बुधवार, 28 दिसंबर 2011

अच्छा है जल्दी टूट गया अनशन

अनशन तोड़ दिया अन्ना ने. जेल भरो भी अभी नहीं होगा. सोनिया-राहुल का घर भी फिलहाल नहीं घेरेंगे. अभी बहुत समय है आराम से लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करेंगे. बीमार अन्ना ने अस्पताल जाने से पहले लगभग यही कहा. अन्ना क्रांति पार्ट टू के नतीजे में लोकसभा में सरकारी बिल पास होना हाथ आया.
पहला आन्दोलन - जन्तर मन्तर - अन्ना ने कहा था- उन्हें ऐसा रिस्पांस मिला जिसकी कतई उम्मीद नहीं थी. दूसरे आन्दोलन (रामलीला) में देश में बन गया अच्छा माहौल. पहले से दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ गया था, दूसरे से तो आउट ही हो गए थे. अब मुंबई में न तो जनता जुटी और न ही तबीयत ने साथ दिया. कुछ अन्नाई मीडिया को दोषी मान रहे हैं. सिर्फ लोकसभा में फोकस रखा था- हमारे आन्दोलन की हवा ही निकल गई.
सवाल बहुत से हैं. बिना किसी चिन्ताधारा (विचारधारा) के एनजीओ छाप लोगों ने लोकपाल मुद्दे को लेकर अन्ना को चने के झाड पर चढ़ाया. आँख-कान-मुंह बने चार-पांच लोग अपनी भूमिका से वाकिफ थे- हैं. विदेश-देश के सत्ता प्रतिष्ठानों से भारी भरकम फंड लेकर जनता का बाना पहनकर, जनता की भाषा में उग्र -क्रांतिकारी तेवर दिखाओ और जनता की परेशानियों से उपजते गुस्से को सेफ्टी वाल्व बनाकर उसकी हवा निकाल दो. यही सच विगत तीन दशकों में स्वयंसेवी संगठनों को लेकर सामने आया है. जनता को संगठित होने से रोकने के लिए इनके पास रेडीमेड संगठन तैयार हैं. जनता की पक्षधरता कितनी है, यह समूचा तीन दशक बताने के लिए पर्याप्त है. इनका दीं -ईमान क्या है इस पर बात भी करने की जरूरत नहीं है., क्योंकि ऐसी बात इनके शब्दकोश में ही नहीं है. अन्ना को कारपोरेट ने एनजीओ के जरिये हाईजैक किया.
देश में राजनीतिक माहौल है, उसमें संघर्ष के मुद्दों में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना भी प्रमुखतम है. लेकिन इसकी कमान पूर्णत: गैर राजनीतिक लोगों ने थाम ली और राजनीतिक तबके ने फिलहाल उन्हें उनकी औकात बता ही दी. अच्छा है अन्ना के करण के चालीस साल से अटका लोकपाल बिल लोकसभा में एक ही दिन में पास हो गया. लेकिन न तो अन्ना की चली न लेफ्ट की न राईट की. चली तो सरकार की ही. अब इसका फायदा भी चुनाव समर में उठाया जाएगा.
अन्ना टीम को असंगठित जनता (नेट-मोबाइल वालों) पर भरोसा था, उसे तो टूटना ही था. अच्छा है जल्दी टूट गया. पर इन्हें ये बात कभी समझ में नहीं आयेगी कि बदलाव की ताकत किसके पास होती है.- बेशक जनता के पास ही होती है, लेकिन वो कौन हैं, इसकी पहचान नहीं कर पाए, न कर पायेंगे.
सुधार से राहत मिल सकती है, बदलाव नहीं हो सकता. मार्क्सवादियों का उफान पूंजीवादियों को विनम्र बनाए रखा, सोवियत संघ के ध्वस्त होने के बात पूंजी का क्रूर होना स्वाभाविक था. वह अब विकराल रूप में अपनी नानाविध लीलाओं के साथ सामने है. साम्राज्यवादी लूट कार्पोरेट लूट के रूप में छा रहा है. इसके खिलाफ विद्रोह की धारा को मोड़ने की ऐसी ही चालें चली जाती रहेंगी. जरूरत इस बात की है कि बिना उन्माद के संगठित जनता के साथ सतत संघर्ष को शुरू किया जाए.

मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

मेहनतकशों की नई दिल्ली

खुशवंत सिंह
 
नई दिल्ली ने हाल ही में अपनी सौवीं सालगिरह मनाई। दिल्ली में ऐतिहासिक इमारतों और स्मारकों की कोई कमी नहीं है, लिहाजा यह भी संभव है कि सौवीं वर्षगांठ की स्मृति के तौर पर भी नई दिल्ली में एक स्मारक का निर्माण किया जाए। देश की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट करने का निर्णय वर्ष 1911 में लिया गया था। किंग जॉर्ज ‘पंचम’ और उनकी रानी मेरी द्वारा आयोजित शाही दरबार में यह घोषणा की गई थी।

ऐसा माना गया था कि नई राजधानी का निर्माण उसी स्थान यानी किंग्सवे कैम्प पर ही किया जाएगा, जहां दिल्ली दरबार लगा था। लेकिन विशेषज्ञों ने इस क्षेत्र को राजधानी के लिए अनुपयुक्त पाया। वे घोड़ों पर सवार होकर आसपास के इलाकों में उपयुक्त स्थान की खोज करते रहे और अंतत: यह तय हुआ कि राजधानी के लिए रायसीना हिल सबसे उपयुक्त रहेगी।

यह भी तय किया गया कि वायसरीगल लॉज (वर्तमान राष्ट्रपति भवन) का निर्माण रायसीना हिल के सर्वोच्च स्थल पर होगा। लेकिन पांच साल तक चले प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के कारण भवन निर्माण का कार्यक्रम गड़बड़ा गया और 1920 के बाद ही वास्तविक कार्य शुरू किया जा सका।

नई दिल्ली के दो प्रमुख शिल्पकार थे : लुटियंस और बेकर। लुटियंस ने योजना बनाई थी कि हुमायूं के मकबरे के पीछे यमुना नदी पर बांध बनाकर एक विशाल जलाशय का निर्माण किया जाए, लेकिन अत्यधिक महंगी योजना होने के कारण वे ऐसा नहीं कर पाए। बहरहाल, उन्होंने शहर का बुनियादी नक्शा खींचा।

इन दो शिल्पकारों के साथ सीपीडब्ल्यूडी के दर्जनों इंजीनियरों की टीम थी। इनमें केवल एक भारतीय था : तेजा सिंह मलिक। कुछ बिल्डिंग कांट्रेक्टर्स जरूर भारतीय थे, जिनका काम था निर्माण सामग्री और मजदूरों का बंदोबस्त करना और प्रस्तावित योजना को अमली जामा पहनाना। संयोग की बात है कि वे सभी सिख थे। उनके नाम थे : सुजान सिंह और उनके पुत्र सोभा सिंह, सोभा सिंह के नजदीकी मित्र और पड़ोसी बैसाखा सिंह, नारायण सिंह, सेवा सिंह, रंजीत सिंह, धरम सिंह, मनोहर सिंह और राम सिंह।

वे सभी अशोका रोड और संसद मार्ग के बीच स्थित जंतर-मंतर के क्षेत्र में रहते थे। बाद में इसी सूची में मोहन सिंह का नाम भी जुड़ गया, जिन्होंने अमेरिकी दूतावास का निर्माण करवाया था। वे न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में रहते थे। इसके बाद नंबर आता है संगतराशों यानी पत्थरसाजों का, जो मुगल किलों और महलों के निर्माताओं के वंशज थे। नई दिल्ली बसाने के लिए ये संगतराश आगरा और पुरानी दिल्ली से आए थे।

लेकिन बिल्डर्स की टीम का सबसे अहम हिस्सा थे वे ३क् हजार मजदूर, जो राजस्थान से आए थे। इनमें पुरुषों के साथ ही महिलाएं भी थीं। पुरुषों को एक दिन की मजूरी के रूप में आठ आने दिए जाते थे और महिलाओं को छह आने। वे झुग्गी-झोपड़ियों में रहते थे, नमक और मिर्च से चपाती खाते थे और कुएं का पानी पीते थे। नई दिल्ली बसाने वालों की फौज में वे सबसे गरीब थे, लेकिन सबसे ज्यादा मन लगाकर काम भी उन्होंने ही किया था।

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दिव्य संयोग :

कुछ संयोग लगातार मुझे हैरान करते रहते हैं और मुझे उनके पीछे किसी अदृश्य हाथ की संभावनाओं में विश्वास करने को मजबूर कर देते हैं। हाल ही में ऐसा ही एक और इत्तफाक हुआ।

मेरे घर में गुरु गोबिंद सिंह की एक बड़ी सुंदर तस्वीर है। मैं अपनी आर्मचेयर पर लिखते, पढ़ते और ऊंघते हुए लंबा समय बिताता हूं और वह तस्वीर हमेशा मेरी आंखों के सामने रहती है। मैंने सोचा कि तस्वीर के नीचे कुछ पंक्तियां लिखवाई जानी चाहिए। जो पंक्ति सबसे पहले मेरे दिमाग में आई, वह थी :

गगन दमामा बाज्यो,
पड़ियो निशाने घाव।

यानी आकाश में युद्ध के नगाड़े गूंज रहे हैं, ठीक जगह पर एक जख्म हुआ है। इसके आगे की पंक्तियां मुझे याद नहीं आईं। तभी जीटीबी खालसा कॉलेज के एक युवा प्रोफेसर मुझसे मिलने आए और उन्होंने मुझे इसके आगे की पंक्तियां बता दीं। वे इस तरह हैं :

खेत जो मांडियो सूरमा,
अब झूजन का छाव।
सूरा सो पहचानिये,
जो लड़े दीन के हेत।
पुरजा-पुरजा कट मरे,
कबहू न छाड़े खेत।

उन्होंने मुझे बताया कि ये पंक्तियां गुरु गं्रथ साहिब में वर्णित हैं। कुछ दिनों बाद मुझे मासिक ‘सिख रिव्यू’ की एक प्रति मिली। कोलकाता से छपने वाली इस पत्रिका के संपादक सरन सिंह हैं। पत्रिका के प्रारंभ में हमेशा ग्रंथ साहिब का एक अंग्रेजी में अनूदित सबद प्रकाशित होता है। पत्रिका के दिसंबर अंक में वही सबद था, जो मेरे मन में जाने कितने दिनों से उमड़-घुमड़ रहा था :

जंग के नगाड़े बजने लगे,
लेकिन केवल बहादुरों ने ही संभाला मोर्चा
जमीर के सिपाही मृत्यु से भेंट करने बढ़ चले।
केवल वही एक है सूरमा
जो मजलूमों की मदद के लिए बढ़ाता है हाथ
वह डरता नहीं है तलवारों की धार से
और कभी नहीं छोड़ता है जंग का मैदान।
यह अनुवाद संभवत: पत्रिका के संपादक सरन सिंह ने ही किया है, लेकिन मुझे इसके सही होने से इतना वास्ता नहीं, जितना इस इत्तफाक से है कि जब मैं इन पंक्तियों के बारे में सोच ही रहा था, तभी वे इस रूप में मेरे सामने आ गईं।

पीड़ा के जंगल में आदिवासी


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अनिल चमड़िया
जनसत्ता 24 दिसंबर, 2011 : आजादी के बाद आदिवासी ने क्या हासिल किया, इस विषय पर राजस्थान के बूंदी में दो दिन की चर्चा थी। इस अवसर पर किसी वक्ता ने यह नहीं कहा कि अंग्रेजों के जाने के बाद आदिवासियों की जीवन-दशा में किसी किस्म का बुनियादी बदलाव आया है। फिर आदिवासियों की उम्मीद और इस व्यवस्था के प्रति भरोसे को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया गया। प्रस्ताव में राजस्थान के मानगढ़ में 1913 में अंग्रेजों से लड़ाई में मारे गए पंद्रह सौ आदिवासियों के प्रति सम्मान जाहिर करते हुए मानगढ़ को राष्ट्रीय स्मारक बनाने की मांग की गई। आदिवासियों के पंडितों ने इस प्रस्ताव पर सबसे ज्यादा उत्साह दिखाया। उन्होंने खडेÞ होकर यह प्रस्ताव स्वीकार करने की अपील सभासदों से की। लेकिन इस कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ की शिक्षिका सोनी सोरी के साथ हुई ज्यादतियों के खिलाफ कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया गया। जबकि यह कहा गया कि शहीदों के सम्मान के लिए राष्ट्रीय स्मारक की मांग के साथ-साथ जिंदा लोगों की दुर्दशा के खिलाफ सभासदों की सक्रियता स्पष्ट नहीं होना चिंताजनक है।
सोनी सोरी के साथ छत्तीसगढ़ में जो हुआ है उसे इस प्रदेश से बेदखल किए गए हिमांशु कुमार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के नाम लिखे एक पत्र से समझा जा सकता है। हिमांशु कुमार के पत्र के मुताबिक आदिवासी लड़की सोनी सोरी के गुप्तांगों में पुलिस ने पत्थर भर दिए थे। उसकी जांच कराई गई थी और डॉक्टरों ने आरोपों को सही पाया। डॉक्टरी रिपोर्ट के साथ उस लड़की के गुप्तांगों से निकले हुए पत्थर के तीन टुकड़े न्यायालय में भेज दिए। सोनी को छत्तीसगढ़ के दूसरे सैकड़ों आदिवासियों की तरह माओवादी करार देकर गिरफ्तार किया गया है।
आदिवासियों के दमन के समूचे इतिहास में आधुनिक मानव सभ्यता को शर्मसार करने वाली ऐसी दूसरी घटना नहीं हुई है। तीसेक वर्ष पहले बागपत की माया त्यागी के साथ पुलिस ने बलात्कार किया था। इसकी देश भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई। आंदोलन हुए। बलात्कार के आरोपी पुलिस वाले की हत्या कर दी गई और उस हत्या का देश भर में मौन स्वागत किया गया।
ऐसी बहुत सारी घटनाएं हैं जिनमें समाज के संपन्न तबके से जुड़ी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार या दुराचार की घटनाओं पर देश को आंदोलित होते देखा गया है। लेकिन प्रतिवर्ष दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार की जितनी घटनाएं होती हैं उनमें कितनी घटनाओं पर आंदोलन होता है? पुलिस और सशस्त्र बलों के  कई जवान बलात्कार के आरोपी होते हैं, लेकिन उनमें से कितनों के खिलाफ सजा सुनाई जाती है?  
जिस राजनीतिक व्यवस्था में वे हैं वह प्रातिनिधिक व्यवस्था मानी जाती है। लेकिन यह प्रतिनिधिमूलक व्यवस्था भी वास्तविक अर्थों में प्रातिनिधिक नहीं है। आदिवासी या दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की स्थिति में इस वर्ग के प्रतिनिधि क्याउठ खडेÞ होते हैं? या, कहा जाए कि उनके सामने उठ खडे होने की स्थितियां ही नहीं होती हैं। बूंदी के कार्यक्रम का उदाहरण इसी संदर्भ में हमारे सामने है। वर्ग-वर्ण विभाजित समाज में प्रातिनिधिक राजनीतिक व्यवस्था भी समाज पर वर्चस्व रखने वालों का ही प्रतिनिधित्वकरती है। एक दूसरे उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। राजस्थान में भंवरी देवी कांड हमारे सामने है। भंवरी दलित परिवार की थी। वह दयनीय हालात से निकल कर शहरी दुनिया में आई थी। उसके साथ ज्यादती  करने वालों के जो नाम सामने आए हैं वे समाज के संपन्न वर्गों के प्रतिनिधि हैं।
राजस्थान की राजनीतिक स्थिति यह है कि वहां जाट जाति से आने वाले जो प्रतिनिधि हैं उनकी संख्या तीस है, जबकि दलितों की आबादी और प्रतिनिधियों की संख्या उनसे कहीं अधिक है। आबादी पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा है और विधानसभा में प्रतिनिधियों की संख्या चौंतीस। पर यह स्थिति है कि जो आरोपी हैं उनके पक्ष में प्रतिनिधि और जाति के सदस्य लामबंद हैं। आरोपियों के पक्ष में वे मुखर हैं। लेकिन पीड़ित भंवरी के लिए बोलने वाला कोई नहीं है। जो दलित प्रतिनिधि बोल रहे हैं वे भंवरी के विरोध में ही हैं। यहां तक कि भंवरी के पड़ोसी क्षेत्र की महिला दलित प्रतिनिधि भी खामोश हैं। जबकि उन पर दो स्तरों पर प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी है। इसी तरह से सोनी सोरी पर हुई ज्यादती के खिलाफ कोई लामबंदी नहीं दिखाई देती है। जबकि छत्तीसगढ़ को आदिवासी प्रदेश कहा जाता है। वहां आदिवासियों का प्रतिनिधित्व भी ज्यादा है।
अदालतों के स्तर पर भी देखें। हिमांशु कुमार ने पत्र लिख कर कहा है कि अगर मेरी बेटी के साथ इस तरह की ज्यादती की जानकारी मिलती है तो वे इसके लिए किसी को एक मिनट का भी मौका नहीं दे सकते। जबकि सोनी सोरी पर हुए जुल्म की जानकारी मिलने के बावजूद प्रदेश की सरकार को पैंतालीस दिनों का समय जवाब देने के लिए दिया गया है। कई बार अदालतें महिला उत्पीड़न के मामलों पर खिलाफ बेहद सक्रिय दिखाई देती हैं, लेकिन किन

महिलाओं के खिलाफ ज्यादती की घटनाओं को लेकर ऐसी सक्रियता दिखाई देती है? क्या अदालतें मीडिया के जरिए जनभावनाओं को आंकती हैं और उसके आधार पर अपनी सक्रियता तय करती हैं?
पहली बात तो यह कि न्यायालय का यह रुख स्वीकार्य नहीं माना जा सकता कि वह विभिन्न मामलों में अलग-अलग पैमाने अख्तियार करे। जब अफजल को फांसी की सजा देनी हो तो वह जन-भावनाओं को अपने फैसले का आधार बनाए और जब कुछ ताकतवर लोग जेल में हों तो जनभावनाओं की जगह न्यायिक मानदंड पर जोर देने लगे।   संदर्भ के तौर पर यहां 2-जी घोटाले के मामले में जमानत पर अदालती रुख को याद कर सकते हैं। दूसरी बात यह कि अदालतें मीडिया को जनभावनाओं को मापने का आधार नहीं बना सकतीं, या नहीं बनाना चाहिए। इसकी एक बड़ी वजह तो यह है कि मीडिया समाज के संपन्न वर्गों के माध्यम के रूप में स्थापित है। समाज के कमजोर वर्गों के प्रति उसके तमाम तरह के पूर्वग्रह उजागर होते रहे हैं। सोनी सोरी के उत्पीड़न के बारे में बताने का वक्त मीडिया के पास नहीं है।
हमें विचार इस पहलू पर करना है कि समाज में कमजोर वर्गों पर होने वाली ज्यादतियों के खिलाफ आवाज उठाने की जिम्मेदारी किस पर है। सोनी सोरी के मामले में देश के बाहर के कई संगठनों और बुद्धिजीवियों ने अपनी टिप्पणियां जाहिर की हैं। इन दिनों कई ऐसे मसले हैं जिन पर देश के बाहर के बुद्धिजीवियों, सामाजिक संगठनों और संस्थाओं से ही आवाज उठाने की उम्मीद की जाने लगी है। आखिर देश के बुद्धिजीवियों को सोनी सोरी के उत्पीड़न के खिलाफ किस तरह के संदेश का इंतजार है और भंवरी के मामले में भी खामोशी क्यों है?
दरअसल, समाज का बुद्धिजीवी भी प्रातिनिधिक राजनीतिक सत्ता की तरह ही अपना रुख तय करता है। फूलन देवी जब उठ खड़ी हुई तो हर तरफ उसका विरोध दिखता था, लेकिन जब फूलन पर जुल्म हुए तो यह विरोध कहां दुबका पड़ा था? मणिपुर में कुछ साल पहले महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर सेना के खिलाफ प्रदर्शन किया था। यह मणिपुर में सेना की ज्यादतियों के खिलाफ अपना रोष प्रगट करने का शायद एकमात्र रास्ता उन महिलाओं के पास बचा था। यह देश को शर्मसार कर देने वाली घटना थी। पूरी दुनिया में विरोध का ऐसा विचलित कर देने वाला तरीका कहीं और नहीं देखा गया। लेकिन उसे लेकर समाज की क्या प्रतिक्रिया हुई? क्या समाज का मतलब संपन्न समूहों का दबदबा ही होता है, और वही सभ्यता का परिचायक भी?
इस दौर में आदिवासी महिलाओं पर जिस तरह की ज्यादतियां हो रही हैं, पूरा समाज और उसकी राजनीति अपनी चिंता को उनसे जोड़ नहीं पाती है। आदिवासी लड़कों और लड़कियों की हत्या, बलात्कार और दूसरे तरह के अपराध रोज-ब-रोज हो रहे हैं। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि आदिवासियों को जंगलों की तरफ धकेल कर ही आधुनिक सभ्यता ने अपनी जगह बनाई, मतलब आधुनिक सभ्यता में बर्बरता का एक तत्त्व बराबर सक्रिय रहा है। शायद यही कारण है कि आदिवासियों के खिलाफ बर्बरता की सच्चाई हमारे सभ्य समाज की संवेदना को छू भी नहीं पाती है। कोई भी जब यह कहता है कि आदिवासी इलाकों में माओवादी हिंसा है और उसकी वजह से आदिवासी हिंसा या पिछडेÞपन के शिकार हैं तो वह खुद को अपने तर्कों से बचाने की कोशिश करता है।
यह एक इतिहास का सच है कि माओवादी विचार यहां साठ के उत्तरार्द्ध में फलने-फूलने शुरू हुए। इससे पहले आदिवासियों की स्थितियों में क्या परिवर्तन आया था, उनका कितना विकास हुआ था, सब जाहिर है। जहां माओवादी नहीं हैं वहां आदिवासियों की स्थिति क्या बदतर नहीं है? दरअसल, जिस आधुनिकता की दुहाई दी जाती है उसकी बुनियाद, आदिवासियों के दमन का सच सामने लाते ही, ढहती दिखाई देनी लगती है। इसीलिए जब भी चुनौती भरे प्रश्न सामने आते हैं तो समाज का संपन्न प्रतिनिधित्व इसी तरह से अपने बचाव का जुगाड़ करता है। समाज में जिनका वर्चस्व बना हुआ है वही प्रातिनिधिक व्यवस्था के नियामक होते हैं। यह व्यवस्था न लोकतांत्रिक होती है न समानतामूलक।
इस पहलू पर भी गौर करें कि जिन इलाकों में आदिवासियों पर ज्यादतियां हो रही हैं उसके बडेÞ हिस्से में कई मजदूर संगठन हैं। वे वर्ग संघर्ष के हिमायती हैं और दुनिया में समाजवाद लाने के पक्षधर हैं! लेकिन वे अपने पड़ोस के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की बदहाली और उन पर होने वाले अत्याचारों को लेकर खामोश रहते हैं। दरअसल, ट्रेड यूनियन का विकास आदिवासियों के साथ संघर्ष की योजना के साथ नहीं हुआ है; आदिवासी इलाकों में आदिवासियों की कीमत पर ही ये ट्रेड यूनियन खड़े हुए हैं। अगर आदिवासियों से बाकी समाज का अलगाव इतना गहरा है तो उन्हें कैसे कह सकते हैं कि उनके लिए क्या सही और क्या गलत है? सोनी सोरी, भंवरी को इस प्रातिनिधिक राजनीतिक व्यवस्था पर कितना भरोसा करना चाहिए?

सम्मान बनाम सियासत




पुण्य प्रसून वाजपेयी
जनसत्ता 26 दिसंबर, 2011: भारत रत्न’ के दायरे में खेल-खिलाड़ी भी आ जाएंगे यह कभी सोचा नहीं गया था। लेकिन अब भारत रत्न देने की बात उठेगी तो कला-संस्कृति, साहित्य, समाज सेवा और राजनीति की विभूतियों के अलावा खिलाड़ियों के भी नाम सामने आएंगे इसके संकेत साफ हैं। आने वाले दौर में बाजारवादी लोकप्रियता भी भारत रत्न की हकदार नजर आएगी। तो क्या भारत रत्न की जो परिभाषा आजादी के बाद गढ़ी गई, अब उसे बदलने का वक्त आ गया है? क्योंकि खेल को कभी राष्ट्रीय उपलब्धि या राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़ा नहीं गया। सार्वजनिक हितों के लिए संघर्ष और कला के दायरे में ही हमेशा भारत रत्न की पहचान की गई।
जबकि खेल के जरिए भारत को दुनिया में असल पहचान हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने ही पहली बार दिलाई थी। 1936 में बर्लिन ओलपिंक में हिटलर के सामने न सिर्फ जर्मनी की हॉकी टीम को 8-1 से पराजित किया बल्कि उस दौर में दुनिया के सबसे बडेÞ तानाशाह के सामने खडेÞ होकर तब उसे भारतीय होने के महत्त्व का अहसास कराया जब हिटलर से आंख मिलाना भी हर किसी के बस की बात नहीं होती थी। ध्यानचंद ने उस फरमाइश को खारिज कर दिया जिसमें हिटलर ने ध्यानचंद को भारत छोड़ कर्नल का पद लेकर जर्मनी में रहने को कहा था।
लेकिन ध्यानचंद उस वक्त भी भारत को लेकर अडिग रहे और अपने फटे जूते और लांसनायक के अपने पद को बतौर भारतीय ज्यादा महत्त्व दिया। इतना ही नहीं, आजादी से पहले देश के बाहर देश का झंडा लेकर कोई शख्स गया था तो वह ध्यानचंद ही थे। ओलपिंक के फाइनल में जर्मनी से भिड़ने के पहले बाकायदा टीम के कोच पंकज गुप्त ने कप्तान ध्यानचंद के कहने पर कांग्रेस का झंडा, जो उस वक्त देश की पहचान बना हुआ था, हाथ में लेकर जर्मनी की टीम को पराजित करने की कसम खाई थी। लेकिन भारत रत्न की कतार में कभी ध्यानचंद को लेकर सोचा भी नहीं गया।
इसी तरह देश का एक नायाब हीरा शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला खां भी है, जिनकी शहनाई सुन कर एक बार अमेरिका ने उन्हें हर तरह की सुविधा देते हुए अमेरिका में रहने की फरमाइश की थी। कहा कि बिस्मिल्ला खां जो चाहेंगे वह उन्हें अमेरिका में मिलेगा। लेकिन तब बिस्मिल्ला खां ने बेहद मासूमियत से यह सवाल किया था कि गंगा और बनारस कैसे लाओगे। उसके बगैर तो मेरी शहनाई का कोई मतलब ही नहीं!
बिस्मिल्ला खां को भारत रत्न से नवाजा गया। लेकिन अब जब भारत रत्न के दायरे में खेल-खिलाड़ियों को भी लाने की कवायद सरकार ने शुरू की है तो खेल की दुनिया में भारत के सबसे बडेÞ ब्रांड सचिन तेंदुलकर को लेकर भारत रत्न दिए जाने की संभावना जोर पकड़ रही है और इस बारे में चर्चा शुरू हो चुकी है। लता मंगेशकर से लेकर अण्णा हजारे और कई सांसदों ने बार-बार सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दिए जाने की पैरवी की है।
सामान्य तौर पर यह बहस हो सकती है कि सचिन तेंदुलकर से बड़ा नाम इस देश में और कौन है जिसने इतिहास रचा और अब भी मैदान पर है? हालांकि चर्चा इस बात को लेकर भी हो सकती है कि सचिन ने देश के लिए किया क्या है। खिलाड़ी की मान्यता के साथ ही खुद को बाजार का सबसे उम्दा ब्रांड बना कर सचिन की सारी पहल देश के किस मर्म से जुड़ती है यह अपने आप में सवाल है।
मगर जब भारत रत्न का कैनवास बड़ा किया ही गया है तो इस अलंकरण की इससे पहले की सियासत के कुछ पहलुओं को भी समझना जरूरी है। 1954 में शुरू हुई इस परंपरा में यानी बीते सत्तावन बरसों में चालीस लोगों को इस सम्मान से नवाजा गया। लेकिन भारत रत्न से जुड़ी सियासत पहले तीन भारत रत्न के बाद से डगमगाने लगी। 1954 में देश के सबसे विशिष्ट नागरिक अलंकरण यानी भारत रत्न से उपराष्ट्रपति सर्वेपल्ली राधाकृष्णन, पूर्व गवर्नर जनरल राजगोपालाचारी और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकटरमन को सम्मानित किया गया। लेकिन अगले ही बरस यानी 1955 में भारत रत्न के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय से जो चौथा नाम निकला वह खुद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का था। यानी खुद से खुद को सबसे बड़े नागरिक अलंकरण से सम्मानित करने की यह पहली पहल थी। इसके बाद इसका दोहराव सोलह बरस बाद 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया। एक बार फिर पीएमओ से जो नाम भारत रत्न के लिए निकला वह खुद प्रधानमंत्री का था।
दरअसल, सत्ता का असर कैसे भारत रत्न जैसे फैसलों में जाहिर होता है, यह 1991 में भी दिखा। तब के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को यह अलंकरण मरणोपरांत दिए जाने की घोषणा की। चंद्रशेखर की सरकार कांग्रेस के समर्थन से बनी थी और इस फैसले से जाहिर है वे कांग्रेस को खुश करना चाहते थे।  प्रधानमंत्रियों की फेहरिस्त में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के अलावा दो और नाम हैं जिन्हें भारत रत्न से नवाजा गया- लालबहादुर शास्त्री और मोरारजी देसाई। भारतीय जनता पार्टी अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न दिए जाने की मांग बार-बार उठाती रही है, लेकिन उसे निराशा ही हाथ लगी है, क्योंकि सत्ता कांग्रेस की है।
जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे तो छह बरस के उस दौर में छह भारत रत्न दिए गए। इनमें जयप्रकाश नारायण, गोपीनाथ बरदोलई, पंडित रविशंकर, अमर्त्य सेन, लता मंगेशकर और बिस्मिल्ला खां शामिल हैं। लेकिन जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, तब से किसी को भारत रत्न नहीं दिया गया है।   अलबत्ता इस बीच अनेक नाम प्रस्तावित किए गए। अब यहां सवाल सचिन तेंदुलकर का उठ सकता है। क्योंकि मनमोहन सिंह का मतलब अगर आर्थिक सुधार के जरिए भारत को बाजार में तब्दील करना है तो सचिन का मतलब उस बाजार का सबसे अनुकूल चेहरा होना है।
सचिन को इतनी लोकप्रियता क्रिक्रेट ने दी। सचिन के किसको पहचान दी? उन सत्ताईस उत्पादों को, जिनके ब्रांड एंबेसडर वे बने। इस वक्त देश में तीस लाख करोड़ के धंधे के सचिन तेंदुलकर अकेले ब्रांड एंबेसडर हैं। यानी जो पहचान देश के क्रिक्रेट खिलाड़ी होकर सचिन ने पाई उसकी कीमत वे सालाना करोड़ों में बतौर खुद का नाम और चेहरा बेच कर कमाते हैं। और वे जिन उत्पादों का गुणगान करते नजर आते हैं उनमें से नौ उत्पाद तो देश के हैं भी नहीं, बाकी अठारह उत्पादों का काम भी मुनाफा बनाने से इतर कुछ है नहीं। लेकिन इसमें सचिन तेंदुलकर का कोई दोष नहीं है, अगर इस दौर में देश का मतलब बाजार ही हो चला है। अगर विकास का मतलब ही शेयर बाजार और कॉरपोरेट तले औद्योगिक विकास दर ऊपर उठाना है। तो फिर बतौर नागरिक किसी भी सचिन तेंदुलकर का महत्त्व होगा कहां।
असल और सफल सचिन तो वही होगा जो उपभोक्ताओं को लुभाए, जो अपने आप में सबसे बड़ा उपभोक्ता हो। इसलिए क्रिकेट का नया मतलब मुकेश अंबानी और विजय माल्या का क्रिक्रेट है, जिसमें शामिल होने के लिए वेस्ट इंडीज के क्रिक्रेटर क्रिस गेल अपने ही देश की क्रिक्रेट टीम में शरीक नहीं होते। पाकिस्तान के क्रिक्रेटर भारत के कॉरपोरेट क्रिक्रेट में शामिल न हो पाने का दर्द खुले तौर पर तल्खी के साथ रखने से नहीं कतराते। और सचिन तेंदुलकर भी भारतीय क्रिक्रेट टीम में शामिल होकर कॉरपोरेट क्रिक्रेट की 20-20 मुकाबलों में शिरकत करने से नहीं हिचकते।
गौरतलब है कि कॉरपोरेट घरानो में सिर्फ जेआरडी टाटा को ही यह सम्मान मिला है। लेकिन अब के दौर में जेआरडी टाटा से कहीं आगे अंबानी बधुओं समेत देश के शीर्ष पांच उद्योगपति आगे पहुंच चुके हैं। दुनिया में भारतीय कॉरपोरेट की सफलता की तूती बोलने लगी है। चार कॉरपोरेट घरानों ने इसी दौर में मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार तले इतना मुनाफा बनाया कि जेआरडी के दौर में जो विकास टाटा ने आजादी के बाद चालीस बरस में किया उससे ज्यादा टर्नओवर सिर्फ सात बरस में बना लिया। लेकिन देश की सीमा से बाहर निकल कर खुद को बहुराष्ट्रीय कंपनी के तौर पर मान्यता पाने वालों में किसी का भी नाम भारत रत्न की दौड़ में नहीं है।
यह कमाल अब की अर्थव्यवस्था का ही है कि देश के बीस करोड़ लोग एक ऐसा बाजार बन चुके हैं जिनके जरिए अमेरिका और चीन जैसे शक्तिशाली देशों से भी भारत कूटनीतिक सौदेबाजी करने की स्थिति में है। और जी-20 से लेकर ब्रिक्स और आसियान से लेकर जी-8 में भी भारत के बगैर आर्थिक विकास और वैश्विक लेन-देन की कोई चर्चा पूरी नहीं होती।
लेकिन इस मध्यवर्ग को भुनाने के साथ-साथ यह भी हुआ है कि पूरे देश की छवि सिमटती गई है। एक सौ बीस करोड़ का यह देश केवल अपने मध्यवर्ग को अपना पर्याय समझने लगे और बाकी लोगों का आर्थिक विकास से कोई लेना-देना न हो तो भारत की जो छवि प्रचारित की जा रही है वह समग्र कैसे हो सकती है। जो लोग देश में मध्यवर्ग के विस्तार पर फूले नहीं समाते, उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इस दौर में गरीबों और बेरोजगारों की तादाद कितनी बढ़ी है।
इसी दौर में देश की जो पीढ़ी युवा हुई उसके लिए आजादी के संघर्ष का महत्त्व बेमानी हो गया। न गालिब का कोई महत्त्व इस दौर में बचा न भगत सिंह का। और खेल-खिलाड़ी को भारत रत्न के दायरे में लाने पर अगर ध्यानचंद के साथ सचिन तेंदुलकर का नाम ही सत्ता की जुबान पर सबसे पहले आया तो फिर इस बार भारत रत्न का सम्मान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ही क्यों नहीं मिलना चाहिए, जिनके विकास की चकाचौंध के लिए सचिन एक ब्रांड भर हैं। फिर प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह का नाम अगर भारत रत्न के लिए आयेगा तो यह नेहरू जीऔर इंदिरा गांधी के ही सिलसिले को आगे बढ़ाएगा।

पूंजीवाद की नाव

अरविंद कुमार सेन
जनसत्ता 22 दिसंबर, 2011: कहावत है कि अंधेरे में रहने वाले लोग जुगनुओं की रोशनी को आसमान के सितारे समझ बैठते हैं। बीस साल पहले बर्लिन दीवार ढहने के साथ ही साम्यवाद का मरसिया पढ़ने वालों ने दुनिया को सुनहरे भविष्य के सपने दिखाए थे और पूरी दुनिया ने उन्हें सिर-आंखों पर बिठाया था। आज बीस बरस बाद पूंजीवादी सपने ताश के महल की तरह बिखर रहे हैं और तहरीर चौक से लेकर वॉल स्ट्रीट तक विकल्प की मांग सुनाई दे रही है। वैश्विक अर्थव्यवस्था को संतुलित रखने के लिए बनाए गए विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसे संस्थान असहाय नजर आ रहे हैं।
पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था साख के संकट से गुजर रही है। शेयर बाजारों से निवेशकों का भरोसा उठ गया है और कोई बाजार में लौटने को तैयार नहीं है। निवेश कंपनियों की सट््टेबाजी और शेयर बाजार की आग में सपने जला बैठे निवेशक बाजारों से अपना पैसा निकाल रहे हैं। शेयर बाजारों के सूचकांक बुरी तरह लुढ़क गए हैं और बाजारों के कर्ता-धर्ता कह रहे हैं कि निवेशकों का भरोसा बहाल किए बगैर हालात सुधरने वाले नहीं हैं। अर्थव्यवस्था में विश्वास बनाए रखने के लिए पूंजीपतियों के दबाव में सरकारें जनता को सब-कुछ सही होने का दिलासा दे रही हैं, मगर लोग नीति-निर्माताओं के दावों पर यकीन ही नहीं कर रहे हैं। जनता की आवाज सरकारों तक पहुंचाने का दावा करने वाले नागरिक समाज पर भी पूंजीपतियों से मिलीभगत के आरोप लग रहे हैं। काहिरा में तानाशाह को हटा कर सेना ने तख्त पर कब्जा कर लिया। नतीजन सरकार, कारोबारी और नागरिक समाज समेत व्यवस्था के किसी भी अंग पर जनता का भरोसा नहीं है।
पूंजीवाद की बुनियाद ही बाजारों की साख पर टिकी होती है और एक अर्थव्यवस्था के डूबने पर उससे जुड़ी सारी अर्थव्यवस्थाएं हांफने लगती हैं। पूरी दुनिया के शेयर बाजारों में कोहराम मचा हुआ है और सरकारों से कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्थाओं में जनता का भरोसा कायम किया जाए। लेकिन पूंजीपतियों के हाथों छले गए लोग विश्वास करने को तैयार नहीं हैं। ऐसा क्यों है? साख पर उठे इस सवाल का जवाब पूंजीवाद की बनावट में ही छिपा हुआ है। कम निवेश पर अधिक मुनाफा कमाने की चाह में नवउदारवादियों ने 1990 के दशक में लागत में कमी लाने का वैश्विक अभियान छेड़ा था। अर्थव्यवस्था के अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर सबसे पहले इस मुहिम की चपेट में आए। नई तकनीक के सहारे बडेÞ पैमाने पर छंटनी हुई और बाकी बचे कर्मचारियों के वेतन में कमी कर दी गई।
कम वेतन ने लोगों को कर्ज लेने को मजबूर किया और इसी जगह से दुनिया भर के शेयर बाजार कुलांचे भरने लगे। बेहद कम समय में थोड़ी रकम पर मोटा मुनाफा कमाने के फेर में निवेश कंपनियों की फौज खड़ी होने लगी और लोगों का पैसा शेयर बाजारों में झोंका जाना लगा। देखते ही देखते बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अंबार खड़ा हो गया और कई देश केसिनो इकॉनोमी (ज्यादा मुनाफे के लिए भौतिक निवेश के बजाय शेयर बाजार में निवेश करना) में तब्दील हो गए। एक तरफ अधिकतर कर्मचारियों का वेतन लगातार कम हो रहा था वहीं प्रबंधन से जुड़े कुछ लोगों को अनाप-शनाप तनख्वाह देने का चलन जोर पकड़ता गया। ऐसे में समाज में तेजी से विषमता बढ़ी और वक्त बदलने के साथ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सीईओ ही सरकारें चलाने लगे। मुनाफे का बड़ा हिस्सा कंपनी के विकास में लगाने का मंत्र बदल दिया गया और मुनाफे की रकम शेयरधारकों में बांटी जाने लगी। कंपनियों का प्रबंधन जनता, सरकार या कर्मचारियों के प्रति जबावदेह होने के बजाय बस शेयरधारकों के प्रति उत्तरदायी रह गया।
चूंकि पूंजीवाद के नियम के तहत अर्थव्यवस्थाएं पूरी तरह खुली थीं, लिहाजा शेयरधारकों ने प्रबंधकों का वेतन कंपनी के मुनाफे से जोड़ दिया। कंपनियों का मुनाफा बढ़ने के लिए जरूरी था कि लोगों की खपत क्षमता में इजाफा हो। मगर आमदनी में लगातार हो रही कमी के चलते उपभोक्ता बाजार से दूरी बनाए हुए थे। मुनाफा लगातार बढ़ रहा था, लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि यह पूंजी दुनिया की एक फीसद आबादी की तिजोरी में सिमटती जा रही थी। इसका मतलब है कि वह रकम बाजार में खपत नहीं बढ़ा सकती। ऐसे में उत्पादों का भंडार बढ़ता गया और कंपनियों को अपनी उत्पादन क्षमता में कटौती करनी पड़ी। मांग के अभाव में निवेश योजनाएं भी रोक दी गर्इं। दरअसल बाजार में मांग पैदा करके कम लागत के सहारे मुनाफा पीटने का तरीका एक दशक पहले ही विफल हो गया था, लेकिन कर्ज की घुट््टी पिलाकर बाजार में खुशहाली का माहौल बनाए रखा गया।
उत्पादों की खपत बढ़ाने के लिए सालाना बोनस के लालच में प्रबंधकों ने खुली छूट का पूरा फायदा उठाया और तमाम कायदे-कानूनों दरकिनार करके कर्ज बांटना शुरू कर दिया। कर्ज चुकाने की क्षमता जाने बगैर लोगों को रकम मुहैया कराई जाने लगी। बाजार में कर्ज बांटने की होड़ मची थी और लोग पैसा लेकर उत्पादों पर टूट पडेÞ। उपभोक्ता सामान और घरों की कीमतें आसमान छूने लगीं, मगर कर्ज की रकम जेब में डाले लोगों की मांग कम नहीं हो रही थी। कर्ज आधारित विकास का यह मॉडल चल निकला और शेयर बाजार हर दिन ऊंचाई के कीर्तिमान बनाने लगे।
जीडीपी के आंकड़ों में विकास हो रहा था, मगर लोगों के पास   नौकरियां नहीं थीं। कर्ज बांट कर विकास करने का यह तरीका ऐसा बम था जो चरम पर पहुंच कर फटने का इंतजार कर रहा था। 2007 के आखिर में वह लम्हा आ गया जब निवेश का मक्का समझे जाने वाले लैहमेन ब्रदर्स, स्टेनले मोर्गन और एआईजी जैसी कंपनियों ने हाथ खड़े कर दिए। सारा वित्तीय तंत्र आपस में जुड़ा हुआ था, लिहाजा एक-एक करके सारी संस्थाएं इस भंवर की चपेट में आ गर्इं।
मुंबई की दलाल स्ट्रीट का सेंसेक्स वॉल स्ट्रीट के डाउ जोंस की राह पर चलता है और इसी तर्ज पर शेयर बाजारों की मार्फत यह आग पूरी दुनिया में फैल गई। बाजारों से भीड़ गायब हो गई और कंपनियों के गोदाम अनबिके उत्पादों से अट गए। अर्थव्यवस्था में भरोसा बनाए रखने और बाजार में मांग बढ़ाने के लिए कर्ज आधारित विकास की पुरानी गोली फिर से दागी गई। सरकारों ने सार्वजनिक खर्चों में कमी करके जनता के पैसों से बचाव-पैकेज बांटना शुरू कर दिया। एक बार फिर बाजारों में रौनक लौटी और विकास दर के दुरस्त आंकडेÞ पेश करते हुए सरकारों ने हालात संभालने का दावा किया। बचाव-पैकेजों के जरिए फिर से आ रही यह गति रोजगार-विहीन थी और इसी का नतीजा है कि दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं में चालू खाते का घाटा बढ़ता जा रहा है। यूनान, इटली और स्पेन जैसे कई यूरोपीय देशों में जीडीपी के मुकाबले चालू खाते का घाटा सौ फीसद का आंकड़ा पार कर चुका है। यह पूंजीपतियों की मुनाफे की हवस से पैदा हुए संकट का विफल इलाज था, जिसने दुनिया को दोहरी मंदी के भंवर में धकेल दिया है।
पूरी दुनिया में बांटे जा रहे बचाव-पैकेजों को सही ठहराने के लिए खपत बढ़ाने का तर्क पेश किया जा रहा है। पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इन पैकेजों के बल पर कंपनियां सस्ते उत्पाद मुहैया करवाएंगी और लोग बाजार में खरीदारी के लिए टूट पड़ेंगे। खपत बढ़ने से जीडीपी की रफ्तार बढ़ जाएगी और बेरोजगारी, गरीबी और आर्थिक विषमता जैसी समस्याएं दूर या कम हो जाएंगी। हालांकि खपत में बढ़ोतरी करके मुनाफा कमाने का यह पूंजीवाद गुर अब पुराना पड़ चुका है। खपत बढ़ने पर कंपनियां अपना उत्पादन बढ़ाएंगी, जबकि पर्यावरण विज्ञानियों का कहना है कि दुनिया को महफूज रखने के लिए विकसित देशों की विकास दर शून्य से एक फीसद के बीच रहनी चाहिए। दोहराने की जरूरत नहीं कि धरती लंबे समय तक उत्पादन, खपत और मुनाफे के इस मॉडल को नहीं झेल पाएगी।   
असल में पूंजीवाद की नाव ऐसे संकट में फंस गई है जिससे बाहर निकलने के उपाय इसके निर्माताओं ने तैयार ही नहीं किए थे। नवउदारवादी नीतियों के विफल होने के बाद नियंत्रित पूंजीवाद का राग छेड़ा गया और अर्थव्यवस्था के हरेक क्षेत्र का नियमन करने के लिए स्वतंत्र नियामक बनाए गए। 2008 की मंदी ने नियामकों के सहारे पूंजीवाद की गाड़ी चलाने का भ्रम दूर कर दिया है क्योंकि साख निर्धारण करने वाली एजेंसियों समेत सारे नियामक खुद कीचड़ में धंसे हुए थे। भारत के दूरसंचार घोटाले में ट्राई, विमानन क्षेत्र के संकट में नागर विमानन निदेशालय और गैस घोटाले में हाइड्रोकार्बन निदेशालय सवालों के घेरे में हैं। पूंजीवाद की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें पूंजीपतियों के मुनाफे पर कोई रोक नहीं है। यही वजह है कि मिल्टन फ्रीडमैन का जनता को दिया गया ‘आजादी के लिए पूंजीवाद’ (कैपिटलिज्म फॉर फ्रीडम) नारा अब पूंजीपति की स्वतंत्रता (फ्रीडम आॅफ कैपिटलिस्ट) में बदल चुका है।
विलियम शेक्सपियर का कहना था कि इंसानों और सभ्यताओं के जीवन में चरम पर ज्वार आता है और पूंजीवाद की वह घड़ी आ चुकी है। पूंजीवादी जहाज की अमेरिकी पतवार की मरम्मत तीन सालों में भी नहीं हो पाई है और यूरोपीय मल्लाह जहाज से कूदते जा रहे हैं। आयरलैंड, यूनान, स्पेन और इटली जैसे देश एक के बाद एक दिवालिया होते जा रहे हैं, मगर यूरोपीय संघ के पास कोई इलाज नहीं है। मुनाफा, ब्रांड, निवेश, खपत और प्रचार जैसी हर चीज का वैश्वीकरण करने वाले पूंजीवाद का संकट रिस-रिस कर चीन और भारत जैसे देशों में भी पहुंच चुका है। विडंबना यह है कि इस निर्णायक मोड़ परजनता के पास पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। मार्क्सवादी अब तक पुराने विध्वंस के अवशेष ही उठा रहे हैं, वहीं बाकी लोग पूंजीवाद के रुग्ण शरीर की दवा-दारू में लगे हुए हैं। दुनिया आज उसी दोराहे पर खड़ी है जहां आज से बीस बरस पहले थी।

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

अलग हैं वामदल

सुरेंद्र प्रसाद सिंह
वामदलों का सांगठनिक ढांचा देश के दूसरे राजनीतिक दलों से उन्हें अलग खड़ा करता है। विचारधारा और पार्टी संविधान को लेकर ये इतने प्रतिबद्ध हैं कि वे यदाकदा नहीं बल्कि आमतौर पर पार्टी के जनाधार को भी दांव पर लगाने से पीछे नहीं हटते हैं। छात्र संगठन से लेकर मूल पार्टी तक इसकी शिकार होती रही हैं। पार्टी में काडर की अहमियत जबर्दस्त होती है। उन्हें पार्टी नेताओं और निर्वाचित प्रतिनिधियों के मुकाबले अधिक तरजीह मिलती है।
निर्वाचित विधायकों और सांसदों के वेतन का एक बड़ा हिस्सा पार्टी फंड में जाता है, जिससे पार्टी के पूर्णकालिक काडर का खर्च वहन होता है। उनके सरकारी आवासों को भी पार्टी के विभिन्न संगठनों के कार्यालय में तब्दील कर दिया जाता है। वामदलों में सबसे बड़े दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मा‌र्क्सवादी) का प्रबंधन कुछ यूं होता है। कमोबेश इसी तर्ज पर बाकी का भी प्रबंधन होता है।
पोलित ब्यूरो : रोजमर्रा के मामलों पर नजर रखने के साथ पार्टी की राय जाहिर करने के लिए ब्यूरो हमेशा सक्रिय रहता है। पार्टी के तत्काल लिए जाने फैसलों में 17 सदस्यीय ब्यूरो दखल देता है।
सेंट्रल कमेटी : पार्टी की सबसे ताकतवर और शीर्षस्थ संस्था है। यह पोलित ब्यूरो के फैसलों की समीक्षा करती है। साथ ही पार्टी की नीतियों के अनुरूप लिए गए फैसलों पर अपनी मुहर लगाती है। सेंट्रल कमेटी का दूसरा सबसे बड़ा काम पार्टी कांग्रेस में तय की गई नीतियों के क्रियान्वयन पर कड़ी नजर रखना होता है। इस कमेटी में कोई 80 से अधिक सदस्यों को स्थान दिया जाता है। सेंट्रल कमेटी पोलित ब्यूरो और पार्टी कांग्रेस के बीच समन्वय करती है। पार्टी पदाधिकारियों के चुनाव का अनुमोदन भी यहीं से होता है।
पार्टी कांग्रेस: पार्टी की रीति नीति पर अंतिम फैसला पार्टी कांग्रेस में ही लिया जाता है। प्रत्येक तीन साल में एक बार होने वाली पार्टी कांग्रेस सर्वाधिकार सुरक्षित होती है। पार्टी कांग्रेस में जहां पिछली बैठक में लिए गए निर्णयों की समीक्षा की जाती है, वहीं तीन साल के लिए पार्टी अपना रुख तय करती है। पार्टी कांग्रेस में हिस्सा लेने वाले प्रतिनिधियों का चयन निचले स्तर पर मंडल व वार्ड कमेटियां करती हैं। आगामी अप्रैल 2012 में होने वाली पार्टी कांग्रेस के प्रतिनिधियों के चयन की प्रक्रिया शुरु हो चुकी है।

मीडिया की भाषा से जुड़े सवाल

किंशुक पाठक, प्राध्यापक, बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय
पत्रकारिता ने हिंदी भाषा को नया जीवंत रूप और संस्कार देने का काम किया है। माना जाता है कि भाषा का ज्ञान पत्रकार का सबसे बड़ा गुण है। साफ है, जिस पत्रकार की भाषा जितनी पैनी होगी, वह उतना ही सफल और सक्षम होगा। किसी भी भाषा की रचना सामान्य परिस्थितियों में नहीं होती। भाषा परिवर्तनों में जन्म लेती है और परिवर्तनों के साथ ही विकसित होती है। नए समाज में विकास की नई परिस्थितियां पैदा होती हैं, नई घटनाएं जन्म लेती हैं। युद्ध, क्रांति या आंदोलन के नए रूप खड़े होते हैं, तब उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए नई भाषा, शैली और शब्दावली की जरूरत महसूस होती है। पत्र-पत्रिकाओं का सीधा रिश्ता सामान्य जनता से होता है, इसलिए भाषा में बदलाव की यह जरूरत सबसे पहले समाचार पत्रों को ही महसूस होती है। ऐसे संक्रमण काल में पत्रों के सामने दो नए काम आ खड़े होते हैं- नई शब्दावली की रचना और उसका चलन।

भाषा की रचना में अक्सर ऐसे मोड़ आते हैं कि कुछ नए शब्द किसी खास घटनाक्रम के संदर्भ में अस्तित्व में तो आते ही हैं, किंतु जैसे ही उस घटनाक्रम की चर्चा थमती है, वे शब्द भी धीरे-धीरे लुप्त होने लगते हैं। ऐसे कई शब्द अल्पजीवी होते हैं और कई दीर्घजीवी।  कभी-कभी तो लुप्तप्राय शब्द भी अचानक अस्तित्व में आ जाते हैं। जैसे ‘महाभारत’ टेलीविजन सीरियल में ‘भ्राताश्री’, ‘माताश्री’ वगैरह। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार, विकास और परिमार्जन में पत्र-पत्रिकाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। न केवल साहित्यिक दृष्टि से पत्र-पत्रिकाओं का योगदान हिंदी की समृद्धि में उल्लेखनीय है, बल्कि भाषा की दृष्टि से भी वे महत्वपूर्ण हैं। भाषाशास्त्रियों की धारणा है कि प्रयोग के क्षेत्रों के अनुसार भाषा का एक विशिष्ट स्वरूप निर्धारित होता है। भाषा अपनी शब्दावली का विकास स्वयं करती है या प्रचलित शब्दावली में से ही शब्दों का चयन कर लेती है। यही कारण है कि मीडिया और समाचार पत्रों में प्रचलित भाषा साहित्यिक भाषा से कुछ अलग-सी दिखाई देती है। आधुनिक युग में पत्रकारिता पर व्यापक अनुसंधान हुए हैं, किंतु पत्रों की भाषा पर अलग से कोई ठोस काम नहीं किया जा सका है। समाचार पत्रों की भाषा विशुद्ध साहित्यिक नहीं होती, किंतु वह एकदम आमफहम भी नहीं होती। इन दोनों भाषाओं के बीच में ही कहीं पत्रों की भाषा की स्थिति होती है। लेकिन आजकल भाषा के स्वरूप में विकृति आती जा रही है और व्याकरण के नियमों की घोर उपेक्षा हो रही है। नई परिस्थितियों का वर्णन करने के लिए मीडिया और समाचार पत्र भाषा के जिस स्वरूप को अपना रहे हैं, वह साहित्य में उससे भिन्न है। मीडिया और समाचार पत्रों की भाषा के लिए शुद्धतावादी दृष्टिकोण अपनाना बुरा नहीं है, किंतु भाषा जनसाधारण के लिए सुबोध होनी चाहिए। डेनियल डेफो का कहना था, ‘यदि कोई मुझसे पूछे कि भाषा का सर्वोत्तम रूप क्या हो, तो मैं कहूंगा कि वह भाषा, जिसे सामान्य वर्ग के भिन्न-भिन्न क्षमता वाले पांच सौ व्यक्ति (मूर्खो और पागलों को छोड़कर) अच्छी तरह से समझ सकें।’ आजकल बोलचाल के ठेठ शब्दों के साथ ही पुनरावृत्तिमूलक शब्दों का प्रयोग भी हिंदी समाचार पत्रों में होने लगा है। हिंदी अखबारों में अनुवाद की जो भाषा घुस रही है, वह चिंता की बात है। यदि बंगाल में कोई घटना घटती है और उसका समाचार बांग्ला में छपता है, तो अंग्रेजी की समाचार एजेंसियां उसे अंग्रेजी में अनूदित कर हिंदी पत्रों को भेजती हैं। हिंदी समाचार पत्र उसका हिंदी में अनुवाद कर छापते हैं, जिससे अक्सर घटना की प्रस्तुति की मूल भावना ही समाप्त हो जाती है। एक तो हिंदी समाचार पत्रों में प्रयुक्त होने वाली हिंदी अंग्रेजी की अनुचर बनकर कांतिहीन और अवरुद्ध गति वाली हो गई है। दूसरे अनुवाद की जूठन और अंग्रेजी की प्रवृत्ति से तैयार किए गए समाचारों से पत्रकारिता का प्रभाव जनमानस पर सीमित हो रहा है। साथ ही भाषा की दृष्टि से हिंदी पत्रकारिता अपने मौलिक स्वरूप की स्थापना नहीं कर पा रही है। आधुनिक हिंदी समाचार पत्रों में इस प्रकार की दोषपूर्ण भाषा के अनेक उदाहरण खोजे जा सकते हैं। अनुवाद में सरल, तद्भव और प्रचलित शब्दों के स्थान पर तत्सम शब्दावली के प्रति आग्रह के कारण अखबारों की भाषा कठिन और बोझिल हो गई है। पाना, लेना, देना की जगह प्राप्त करना, ग्रहण करना और दान करना जैसे प्रयोगों की क्या आवश्यकता है? हिंदी समाचार पत्रों में भाषा का विन्यास भी कर्मवाच्य में होता है। यह हिंदी की प्रकृति के अनुकूल नहीं है। इसीलिए ‘द्वारा’ शब्द से बार-बार कवायद कराई जाती है और किए जाने, लिए जाने और दिए जाने जैसे प्रयोग करने पड़ते हैं। मौजूदा हिंदी अखबारों की भाषा में एकरूपता का अभाव दिखाई देता है। कभी-कभी तो किसी समाचार पत्र के एक ही पृष्ठ पर, यहां तक कि एक ही खबर में एक शब्द को भिन्न-भिन्न रूपों में प्रयोग किया जाता है। इस बहुरूपता से समाचार पत्र की मर्यादा को कितनी ठेस पहुंचती है, इसका ध्यान अक्सर नहीं दिया जाता है। हिंदी में हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं, अन्य भाषाओं में ऐसा नहीं होता। पहले हिंदी के अखबार ‘बंद’ को ‘बन्ध’ लिखा करते थे, जैसे ‘बंगाल बन्ध’ लिखा करते थे। यह अंग्रेजी के भाव के कारण ही हुआ है। कुछ लोग एक पूर्व केंद्रीय मंत्री के उपनाम को ‘छागला’ लिखते रहे हैं, कुछ लोग ‘चागला।’ अब शुद्ध किसे माना जाए? आज का पत्रकार भाषा को गंभीर दृष्टि से नहीं देखता और न ही शब्दों को लेकर कहीं बहस होती है। भाषा में ‘शब्दों’ का जंजाल खड़ा करके शाब्दिक सम्मोहन की स्थिति पैदा करना ठीक नहीं। एक ही भाव को व्यक्त करने के लिए अनेक शब्दों और उनके पर्यायों से परेड करवाना ठीक नहीं। लेकिन पाठकों से सस्ती सराहना हासिल करने के लिए लोग ऐसा ही करने लगे हैं, जैसे कदाचार, दुराचार, अनाचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार, अत्याचार से मुक्त होने के लिए। इन शब्दों में बड़ा सूक्ष्म भेद है। जब तक यह भेद पाठकों के सामने स्पष्ट नहीं किया जा सकता, बात पूरी तरह उसके पल्ले नहीं पड़ सकती। आज प्रचार-प्रसार तथा संवाद स्थापित करने का सबसे सशक्त माध्यम मीडिया ही है। जिससे अनेक तरह की सूचनाएं और ज्ञानवर्धक सामग्री आसानी से उपलब्ध हो जाती है। लोग पत्र-पत्रिकाओं के शब्दों को प्रामाणिक मानकर ग्रहण करते हैं, चाहे वे अशुद्ध ही क्यों न हों। किंतु समाचार पत्र-पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भ्रामक शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से होता रहा है। इसीलिए अखबारों को अपनी भाषा पर खास ध्यान देना चाहिए।

क्यों नहीं कर सकता राजनीति?


2.5 से 1.6 डिग्री सेल्सियस के बीच तीन दिनों में बहुत कुछ सुनने को मिला- एक पहाडी कोरवा आदिवासी ने भी कहा- बिना किसी जोड़-घटा के यथावत बयान पेश है, फर्क सिर्फ हिंदी और छत्तीसगढ़ी का ही है-
मैं लुन्द्रा के घने जंगल के बीच बिहार बार्डर के नजदीक पथरटोला गाँव का पहाडी कोरवा आदिवासी जग्गू राम हूँ, रहता हूँ एक झोपडी में.
हमारे इलाके में बहुत से दलाल लोग रहते हैं,
एक दलाल मुझसे कहता है - तुम गरीब हो, कमजोर हो - राजनीति नहीं कर सकते.
मैंने कहा - मैं कहाँ से कमजोर हूँ, तुमसे तेज दौड़ता हूँ, पहाड़ों को फलांगता हूँ
बहुत मजबूत हैं मेरे हाथ-पाँव.
तुम्हारी तरह ही मेरा शरीर है, सर पर धूप-पेट में भूख है.
गरीब कैसे हो गया? मेरा खेत तुमने हड़पा है,
अब वह मुझे चाहिए- कोई सेटलमेंट नहीं करूंगा - जैसा तुम कहते हो.
क्या करोगे - चार लारी बन्दूकधारी पुलिस लेकर आओगे?
पुलिस मेरा भाई है, लेकिन तुम्हें नहीं छोडूंगा.
पेट भरने के तीर धनुष से शिकार करता हूँ,
तुमने अगर जुल्म करने, मेरा शिकार करने की कोशिश जारी रखते हो
तो मेरा तीर चलेगा सीधे तुम पर,
बताओं- कैसे हुआ मैं कमजोर-गरीब,
क्यों नहीं कर सकता राजनीति?

क्यों नहीं कर सकता राजनीति?


2.5 से 1.6 डिग्री सेल्सियस के बीच तीन दिनों में बहुत कुछ सुनने को मिला- एक पहाडी कोरवा आदिवासी ने भी कहा- बिना किसी जोड़-घटा के यथावत बयान पेश है, फर्क सिर्फ हिंदी और छत्तीसगढ़ी का ही है-
मैं लुन्द्रा के घने जंगल के बीच बिहार बार्डर के नजदीक पथरटोला गाँव का पहाडी कोरवा आदिवासी जग्गू राम हूँ, रहता हूँ एक झोपडी में.
हमारे इलाके में बहुत से दलाल लोग रहते हैं,
एक दलाल मुझसे कहता है - तुम गरीब हो, कमजोर हो - राजनीति नहीं कर सकते.
मैंने कहा - मैं कहाँ से कमजोर हूँ, तुमसे तेज दौड़ता हूँ, पहाड़ों को फलांगता हूँ
बहुत मजबूत हैं मेरे हाथ-पाँव.
तुम्हारी तरह ही मेरा शरीर है, सर पर धूप-पेट में भूख है.
गरीब कैसे हो गया? मेरा खेत तुमने हड़पा है,
अब वह मुझे चाहिए- कोई सेटलमेंट नहीं करूंगा - जैसा तुम कहते हो.
क्या करोगे - चार लारी बन्दूकधारी पुलिस लेकर आओगे?
पुलिस मेरा भाई है, लेकिन तुम्हें नहीं छोडूंगा.
पेट भरने के तीर धनुष से शिकार करता हूँ,
तुमने अगर जुल्म करने, मेरा शिकार करने की कोशिश जारी रखते हो
तो मेरा तीर चलेगा सीधे तुम पर,
बताओं- कैसे हुआ मैं कमजोर-गरीब,
क्यों नहीं कर सकता राजनीति?

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

पाकिस्तान की नई परेशानी

[अमेरिका के साथ बिगड़ते संबंध और सैन्य तख्ता पलट की अटकलों के बीच पाकिस्तान के हालात पर निगाह डाल रहे है कुलदीप नैयर]
अगर राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पाकिस्तान में 24 सैनिकों के मारे जाने पर तुरंत खेद जाहिर किया होता तो पाकिस्तान का भय कम हो गया होता। भारत में कई लोगों को इसे लेकर आश्चर्य है कि इस्लामाबाद ने 'खेद' को स्वीकार क्यों नहीं किया? खेद को पूरी तरह माफी नहीं कह सकते, लेकिन यह उसके करीब है। इसका अर्थ होता है कि किसी गलत काम के लिए अफसोस की भावना। शायद पाकिस्तान ने खेद स्वीकार भी कर लिया होता अगर पाकिस्तान के विरोध के बावजूद अमेरिका और नाटो की सेना ने उल्लंघन की घटनाएं बार-बार दोहराई नहीं होतीं। 11 सितंबर की आतंकी घटना के बाद से ही पाकिस्तान के साथ एक ऐसे देश के रूप में व्यवहार किया जा रहा है जो अमेरिका के आदेश का गुलाम हो। तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कोलिन पावेल ने उस समय के पाकिस्तानी विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार को टेलीफोन किया था कि वह अपनी सरकार को यह बता दें कि अगर इस्लामाबाद उनके साथ नहीं आता तो अफगानिस्तान के बदले वे पाकिस्तान की जमीन पर बम बरसाना शुरू कर देंगे। उस समय पाकिस्तान 'ना' कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। वह इस समय भी दबाव का प्रतिरोध कैसे कर सकता है, बावजूद इसके कि सैनिकों को कमान के आदेश का इंतजार किए बगैर जवाबी कार्रवाई की इजाजत दे दी गई है? यह बात कड़वी लग सकती है कि संयुक्त कार्रवाई में हिस्सा लेने के बाद पाकिस्तानी सैनिक दरअसल अमेरिकी सैनिकों के दु‌र्व्यवहार के आदी हो गए हैं।
सच है कि सैनिकों के मारे जाने के बाद पाकिस्तान ने कड़ा रुख अपना लिया है और यहां तक कि ड्रोन के अड्डे को भी खाली करा लिया गया है, लेकिन यह पाकिस्तान के गुस्साए जनमत के आगे समर्पण है। मैं इस बारे में पक्का नहीं हूं कि पाकिस्तान सेना के प्रमुख अशफाक परवेज कयानी कब तक अड़े रहेंगे। इतने सालों में पाकिस्तान की सेना को अमेरिकी संग और आर्थिक सहायता की ऐसी आदत हो गयी है कि एकदम से पलट जाना संभव नहीं दिखाई देता। इस बारे में तर्क गढ़ने का काम शुरू हो गया है। एक सीमित सहयोग की संभावना जमीन पर दिखाई दे रही है। नाटो के कमांडर ने कहा कि इस दुखद घटना ने उनके आपरेशन और पाकिस्तान के साथ सहयोग को भंग नहीं किया है। अमेरिकी नाराजगी इस्लामाबाद के अनुकूल नहीं है, क्योंकि चीन खाली जगह को नहीं भर सकता, न ही भारत कोई मदद कर सकता। दोनों देशों के बीच संबंध ऐसे मुकाम पर नहीं है कि नई दिल्ली सहायता करेगी।
सैनिकों के मारे जाने पर खेद व्यक्त करने के बावजूद वाशिंगटन के व्यवहार में मैं कोई बदलाव नहीं देख रहा हूं। वह तालिबान के खिलाफ युद्ध कर रहा है और तालिबान का मुख्यालय पाकिस्तान में है। अमेरिकी और नाटो की सेना उसे दंडित करना जारी रखेगी, अगर इस्लामाबाद का सहयोग संभव हुआ तो ठीक अन्यथा जरूरत पड़ी तो इसके बगैर भी। दोनों पक्ष समझते हैं कि वे एक ऐसी स्थिति का सामना कर रहे है जिसे अकेले हल नहीं किया जा सकता। अमेरिका और पाकिस्तान कगार पर जा सकते हैं, लेकिन कूद नहीं सकते। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने कह भी दिया कि पाकिस्तान अमेरिका के साथ संबंधों को फिर से बनाना चाहता है और जवाब में अमेरिका ने इसका स्वागत भी किया है। दुनिया के सामने अमेरिका और नाटो के 130000 सैनिकों की 2014 में अफगानिस्तान से वापसी की समस्या है। अफगानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय सहयोग देने के लिए आयोजित बान सम्मेलन को ज्यादा स्पष्ट होना चाहिए था। पाकिस्तान की उपस्थिति निहायत जरूरी थी। किसी भी समझौते का कोई फायदा नहीं अगर इस्लामाबाद का उस पर हस्ताक्षर नहीं होता। पाकिस्तान को इस पर ऐतराज नहीं कि तालिबान अफगानिस्तान पर फिर से कब्जा कर लें, क्योंकि जब उन्होंने अस्थायी तौर पर ऐसा किया था तो इस्लामाबाद ने झट से मान्यता दे दी थी। ऐसे में भारत और पाकिस्तान के बीच सामान्य रिश्तों की जरूरत ज्यादा महसूस होती है। दिक्कत यह है कि पाकिस्तान भारत को अफगानिस्तान में देखना नहीं चाहता और इसकी उपस्थिति को अपने हितों के खिलाफ समझता है। दूसरी ओर नई दिल्ली ने काबुल के साथ सामरिक सहयोग का समझौता किया है। यह अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान को अकेला और बेबस नहीं छोड़ सकता। दिल्ली और इस्लामाबाद एक जगह आ सकते हैं अगर पाकिस्तान अफगानिस्तान की संप्रभुता और स्वतंत्रता को बिना किसी सामरिक उद्देश्य के स्वीकार कर ले। इसलिए 2014 के बाद भी अमेरिकी दखलंदाजी से इंकार नही किया जा सकता है। पहले से ही दबाव में पाकिस्तान की सेना के सामने इसके सिवाय कोई चारा नहीं है कि वह कम से कम उस तालिबान को जो आतंकवादी हैं, के सफाए के लिए भारत के साथ सहमति का रास्ता निकाले।
पाकिस्तान की सेना मेमोगेट के नाम से जाने जाने वाले विवाद को हल करने के लिए भारी परेशानी से गुजर रही है। समस्या और भी बड़ी है। वाशिंगटन जरदारी सरकार में फिर से अपना विश्वास कैसे कायम करे, क्योंकि अमेरिका की नजरों में वह पूरी तरह पाकिस्तान की सेना के अधीन हैं। मुझे कोई शक नहीं है कि हक्कानी की जगह लेने वाली शेरी रहमान में वह क्षमता और प्रतिबद्धता है कि वह परस्पर विश्वास का संबध फिर से स्थापित कर सकें और उसे यकीन दिला सकें कि निर्वाचित सरकार को सेना हटा नहीं सकती। जरदारी सरकार का नाम इतिहास में दर्ज हो सकता है अगर वह उपमहाद्वीप में घृणा दूर करने और गरीबों की हालत सुधारने के काम में मदद करें।
[लेखक: प्रख्यात स्तंभकार है]
(दैनिक जागरण से साभार)

संसद ही है बहस की सही जगह

सोमनाथ चटर्जी, पूर्व लोकसभा स्पीकर
सरकार को उम्मीद तो थी कि संसद की स्थायी समिति में विचार-विमर्श के बाद तैयार लोकपाल विधेयक से सब संतुष्ट होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। किसी ने इसे अन्ना आंदोलन से जाहिर हुई जन-आकांक्षाओं की अनदेखी कहा, तो किसी ने यह पूछा कि इसके दायरे में समूची नौकरशाही क्यों नहीं? एक बार फिर लोकपाल पर बहस तेज हो गई  है। अन्ना के एकदिवसीय अनशन पर फटाफट तथाकथित महाबहस का आयोजन हो गया। लेफ्ट-राइट सब जंतर-मंतर पर इकट्ठे हो गए। रही-सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी। महाबहस का महालाइव कवरेज हुआ। अब अन्ना के इस तीसरे चक्र के आंदोलन की उपलब्धियों और सियासी नफे-नुकसान पर बहस छिड़ गई है। सवाल उठने लगे हैं कि अन्ना किस पर निशाना साध रहे हैं और किस पर नहीं। इस महाबहस में कौन-कौन-सी पार्टी के किस-किस सदस्य ने हिस्सा लिया। कौन अन्ना के साथ था और कौन नहीं?

यह सवाल पीछे रह गया कि क्या इस बहस के लिए जंतर-मंतर ठीक जगह थी? अगर हां, तो जंतर-मंतर पर ढेरों प्रासंगिक व सही मुद्दों को लेकर आंदोलन होते रहते हैं। उनकी सुध क्यों नहीं ली जाती? अगर यह जगह ठीक नहीं थी, तो फिर कौन-सी ठीक होती? जाहिर है, उचित जगह तो संसद ही है। कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद की है। सांसद अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्र से जीतकर आते हैं। जनता उन्हें अपनी आवाज मानती है। वह जनता के हितों के रखवाले होते हैं। कानून बनाने का हक बस उनका ही है। हां, सुझाव देने का हक सबको है। कोई भी संगठन अपनी राय रख सकता है। नेता चाहें, तो पार्टी के अंदर भी विचार-विमर्श कर सकते हैं। लेकिन संसद के अंदर हंगामा हो, किसी भी विधेयक पर बहस न हो, बेवजह मुद्दे को उछालकर संसदीय कार्यवाही का स्थगन हो और बाहर सड़क पर सांसद बहस करें, तो इसे क्या कहेंगे? सांसदों को अगर लोकपाल पर बहस करनी है, तो वे इस मुद्दे और अपने सुझावों को संसद में उठाएं, न कि जंतर-मंतर पर किसी तथाकथित महाबहस में। यह दुखद है कि सदन की कार्यवाही में सांसदों की दिलचस्पी घटती जा रही है। रविवार को जंतर-मंतर पर सांसद गण जो कह रहे थे, उन्हीं बातों को वे संसद में पुरजोर तरीके से उठा सकते थे। उनकी बातें रिकॉर्ड में भी रहतीं और 50-100 साल बाद भी लोग कहते कि भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ठोस कानून की मांग को लेकर विपक्ष ने सरकार को घेरा था। जो कुछ जंतर-मंतर पर हुआ, संसदीय लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है।
अन्ना हजारे और उनके समर्थकों ने भी जो तरीका अपनाया, वह लोकतांत्रिक नहीं है। यह ठीक है कि दुनिया भर में आंदोलनों के जरिये ही सोई हुई सरकारों की नींद तोड़ी जाती है। यह भी सच है कि भारत जैसे विशाल देश में भ्रष्टाचार एक महत्वपूर्ण मसला है। हर ओर से यह समूची व्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहा है। परंतु यह तो जरूरी नहीं कि टीम अन्ना की मांगों से सब सहमत हों। अभिव्यक्ति की आजादी सबको है, पर कोई अपनी अभिव्यक्ति को दूसरों पर थोपे, यह तो गलत है। उनकी मांगों को मानने या न मानने का हक संसद को है। यह हक जनता ने ही सांसदों को  दिया। अन्ना कहते हैं कि लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री भी आएं। अगर अन्ना के रास्ते पर सरकार चली और कल को किसी प्रधानमंत्री पर कोई मनगढ़ंत आरोप लगे, फिर क्या होगा? सबसे पहले विपक्ष यह कहेगा कि आरोपी प्रधानमंत्री अपना पद छोड़ें। इसे लेकर काफी हो-हल्ला होगा। संसद में भी और सड़क पर भी। अगर प्रधानमंत्री अपने पद से इस्तीफा देंगे, तो सरकार गिर जाएगी। इसके बाद संसद की सबसे बड़ी पार्टी सरकार बनाने का दावा करेगी। इसे लेकर जोड़-तोड़ शुरू होगी। बेवजह वक्त और पैसे जाया होंगे। यह सब कुछ हमें एक अस्थिर देश की ओर ले जाएगा। जाहिर है, उस वक्त भ्रष्टाचार और कुव्यवस्था अपने चरम पर होगी। फिर कैसे हम दावे के साथ कह पाएंगे कि हमारा लोकतंत्र दुनिया भर में सबसे सुदृढ़ है। हम और हमारे पड़ोसी देश में क्या फर्क रह जाएगा? आखिर यही मजबूत लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली ही तो है, जिसकी वजह से हमारा वजूद कायम है। जन आंदोलन के क्या मायने हैं, यह मौजूदा पीढ़ी को समझना होगा। इस आंदोलन की परिणति होती है, राजनीतिक पार्टियों द्वारा जनता की मांगों को मानना। लेकिन यहां पर तो सिर्फ भाषण ही भाषण हैं। कैसे लोकपाल 120 करोड़ जनता को भ्रष्टाचार से दूर रखेगा? बस भाषण से! और इस तरह की नारेबाजी से! बार-बार टीवी पर अन्ना की टीम कहती है कि यह आंदोलन 120 करोड़ जनता का है। तो, उनकी मांगों का विरोध कर रही अरुणा रॉय की टीम 120 करोड़ में नहीं आती है? कुछ लोग जो टीम अन्ना का साथ छोड़ गए, क्या वे इस देश के नागरिक नहीं हैं? यहां तक कि क्या सांसदों को भी टीम अन्ना इस देश का नागरिक नहीं मानती? दरअसल, 120 करोड़ जनता यह चाहती है कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो। सांसद व जनता, सबकी यही राय है। उसके लिए सरकार एक ठोस लोकपाल बिल लाए। यही जन आंदोलन है। इस आंदोलन के साथ सब हैं। इसीलिए सरकार झुकी। लेकिन टीम अन्ना यह कहती है कि उसका जन-लोकपाल विधेयक ही कानून बने। यह तो एक तरह से तानाशाही प्रवृत्ति है। कल को दिल्ली के किसी मैदान में पांच लाख की भीड़ जुटे और मांग हो कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाया जाए, तो क्या इसे स्वीकार कर लिया जाएगा? कदापि नहीं। हमारे यहां इसे जन आंदोलन की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। इसी तरह अन्ना ने भ्रष्टाचार का जो मुद्दा उठाया है, वह जन आंदोलन तो है, लेकिन वह जिन मांगों पर अड़े हैं, वह जन आंदोलन का हिस्सा नहीं है। यह बस मीडिया हाइप है। टीआरपी का खेल है। बार-बार हम पश्चिम-पश्चिम करते हैं। लेकिन पश्चिम में तो मीडिया की भूमिका काफी सकारात्मक है। अपने यहां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इस आंदोलन को ऐसे पेश किया, मानो देश में लोकतंत्र नहीं, भीड़तंत्र हो। संसद की स्थायी समिति में हर राजनीतिक पार्टी के लोग होते हैं। किसी भी विधेयक पर काफी संशोधन इसी पड़ाव पर किए जाते हैं। संसदीय प्रणाली में इस बात का भी प्रावधान है कि अलग-अलग राय को भी कानून बनने से पहले सुना व शामिल किया जाए। पर कोई संगठन अड़ जाए कि कानून तो उनकी मांगों के मुताबिक ही हो, तो यह लोकतंत्र में मान्य नहीं है।
प्रस्तुति: प्रवीण प्रभाकर
(हिंदुस्तान से साभार)

साहित्य: दिसंबर से दिसंबर

सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकार
ये दिन आत्म संघर्ष के हैं। कई साहित्यकार आत्म संघर्ष में लिप्त हैं। आत्माएं दोफाड़ हैं। एक आत्मा का दूसरी आत्मा से संघर्ष छिड़ गया है। किसी की तीन-तीन हैं। एक की तो सात आत्माएं एक-दूसरे से झगड़ रही हैं। इस महान संघर्ष के मूल में अकादमी का एक इनाम है।

हर लेखक दस टुच्चे, पांच लुच्चे और तीन सुच्चे इनाम जुगाड़ता है। इस प्रकार का समाजार्थिक संघर्ष करते हुए इनाम की खबर के लिए चातक बन अपनी चोंच खोले दिसंबर से बैठ जाता है और कमेटी के बरसने का इंतजार करता रहता है। 73 साल का रचनाकार और उसके लठैत, 55 साठ के आसपास का एक आलोचक, उसके वकील और साठोत्तर कवि के सिपहसालार सभी संघर्षरत हैं। यह संघर्ष बड़ा ही विकट रचनात्मक है। जो लेखक इससे नहीं गुजरा, उसे साहित्यकार होने का हक नहीं। आत्म संघर्ष एक प्रकार की ‘कृच्छ-संपर्क-साधना’ है। इड़ा, पिंगला, सुषम्ना को जगाना इसके आगे बच्चों का खेल है। इसमें पहले क्षण में आत्मा दोफाड़ हो जाती है। आपस में घटिया पड़ोसियों की तरह झगड़ने लगती हैं। अब तक क्या किया तूने? दो दावतें दीं। पांच जगह उनकी रद्दी किताब का रिव्यू किया। 60-65-75 के होने पर सम्मेलन कराया। ‘ऐतिहासिक योगदान’ की चर्चा कराई। मेरा मुंह न खुलवा। दस बार उस हरामी के घर रसमलाई पहुंचाई, उसके मेहमानों को स्टेशन से लाया, इसी घर में बाप की तरह टिकाया। तुझे क्या मिला? पहली आत्मा बोलती है- साला गुरुघंटाल! बस एक बार नाम आ जाए, फिर देखना क्या करती हूं उसका। दूसरी आत्मा दुखी होकर कहती है- वो परले दरजे का बेईमंटा है। तू क्यों उसके चक्कर में आई? तू नीच, तू कमीनी चुप! शटअप! टीवी की बहसों की तरह वे एक-दूसरे पर पिल पड़ती हैं। परमात्मा मत्था ठोंकते हैं- ये मेरी आत्माओं को क्या हुआ? दिसंबर पर दिसंबर निकल रहे हैं। एक कवि, दो कथाकार, दो आलोचक ब्लडप्रेसर चेक कराने क्लिनिकों में भरती हैं। उनकी आत्माएं एक-दूसरे पर फायर कर बैठी हैं। दिसंबर गुजरा जा रहा है और अकादमी का वह लिफाफा नहीं बना है। कब बनेगा? बताओ जोगीजी? आस रख। सांस रख। आत्माएं अपने आप से कहती डोलती हैं। नाम आएगा, जरूर आएगा। पार्टी होगी जरूर। इतने दौरे करवाए। इतनी कमेटियों में डाला और डलवाया। दो तीन गुना पेमेंट किया। यह निवेश अकारथ न जाएगा। कलयुग का पूर्ण पतन नहीं हुआ है। गुरुजी कह गए हैं- होगा, होगा, होगा। आत्माएं दिसंबर टू दिंसबर यही संघर्ष करती हैं। बंधुओ! इस आत्मसंघर्ष का इतिहास नहीं होता। होता तो सबकी आत्माओं का रिकॉर्ड  होता। होता तो साहित्य का अब तक अव्यक्त अद्भुत ‘अंडर ग्राउंड’ निकलता। फ्रायड कब्र से उठकर स्टडी करने आ बैठते। उन्हें अपने सिद्धांत बदलने पड़ते। चेतन, अवचेतन, उपचेतन के साथ चौथा। ‘नकद निवेशन चेतन सिद्धांत’ बनाना पड़ता, जिसे सूक्ष्म में ‘ननिवेचन’ कहा जाने लगता। ‘ये अंदर की बातें’ बाहर निकलतीं, तो नए साहित्य सिद्धांत बनते, ‘साहित्य समाज का दर्पण है या कामना का दर्पण है?’ ‘साहित्य लेखक की हैसियत का दर्पण है या संसाधनों का?’ ‘साहित्य सत्ता का दर्पण है या सरकार का?’

इस तरह के कुछ नए हिंदी सिद्धांत निकलते और बच्चे सच्ची बातें पढ़ा करते। साहित्य के इतिहास का अंत हो जाता। ‘हिंदी सारी थियरीज को चित करने वाली होगी।’- ‘मत्सर महाराज’ हमारे कान में भविष्यवाणी कर गए हैं।

असल मुद्दा संसद की सर्वोच्चता का है

सीताराम येचुरी, सदस्य, माकपा पोलित ब्यूरो
आखिरकार लोकतांत्रिक भावना की जीत हुई। यूपीए सरकार द्वारा खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत के अपने फैसले पर फिलहाल रोक लगा देने के बाद शीतकालीन सत्र का गतिरोध खत्म हो गया है। संसद सत्र के दौरान कैबिनेट द्वारा लिए गए इस एकतरफा फैसले के कारण ही संसद की कार्यवाही में बाधा पड़ी थी। केंद्रीय मंत्रिमंडल को कार्यपालिक निर्णय लेने का अधिकार जरूर होता है, लेकिन अक्लमंदी इसी में है कि इतने महत्वपूर्ण फैसले को संसद के अनुमोदन से ही लिया जाए। सरकार को इस मामले में विरोधियों के सामने झुकना पड़ा है।

जनमत के इसी दबाव ने कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए में शामिल कुछ सहयोगी दलों को भी इस कदम का विरोध करने के लिए मजबूर कर दिया था। वैसे भी संसदीय जनतंत्र की भावना का तकाजा है कि जब संसद का सत्र चल रहा हो, तो उसके अनुमोदन के बिना ऐसा कोई निर्णय नहीं किया जाए। यही हमारी संवैधानिक व्यवस्था की भावना है, जिसके तहत सर्वोच्च संप्रभुता देश की जनता में निहित है। जनता अपनी इस संप्रभुता का व्यवहार संसद में तथा विधायिकाओं में अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से करती है। हमारी संवैधानिक व्यवस्था में कार्यपालिका (सरकार) विधायिका (संसद/विधानमंडल) के प्रति जवाबदेह है और विधायिका जनता के प्रति। इसलिए ऐसा कोई भी फैसला, जिसका जनता की आजीविका तथा हमारी अर्थव्यवस्था की मजबूती पर दूरगामी असर पड़ने जा रहा हो, विधायिका के प्रति कार्यपालिका की जवाबदेही को ताक पर रखकर नहीं लिया जाना चाहिए। इसे तो अब नियम ही बना दिया जाना चाहिए। जब कभी इस नियम का उल्लंघन हो रहा हो, तो संसद को यह सुनिश्चित करने के लिए सतर्कता दिखानी चाहिए कि उसके प्रति जवाबदेही को ताक पर रखे जाने की इजाजत सरकार को कतई नहीं मिलेगी। खुदरा व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देने के कैबिनेट के इस फैसले के खिलाफ संसद ने ऐसी सतर्कता का ही तो प्रदर्शन किया है। संसद की कार्यवाही में बाधा डालने के लिए सबसे पहले तो सरकार का यह फैसला ही जिम्मेदार है। यह दूसरी बात है कि सरकार ने संसद की कार्यवाही बाधित होने के लिए विपक्ष के सिर पर दोष मढ़ने की कोशिश की और यह दलील दी कि वह तो संसद के दोनों सदनों में इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए तैयार थी। लेकिन जब तक कैबिनेट का उक्त फैसला अपनी जगह बना रहता, इस तरह की चर्चा की सार्थकता ही भला क्या होती? वास्तव में वर्तमान अनुभव से भविष्य में आने वाली सभी सरकारों के लिए एक नजीर कायम हो गई है कि जनता के जीवन पर इतना भारी प्रभाव डाल सकने वाले फैसले संसद के अनुमोदन के बिना नहीं लिए जाने चाहिए। वैसे भी, जब संसद का सत्र चल रहा हो, तब तो अपेक्षाकृत मामूली महत्व के निर्णय भी कार्यपालिक फैसले के रूप में नहीं लिए जाने चाहिए। केंद्र सरकार के इस निर्णय के खिलाफ विरोधियों ने अपने तर्क विस्तार से रखे थे। इस मामले में अब आगे कोई भी निर्णय लेने से पहले सरकार को इन सभी तर्को पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अब जबकि सरकार का उक्त फैसला उठाकर ताक पर रख दिया गया है, तब शायद इस मुद्दे पर संसद में बहस की इजाजत न मिले। फिर भी यह महत्वपूर्ण है कि इस तरह का कोई भी फैसला लेने से पहले हमारी अर्थव्यवस्था तथा जनता की आजीविका पर उसके गंभीर परिणामों की गहराई से छानबीन कर ली जाए। पिछले साल का पूरा शीतकालीन सत्र, टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति के गठन से सरकार के हठधर्मितापूर्ण इनकार के चलते बरबाद हो गया था। आखिरकार यूपीए सरकार को संयुक्त संसदीय कमेटी का गठन करना ही पड़ा। अगर उसने पहले ही ऐसी समझदारी दिखाई होती, तो पिछली बार का शीतकालीन सत्र भी बरबाद नहीं हुआ होता। बहरहाल, मौजूदा मामले में खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इजाजत देने के केंद्रीय मंत्रिमंडल के फैसले को स्थगित किए जाने के बाद अब सत्र के बाकी तीन हफ्तों में तो संसद की कार्यवाही चलनी ही चाहिए। खास बात यह भी है कि यूपीए सरकार को इस मामले में कैबिनेट के फैसले को स्थगित करने पर तो मजबूर होना ही पड़ा है, इसके साथ ही उसे संसद के दोनों सदनों में यह ऐलान भी करना पड़ा है कि इस मामले में आगे कोई भी निर्णय, सभी पक्षों से परामर्श के बाद आम राय के आधार पर लिया जाएगा। संसद में हुई सर्वदलीय बैठक में माकपा ने इस पर जोर दिया था कि इस तरह की आम राय संसद में सभी राजनीतिक पार्टियों और राज्य सरकारों को शामिल करके बनाई जाए। सरकार ने इस सलाह को मान ली है। बहरहाल, इसका किसी भी तरह से यह अर्थ नहीं है कि खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का रास्ता बंद रखने की लड़ाई अब खत्म हो चुकी है। हमारी अर्थव्यवस्था तथा जनता की रोजी-रोटी के लिए विनाशकारी साबित होने जा रहे ऐसे कदमों के लिए साम्राज्यवादी ताकतों तथा अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी ने पूरा जोर लगा रखा है, क्योंकि उन्हें इनमें अपने मुनाफे ज्यादा से ज्यादा करने के नए मौके दिखाई दे रहे हैं। वास्तव में, इस धारणा में काफी दम नजर आता है कि पिछले ही दिनों बाली में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा से हुई अपनी मुलाकात में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उनसे ऐसे कदम का वायदा कर आए होंगे। जाहिर है कि आज जब विश्व अर्थव्यवस्था दोहरे गोतेवाली मंदी के संकट से गुजर रही है, तब संभव है कि इस तरह के दबाव और भी बढ़ा दिए गए हों। अगर विदेशी पूंजी को अपने मुनाफे ज्यादा से ज्यादा करने के लिए इस तरह के मौके मुहैया कराए जाते हैं, तो इसके लिए भारतीय जनता के हितों की बहुत भारी कुर्बानी देनी पड़ेगी। फिलहाल तो इस आपदा को टाल दिया गया है। लेकिन अब निरंतर जनसंघर्षों के जरिये जोरदार दबाव बनाया जाना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सरकार कहीं संसद का सत्र खत्म होने के फौरन बाद या आगे चलकर ऐसा कोई कदम नहीं उठाए। संसद के पूर्वानुमोदन के बिना ऐसे कदम उठाने की इजाजत कभी भी नहीं दी जानी चाहिए।

जनता से संवाद सबसे जरूरी

महातिर बिन मोहम्मद, पूर्व प्रधानमंत्री मलयेशिया
प्रजातंत्र में मिली आजादी का दुरुपयोग लोग राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ हड़ताल, नारेबाजी और काम रोको जैसे हथकंडों के लिए करते हैं। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि सरकार कड़े फैसले नहीं ले पाती। प्रजातंत्र वहीं पर ठीक है, जहां लोग इसमें मिली आजादी का मूल्य समझते हों। गैरजिम्मेदार लोगों के हाथों में प्रजातंत्र एक ऐसे हथियार की तरह हैं, जिसका इस्तेमाल वे सरकार के खिलाफ करते हैं। यह सीमित प्रजातंत्र का ही नतीजा है कि पिछले 60 वर्षो के दौरान चीन पूरे विश्व की फैक्टरी बन गया और उसके उत्पाद दुनिया की जरूरतों पर छा गए, जबकि अति प्रजातंत्र के कारण भारत पिछड़ गया और अब रिटेल सेक्टर में एफडीआई के झगड़े में उलझा हुआ है। यदि प्रजातंत्र थोड़ा सीमित किया जाए, तो भारत भी चीन की तरह विश्व बाजार की बड़ी शक्ति बन सकता है।

यह बात सही है कि भारत एक बहुजातीय और बहुधार्मिक देश है, इसलिए यहां प्रजातंत्र के मायने और अधिक महत्वपूर्ण हैं। लेकिन सवाल वही है कि लोग कितने जिम्मेदार हैं? हमारा मलयेशिया भी एक बहुधार्मिक देश है। वहां चीनी, भारतीय और स्थानीय मलय लोग रहते हैं। जहां एक ही जाति या धर्म के लोग हैं, वहां भी समस्याएं हैं। ऐसी व्यवस्थाओं में अमीर और गरीब का संघर्ष बना रहता है। मैं मानता हूं कि आने वाले समय में सभी देश बहुधार्मिक देश बन जाएंगे, क्योंकि लोग एक जगह से दूसरी जगह बसने के लिए जाते रहते हैं। जहां तक आतंकवाद का सवाल है, तो मेरा मानना है कि आतंकवाद कमर में बम बांधकर खुद को उड़ा लेना ही नहीं है। दहशतगर्दी उसे भी कहते हैं, जो आसमान से आती है (नाटो बलों की ओर इशारा, जिसने एक हफ्ते पहले पाकिस्तान के पश्चिमी इलाके में विमानों से बमबारी कर 24 पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया)। नाटो के ऐसे हमले हमें डराते हैं और जो भी हमें डराता है, वह आतंकवाद है। पर अफसोस है कि नाटो  जैसे बल आतंकवाद खत्म करने की बजाय और ज्यादा आतंकवादी पैदा कर रहे हैं। उनकी कार्रवाई से गुस्सा बढ़ रहा है। यह रुकना चाहिए। यह भी देखा जा रहा है कि अमेरिका अब दक्षिण एशिया को अपना युद्ध-क्षेत्र बना रहा है, क्योंकि उसे लगता है कि चीन का मुकाबला करने के लिए यह जरूरी है। लेकिन चीन  पिछले चार हजार वर्षो से मौजूद है और दो हजार साल से मलयेशिया उसके साथ व्यापार कर रहा है। चीन एक ताकत है। आप इसे यूं खारिज नहीं कर सकते। चाहे आप उसे पसंद करें या न करें। चीन के प्रति समर्थक रुख के कारण पश्चिमी मुल्कों ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया तथा अमेरिका के साथ मलयेशिया के रिश्ते तल्ख हैं। लेकिन यह मलयेशिया का अपना रुख है, जिसे बदलने की आवश्यकता नहीं है। दरअसल, चीन के साथ मलयेशिया काफी समय से रह रहा है, लेकिन चीन ने कभी मलयेशिया पर कब्जा करने की कोशिश नहीं की। जबकि इस देश का 40 फीसदी व्यापार चीनी लोगों के हाथों में है। महज दो फीसदी व्यापार मलय लोग करते हैं। मेरा मानना है कि सीमा विवाद का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। क्या अमेरिका की सीमा इराक से लगती है, लेकिन उसने फिर भी हजारों किलोमीटर दूर इराक पर कब्जा कर लिया। इसलिए चीन से भारत को डरने की जरूरत नहीं है। जहां तक दलाई लामा का प्रश्न है, तो चीन का इस मामले में एक   रुख है, जिसे भारत पसंद नहीं कर सकता। लेकिन चीन में और भी बहुत कुछ सकारात्मक हो रहा है, भारत को उसकी नकल करनी चाहिए। मुझे कट्टर इस्लामी समझा जाता है, जबकि मैंने अपने यहां कट्टरवाद का काफी विरोध किया है। यदि चीजों को सही तरीके से रखा जाए, तो मैं इसे कट्टरवाद की जगह अतिवाद बोलना चाहूंगा। धर्म का अनुपालन करना कट्टरवाद हो सकता है, लेकिन इसे गलत अर्थ में ले जाना अतिवाद है। हम अतिवाद से ही जूझ रहे हैं। इस्लाम का अर्थ है शांति, लेकिन अतिवादी लोग इसकी व्याख्या अपने तरीके से कर उसे कट्टर बना देते हैं। इसके लिए उन्हें समझाना चाहिए और बताना चाहिए कि इस्लाम का सही अर्थ क्या है। हिंसा से कोई बात नहीं बनती, हिंसा करने या उन्हें जेल में डालने से नाराजगी बढ़ती है, जिससे कट्टरवाद और फैलता है। पाकिस्तान का उदाहरण ले लीजिए। वहां अतिवाद के साथ हिंसा भी बहुत है, जबकि मलयेशिया में हिंसा नहीं है। बात समझाने से ही बनेगी। यदि आप लोगों को जेल में डालेंगे, तो उनमें गुस्सा बढ़ेगा, जिससे शांति के प्रयास बेकार हो जाएंगे। मेरा शुरू से ही मानना रहा है कि दो देशों के बीच के विवाद उनमें बातचीत से ही सुलझने चाहिए। कश्मीर का विवाद भारत और पाकिस्तान के बीच है, इसमें तीसरे देश का कोई रोल नहीं है। लेकिन यदि ऐसा न हो, तो मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में जाना चाहिए, न कि संयुक्त राज्य अमेरिका में। अमेरिका को देशों के विवाद निपटाने का कोई हक नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि अमेरिका देशों के अंदरूनी मामलों में दखल दे रहा है। यह ठीक है कि मैं नियंत्रित प्रजातंत्र में यकीन रखता हूं, लेकिन मैंने अपने 22 वर्षो के (1981 से 2003) शासनकाल में मीडिया पर कभी पाबंदियां नहीं लगाईं। यह कहना भी गलत है कि न्यायपालिका और राजशाही को मैंने एक दायरे में सीमित कर दिया था। मीडिया मेरे खिलाफ खराब से खराब लिखता रहा, लेकिन उसे कभी कुछ नहीं कहा गया। फिर भी मेरा मानना है कि मीडिया को जिम्मेदार होना चाहिए, क्योंकि किसी के बारे में खराब लिखने से आप कुछ हासिल नहीं कर पाते।  भारत की समस्या यह है कि यहां राज्यों को ज्यादा शक्तियां मिली हुई हैं, जबकि अधिक शक्तियां केंद्र के पास होनी चाहिए। भारत में यदि केंद्रीय नेतृत्व मजबूत हो, तो उसके लिए अच्छा रहेगा। केंद्रीय नेतृत्व की मजबूती से विदेशों के साथ संबंध अच्छे बनते हैं और देश तरक्की करता है। बहुदलीय व्यवस्था भी भारत के लिए एक समस्या है, क्योंकि इनमें कभी भी, किसी मुद्दे पर एक राय नहीं बन सकती। किसी न किसी दल के पास विरोध का कोई न कोई कारण रह ही जाता है। भारत में रिटेल सेक्टर में एफडीआई पर जारी घमासान का कारण संवाद की कमी है। सरकार को जनता के बीच जाना चाहिए और उसेबताना चाहिए कि उनके लिए क्या सही है। यह सही है कि इस देश की आबादी एक अरब से अधिक है और यह काम थोड़ा मुश्किल है, लेकिन सरकार को यह करना ही पड़ेगा।

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

अब राहुल का लोहा माना अन्ना ने.....

अब अन्ना जी ने राहुल गांधी को निशाना बनाया है - कांग्रेस में सबसे बूढ़े प्रणव दा, मनमोहन जी सहित तमाम छोटे-बड़े नेता -कार्यकर्ता राहुल को कम से कम प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं - यह मंशा (भले ही अपनी भलाई के लिए हो) प्रकट करना रोजमर्रा का काम हो गया है. कांग्रेस में सुपर पावर राहुल बने कि नहीं, लेकिन अन्ना ने तो मान ही लिया. अब देश में करोड़ों लोगों को उद्वेलित कर देने वाले श्री हजारे ने कल यह प्रमाणपत्र दे दिया तो कांग्रेसी मंसूबों की यह बड़ी कामयाबी ही मानी जानी चाहिये. कभी सिब्बल, अभी चिदंबरम, कभी प्रणव, कभी खुर्शीद को महत्वपूर्ण बनाने वाले अन्ना जी को या राजनीति की समझ ही नहीं है या ऐसे बयानों के लिए "सुपारी" लेते हैं -वही जानें.
"मैया मैं तो चंद खिलौना लैहों" के "बाल-हठ" में पड़े अन्ना को बस "अपना जन लोकपाल" ही चाहिए. पहली बार जब जंतर मंतर में अनशन किया तो भाजपा उन्हें ड्राफ्ट कमेटी में लेने पर नाराज थी -साथ में धमकी भी दी थी कि संसद में ही मामला आयेगा न - उस वक्त देख लेंगे. दुबारा रामलीला मैदान में भाजपा ने अन्ना आन्दोलन की कमान ही संभल ली, संघ ने तो आदेश ही दे दिया. राजनीतिज्ञों से भरपूर घृणा दिखाने के बाद उन्हीं के दफ्तरों में दर- दर घूमें, सबने स्वागत किया और सहमति-असहमति के बिन्दुओं पर चर्चा भी हुई. लेकिन नतीजा - आप अपनी सोच अपने पास रखें - हमें सिर्फ अपना लोकपाल चाहिए. सबका मालिक एक की तर्ज पर निहायत गैर जनवादी, तानाशाह एक सर्वोच्च अफसर. हिटलर की तरह जो पीएम से लेकर चपरासी तक, न्यायपालिका सहित पूरे देश को दण्डित कर सके. संविधान, लोकतंत्र, विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के खिलाफ.
सवाल यह भी है कि देश को कितना समझते हैं अन्ना- सरकार -सत्ताधारी दल, क्यू में लगे भाजपा नीत गठबंधन किसकी सेवा कर रहे हैं? नवउदारवादी आर्थिक नीतियां देश और जनता की दुश्मन हैं, अमेरिकी हितों के लिए बाजार खोले जा रहे हैं, मुक्त व्यापार के रास्ते सुलभ हो रहे हो रहे हैं, देश तेजी से गुलामी की ओर बढ़ रहा है. सरकार तो देश है ही नहीं वह पहले से सामराजी आकाओं की गुलाम है. विकास हो रहा है - देश की एक चौथाई पूंजी सिर्फ 100 लोगों के हाथ में चली गई. बेरोजगार नौजवानों को नौकरी नहीं मिल रही है. कमोडिटी बाजार मंहगाई बढ़ा रही है. खाद-बीज से सबसिडी हटाई जा रही है. किसान मर रहे हैं. अनाज गोदामों में सड़ रहा है - गरीब भूखे मर रहे हैं, मेहनतकश वर्ग पर जुल्म ढाए जा रहे हैं, श्रम कानूनों को ख़त्म करने की बात की जा रही है, पेट्रोल को बाजार के आग के हवाले कर ही दिया, अब डीजल, केरोसीन, रसोई गैस की बारी है. लेकिन अन्ना के पास जादू की छडी है -"जन-लोकपाल". कैसे काम चलेगा.
उन्माद-आक्रोश तो विनाशकारी व्यवस्था के खिलाफ होना चाहिए लेकिन सारा गुस्सा अन्ना अपने पाले में लेकर दिग्भ्रमित करने के लिए किसी भी हद में जाने के लिए तैयार बैठे है. मान लें - चलो बन आपका क़ानून- मिल जायेगी सबको शिक्षा, सबको काम. किसानों को राहत मिल जायेगी? भ्रष्टाचार तो व्यवस्था की दें है, सिस्टम को बदले बिना सब कुछ कैसे ठीक हो जाएगा? समझ में नहीं आता कि देश की समझ टीम अन्ना -अन्ना को है या किसी साजिश के तहत काम कर रहे हैं.
अब अन्ना ने पुरानी बात फिर दोहराई है कि पांच राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को अब देख ही लेंगे- छोड़ेंगे नहीं, क्या करेंगे- कहेंगे कांग्रेस को वोट मत दो. फिर किसे वोट दें भाजपा को? बसपा ने तो अन्ना को खरी खरी सुना दी थी, सपा भी केंद्र में कांग्रेस के साथ है. संघ प्रमुख अन्ना को अपना साथी बताते हैं. क्या पर्याप्त नहीं हैं इशारे.
जो अन्ना के साथ नहीं वह भ्रष्ट है- प्रशांत भूषन, किरण बेदी, केजरीवाल किस दूध के धुले हैं- किराया चोरी, नौकरी का पैसा हजम करने की कोशिश, मायावती के खिलाफ वकील रहते हुए करोड़ों के प्लाट लाखों में लेने वाले चूंकि अन्ना के साथ हैं इसलिए भ्रष्ट नहीं है.

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

जाना एक स्टाइल आइकॉन का

- प्रो जवरीमल्ल पारख -
हिंदी सिनेमा की वह पीढ़ी जो आजादी से पहले या उसके थोड़े ही बाद में सामने आयी, उनमें सबसे लोकप्रिय और लंबे समय तक नायक के रूप में रहने वालों में देव आनंद का नाम लिया जाता रहा है. उन्हें ’एवरग्रीन‘ या ’सदाबहार‘ नायक कहा जाता था. अपने समकालीनों, राजकपूर व दिलीप कुमार की तुलना में वे लंबे समय तक नायक के रूप में सिनेमा में आते रहे. एक अभिनेता के रूप में उन्होंने अपने दोनों समकालीन अभिनेताओं से बिल्कुल अलग किस्म की छवि निर्मित की. इसे हम उनका सकारात्मक पक्ष मानें या नकारात्मक, इस पर विवाद हो सकता है.
लेकिन वे ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने अभिनय की कलात्मक ऊंचाईयों से ज्यादा महत्व उसकी लोकप्रियता को दिया. वो इस बात को बहुत अच्छी तरह समझ चुके थे कि सिनेमा एक शहरी मध्यवर्ग का माध्यम है और इसलिए उन्होंने हमेशा उन फ़िल्मों को चुना जिसका नायक शहरी होता था.उन्होंने हमेशा अपने नायक की एक ऐसी छवि निर्मित की, जो अपने समय से जुड़ा हुआ है, समकालीन है. आज की समस्याओं से जूझता हुआ, आज की जिंदगी के सवालों से टकराता हुआ और उसी का हल खोजता हुआ. अपने बड़े भाई चेतन आनंद और अपने छोटे भाई विजय आनंद के बीच वे हमेशा अपनी एक अलग छवि बनाने में कामयाब रहे. बड़े भाई चेतन आनंद ने अपने फ़िल्मी कॅरियर की शुरुआत ’नीचा नगर‘ से की थी, जो पश्चिम के यथार्थवादी सिनेमा से प्रभावित था और उस प्रगतिशील आंदोलन से उसका संबंध था, जो साहित्य और अन्य कला विधाओं के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त कर रहा था.
अपने बड़े भाई का वैचारिक असर देव आनंद और विजय आनंद पर भी दिखाई देता रहा है. इसके बावजूद देव आनंद ने जितना मुमकिन हो सका, अपने को राजनीतिक दृष्टिकोणों से अलग रखा. कभी-कभार उन्होंने राष्ट्रवाद और देशभक्ति जैसे मुद्दे भी उठाये, लेकिन ऐसे मुद्दों में उनकी दिलचस्पी बहुत अधिक नहीं थी. देव आनंद को जब शहर या महानर से जोड़ा जाता है, तो यह महज उनकी फ़िल्मों की लंबी सूची से ही तय नहीं होता है, बल्कि उनकी एक अभिनेता के रूप में उस छवि से भी तय होता है, जिसमें वैसी विविधता नहीं है जैसी विविधता हम राजकपूर, दिलीप कुमार, गुरुदत्त आदि में देखते है.
आश्चर्य की बात जरूर है कि दिलीप कुमार की तरह वे अभिनय-कला के उत्कर्ष पर दिखाई न देते रहे हों, लेकिन वे हिंदी के वे पहले ऐसे अभिनेता और फ़िल्मकार हैं, जो कई दशकों तक अपने दर्शकों के बीच लोकप्रिय बने रहे. उनकी इस लोकप्रियता को शायद अमिताभ बच्चन ही चुनौती दे पाये. देव आनंद की लोकप्रियता की बात जब की जाती है, तो यह अमिताभ बच्चन की लोकप्रियता से एक अलग किस्म की लोकप्रियता है. एक अभिनेता के रूप में युवाओं के बीच देव आनंद की छवि एक सदाबहार अभिनेता की है. एक रोमांटिक, खुशमिजाज और जिंदगी को भरपूर जीने की चाह रखने वाला नायक की. लेकिन वे केवल अभिनेता ही नहीं थे, वे निर्माता और निर्देशक भी थे.
उन्होंने लगभग 35 फ़िल्मों का निर्माण किया और कमोबेश इतनी ही फ़िल्मों का निर्देशन भी किया. वे फ़िल्म अभिनेताओं के बीच में अपनी निर्माता की छवि के कारण भी उस संकट से नहीं गुजरे, जो अन्य अभिनेताओं को ङोलना पड़ता है. देव आनंद की शुरुआती फ़िल्में भी महानगर से ही जुड़ी थी, लेकिन उनको एक अभिनेता के रूप में स्थापित किया ’टैक्सी ड्राइवर‘ जैसी फ़िल्मों ने. इसमें उन्होंने एक निम्न मध्यवर्ग के नायक की भूमिका निभायी. अगर ध्यान दें तो वे शुरू से अंत तक मध्यवर्ग के दायरे में ही रहे. चाहे वह ’टैक्सी ड्राइवर‘ हो, ’तेरे घर के सामने‘ हो, ’गाइड‘ हो, ’तेरे मेरे सपने‘ हो, ’काला बाजार‘ या ’कालापानी‘ हो या ’ज्वेल थीफ़‘. हालांकि नायक के रूप में फ़िल्में तो वे बाद में भी करते रहे और निर्माता-निर्देशक के रूप में अपने अंतिम क्षणों तक करते रहे. इसके बावजूद यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि एक फ़िल्मकार के रूप में वे अपनी प्रासंगिकता खो चुके थे. अपनी बेहतरीन फ़िल्मों के माध्यम से वे आज भी लोकप्रिय हैं और आगे आने वाले लंबे समय में भी वे लोकप्रिय बने रहेंगे. ऐसे में निश्चय ही देव आनंद का जाना हिंदी सिनेमा में एक युग का खत्म होना है.
(लेखक फ़िल्म विशेषज्ञ हैं)

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

पूंजीवादी समाज के प्रति / गजानन माधव मुक्तिबोध

इतने प्राण, इतने हाथ, इनती बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।

अमेरिकी रिपोर्ट के हवाले से माकपा ने कहा- अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह होगा वालमार्ट

खुदरा व्यापार क्षेत्र की अमेरिका की विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनी वालमार्ट की सफलता का मतलब है कर्मचारियों के वेतन एवं अन्य लाभों में कटौती, उनके श्रमिक अधिकारों का खुला एवं सतत उल्लंघन और देश भर के आम लोगों के जीवन.स्तर के लिए गंभीर चुनौतियां. कामगारों एवं उनके परिवारों के हितों की कीमत पर वालमार्ट की व्यापारिक सफलता सुनिश्चित करने की कोई जरूरत नहीं है. कारपोरेट मुनाफे की ऐसी संकुचित दृष्टि अंतत: हमारी अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह साबित होगी. यह निष्कर्ष बहुब्रांड खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति देने के मनमोहन सिंह सरकार के फैसले का विरोध कर रहे विपक्षी दलों तथा सरकार की कुछ घटक पार्टियों के वक्तव्यों का अंश नहीं है, बल्कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) ने अमेरिकी कांग्रेस के निचले सदन . प्रतिनिधिसभा की एक समिति की 2004 की एक रिपोर्ट से यह उद्धरण किया है.

माकपा के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी के इसी सप्ताहांत प्रकाश्य संपादकीय में पार्टी ने एक बार फिर केन्द्र से यह फैसला वापस लेने की पुरजोर मांग करते हुए इस फैसले के फायदे गिनाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कडी आलोचना की है और कहा है कि वालमार्ट.करेफोर तथा टेस्को जैसी विशाल सुपरमार्केट श्रृंखला के भारत में प्रवेश से न रोजगार के अवसर बढेंगें न उपभोक्ता वस्तुओं की कीमत घटेगी, न किसानों को अपनी उपज का बेहतर लाभकारी मूल्य अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी का मुनाफा अधिकतम स्तर तक ले जाने के इरादे से और इंडोनेशिया की राजधानी बाली में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के दौरान उनसे हुए किसी वायदे के प्रतिपूर्ति के लिए उठाया गया कदम बताते हुए कहा गया है कि यह प्रतिदिन 20 रूपये से भी कम पर जीवन चला रही देश की 80 करोड जनता की मुश्किलें ही बढायेगा.

एफडीआई के सरकार के फैसले के पक्ष में इसी सप्ताह युवक कांग्रेस के राष्ट्रीय सम्मेलन में पेश प्रधानमंत्री की दलीलों पर संपादकीय में याद दिलाया गया कि बिजली उत्पादन के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनी एनरॉन को प्रवेश की अनुमति देते हुए देश में उर्जा सुरक्षा के एक नये युग की शुरूआत का ऐसा ही सब्जबाग दिखाया गया था और सभी यह हकीकत जानते हैं कि किसानों को अहर्निश बिजली मिलने का सपना चूर करते हुए एनरॉन किस तरह देश छोड गया.

बहुब्रांड खुदरा व्यापार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश से "कीमतें कम होने तथा रोजगार बढने के सुनियोजित दुष्प्रचार" के खिलाफ अमेरिकी कांग्रेस की समिति की रिपोर्ट के उदहारण देने के अलावा माकपा ने खाद्य मुद्रास्फीति पर उसके असर . रोजगार के अवसरों पर इसके वास्तविक असर उत्पादकों को बेहतर लाभकारी मूल्य मिलने जैसे मुद्दों पर विभिन्न देशों के अनुभवों के भी हवाले दिये हैं.
खाद्य मुद्रास्फीति पर एफडीआई संचालित सुपर मार्किट के असर के बारे में मेक्सिको, निकारागुआ, अर्जेन्टीन जैसे लातिन अमेरिकी देशों अफ्रीका मे केन्या तथा मेडागास्कर, वियतनाम तथा थाईलैंड के अनुभवों पर विभिन्न अध्ययनों के हवाले से माकपा ने कहा है कि इन देशों में सुपर मार्किटों में खाद्य-पदार्थों एवं साग- सब्जियों के भाव पारम्परिक बाजारों में उनकी दरों से अधिक पाये गए.
वाल्मार्ट कैदेफोर तथा टेस्कों जैसे बहुराष्ट्रीय सुपर मार्के ट की श्रृंखला से रोजगार के अवसर बढने पर सरकारी दलीलों को खारिज करते हुए पीपुल्स डेमोक्रेसी के संपादकीय में कहा गया है कि वियतनाम में रेहडी .पटरी की एक खुदरा दुकान में औसतन पारंपरिक खुदरा व्यापारी के यहां दस तथा एक छोटी खुदरा दुकान में आठ लोगों को रोजगार प्राप्त था् जबकि समान मात्र में उत्पादों की बिक्री आदि के लिए सुपरमार्किटों को केवल चार कर्मचारियों की जरूरत पडती है. उदाहरण के तौर पर इन सुपर मार्केटों को एक टन टमाटर के भंडारण, बिक्री के लिए केवल 1.2 लोगो की दरकार थी, जबकि पारम्परिक बाजार को इसके लिए 2.9 लोग रखना पडता था.
इन सुपर मार्के टों से उत्पादक को बेहतर मूल्य मिलने के दूष्प्रचार के खिलाफ पार्टी ने कहा कि घाना में साधारण मिल्क चाकलेट के मूल्य में कोकोआ पैदा कर रहे किसान का हिस्सा केवल 3.9 प्रतिशत होता है और सुपर मार्केट का मुनाफा 34 प्रतिशत. इसी तरह केला पैदा कर रहे किसान को इसकी अंतिम बिक्री मूल्य का केवल पांच प्रतिशत तथा सुपर मार्केट का लाभ 34 प्रतिशत होता है और बहुराष्ट्रीय खुदरा व्यापारी को जींस की एक जोडी के मूल्य का 54 प्रतिशत हिस्सा मिलता है तथा उत्पादक को केवल 12 प्रतिशत.
एफडीआई का फैसला राज्य सरकारों की सहमति की स्थिति में ही उनके क्षेत्रों में लागू होने के मनमोहन सिंह सरकार के तर्क पर माकपा ने पूछा है कि क्या फिर यह फै सला केवल अंडमान निकोबार तथा लक्षद्वीप जैसे केन्द्रशासित क्षेत्रों में ही लागू होगा. पार्टी ने इस फै सले के रहते संसद इस पर चर्चा को बेमानी बताते हुए कहा कि सार्थक चर्चा के लिए जरूरी है कि सरकार यह फैसला स्थागित करे और भरोसा दे कि चर्चा के बाद सदन की भावना के अनुरूप ही एफडीआई की अनुमति देने या नहीं देने का फै सला करेगी.

विदेशी हितों को तरजीह

[खुदरा कारोबार में एफडीआइ को किसानों, उपभोक्ताओं और निर्माताओं, तीनों के लिए घाटे का सौदा मान रहे है देविंदर शर्मा]
ऐसे समय जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खुदरा कारोबार में एफडीआइ खोलने के फैसले को देशहित में बताते हुए इसे वापस लेने से इंकार कर रहे है, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की राय इससे उलट है। 26 नवंबर को उन्होंने ट्वीट किया-अपनी पसंदीदा स्थानीय दुकान से सामान खरीदकर छोटे व्यापारियों का समर्थन करे। ओबामा अपने देश के हित की बात कर रहे है, जबकि मनमोहन सिंह अमेरिकी हितों को सुरक्षित करने की। मनमोहन सिंह की यह दलील तथ्यों पर खरी नहीं उतरती कि रिटेल एफडीआइ से हमारे देश को फायदा होगा, ग्रामीण ढांचागत सुविधाओं में सुधार होगा, कृषि उत्पादों की बर्बादी कम होगी और हमारे किसान अपनी फसल के बेहतर दाम हासिल कर सकेंगे। परेशानी की बात यह है कि वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दलीलों का कोई आर्थिक आधार नहीं है। इनकी महज राजनीतिक उपयोगिता है। इनसे यही पता चलता है कि सत्ताधारी दल के राजनीतिक एजेंडे को न्यायोचित ठहराने के लिए आर्थिक तथ्यों को किस तरह तोड़ा-मरोड़ा और गढ़ा जा सकता है।
मल्टी ब्रांड रिटेल के पक्ष में सबसे बड़ी दलील यह है कि इससे सन 2020 तक एक करोड़ रोजगार पैदा होंगे। इस दावे के पीछे कोई तर्क नहीं है। अमेरिका में रिटेल कारोबार में वालमार्ट का वर्चस्व है। इसका कुल कारोबार चार सौ अरब डॉलर [लगभग 20 लाख करोड़ रुपये] है, जबकि इसमें महज 21 लाख लोग काम करते है। विडंबना है कि भारत का कुल रिटेल क्षेत्र भी 20 लाख करोड़ रुपये का है, जबकि इसमें 4.40 करोड़ व्यक्ति काम करते है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय रिटेल कहीं बड़ा नियोक्ता है और वालमार्ट सरीखे विदेशी रिटेलरों को भारत में बुलाने से करोड़ों लोगों का रोजगार छिन जाएगा। इंग्लैंड में दो बड़ी रिटेल चेन टेस्को और सेंसबरी है। दोनों ने पिछले दो वर्षो में 24,000 रोजगार देने का वायदा किया था, जबकि इस बीच इन्होंने 850 लोगों को नौकरी से निकाल दिया।
आनंद शर्मा का कहना है कि रिटेल एफडीआइ से किसानों की आमदनी 30 प्रतिशत बढ़ जाएगी। इससे बड़ा झूठ कुछ हो ही नहीं सकता। उदाहरण के लिए अगर वालमार्ट किसानों की आमदनी बढ़ाने में सक्षम होती तो अमेरिकी सरकार को यूएस फार्म बिल 2008 के तहत 307 अरब डॉलर [करीब 15.35 लाख करोड़ रुपये] की भारी-भरकम सब्सिडी नहीं देनी पड़ती। इनमें से अधिकांश सब्सिडी विश्व व्यापार संगठन के ग्रीन बॉक्स में जोड़ी जाती है। अगर ग्रीन बॉक्स सब्सिडी वापस ले ली जाती है तो अमेरिकी कृषि का विनाश हो जाएगा। 30 धनी देशों के समूह की स्थिति भी इससे अलग नहीं है। इन देशों में 2008 में 21 फीसदी और 2009 में 22 फीसदी सब्सिडी बढ़ गई है। केवल 2009 में ही इन औद्योगिक देशों ने 12.6 लाख करोड़ रुपये की कृषि सब्सिडी दी है। इसके बावजूद यूरोप में हर मिनट एक किसान खेती छोड़ देता है। यह इसलिए हो रहा है कि वहां किसानों की आय लगातार गिर रही है। केवल फ्रांस में 2009 में किसानों की आमदनी 39 फीसदी गिर गई है।
सरकार की तीसरी दलील है कि बड़ी रिटेल कंपनियां बिचौलियों को हटा देती हैं, जिस कारण किसानों को बेहतर कीमत मिलती है। एक बार फिर यह झूठा दावा है। अध्ययनों से पता चलता है कि बीसवीं सदी के पूर्वा‌र्द्ध में अमेरिका में प्रत्येक डॉलर की बिक्री पर किसान को 70 सेंट बच जाते थे, जबकि 2005 में किसानों की आमदनी महज 4 फीसदी रह गई है। यह वालमार्ट और अन्य बड़े रिटेलरों की मौजूदगी में हुआ है। दूसरे शब्दों में जैसी की आम धारणा है, बड़े रिटेलरों के कारण बिचौलिए गायब नहीं होते, बल्कि बढ़ जाते है। नए किस्म के बिचौलिए पैदा हो जाते है जैसे गुणवत्ता नियंत्रक, मानकीकरण करने वाले, सर्टिफिकेशन एजेंसी, प्रोसेसर, पैकेजिंग सलाहकार आदि इसी रिटेल जगत के अनिवार्य अंग होते है और ये सब किसानों की आमदनी में से ही हिस्सा बांटते है। यही नहीं, बड़े रिटेलर किसानों को बाजार मूल्य से भी कम दाम चुकाते है। उदाहरण के लिए इंग्लैंड में टेस्को किसानों को चार फीसदी कम मूल्य देती है। सुपरमार्केटों के कम दामों के कारण ही स्कॉटलैंड में किसान 'फेयर डील फूड' संगठन बनाने को मजबूर हुए है।
चौथी दलील यह है कि रिटेल एफडीआइ छोटे व मध्यम उद्योगों से 30 प्रतिशत माल खरीदेंगे और इस प्रकार भारतीय निर्माताओं को लाभ पहुंचेगा। यह लोगों को भ्रमित करने वाली बात है। सच्चाई यह है कि विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत भारत किसी भी बड़े रिटेलर को कहीं से भी सामान खरीदने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। यह विश्व व्यापार संगठन के नियमों के खिलाफ है और कोई भी सदस्य देश इसका उल्लंघन कर जीएटीटी 1994 की धारा 3 या धारा 11 के तहत निवेश प्रतिबंध झेलने की मुसीबत मोल नहीं ले सकता। विश्व व्यापार संगठनों के प्रावधानों का इस्तेमाल कर मल्टी ब्रांड रिटेल सस्ते चीनी उत्पादों से बाजार पाट देंगे और छोटे भारतीय निर्माताओं को बर्बादी के कगार पर पहुंचा देंगे। निवेश नियमों की आड़ में रिटेलर भारत में खाद्यान्न भंडारण व परिवहन आदि का बुनियादी ढांचा भी खड़ा करने नहीं जा रहे है। नियम के अनुसार कंपनियों के मुख्यालय में होने वाला खर्च भी भारत में निवेश में जुड़ जाएगा। इस प्रकार भारत में एक भी पैसा निवेश किए बिना ही रिटेल एफडीआइ 50 प्रतिशत से अधिक निवेश कर चुके है। पेनसिलवेनिया यूनिवर्सिटी के अध्ययन 'वालमार्ट और गरीबी' से पता चलता है कि अमेरिका के जिन राज्यों में वालमार्ट के स्टोर अधिक है उनमें गरीबी दर भी अधिक है। यह ऐसे देश के लिए खतरे की घंटी है जिसकी आधी से अधिक आबादी गरीबी, भुखमरी और मलिनता में जीवन बिता रही है।
[लेखक: खाद्य एवं कृषि नीतियों के विश्लेषक है]
(जागरण से साभार)

सोमवार, 21 नवंबर 2011

विषमता का दंश झेलता अमेरिका

फरीद जकरिया, वरिष्ठ अमेरिकी पत्रकार
जिस बात को हम सभी महसूस करते रहे हैं, वाशिंगटन पोस्ट-एबीसी न्यूज के एक सर्वे ने उसे तार्किकता के साथ सामने रखा है कि अपने देश में अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई को लेकर ज्यादातर अमेरिकी उद्विग्न हैं, और चिंतित भी। जाहिर है, जल्दी ही इस मुद्दे पर पार्टी लाइन के आधार पर हमेशा की तरह दो खेमे बन गए। उदारवादी खेमा जहां अमीरी और गरीबी के इस फासले को कम करने के लिए सरकार से ठोस कदम उठाने की अपील करने लगा है, तो वहीं दूसरी तरफ परंपरावादी गुट ऐसे किन्हीं कदमों की मुखालफत के साथ सामने आ गया है। अलबत्ता, कुल मिलाकर एक बड़े बहुमत ने सरकार से हस्तक्षेप की मांग की है। लेकिन आय में बढ़ते अंतर से भी कहीं अहम इस मसले पर दोनों पक्षों को जिस बात पर सहमत होना पड़ेगा, वह है- सामाजिक सशक्तीकरण का महत्व। इंडियाना के गवर्नर मिक डैनियल (रिपब्लिकन) ने सही पहचाना है कि ‘अपवर्ड मोबलिटी यानी नीचे से ऊपर की ओर की ओर उदय अमेरिकी भरोसे का मुख्य बिंदु रहा है।’ कुछ अमेरिकी अब भी मानते हैं कि हमारे देश में सब कुछ अच्छा हो रहा है। हेरिटेज फाउंडेशन के जलसे के दौरान पिछले महीने दिए गए अपने भाषण में अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य पॉल रेयान ने कहा था, ‘अमेरिका में वर्ग की कोई तय परिभाषा नहीं है। हम एक सशक्त गतिशील समाज हैं, जिसमें विभिन्न आय समूहों के बीच कई तरह के आंदोलन चलते रहते हैं।’ रेयान ने अमेरिकी सामाजिक सशक्तीकरण की तुलना यूरोप की सामाजिक तरक्की से करते हुए कहा था, ‘यूरोप के बड़े कल्याणकारी देशों ने पारंपरिक कुलीन तंत्र का स्थान ले लिया है और उनमें लंबे समय से बेरोजगार रहे तबके को निचले दर्जे की श्रेणी में कैद कर दिया गया है।’ वास्तव में, पिछले दशक में अमेरिका में ऐसी कई बातें हुई हैं, जो ये बताती हैं कि इस देश में सामाजिक सशक्तीकरण की प्रक्रिया रुक-सी गई है। पिछले दिनों ही प्रसिद्ध पत्रिका टाइम ने आवरण कथा प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था, ‘क्या आप अब भी अमेरिका आ सकते हैं?’ इसका जवाब अनेक अकादमिक अध्ययनों से पता चलता है, जो ‘नहीं’ में है। और यह ‘नहीं’ यूरोप की तुलना में कहीं अधिक है। इस संदर्भ में ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन ऐंड डेवलपमेंट नामक संगठन ने पिछले साल एक व्यापक तुलनात्मक अध्ययन किया था। इसने अपने निष्कर्ष में पाया कि मिक डैनियल जिसे ‘नीचे से ऊपर उठने’ के रूप में परिभाषित करते हैं, यानी सामाजिक सशक्तीकरण की प्रक्रिया अमेरिका में यूरोप के ज्यादातर बड़े देशों के मुकाबले कहीं धीमी है। इस मामले में जर्मनी, स्वीडन, नीदरलैंड और डेनमार्क का प्रदर्शन कहीं बेहतर है। साल 2006 में इंस्टिट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ लेबर द्वारा जर्मनी में कराए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि अमेरिका ऊपर की तरफ सशक्तीकरण के मामले में कमजोर प्रतीत हो रहा है। वर्ष 2010 में ही इकोनॉमिक मोबिलिटी प्रोजेक्ट ने अपने अध्ययन में पाया कि लगभग तमाम पहलुओं से अमेरिका का सामाजिक-आर्थिक वर्गीय ढांचा कनाडा से अधिक सख्त है। अमेरिका के धनाढ्य पिताओं के एक चौथाई से भी अधिक बेटे अब भी वहां सर्वाधिक कमा रहे अमेरिकी युवकों की दस फीसदी हैं, जबकि कनाडा में इससे बेहतर हालात हैं। इसी तरह निचले आय वर्ग के अमेरिकी पिताओं के युवा बेटे अब भी निचले आय वर्ग में बने हुए हैं, जबकि इस मामले में भी कनाडा की स्थिति अच्छी है। इन सभी साक्ष्यों का अवलोकन करने के बाद ब्रूकिंग इंस्टिट्यूट के फेलो स्कॉट विनशिप ने पिछले दिनों नेशनल रिव्यू में लिखा कि ‘कम से कम एक मामले में तो अमेरिकी सशक्तीकरण असाधारण है।.. और वह यह कि नीचे से ऊपर की ओर सशक्तीकरण की जो अपनी रफ्तार रही है, हम उस पर अड़े हुए हैं।’ अमेरिकी समाज की ये हकीकतें चौंकाने वाली नहीं होनी चाहिए। अपने वर्गों में बंटे समाजों के भूत से परेशान यूरोपीय देशों ने सबको समान अवसर मुहैया कराने के लिए काफी निवेश किया। उन्होंने अपने देश में बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण से संबंधित प्रभावशाली कार्यक्रम लागू किए और अमेरिका के मुकाबले उनकी सार्वजनिक शिक्षा की स्थिति भी कहीं बेहतर है। परिणामस्वरूप, यूरोपीय मुल्कों में गरीब बच्चे भी अमीर बच्चों के साथ बराबरी की प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम हैं। अमेरिका में यदि आप गुरबत के मारे किसी परिवार में पैदा होते हैं, तो पूरी आशंका है कि आपका बचपन कुपोषण और खराब शिक्षा का शिकार हो जाए। अमेरिका की लोक-कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का सबसे खराब पहलू यह है कि यह गरीबों पर काफी कम खर्च करता है, क्योंकि वे बड़ी तादाद में वोट नहीं करते। अमेरिकी अर्थव्यवस्था गरीबों के बजाय मध्यवर्ग पर अधिक ध्यान देती है। परिणाम सामने है। अपॉरच्यूनिटी नेशन के साथ इंटरव्यू में एक छात्र ने काफी सारगर्भित बात कही, ‘आपकी पैदाइश का पता देने वाला कोड आपकी नियति का नियंता नहीं होना चाहिए, लेकिन दुर्योग से अमेरिका में ऐसा ही होता है।’ आय में असमानता की चुनौती का मुकाबला कोई आसान काम नहीं है। अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने से बुनियादी स्तर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि यह असमानता भूमंडलीकरण, प्रौद्योगिकी और शिक्षा व्यवस्था के कारण बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, आप अमेरिका में 1990 के आय के बंटवारे के स्तरों को देख लीजिए, आप पाएंगे कि जितने हजारों अरब डॉलर हर साल तब वितरित होते थे, वे आज के किसी भी बड़े टैक्स प्रस्ताव से कहीं अधिक होते थे। हमें यह सीखना होगा कि किस तरह से सामाजिक सशक्तीकरण को मजबूत किया जाए। इसके लिए हम उन मुल्कों से सबक ले सकते हैं, जो इस मामले में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। खासकर उत्तरी यूरोप के देश और कनाडा से काफी कुछ सीखा जा सकता है। सामाजिक परिवर्तन यानी गरीबों के सशक्तीकरण के उपाय बिल्कुल स्पष्ट हैं। मसलन, बच्चों के लिए भरपूर पोषण और बेहतर स्वास्थ्य सुविधा, स्तरीय सार्वजनिक शिक्षा, उच्च स्तर का बुनियादी ढांचा, जो सभी क्षेत्रों के समस्त लोगों की पहुंच बाजार के अवसरों तक बना सके और एक लचीली व प्रतिस्पर्धी मुक्त अर्थव्यवस्था। यही चीजें अमेरिका और उसके बाशिंदों को अब आगे ले जाएंगी।

पेट्रोल के बढ़ते दाम- सच और मिथक

सीताराम येचुरी, सदस्य, माकपा पोलित ब्यूरो
पेट्रोल की कीमतों में ताजातरीन बढ़ोतरी के बाद पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जनता पर इस नए बोझ को डाले जाने को न सिर्फ उचित ठहराया, बल्कि यह भी कहा कि ‘ज्यादातर उत्पादों’ की कीमतों को विनियंत्रित किए जाने की जरूरत है। इस तरह, उन्होंने साफ तौर पर यह बता दिया है कि आम जनता पर आगे और भी बोझ थोपे जाने वाले हैं। इससे भी बुरी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने कहा कि खाने-पीने की चीजों के दाम में लगातार तेजी का मतलब है कि इन चीजों की मांग पहले के मुकाबले अधिक बढ़ी है और मांग अगर ज्यादा है, तो यह खुशहाली का लक्षण है!
अगर अर्थव्यवस्था आठ फीसदी की दर से वृद्धि कर रही है और आबादी 1.6 फीसदी की दर से, तो इसका मतलब यह हुआ कि प्रति व्यक्ति आय 6.5 से 6.7 फीसदी की दर से बढ़ रही होगी। लेकिन सच्चाई यही है कि यह वृद्धि-दर ‘शाइनिंग इंडिया’ के ही चेहरे की चमक बढ़ा रही है, जबकि भारत की जनता का विराट बहुमत बढ़ते आर्थिक बोझ के तले पिसता ही जा रहा है।
वैसे भी इकोनॉमिक सर्वे (2010-11) के हिसाब से निजी अंतिम उपभोग खर्च की वृद्धि-दर, जो साल 2005-06 में 8.6 फीसदी पर चल रही थी, वर्ष 2010-11 तक घटकर 7.3 फीसदी रह गई थी। प्रधानमंत्रीजी, आपकी वह खुशहाली कहां गई?
तेल के दाम में बढ़ोतरी का अतिरिक्त बोझ जनता पर डाले जाने को मंजूर नहीं किया जा सकता। यह भी एक झूठा प्रचार है कि पेट्रोल सिर्फ धनी लोगों के उपयोग की चीज है। सच्चई यह है कि पेट्रोल की खपत मध्य व निम्न-मध्य वर्ग में भी बड़ी मात्र में होती है। आखिर इन वर्गो के लोग दो-पहिया वाहनों का इस्तेमाल करते ही हैं। इसके अलावा पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी का चौतरफा महंगाई पर असर पड़े बिना नहीं रहेगा।
हकीकत यह है कि पेट्रोल के दाम में इस ताजातरीन बढ़ोतरी से सबसे ज्यादा फायदा सरकारी खजाने को ही होने जा रहा है। इस बढ़े हुए दाम का 40 फीसदी हिस्सा तो विभिन्न करों व शुल्कों के रूप में सरकारी खजाने में ही पहुंचने जा रहा है। इस मूल्य बढ़ोतरी को मिलाकर वित्तीय वर्ष 2011-12 में केंद्र सरकार उत्पाद शुल्क के रूप में करीब 82,000 करोड़ रुपये बटोर लेगी। अनुमान यह है कि वर्ष 2010-11 में सभी करों व शुल्कों को मिलाकर पेट्रोलियम क्षेत्र से केंद्र सरकार का कुल राजस्व 1,20,000 करोड़ रुपये से ऊपर रहा होगा। मिसाल के तौर पर, हालिया मूल्य बढ़ोतरी के बाद दिल्ली में पेट्रोल का दाम 69 रुपये प्रति लीटर के करीब हो गया है। इसमें से करीब 30 रुपये तो विभिन्न तरह के करों व शुल्कों के जरिये सरकारी खजाने में चले जाएंगे। साफ है, यह तो जनता की कीमत पर सरकार द्वारा अपने राजस्व को बढ़ाने का ही मामला है। दूसरे शब्दों में, सरकार द्वारा जनता को कोई सब्सिडी देना तो दूर रहा, उलटे जनता ही सरकार को सब्सिडी दे रही है।
तेल के दाम में इस तरह की बढ़ोतरी को सही ठहराने के लिए दो दलीलें दी जाती हैं और वास्तव में ये दलीलें तमाम पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों के विनियंत्रण के जरिये दाम और बढ़ाए जाने की ओर ही इशारा करती हैं। पहली दलील तो यही है कि तेल कंपनियों को भारी ‘घाटा’ हो रहा है और उनकी अंडर-रिकवरी वर्ष 2011-12 में 1.32 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच जाने वाली है, जबकि 2010-11 में यह 78,000 करोड़ रुपये के स्तर पर ही थी। आखिर यह अंडर-रिकवरी क्या बला है? स्वतंत्रता के बाद जब हमारे देश में तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया गया था, तो उससे पहले तक देश में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में उनकी कीमतों के आधार पर तय होती थीं। कुख्यात ‘आयात तुल्यता मूल्य प्रणाली’ इसी का दूसरा नाम था। 1976 में इस व्यवस्था को खत्म कर पेट्रोलियम उत्पादों के लिए नियंत्रित मूल्य व्यवस्था शुरू की गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत आयातित कच्चे तेल की वास्तविक कीमत तथा शोधन की लागत में तेल कंपनियों के लिए एक उचित मुनाफा जोड़कर पेट्रोलियम उत्पादों के दाम तय किए जाते थे।
उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि आज भारत अंतरराष्ट्रीय बाजार से जो कच्चा तेल खरीद रहा है, उसकी औसत कीमत 110 डॉलर या 5,280 रुपये प्रति बैरल है। बैरल चूंकि करीब 160 लीटर का होता है, तो इसका मतलब हुआ कि एक लीटर कच्चे तेल पर खर्च हुए करीब 33 रुपये। इसमें तेल शोधन की लागत तथा तेल कंपनियों के लिए एक उचित मुनाफा जोड़ दिया जाए, तब भी तेल डिपो पर तेल की कीमत 40-41 रुपये प्रति लीटर से ज्यादा किसी भी तरह से नहीं होगी। लेकिन दिल्ली में पेट्रोल का दाम है 69 रुपये प्रति लीटर के करीब। देश के दूसरे हिस्सों में तो यह दाम और भी ज्यादा है।
नव-उदारवादी निजाम में कथित नई आर्थिक नीतियों के तहत सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों के नियंत्रित मूल्य की व्यवस्था को खत्म कर दिया और आयात तुल्यता प्रणाली को फिर से ले आया गया, कच्चे तेल के लिए भी और अन्य पेट्रोलियम उत्पादों के लिए भी। इसका सीधा-सा मतलब यह हुआ कि अब घरेलू बाजार में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें इन उत्पादों की विश्व बाजार की कीमतों से तय होंगी, फिर चाहे भारत में इन उत्पादों की वास्तविक उत्पादन लागत कितनी ही भिन्न क्यों न हो। अंडर रिकवरी इस आयात तुल्यता मूल्य और पेट्रोलियम उत्पादों के घरेलू बाजार के मूल्य के बीच के अंतर से ही निकाली जाती है। इस तरह, यह शुद्ध रूप से एक काल्पनिक घाटे का मामला है, जो घरेलू बाजार में तेल उत्पादों की लागत से नहीं, बल्कि उनकी अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर आधारित होता है। इस तरह, वास्तव में यह एक मिथक है, जिसे नव-उदारवादी सुधारवादियों ने  कॉरपोरेट मीडिया की मदद से प्रचारित किया है।
सच्चाई यह है कि हमारे देश की प्रमुख तेल कंपनियां किसी तरह के घाटे में हैं ही नहीं। 31 मार्च, 2010 को समाप्त वित्तीय वर्ष के लिए ऑडिटशुदा वित्तीय परिणाम दिखाते हैं कि इंडियन ऑइल कंपनी का शुद्ध मुनाफा 10,998 करोड़ रुपये रहा था। इसी तरह इंडियन ऑइल कॉरपोरेशन का संचित लाभ, 49,472 करोड़ रुपये का था। साल 2009 के अप्रैल-दिसंबर के दौरान ही, सार्वजनिक क्षेत्र की दो अन्य तेल कंपनियों, हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन तथा भारत पेट्रोलियम कॉरपोरेशन ने क्रमश: 5,444 करोड़ रुपये और 834 करोड़ रुपये का मुनाफा बटोरा था। इसलिए प्रधानमंत्रीजी, निरीह जनता पर बोझ लादने के लिए मिथकों का आविष्कार तो मत ही कीजिए!

रिएक्शनरी कहीं का!


सुधीश पचौरी, लेखक व पत्रकार
पूरे 75 साल बाद निराला की भिक्षुक कविता से निकल वह अंधेरिया मोड़ पार करते हुए मिले। पूछा, कैसे हो कॉमरेड? कहां से आ रहे हो?
‘लखनऊ से पैदल आ रहा हूं। वे सब साले शताब्दी से निकल गए। मुझे वहीं छोड़ गए। मांगते-खाते दस दिन में पैदल पहुंचा हूं। अजय भवन किधर है? महासचिव को रिपोर्ट देनी है।’
बात क्या है कामरेड?
‘सब बदमाश चौबीस बाई सात की ‘सिंथेसिस’ में मस्त हैं। मुझे यह पुरानी ‘थीसिस’ पकड़ा गए और कह गए कि इसकी ‘एंटीथीसिस’ ढूंढ़ लेना! सौ साल के हो जाओ, तो बात करेंगे।
‘कौन थे ऐसे कमीने?’
‘एक हो तो बताऊं। सबने ‘प्रोग्रेसिव लेंस’ लगा रखे हैं। नामवर ने ‘प्रोग्रेसिव आई शॉप’ खोल रखी है। लेंस विचारधारा है।’
मैं बोला, प्रोग्रेसिव लेंस प्रॉब्लम है। जिधर देखना है, उधर पूरा मुंह घुमाना पड़ता है। होरी की गाय को देखूं, तो पूरा चेहरा होरी के घर की ओर घुमाना पड़ता है। ‘तुमने भी प्रोग्रेसिव लेंस लगा रखा है?’ कॉमरेड ने पूछा। ‘इन दिनों इसी का चलन है। लगाते ही नजर अपने आप दिग्दिगंत प्रोग्रेसिव हो जाती है। मार्क्‍स, एंगेल्स पढ़ने नहीं पड़ते। जिधर घुमाके देखा, वही प्रोग्रसिव। रिएक्शनरी को देखो, तो प्रोग्रेसिव। कविता प्रोग्रेसिव, कहानी प्रोग्रेसिव। एंट्री लेते ही पात्र संघर्ष करते हैं। प्रोग्रेसिव लेंस की लीला।’
निराला का भिक्षुक अपना दुखड़ा भूल गया। कान पर लाल डोरे से बंधी सन छत्तीस की ऐनक उतारकर रख दी। मैंने प्रोग्रेसिव लेंस वाला अपना चश्मा लगा दिया। उसके लगते ही उनके चक्षु त्रिकालदर्शी हो चमक उठे। कैसा लग रहा है?
कमाल है। रेखा गा रही है- ‘दिल चीज क्या है आप मिरी जान लीजिए!
‘ये क्या! तुम्हें तो गरीबी की रेखा देखनी थी!
‘इतिहास देख रहा था। रेखा निकल पड़ी।’
इतिहास देखना है, तो उधर देख जिधर ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ बैठा है। इसी प्रगतिशील ढाबे पर यहीं बैठा है, जिसे मुक्तिबोध चलाते हैं। ऐतिहासिक भौतिकवाद की पीठ पर सोवियत के उजाड़ व चीन की पूंजीवादी पछाड़ के निशान थे। वह ब्लैकबेरी से ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ को अश्लील ‘जोक’ ट्वीट कर रहा था। आक्थू! उनके मुंह से निकला! देखो-देखो, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने ऐसा दुंदीकाल पेला कि सब लालच-लाल हो गए। प्रोग्रेसिव पब्लिशर्स बंद हो गया। गोर्की, चेखव, मायकोवस्की गायब हो गए।
‘सच बताना, अपने जन्म के वक्त तुम्हें कैसा लगा?’ ‘सच कहूं? प्रेमचंद ने गुड़ -गोबर किया। खुद स्वर्ग सिधार गए और मुझे गुंडों के हवाले कर गए।’
आप अपने साथियों के लिए अपमानजनक शब्द कह रहे हैं। मैंने ऐतराज किया। वे बोले- मुन्ना, मुंह न खुलवा। पहले सब अपने नालायक बच्चों को सोवियत पढ़ने भेजते थे, अब अमेरिका-इंग्लैंड भेजते हैं। हिंदी की जगह अंग्रेजी में प्रस्ताव पारित करते हैं। मैंने कहा था कि अमेरिका घुमा दो, तो कहने लगे, पतित न बनो। साम्राज्यवाद में न जाना। खतरनाक है। सीआईए बर्बाद कर देगी। तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं! मैं संघर्ष करता रह गया। वे अपने गिरोह बनाकर साहित्यिक बटमारी में निकल गए। लखनऊ से पैदल आ रहा हूं। नरक भी पैदल जाना होगा। स्वर्ग में तो उस रामविलास ने मुगदर भांज रखा है। कहता है कि जब मैंने कहा था कि प्रगतिशील तू मर जा! तब मरा नहीं। अब रो रहा है! रिएक्शनरी कहीं का!