चंचल चौहान |
मुक्तिबोध को कला को सिर्फ कला तक सीमित करके देखना उन्हें पसंद नहीं था । कला की सामाजिक पक्षधरताका उदघोष उन्होंने किया और इसी नजरिये से उन्होंने अपने समय के सभी साहित्यिक मसलों पर लिखा । कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम के हर नारे का तर्कसंगत जवाब मुक्तिबोध के लेखन में ही मिलता है । 'एक साहित्यिक की डायरी' के लेखों में मुक्तिबोध ने कथात्मक शैली में आधुनिकतावादियों की हर अवधारणा, जैसे-अकेलापन,भीड़ में अस्मिता का विलय,ऊब,संत्रास आदि या व्यक्ति-स्वातंत्र्य,लघु मानव,की अवधारणा का जैसा सटीक जवाब दिया है वह उस दौर के लेखन में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता । आठवें दशक में जब जनवादी समीक्षा का नया उभार आया तभी उन सूत्रों को आगे बढ़ाया जा सका । कला और रचना के महीन रग रेशों के भीतर पैठ कर मुक्तिबोध ने हिंदी को वश्वसाहित्य को जो मौलिक सूझबूझ दी है वह अदभुत है । 'नयी कविता का आत्मसंघर्ष'और 'नये साहित्य का सौंदर्यशास्त्र' के निबंधों को गहराई से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि रचना-प्रक्रिया, वस्तु और रूप, सौंदर्यानुभूति आदि तमाम उन विषयों पर मुक्तिबोध ने मार्क्सवादी नजरिये से लिखा जो साहित्य सृजन के दायरे में आते थे । उन्होंने अपने समकालीन आधुनिकतावादियों के साथ लगातार एक बहस की। उन्हीं का एक शब्द उधार लें तो वे सचमुच 'जवाबी गदर' थे । मुक्तिबोध ने अपने समकालीन रचनाकारों की कृतियों की व्यावहारिक समीक्षा भी लिखी और 'कामायनी: एक पुनर्विचार' जैसा पूरा आलोचनात्मक ग्रंथ भी लिखा जो इस महाकाव्य का वर्गीय वैचारिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है ।
मुक्तिबोध का एक योगदान और गौरतलब है,वह है प्रगतिवादी समीक्षा की कमजोरियों को गहराई में उतरकर पहचानना । प्रगतिवाद की विचारधारात्मक शक्ति का बहुत ही तर्कसंगत आकलन उन्होंने 'प्रगतिवाद: एक दृष्टि'लेख में किया और प्रगतिवादी समीक्षा की कमजोरियों को उन्होंने बेलाग तरीके से 'समीक्षा की समस्याएं'निबंध में दर्शाया । मुक्तिबोध द्वारा किये गये विश्लेषण से आज भी जनवादी समीक्षकों को सीखने की जरूरत है । मगर दुखद पहलू यह है कि वे कमजोरियां आज भी उन आलोचकों में जड़ जमाये बैठी हैं जो अपने को 'मार्क्सवादी' मानते हैं । ऐसा लगता है मानों हमारे ऐसे समीक्षकों से वे शायद आज ही यह कह रहे हों।
'ध्यान में रखने की बात है कि लेखकों से कलह करके, ऐसे लेखकों से जिन्हें पूरा का पूरा विपक्षी नहीं कहा जा सकता,जो अभी अपनी विकास-यात्रा पर आगे बढ़ रहे हैं,आप अपने उन प्रभावशाली विपक्षियों के हाथ ही मजबूत बना रहे हैं,जिनका एकमात्र उद्देश्य आपकी विचारधारा को और आपको
पूर्णत: समाप्त कर देना है -- ऐसे विपक्षियों के,जो आपसे अधिक एकताबद्ध, साधनसंपन्न ओर क्रियाशील हैं,और जो अपने वास्तविक कार्य-व्यवहार द्वारा विकासमान लेखकवर्ग से घनिष्ठ संपर्क बनाये हुए हैं । ऐसी स्थिति में भी यदि वे पूर्णत: साहित्य क्षेत्र पर अपना प्रभावाधिकार नहीं जमा पा रहे हैं तो इसका एक कारण है,लेखकवर्ग की अपनी उद्बुद्धता और चेतना । संक्षेप में आपको स्थिति-परिस्थिति का,सामाजिक-राष्ट्रीय अवस्था कापरिप्रेक्ष्य रखना आवश्यक है ।
क्या आज के सांप्रदायिक फासीवादी दौर में मुक्तिबोध की इस सलाह पर हमारे समीक्षकों को गौर नहीं करना चाहिए ?
(लेखक जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव और प्रख्यात आलोचक हैं)
मुक्तिबोध का एक योगदान और गौरतलब है,वह है प्रगतिवादी समीक्षा की कमजोरियों को गहराई में उतरकर पहचानना । प्रगतिवाद की विचारधारात्मक शक्ति का बहुत ही तर्कसंगत आकलन उन्होंने 'प्रगतिवाद: एक दृष्टि'लेख में किया और प्रगतिवादी समीक्षा की कमजोरियों को उन्होंने बेलाग तरीके से 'समीक्षा की समस्याएं'निबंध में दर्शाया । मुक्तिबोध द्वारा किये गये विश्लेषण से आज भी जनवादी समीक्षकों को सीखने की जरूरत है । मगर दुखद पहलू यह है कि वे कमजोरियां आज भी उन आलोचकों में जड़ जमाये बैठी हैं जो अपने को 'मार्क्सवादी' मानते हैं । ऐसा लगता है मानों हमारे ऐसे समीक्षकों से वे शायद आज ही यह कह रहे हों।
'ध्यान में रखने की बात है कि लेखकों से कलह करके, ऐसे लेखकों से जिन्हें पूरा का पूरा विपक्षी नहीं कहा जा सकता,जो अभी अपनी विकास-यात्रा पर आगे बढ़ रहे हैं,आप अपने उन प्रभावशाली विपक्षियों के हाथ ही मजबूत बना रहे हैं,जिनका एकमात्र उद्देश्य आपकी विचारधारा को और आपको
पूर्णत: समाप्त कर देना है -- ऐसे विपक्षियों के,जो आपसे अधिक एकताबद्ध, साधनसंपन्न ओर क्रियाशील हैं,और जो अपने वास्तविक कार्य-व्यवहार द्वारा विकासमान लेखकवर्ग से घनिष्ठ संपर्क बनाये हुए हैं । ऐसी स्थिति में भी यदि वे पूर्णत: साहित्य क्षेत्र पर अपना प्रभावाधिकार नहीं जमा पा रहे हैं तो इसका एक कारण है,लेखकवर्ग की अपनी उद्बुद्धता और चेतना । संक्षेप में आपको स्थिति-परिस्थिति का,सामाजिक-राष्ट्रीय अवस्था कापरिप्रेक्ष्य रखना आवश्यक है ।
क्या आज के सांप्रदायिक फासीवादी दौर में मुक्तिबोध की इस सलाह पर हमारे समीक्षकों को गौर नहीं करना चाहिए ?
(लेखक जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव और प्रख्यात आलोचक हैं)
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