भारी-भरकम सब्सिडी नहीं देनी पड़ती। इनमें से अधिकांश सब्सिडी विश्व व्यापार संगठन के ग्रीन बॉक्स में जोड़ी जाती है। अगर ग्रीन बॉक्स सब्सिडी वापस ले ली जाती है तो अमेरिकी कृषि का विनाश हो जाएगा। 30 धनी देशों के समूह की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। इन देशों में 2008 में 21 फीसदी और 2009 में 22 फीसदी सब्सिडी बढ़ गई है। केवल 2009 में ही इन औद्योगिक देशों ने 12.6 लाख करोड़ रुपये की कृषि सब्सिडी दी है। इसके बावजूद यूरोप में हर मिनट एक किसान खेती छोड़ देता है। यह इसलिए हो रहा है कि वहां किसानों की आय लगातार गिर रही है। केवल फ्रांस में 2009 में किसानों की आमदनी 39 फीसदी गिर गई है।
सरकार की तीसरी दलील है कि बड़ी रिटेल कंपनियां बिचौलियों को हटा देती हैं, जिस कारण किसानों को बेहतर कीमत मिलती है। एक बार फिर यह झूठा दावा है। अध्ययनों से पता चलता है कि बीसवीं सदी के पूर्वा‌र्द्ध में अमेरिका में प्रत्येक डॉलर की बिक्री पर किसान को 70 सेंट बच जाते थे, जबकि 2005 में किसानों की आमदनी महज 4 फीसदी रह गई है। यह वालमार्ट और अन्य बड़े रिटेलरों की मौजूदगी में हुआ है। दूसरे शब्दों में जैसी की आम धारणा है, बड़े रिटेलरों के कारण बिचौलिए गायब नहीं होते, बल्कि बढ़ जाते है। नए किस्म के बिचौलिए पैदा हो जाते है जैसे गुणवत्ता नियंत्रक, मानकीकरण करने वाले, सर्टिफिकेशन एजेंसी, प्रोसेसर, पैकेजिंग सलाहकार आदि इसी रिटेल जगत के अनिवार्य अंग होते है और ये सब किसानों की आमदनी में से ही हिस्सा बांटते है। यही नहीं, बड़े रिटेलर किसानों को बाजार मूल्य से भी कम दाम चुकाते है। उदाहरण के लिए इंग्लैंड में टेस्को किसानों को चार फीसदी कम मूल्य देती है। सुपरमार्केटों के कम दामों के कारण ही स्कॉटलैंड में किसान 'फेयर डील फूड' संगठन बनाने को मजबूर हुए है।
चौथी दलील यह है कि रिटेल एफडीआइ छोटे व मध्यम उद्योगों से 30 प्रतिशत माल खरीदेंगे और इस प्रकार भारतीय निर्माताओं को लाभ पहुंचेगा। यह लोगों को भ्रमित करने वाली बात है। सच्चाई यह है कि विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत भारत किसी भी बड़े रिटेलर को कहीं से भी सामान खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। यह विश्व व्यापार संगठन के नियमों के खिलाफ है और कोई भी सदस्य देश इसका उल्लंघन कर जीएटीटी 1994 की धारा 3 या धारा 11 के तहत निवेश प्रतिबंध झेलने की मुसीबत मोल नहीं ले सकता। विश्व व्यापार संगठनों के प्रावधानों का इस्तेमाल कर मल्टी ब्रांड रिटेल सस्ते चीनी उत्पादों से बाजार पाट देंगे और छोटे भारतीय निर्माताओं को बर्बादी के कगार पर पहुंचा देंगे। निवेश नियमों की आड़ में रिटेलर भारत में खाद्यान्न भंडारण व परिवहन आदि का बुनियादी ढांचा भी खड़ा करने नहीं जा रहे है। नियम के अनुसार कंपनियों के मुख्यालय में होने वाला खर्च भी भारत में निवेश में जुड़ जाएगा। इस प्रकार भारत में एक भी पैसा निवेश किए बिना ही रिटेल एफडीआइ 50 प्रतिशत से अधिक निवेश कर चुके है। पेनसिलवेनिया यूनिवर्सिटी के अध्ययन 'वालमार्ट और गरीबी' से पता चलता है कि अमेरिका के जिन राज्यों में वालमार्ट के स्टोर अधिक है उनमें गरीबी दर भी अधिक है। यह ऐसे देश के लिए खतरे की घंटी है जिसकी आधी से अधिक आबादी गरीबी, भुखमरी और मलिनता में जीवन बिता रही है।
[लेखक: खाद्य एवं कृषि नीतियों के विश्लेषक है]
(जागरण से साभार)

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