शिवकुमार मिश्र |
स्वतंत्र भारत के सबसे बड़ विचारक हैं मुक्तिबोध। उन्हें न तो देवता बनाने जरूरत है और न पूजने की जरूरत है। व्यक्तिगत और साहित्यिक ईमानदारी में उनका कोई जबाव नहीं है। उन्होंने अपनी आलोचना से हिन्दी आलोचना का इकहरापन तोड़ा है। आलोचना में समाजशास्त्रीय,ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण की हिमायत की है। उनका मानना था कि प्रगतिशील आलोचना को समग्र आलोचना होना चाहिए। उसे आलोचना के एकांगी प्रयोगों से बचना चाहिए।
मुक्तिबोध पर विमर्श करते समय यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि उनके भी अन्तविर्रोध हैं। ये ऐसे अन्तर्विरोध हैं जिनकी उनके भक्त अनदेखी करते रहे हैं। मजेदार बात यह है कि मुक्तिबोध ने आरोप में सिद्धान्त के धरातल पर जो बातें रेखांकित की हैं उन्हें 'कामायनी एक पुनर्विचार ' नामक आलोचना ग्रंथ में वे स्वयं उनका पालन नहीं कर पाए। उन्होंने व्यवहारिक समीक्षा के जो आरोप दूसरों पर लगाए हैं। उन आरोपों का वे भी स्वयं जबाव नहीं दे पाए हैं।
मुक्तिबोध की खूबी है कि उन्होंने अपने समय को बड़ी ही गंभीरता के साथ समझा था। वे हमारे समय के जरूरी कवि हैं। उनकी कविता समय से सीधा साक्षात्कार करती है। उसमें गहरा आत्मसंघर्ष है। उनकी कविता मध्यवर्ग केन्द्रित है। भारतीय मध्यवर्ग में विवेक और संस्कार की जंग चलती रहती है। वर्गीय विवेक आगे की और ठेलता है और संस्कार पीछे की ओर ठेलते हैं। विवेक और संस्कार की कशकमश में भारतीय मध्वर्ग सारी जिंदगी गुजार देता है। मध्यवर्ग का भविष्य तब ही सुरक्षित है जब वह व्यक्तित्वान्तरण करे। अपने को डि-क्लास करे। मध्यवर्ग अपने संस्कारों से सारी जिंदगी संघर्ष करता रहता है। वह जाना चाहता है ऊपर वाले वर्ग में लेकिन परिस्थितियां उसे निचले वर्ग की ओर ठेलती हैं। मुक्तिबोध का सारा रचना संघर्ष इसी व्यक्तित्वान्तरण से अभिन्न रूप में जुड़ा है।
मुक्तिबोध पक्के मारक्सवादी थे। वे मार्क्सवाद के जरिए पूर्ण ज्ञान पाना चाहते थे। लेकिन उन्हें मार्क्सवाद से यह नहीं मिला यही वजह है कि वे अन्य विचारधाराओं की ओर गए। इसके बावजूद उन्होंने मार्क्सवाद के प्रति अपनी आस्थाओं को बनाए रखा,अन्य विचारधाराओं के साथ समझौता नहीं किया। जबकि उनके अनेक दोस्त मार्क्सवाद का रास्ता त्यागकर जा चुके थे। उनके दोस्तों ने अन्य विचारधाराओं के साथ समझौते भी किए। लेकिन मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद का रास्ता नहीं छोड़ा। उन्होंने मजदूरों की जिंदगी जी। असल बात यह थी वे मार्क्सवाद को जीना चाहते थे। मार्क्सवाद उनके लिए किताबी दर्शन नहीं था।
हमें मुक्तिबोध को अन्तर्विरोधों के साथ देखना चाहिए। हम उन्हें पूजें नहीं। जब भी किसी विचारक को पूजने की कोशिश हुई है उस विचारक का नुकसान ही हुआ है। मुक्तिबोध बड़े ईमानदार थे। उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने फंतासी को यथार्थवादी कविता का हिस्सा बनाया। उल्लेखनीय है फंतासी को रोमैंटिक कविता की चीज माना जाता था। फंतासी को उन्होंने यथार्थ के जोड़ा। फंतासी में अपने समय के यथार्थ को पेश किया। मार्क्सवादी होते हुए नयी कविता में जाकर विचारधारात्मक संघर्ष किया,नयी कविता को उन लोगों से बचाया जो उसे अस्तित्वाद और व्यक्तिवाद की दिशा में ले जाना चाहते थे।
मुक्तिबोध लेखकीय ईमानदारी का आईना है उनकी आलोचना। उन्होंने स्वयं माना कि कामायनी लिखी उनकी समीक्षा अधूरी है। कामायनी संबंध मूल्यांकन की सबसे बड़ी कमजोरी है उनका व्यावहारिक धरातल पर समीक्षा सिद्धान्तों को लागू न कर पाना।
मुक्तबोध पूर्ण समीक्षा के पक्षधर थे। सवाल उठता है कि मुक्तिबोध को अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा अशोक बाजपेयी भी पसंद करते हैं उनके यहां अपने भावों और विचारों की खोज कर लकते हैं। उसी तरह प्रगतिशील लेखक और आलोचक भी अपने लिए चीजें ढूंढ़ लेते हैं। अज्ञेय के यहां मुक्तिबोध की जो समझ है वही समझ प्रगतिशीलों के यहां नहीं है। इसका अर्थ है कि उनके नजरिए में कहीं न कहीं अन्तर्विरोध हैं। हमें उन अन्तर्विरोधों को भी देखना चाहिए।
मैं निजी तौर पर मुक्तिबोध से कई बार मिला हूँ। उनके साथ एक दो बार गोष्ठियों में भी भाषण दिया है। आप लोगों को जानकर अच्छा लगेगा कि एक बार सागर में एक गोष्ठी थी जिसमें मुक्तिबोध ने अपना महत्वपूर्ण आलेख 'काव्य के तीन क्षण' निबंध पढ़ा था। वहां पर मैंने उनसे यह बात कही थी कि इस आलेख की बहुत सारी धारणाएं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना धारणाओं से ली गई हैं। इसके जबाव में उन्होंने माना कि उनके इस लेख में रामचन्द्र शुक्ल की अनेक धारणाओं का इस्तेमाल किया गया है। मुक्तिबोध इस अर्थ में बड़े आलोचक हैं कि उन्होंने हिन्दी आलोचना की परंपरा को तोड़ा नहीं, बल्कि परंपरा से अपने को जोड़ा उसे आगे बढ़ाया। उन्होंने परंपरा के सबल तत्वों को आगे बढ़ाया।कविता की प्रकृति ,उसके स्वरूप उसकी निर्मिति और उसके प्रयोजनादि के बारे में शुक्लजी और मुक्तिबोध के विचार दूर तक एक दूसरे के अविरोधी हैं। बातें मुक्तिबोध ने अपने ढ़ग से कही हैं ,और शुक्ल जी ने अपने ढ़ंग से, अपने अपने युग संदर्भों के अनुरूप किन्तु उनमें जितना एकात्म है उतना पार्थक्य नहीं है।
मुक्तिबोध इतनी दूर तक आधुनिकतावादी नहीं हैं कि पारंपरिक शब्दावली की छाया तक से बचने का उपक्रम करें। वे तो तादात्म्य,ताटस्थ्य,रसदशा,रसमग्नता आदि का,आनन्दानुभूति और हृदय की मुक्त और बद्ध दशा की निस्संकोच चर्चा करते हैं। उन्हें रस और रस की शब्दावली का अपने ढ़ंग से इस्तेमाल करने में कोई परहेज नहीं है। कविता की रचना प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए वे शुक्लजी के चिंतन के अनेक बिंदुओं के बहुत निकट पहुँच जाते हैं। कविता में भावना और बुद्धि के अंतराबलम्बन की बात मुक्तिबोध ने गंभीरता से उठाई है और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी जोर देकर इस तथ्य का प्रतिपादन किया है कि ज्ञानप्रसार के भीतर ही भावप्रसार होता है। शुक्लजी रसवादी जरूर हैं किंतु ऐसे रसवादी नहीं कि भावना की जगह भावुकता को तरजीह दें और भावना की शक्ति को मुक्तिबोध भी स्वीकार करते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और मुक्तिबोध दोनों ने ही काव्यानुभूति और सौंदर्यानुभूति को सामान्य जीवनानुभूति से भिन्न नहीं माना। रसानुभव या सौंदर्यानुभव के क्षण राह चलते सामान्य जीवन में भी होते हैं, या हो सकते हैं,यह दोनों ही जोर देकर कहते हैं।
मुझे इस बात की खुशी है कि हिन्दी के विश्वविद्यालयों के कोर्स में मुक्तिबोध को एमए के छात्रों में पढ़ाने का सिलसिला सागर विश्वविद्यालय से ही शुरू हुआ। पहलीबार मुक्तिबोध को सागर विश्वविद्यालय में एमए में आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी ने ही आरंभ किया। जबकि उनके बारे में यह प्रसिद्ध था कि वे नई कविता के विरोधी हैं। बाजपेयी जी के आदेश पर ही मैंने नई कविता का पहला काव्य संकलन 'सप्तपर्णी के नाम से सन् 1960-61 में तैयार किया था। 'सप्तपर्णी' के दूसरे संस्करण में मुक्तिबोध की कविताएं भी शामिल की गयीं। यह सन् 1967 में प्रकाशित हुआ था। सन् 1967 में यह संभवत: नई कविता का पहला कोर्स संकलन था, जिसमें मुक्तिबोध शामिल किए गए थे। यह एमए के छात्रों के लिए तैयार किया गया था। बाद में इस संकलन को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने चंडीगढ़ में और आचार्य नलिनविलोचन शर्मा ने पटना विश्वविद्यालय के कोर्स में लगाया। इस तरह मुक्तिबोध का हमारे विश्वविद्यालयों में प्रवेश हुआ।
( लेखक ,वरिष्ठतम हिन्दी आलोचक और मार्क्सवादी चिन्तक हैं। इन्होंने 33 साल तक विभिन्न विश्ववहद्यालयों में अध्यापन कार्य किया है। तकरीबन दो दर्जन से ज्यादा महत्वपूर्ण आलोचना ग्रंथ लिखें हैं। यह आलेख डा;सुधासिंह द्वारा लिए गए साक्षात्कार पर आधारित है। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में 'मीडिया,अनुवाद और पत्रकारिता' की एसोसिएट प्रोफेसर हैं )।
मुक्तिबोध पर विमर्श करते समय यह बात हमेशा ध्यान में रखनी होगी कि उनके भी अन्तविर्रोध हैं। ये ऐसे अन्तर्विरोध हैं जिनकी उनके भक्त अनदेखी करते रहे हैं। मजेदार बात यह है कि मुक्तिबोध ने आरोप में सिद्धान्त के धरातल पर जो बातें रेखांकित की हैं उन्हें 'कामायनी एक पुनर्विचार ' नामक आलोचना ग्रंथ में वे स्वयं उनका पालन नहीं कर पाए। उन्होंने व्यवहारिक समीक्षा के जो आरोप दूसरों पर लगाए हैं। उन आरोपों का वे भी स्वयं जबाव नहीं दे पाए हैं।
मुक्तिबोध की खूबी है कि उन्होंने अपने समय को बड़ी ही गंभीरता के साथ समझा था। वे हमारे समय के जरूरी कवि हैं। उनकी कविता समय से सीधा साक्षात्कार करती है। उसमें गहरा आत्मसंघर्ष है। उनकी कविता मध्यवर्ग केन्द्रित है। भारतीय मध्यवर्ग में विवेक और संस्कार की जंग चलती रहती है। वर्गीय विवेक आगे की और ठेलता है और संस्कार पीछे की ओर ठेलते हैं। विवेक और संस्कार की कशकमश में भारतीय मध्वर्ग सारी जिंदगी गुजार देता है। मध्यवर्ग का भविष्य तब ही सुरक्षित है जब वह व्यक्तित्वान्तरण करे। अपने को डि-क्लास करे। मध्यवर्ग अपने संस्कारों से सारी जिंदगी संघर्ष करता रहता है। वह जाना चाहता है ऊपर वाले वर्ग में लेकिन परिस्थितियां उसे निचले वर्ग की ओर ठेलती हैं। मुक्तिबोध का सारा रचना संघर्ष इसी व्यक्तित्वान्तरण से अभिन्न रूप में जुड़ा है।
मुक्तिबोध पक्के मारक्सवादी थे। वे मार्क्सवाद के जरिए पूर्ण ज्ञान पाना चाहते थे। लेकिन उन्हें मार्क्सवाद से यह नहीं मिला यही वजह है कि वे अन्य विचारधाराओं की ओर गए। इसके बावजूद उन्होंने मार्क्सवाद के प्रति अपनी आस्थाओं को बनाए रखा,अन्य विचारधाराओं के साथ समझौता नहीं किया। जबकि उनके अनेक दोस्त मार्क्सवाद का रास्ता त्यागकर जा चुके थे। उनके दोस्तों ने अन्य विचारधाराओं के साथ समझौते भी किए। लेकिन मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद का रास्ता नहीं छोड़ा। उन्होंने मजदूरों की जिंदगी जी। असल बात यह थी वे मार्क्सवाद को जीना चाहते थे। मार्क्सवाद उनके लिए किताबी दर्शन नहीं था।
हमें मुक्तिबोध को अन्तर्विरोधों के साथ देखना चाहिए। हम उन्हें पूजें नहीं। जब भी किसी विचारक को पूजने की कोशिश हुई है उस विचारक का नुकसान ही हुआ है। मुक्तिबोध बड़े ईमानदार थे। उनका सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने फंतासी को यथार्थवादी कविता का हिस्सा बनाया। उल्लेखनीय है फंतासी को रोमैंटिक कविता की चीज माना जाता था। फंतासी को उन्होंने यथार्थ के जोड़ा। फंतासी में अपने समय के यथार्थ को पेश किया। मार्क्सवादी होते हुए नयी कविता में जाकर विचारधारात्मक संघर्ष किया,नयी कविता को उन लोगों से बचाया जो उसे अस्तित्वाद और व्यक्तिवाद की दिशा में ले जाना चाहते थे।
मुक्तिबोध लेखकीय ईमानदारी का आईना है उनकी आलोचना। उन्होंने स्वयं माना कि कामायनी लिखी उनकी समीक्षा अधूरी है। कामायनी संबंध मूल्यांकन की सबसे बड़ी कमजोरी है उनका व्यावहारिक धरातल पर समीक्षा सिद्धान्तों को लागू न कर पाना।
मुक्तबोध पूर्ण समीक्षा के पक्षधर थे। सवाल उठता है कि मुक्तिबोध को अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा अशोक बाजपेयी भी पसंद करते हैं उनके यहां अपने भावों और विचारों की खोज कर लकते हैं। उसी तरह प्रगतिशील लेखक और आलोचक भी अपने लिए चीजें ढूंढ़ लेते हैं। अज्ञेय के यहां मुक्तिबोध की जो समझ है वही समझ प्रगतिशीलों के यहां नहीं है। इसका अर्थ है कि उनके नजरिए में कहीं न कहीं अन्तर्विरोध हैं। हमें उन अन्तर्विरोधों को भी देखना चाहिए।
मैं निजी तौर पर मुक्तिबोध से कई बार मिला हूँ। उनके साथ एक दो बार गोष्ठियों में भी भाषण दिया है। आप लोगों को जानकर अच्छा लगेगा कि एक बार सागर में एक गोष्ठी थी जिसमें मुक्तिबोध ने अपना महत्वपूर्ण आलेख 'काव्य के तीन क्षण' निबंध पढ़ा था। वहां पर मैंने उनसे यह बात कही थी कि इस आलेख की बहुत सारी धारणाएं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना धारणाओं से ली गई हैं। इसके जबाव में उन्होंने माना कि उनके इस लेख में रामचन्द्र शुक्ल की अनेक धारणाओं का इस्तेमाल किया गया है। मुक्तिबोध इस अर्थ में बड़े आलोचक हैं कि उन्होंने हिन्दी आलोचना की परंपरा को तोड़ा नहीं, बल्कि परंपरा से अपने को जोड़ा उसे आगे बढ़ाया। उन्होंने परंपरा के सबल तत्वों को आगे बढ़ाया।कविता की प्रकृति ,उसके स्वरूप उसकी निर्मिति और उसके प्रयोजनादि के बारे में शुक्लजी और मुक्तिबोध के विचार दूर तक एक दूसरे के अविरोधी हैं। बातें मुक्तिबोध ने अपने ढ़ग से कही हैं ,और शुक्ल जी ने अपने ढ़ंग से, अपने अपने युग संदर्भों के अनुरूप किन्तु उनमें जितना एकात्म है उतना पार्थक्य नहीं है।
मुक्तिबोध इतनी दूर तक आधुनिकतावादी नहीं हैं कि पारंपरिक शब्दावली की छाया तक से बचने का उपक्रम करें। वे तो तादात्म्य,ताटस्थ्य,रसदशा,रसमग्नता आदि का,आनन्दानुभूति और हृदय की मुक्त और बद्ध दशा की निस्संकोच चर्चा करते हैं। उन्हें रस और रस की शब्दावली का अपने ढ़ंग से इस्तेमाल करने में कोई परहेज नहीं है। कविता की रचना प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए वे शुक्लजी के चिंतन के अनेक बिंदुओं के बहुत निकट पहुँच जाते हैं। कविता में भावना और बुद्धि के अंतराबलम्बन की बात मुक्तिबोध ने गंभीरता से उठाई है और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी जोर देकर इस तथ्य का प्रतिपादन किया है कि ज्ञानप्रसार के भीतर ही भावप्रसार होता है। शुक्लजी रसवादी जरूर हैं किंतु ऐसे रसवादी नहीं कि भावना की जगह भावुकता को तरजीह दें और भावना की शक्ति को मुक्तिबोध भी स्वीकार करते हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और मुक्तिबोध दोनों ने ही काव्यानुभूति और सौंदर्यानुभूति को सामान्य जीवनानुभूति से भिन्न नहीं माना। रसानुभव या सौंदर्यानुभव के क्षण राह चलते सामान्य जीवन में भी होते हैं, या हो सकते हैं,यह दोनों ही जोर देकर कहते हैं।
मुझे इस बात की खुशी है कि हिन्दी के विश्वविद्यालयों के कोर्स में मुक्तिबोध को एमए के छात्रों में पढ़ाने का सिलसिला सागर विश्वविद्यालय से ही शुरू हुआ। पहलीबार मुक्तिबोध को सागर विश्वविद्यालय में एमए में आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी ने ही आरंभ किया। जबकि उनके बारे में यह प्रसिद्ध था कि वे नई कविता के विरोधी हैं। बाजपेयी जी के आदेश पर ही मैंने नई कविता का पहला काव्य संकलन 'सप्तपर्णी के नाम से सन् 1960-61 में तैयार किया था। 'सप्तपर्णी' के दूसरे संस्करण में मुक्तिबोध की कविताएं भी शामिल की गयीं। यह सन् 1967 में प्रकाशित हुआ था। सन् 1967 में यह संभवत: नई कविता का पहला कोर्स संकलन था, जिसमें मुक्तिबोध शामिल किए गए थे। यह एमए के छात्रों के लिए तैयार किया गया था। बाद में इस संकलन को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने चंडीगढ़ में और आचार्य नलिनविलोचन शर्मा ने पटना विश्वविद्यालय के कोर्स में लगाया। इस तरह मुक्तिबोध का हमारे विश्वविद्यालयों में प्रवेश हुआ।
( लेखक ,वरिष्ठतम हिन्दी आलोचक और मार्क्सवादी चिन्तक हैं। इन्होंने 33 साल तक विभिन्न विश्ववहद्यालयों में अध्यापन कार्य किया है। तकरीबन दो दर्जन से ज्यादा महत्वपूर्ण आलोचना ग्रंथ लिखें हैं। यह आलेख डा;सुधासिंह द्वारा लिए गए साक्षात्कार पर आधारित है। वे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में 'मीडिया,अनुवाद और पत्रकारिता' की एसोसिएट प्रोफेसर हैं )।
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