रचनाकार: शिवकुमार मिश्र
तमाम सारी चुनौतियों और सवालों से घिरे, टूटे और फिर से बन रहे सपनों तथा वर्तमान और भविष्य की ढेर सारी आशाओं-आशंकाओं के साथ आज हम २१ वीं सदी की दहलीज पर हैं। पिछली सदी और सदियों का बहुत कुछ हम छोड़ आए हैं, उस सदी और पहले की सदियों के खाते में। किन्तु पिछली सदी और पहले की सदियों का तमाम कुछ हमारे साथ नई सदी में आया भी है, लाया गया है। यह जो हमसे बहुत कुछ छूटा या छोड़ा गया है, अथवा हमारे साथ आया अथवा लाया गया है, वह हमारे जाने भी हुआ है और अनजाने भी। इस नई सदी में हमारे विचार का मुद्दा-महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि हम इस आना-जाना की परख और पहचान करें। जो कुछ नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुकूल है उसे हम सहेजें, छूट गया हो तो उसे लाएँ तथा जो नई सदी के हमारे सरोकारों से मेल नहीं खाता, उससे सावधान रहें, नई सदी के दायरे में उसे आने से रोकें।
एक पूरी सदी की यात्रा हमारे सामने है। जरूरी हो जाता है कि हम अपने विवेक के तहत ग्रहण और त्याग से जुड़ी अपनी उक्त चिन्ताओं का हल खोजें।
संप्रति हम ग्रहण और त्याग के इस परिप्रेक्ष्य को मध्यकाल और खासतौर से कबीर के अध्ययन तक सीमित रखना चाहेंगे। वस्तुतः विरासत या परंपरा से हमें जो कुछ मिलता है, उसके ग्रहण या त्याग का निर्णय हम अपने उस विवेक के तहत ही करते हैं, जो हम अपने पूरे जीवन अर्जित करते हैं। तमाम सारी सजगता और परिपक्व विवेक-चेतना के बावजूद विरासत या परंपरा का बहुत कुछ अवांछित और अहेतुक भी, हमारे संस्कारों का हिस्सा बनकर या समय में आ जाता है। फलतः समूचे जीवन हमारी विवेक-चेतना तथा संस्कारों के बीच एक समर चलता रहता है। इस समर में कभी जीतते, कभी हारते, हम अपनी जीवन-यात्रा पूरी करते हैं।
जहाँ तक कबीर का सवाल है, कबीर का सच भी वस्तुतः यही है। कबीर को उनकी समग्रता में जानने समझने के लिए जरूरी है कि हम उन्हें ग्रहण और त्याग के उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में ही जानें-समझें। कबीर से संबंधित, इस नई सदी में हमारी चिन्ता इस बात को लेकर है कि कबीर का कितना कुछ इस नई सदी में हम अपने साथ लेकर चलें, और कितना कुछ, जो नई सदी के हमारे सरोकारों की संगति में नहीं हैं, उनके जाने-अनजाने उनके संस्कारों का हिस्सा बनाकर उनकी सोच में मौजूद है, उसे पुरानी सदी या उनकी अपनी सदी के खाते में ही रहने दें। कबीर को इस बिन्दु पर न केवल हमें समग्रता में पढ़ने की जरूरत है, उन्हें उनकी अंतर्विरोधी जटिलता में भी जानने-समझने की जरूरत है। कबीर की देवमूर्ति गढ़ने के बजाय, भावुकता या अंध-श्रद्धा से उन्हें देखने-समझने के बजाय, बेहतर होगा कि हम उन्हें अपने उस विवेक की कसौटी पर देखें-परखें-जो हमने अर्जित की है-नई सदी के हमारे सरोकार जिसके तहत ही तय और निश्चिय किए गए हैं।
कबीर में उनके कहे हुए में, जब हम अंतर्विरोधों की बात करते हैं, तो उस कहे हुए के साक्ष्य पर ही करते हैं। हम सब जानते हैं कि कबीर को जो विद्रोही, क्रांतिकारी, अक्खड़ आदि कहा जाता है, तो इस नाते कि कबीर ने अपने समय में परंपरा से चले आते हुए तमाम-कुछ को नकार दिया था, छोड़ दिया था। बावजूद इसके, परंपरा से आया हुआ तमाम कुछ जाने-अनजाने उनके संस्कारों का हिस्सा बनकर उनकी सोच में मौजूद भी था। इसी नाते कबीर अंतर्विरोध के शिकार हुए। इसीलिए हमने कबीर को समग्रता में उनके अंतर्विरोधों के साथ पढ़ने और समझने की बात की है। हम न तो उस ब्राह्मणवादी सवर्ण मानसिकता के साथ हैं, जो पूरे के पूरे कबीर को नकारती है और उस अंध आस्थावादी दलित-सोच के साथ, जो कबीर के अंतर्विरोधों को नजरअंदाज कर उन्हें उनके पूरेपन में ढोने की हिमायत करती हैं। कबीर स्वयं देवमूर्तियों के खिलाफ थे और हम भी इसी नाते कबीर की किसी देवमूर्ति गढ़ने के पक्ष में है। कबीर को समग्रता में, वस्तुनिष्ठता में और अंतर्विरोधों के साथ पढ़ने और उनके बीच में उनके तेजस्वी अंश को स्वीकार करने में ही हमारी रुचि है।
आइए, पहले कबीर को उनके व्यक्तित्व के पूरेपन में पहचानने का प्रयास करें। कबीर को विद्रोही, क्रांतिकारी, अक्खड़, आक्रामक, न जाने क्या-क्या कहा गया है, जिसके साक्ष्य उनकी बानियों में हैं किन्तु यह कबीर के व्यक्तित्व का एक पहलू है। कबीर के व्यक्तित्व का दूसरा पहल वह है, जिसके तहत वे एक नितांत, सौम्य, कातर, आर्त्त, विनीत, मृदु और तरल रूप में हमारे सामने आते हैं-खासतौर से अपनी भक्ति के स्तर पर जहाँ वे कभी राम के 'कूता' हैं, कभी अपने हरि के बालक, या फिर जब वे यह कहते है कि सुखिया सब संसार है, खावे और सोवे, दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवै। कबीर के इन दोनों व्यक्तित्वों में अंतर्विरोध नहीं है। वे एक दूसरे के पूरक हैं। कबीर अपने जिन बेधक व्यंग्यों के लिए ख्यात हैं-वे व्यंग्य हों या व्यंग्य का कोई अन्य रूप-व्यंग्य का बीज भाव हमेशा हमारी मानवीय करुणा ही होता है। कबीर रात-रात भर जागकर-जो रोते हैं, उसका कारण यही है कि रात-रात भर जागकर वे जो कुछ देख रहे थे, उसे देखकर वे रो ही सकते थे। खा-पीकर सुख से सोने वाले सपने देखते हैं जागने वाला यथार्थ देखता है। कबीर का देखा भोगा यथार्थ उन्हें रूला ही सकता था। यही कबीर इस रूदन के नाते ही संतृप्त मनुष्यता के यथार्थ जीवन को देखकर उपजे इस रूदन के नाते-जब सुख से सोने वालों पर वज्र बरसाता है, अपने व्यंग्यों से उन्हें छलनी करता है, तब उसका आक्रामक-विद्रोही रूप सामने आता है। वाल्मीकि पहले क्रौंच-मिथुन में से एक की हत्या पर पसीजे थे, अनंतर उनकी करुणा ही बहेलिए पर शाप बनकर फूटी थी। हमारी गुजारिश है कि कबीर को पूरेपन में समझने के लिए उनके व्यक्तित्व के इन दोनों रूपों को समझा जाये। ये दो रूप एक-दूसरे के पूरक हैं, अंतर्विरोधी नहीं, अब आइए कबीर के दो अंतर्विरोधी रूपों का जायजा लें।
कबीर को हम जब भी वस्तुनिष्ठता से और समग्रता से देखने का प्रयास करते हैं, हमें कबीर की बानियों के भीतर से दो कबीर दिखाई पड़ते हैं। कबीर को जिस तरह सृष्टा के-दो रूपों ने परेशान किया था-हिन्दू-मुसलमानों द्वारा अपने-अपने ढंग से रखे गए उनके नाम के नाते-और परेशान होकर झुंझलाते हुए कबीर को पूछना पड़ा था कि 'दुइ जगदीश कहाँ से आए?'-उसी तरह कबीर में ही कबीर के ये दो रूप हमें परेशान करते हैं। अंतर यह है कि वहाँ स्रष्टा के वे दोनों रूप एक और तत्त्वतः अभिन्न हैं, कबीर के ये दो रूप एक और अविरोधी नहीं हैं। उनका एक रूप दूसरे के विरोध में है-हमारी परेशानी का कारण यही है।
कबीर के इन दो रूपों में उनका एक रूप 'अस्वीकार' के कबीर के रूप हैं-जिसके तहत कबीर परंपरा से चले आ रहे तमाम कुछ को अस्वीकार करते हैं, विद्रोही के रूप में सामने आते हैं। कबीर के इसी रूप को लक्ष्य करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी किताब में लिखा था कि 'कबीर अपने समय में 'अस्वीकार' का बहुत बड़ा साहस लेकर सामने आए थे।'
कबीर का दूसरा रूप, इसके विपरीत 'स्वीकार' के कबीर का रूप है, जिसके तहत परंपरा से चले आते तमाम कुछ का जाने-अनजाने उनके द्वारा किया गया स्वीकार है-जो उनके व्यक्तित्व में संस्कारों के रूप में मौजूद है, उनकी सोच को, पहले रूप की सोच के बरकस क्षतिग्रस्त करता है, अंतर्विरोधों की सृष्टि करता है।
हमारे सामने सवाल है कि नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुरूप कबीर का कौन सा रूप है, जिसे लेकर इस सदी में हम आगे बढ़ें। दिलचस्प तथ्य है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और उनकी स्थापनाओं के प्रबल विरोधी, कबीर के दलित-दावेदार, डॉ० धर्मवीर, इस बिन्दु पर एक ही जमीन पर खड़े हैं। दोनों कबीर को-उनके दोनों रूपों के साथ-साथ चलना चाहते हैं-अपने-अपने तर्कों के आधार पर दोनों ही कबीर के अंतर्विरोध को नजरअंदाज करते हैं। दोनों ही आस्था और श्रद्धा की निगाह से ही कबीर को देखते हैं - आलोचनात्मक विवेक के तहत नहीं। कहना न होगा कि हमारी दृष्टि इन दोनों से भिन्न है।
हम जिस बात को कहना चाहते हैं, पूरे जोर और पूरे वजन के साथ, वह यह कि कबीर के इन दोनों रूपों में जहाँ-'अस्वीकार' के कबीर का रूप उन्हें अपने समय से बहुत आगे उन्हें समकालीन हमारे अपने समय में हमारा हमसफर, नई सदी के सरोकारों की दृष्टि से हमारा मार्गदर्शक बनाता है, उनका जाग्रत और तेजस्वी रूप है, वहाँ उनका दूसरा 'स्वीकार' वाला रूप उन्हें अपनी शक्ति और सीमाओं के साथ उन्हें मध्ययुग में उनके अपने समय तक सीमित रखता है, उससे आगे उन्हें नहीं ले जा पाता। उन्हें मध्य युग के सगुण भक्तों के साथ, कुछ भिन्नताओं के बावजूद विवेच्य बनाता है-उन्हें कोई खास पहचान नहीं देता। यही कारण है कि कबीर के निर्गुण-पंथ की अपनी कुछ खास विशिष्टताओं के बावजूद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनमें और सुगण भक्तों में कुछ ऐसे समान अंतः सूत्र खोज लिए हैं जो दोनों को एक करते हैं।
डॉ० धर्मवीर के यहाँ तो कबीर के 'अस्वीकार' और 'स्वीकार' का सवाल ही नहीं उठा। उन्हें कबीर में कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई पड़ा। कबीर में जो कुछ उन्हें अपने प्रतिकूल लगा, उसे उन्होंने ब्राह्मणवाद की साजिश या प्रक्षिप्त कहकर खारिज कर दिया और जो कुछ अनुकूल मिला उसे उन्होंने प्रामाणिक करार दिया। अध्ययन का यह वैज्ञानिक तरीका नहीं है। बेहतर होता कि कबीर की चर्चा करने के पहले, डॉ. धर्मवीर मेहनत करके कबीर का प्रामाणिक पाठ लाते और उसके आधार पर बात करते। ऐसा न करके-कबीर का जो कुछ है उसी को मनोनुकूल स्वीकार या अस्वीकार करते हुए वे आगे बढ़े हैं।
बहरहाल, हम अपनी बात पर आएँ।
क्या है, कबीर का 'अस्वीकार'-जिसके नाते वे आधुनिक और समकालीन हैं, नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुरूप हमारे मार्गदर्शक कबीर के इस अस्वीकार में है-धर्म और धर्मशास्त्रा आधारित निहायत अमानवीय और आदमी और आदमी में वर्ण और जात के स्तर पर भेद करने वाली, हमारी सामाजिक संरचना का विरोध धर्म के बाह्याचारों और उससे जुड़े अंध श्रद्धावाद की भर्त्सना, सामाजिक-धार्मिक पाखण्ड पर कबीर का व्रज प्रहार। ऊँच-नीच, छूत-अछूत, हिन्दू-मुसलमान के स्तर पर आदमीयत में फर्क करने वाली मानसिकता के खिलाफ बगावत। सारे धर्मों को हाशिए पर डालते हुए-एक-मानव धर्म की बात जहाँ आदमी की शिनाख्त का पैमाना उसकी आदमीयत हों। एक ही खाल से सबके रचे सिरिजे जाने की बात। बहुत कुछ है कबीर के इस अस्वीकार में जो हमारे समय में उन्हें जोड़ता है।
और क्या है, कबीर का 'स्वीकार' जो उन्हें मध्ययुग में सीमित किए हुए है-उससे आगे नहीं आने देता।
कबीर के इस स्वीकार में शामिल है-ब्रह्म, जीव, माया का प्रपंच, उनका रहस्य चिंतन, गगन-गुहा, इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना, सृष्ट दल, सहस्र दल कमल और नाना-चारों का उनका हठ योग, उनका अध्यात्म, उनकी उलटबाँसियाँ, पूवर्जन्म-पुनर्जन्म पर उनका विश्वास, भाग्य-नियति पर उनकी आस्था, जीवन की क्षणभंगुरता पर उनका विश्वास, उनकी भक्ति, आदि का अपनी भक्ति में निःसंदेह कबीर बहुत ऊँचे और बहुत मार्मिक है, परन्तु है वह परंपरा से चले आज का स्वीकार ही। इस 'स्वीकार' के बिन्दु पर कबीर मध्यकाल के सगुण भक्तों से तुलनीय बनते हैं-मध्ययुग के दायरे में विवेच्य बनते हैं। अपनी कोई खास पहचान नहीं बना पाते।
यह एक अस्वीकार है, उससे जुड़ी उनकी सामाजिक सोच हैं, जो उन्हें सगुण भक्तों से अलग, मध्ययुग में भी एक खास पहचान देती है और उन्हें आधुनिक और समकालीन भी बनाती है।
व्यवस्था और शासन सत्ता ने हमेशा कबीर की उपेक्षा की। समय के बदले माहौल में वही व्यवस्था और वही सत्ता अपने स्वार्थ के लिए कबीर का इस्तेमाल करना चाहती है उनकी जयैंतियां आयोजित हो रही हैं, कबीर मेले हो रहे है-ताकि अपनी राजनीतिक पकड़ को उस वर्ग में मजबूत किया जाये, जो कबीर का अपना वर्ग है।
परन्तु व्यवस्था कबीर के 'अस्वीकार' वाले पहलू से घबराती है। इस नाते उसे हाशिए पर डालकर उनके 'स्वीकार' वाले पहलू को गौरवान्वित कर रही हैं, जो उसके हितों के अनुरूप हैं। 'अस्वीकार' वाले पहलू को वह हाशिए पर तो डाले ही हुए है। उसे भी विरूद्ध और डाइल्यूट करने का प्रयास कर रही है। व्यवस्था चाहती है कि सारे कवि ब्रह्म, जीव, माया के प्रपंच में उलझे रहें और उसका रथ आगे बढ़ता रहे। कुमार गंधर्व कबीर के निर्गुण गा रहे हैं-अवकाश भोगी मध्यवर्ग खा पीकर उनके संगीत का आस्वाद कर रहा है। किसे फुरसत है यह जानने-सोचने की कि वो कुछ गाया जा रहा है। वह है क्या? गगन-मंडल में गाये-बगाएँ उससे समाज और दलितों का कोई हित नहीं होता, परन्तु यही निर्गुण गाए जा रहे है। डॉ० धर्मवीर तक की निगाह व्यवस्था के इस पहलू पर नहीं है, यही विडम्बना है।
सवाल यही है, हमारे सामने कि व्यवस्था की इस साजिश को कैसे बेनकाब करें। दायित्व यही है कि हमारा कि नई सदी के अनुरूप हम 'अस्वीकार' के कबीर के तेज को मद्धिम न होने दें। नई सदी के हमारे सफर में 'अस्वीकार' के ये कबीर ही हमारे मार्गदर्शक हैं। हम उन्हें लेकर आगे बढ़ें। 'स्वीकार' के कबीर को हम अकादमिक चर्चाओं के लिए, शोध के लिए, मध्ययुग के खाते में विवेच्य होने के लिए छोड़ दें। कबीर होते तो यही चाहते भी। कबीर ने भी अपने समय में बहुत कुछ छोड़ा था। उन्हीं के मार्गदर्शन में यदि हम कबीर का एक पहलू छोड़ते हैं, तो कबीर के किए घरे का ही अनुसरण करते हैं।
तमाम सारी चुनौतियों और सवालों से घिरे, टूटे और फिर से बन रहे सपनों तथा वर्तमान और भविष्य की ढेर सारी आशाओं-आशंकाओं के साथ आज हम २१ वीं सदी की दहलीज पर हैं। पिछली सदी और सदियों का बहुत कुछ हम छोड़ आए हैं, उस सदी और पहले की सदियों के खाते में। किन्तु पिछली सदी और पहले की सदियों का तमाम कुछ हमारे साथ नई सदी में आया भी है, लाया गया है। यह जो हमसे बहुत कुछ छूटा या छोड़ा गया है, अथवा हमारे साथ आया अथवा लाया गया है, वह हमारे जाने भी हुआ है और अनजाने भी। इस नई सदी में हमारे विचार का मुद्दा-महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह है कि हम इस आना-जाना की परख और पहचान करें। जो कुछ नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुकूल है उसे हम सहेजें, छूट गया हो तो उसे लाएँ तथा जो नई सदी के हमारे सरोकारों से मेल नहीं खाता, उससे सावधान रहें, नई सदी के दायरे में उसे आने से रोकें।
एक पूरी सदी की यात्रा हमारे सामने है। जरूरी हो जाता है कि हम अपने विवेक के तहत ग्रहण और त्याग से जुड़ी अपनी उक्त चिन्ताओं का हल खोजें।
संप्रति हम ग्रहण और त्याग के इस परिप्रेक्ष्य को मध्यकाल और खासतौर से कबीर के अध्ययन तक सीमित रखना चाहेंगे। वस्तुतः विरासत या परंपरा से हमें जो कुछ मिलता है, उसके ग्रहण या त्याग का निर्णय हम अपने उस विवेक के तहत ही करते हैं, जो हम अपने पूरे जीवन अर्जित करते हैं। तमाम सारी सजगता और परिपक्व विवेक-चेतना के बावजूद विरासत या परंपरा का बहुत कुछ अवांछित और अहेतुक भी, हमारे संस्कारों का हिस्सा बनकर या समय में आ जाता है। फलतः समूचे जीवन हमारी विवेक-चेतना तथा संस्कारों के बीच एक समर चलता रहता है। इस समर में कभी जीतते, कभी हारते, हम अपनी जीवन-यात्रा पूरी करते हैं।
जहाँ तक कबीर का सवाल है, कबीर का सच भी वस्तुतः यही है। कबीर को उनकी समग्रता में जानने समझने के लिए जरूरी है कि हम उन्हें ग्रहण और त्याग के उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में ही जानें-समझें। कबीर से संबंधित, इस नई सदी में हमारी चिन्ता इस बात को लेकर है कि कबीर का कितना कुछ इस नई सदी में हम अपने साथ लेकर चलें, और कितना कुछ, जो नई सदी के हमारे सरोकारों की संगति में नहीं हैं, उनके जाने-अनजाने उनके संस्कारों का हिस्सा बनाकर उनकी सोच में मौजूद है, उसे पुरानी सदी या उनकी अपनी सदी के खाते में ही रहने दें। कबीर को इस बिन्दु पर न केवल हमें समग्रता में पढ़ने की जरूरत है, उन्हें उनकी अंतर्विरोधी जटिलता में भी जानने-समझने की जरूरत है। कबीर की देवमूर्ति गढ़ने के बजाय, भावुकता या अंध-श्रद्धा से उन्हें देखने-समझने के बजाय, बेहतर होगा कि हम उन्हें अपने उस विवेक की कसौटी पर देखें-परखें-जो हमने अर्जित की है-नई सदी के हमारे सरोकार जिसके तहत ही तय और निश्चिय किए गए हैं।
कबीर में उनके कहे हुए में, जब हम अंतर्विरोधों की बात करते हैं, तो उस कहे हुए के साक्ष्य पर ही करते हैं। हम सब जानते हैं कि कबीर को जो विद्रोही, क्रांतिकारी, अक्खड़ आदि कहा जाता है, तो इस नाते कि कबीर ने अपने समय में परंपरा से चले आते हुए तमाम-कुछ को नकार दिया था, छोड़ दिया था। बावजूद इसके, परंपरा से आया हुआ तमाम कुछ जाने-अनजाने उनके संस्कारों का हिस्सा बनकर उनकी सोच में मौजूद भी था। इसी नाते कबीर अंतर्विरोध के शिकार हुए। इसीलिए हमने कबीर को समग्रता में उनके अंतर्विरोधों के साथ पढ़ने और समझने की बात की है। हम न तो उस ब्राह्मणवादी सवर्ण मानसिकता के साथ हैं, जो पूरे के पूरे कबीर को नकारती है और उस अंध आस्थावादी दलित-सोच के साथ, जो कबीर के अंतर्विरोधों को नजरअंदाज कर उन्हें उनके पूरेपन में ढोने की हिमायत करती हैं। कबीर स्वयं देवमूर्तियों के खिलाफ थे और हम भी इसी नाते कबीर की किसी देवमूर्ति गढ़ने के पक्ष में है। कबीर को समग्रता में, वस्तुनिष्ठता में और अंतर्विरोधों के साथ पढ़ने और उनके बीच में उनके तेजस्वी अंश को स्वीकार करने में ही हमारी रुचि है।
आइए, पहले कबीर को उनके व्यक्तित्व के पूरेपन में पहचानने का प्रयास करें। कबीर को विद्रोही, क्रांतिकारी, अक्खड़, आक्रामक, न जाने क्या-क्या कहा गया है, जिसके साक्ष्य उनकी बानियों में हैं किन्तु यह कबीर के व्यक्तित्व का एक पहलू है। कबीर के व्यक्तित्व का दूसरा पहल वह है, जिसके तहत वे एक नितांत, सौम्य, कातर, आर्त्त, विनीत, मृदु और तरल रूप में हमारे सामने आते हैं-खासतौर से अपनी भक्ति के स्तर पर जहाँ वे कभी राम के 'कूता' हैं, कभी अपने हरि के बालक, या फिर जब वे यह कहते है कि सुखिया सब संसार है, खावे और सोवे, दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवै। कबीर के इन दोनों व्यक्तित्वों में अंतर्विरोध नहीं है। वे एक दूसरे के पूरक हैं। कबीर अपने जिन बेधक व्यंग्यों के लिए ख्यात हैं-वे व्यंग्य हों या व्यंग्य का कोई अन्य रूप-व्यंग्य का बीज भाव हमेशा हमारी मानवीय करुणा ही होता है। कबीर रात-रात भर जागकर-जो रोते हैं, उसका कारण यही है कि रात-रात भर जागकर वे जो कुछ देख रहे थे, उसे देखकर वे रो ही सकते थे। खा-पीकर सुख से सोने वाले सपने देखते हैं जागने वाला यथार्थ देखता है। कबीर का देखा भोगा यथार्थ उन्हें रूला ही सकता था। यही कबीर इस रूदन के नाते ही संतृप्त मनुष्यता के यथार्थ जीवन को देखकर उपजे इस रूदन के नाते-जब सुख से सोने वालों पर वज्र बरसाता है, अपने व्यंग्यों से उन्हें छलनी करता है, तब उसका आक्रामक-विद्रोही रूप सामने आता है। वाल्मीकि पहले क्रौंच-मिथुन में से एक की हत्या पर पसीजे थे, अनंतर उनकी करुणा ही बहेलिए पर शाप बनकर फूटी थी। हमारी गुजारिश है कि कबीर को पूरेपन में समझने के लिए उनके व्यक्तित्व के इन दोनों रूपों को समझा जाये। ये दो रूप एक-दूसरे के पूरक हैं, अंतर्विरोधी नहीं, अब आइए कबीर के दो अंतर्विरोधी रूपों का जायजा लें।
कबीर को हम जब भी वस्तुनिष्ठता से और समग्रता से देखने का प्रयास करते हैं, हमें कबीर की बानियों के भीतर से दो कबीर दिखाई पड़ते हैं। कबीर को जिस तरह सृष्टा के-दो रूपों ने परेशान किया था-हिन्दू-मुसलमानों द्वारा अपने-अपने ढंग से रखे गए उनके नाम के नाते-और परेशान होकर झुंझलाते हुए कबीर को पूछना पड़ा था कि 'दुइ जगदीश कहाँ से आए?'-उसी तरह कबीर में ही कबीर के ये दो रूप हमें परेशान करते हैं। अंतर यह है कि वहाँ स्रष्टा के वे दोनों रूप एक और तत्त्वतः अभिन्न हैं, कबीर के ये दो रूप एक और अविरोधी नहीं हैं। उनका एक रूप दूसरे के विरोध में है-हमारी परेशानी का कारण यही है।
कबीर के इन दो रूपों में उनका एक रूप 'अस्वीकार' के कबीर के रूप हैं-जिसके तहत कबीर परंपरा से चले आ रहे तमाम कुछ को अस्वीकार करते हैं, विद्रोही के रूप में सामने आते हैं। कबीर के इसी रूप को लक्ष्य करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी किताब में लिखा था कि 'कबीर अपने समय में 'अस्वीकार' का बहुत बड़ा साहस लेकर सामने आए थे।'
कबीर का दूसरा रूप, इसके विपरीत 'स्वीकार' के कबीर का रूप है, जिसके तहत परंपरा से चले आते तमाम कुछ का जाने-अनजाने उनके द्वारा किया गया स्वीकार है-जो उनके व्यक्तित्व में संस्कारों के रूप में मौजूद है, उनकी सोच को, पहले रूप की सोच के बरकस क्षतिग्रस्त करता है, अंतर्विरोधों की सृष्टि करता है।
हमारे सामने सवाल है कि नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुरूप कबीर का कौन सा रूप है, जिसे लेकर इस सदी में हम आगे बढ़ें। दिलचस्प तथ्य है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और उनकी स्थापनाओं के प्रबल विरोधी, कबीर के दलित-दावेदार, डॉ० धर्मवीर, इस बिन्दु पर एक ही जमीन पर खड़े हैं। दोनों कबीर को-उनके दोनों रूपों के साथ-साथ चलना चाहते हैं-अपने-अपने तर्कों के आधार पर दोनों ही कबीर के अंतर्विरोध को नजरअंदाज करते हैं। दोनों ही आस्था और श्रद्धा की निगाह से ही कबीर को देखते हैं - आलोचनात्मक विवेक के तहत नहीं। कहना न होगा कि हमारी दृष्टि इन दोनों से भिन्न है।
हम जिस बात को कहना चाहते हैं, पूरे जोर और पूरे वजन के साथ, वह यह कि कबीर के इन दोनों रूपों में जहाँ-'अस्वीकार' के कबीर का रूप उन्हें अपने समय से बहुत आगे उन्हें समकालीन हमारे अपने समय में हमारा हमसफर, नई सदी के सरोकारों की दृष्टि से हमारा मार्गदर्शक बनाता है, उनका जाग्रत और तेजस्वी रूप है, वहाँ उनका दूसरा 'स्वीकार' वाला रूप उन्हें अपनी शक्ति और सीमाओं के साथ उन्हें मध्ययुग में उनके अपने समय तक सीमित रखता है, उससे आगे उन्हें नहीं ले जा पाता। उन्हें मध्य युग के सगुण भक्तों के साथ, कुछ भिन्नताओं के बावजूद विवेच्य बनाता है-उन्हें कोई खास पहचान नहीं देता। यही कारण है कि कबीर के निर्गुण-पंथ की अपनी कुछ खास विशिष्टताओं के बावजूद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनमें और सुगण भक्तों में कुछ ऐसे समान अंतः सूत्र खोज लिए हैं जो दोनों को एक करते हैं।
डॉ० धर्मवीर के यहाँ तो कबीर के 'अस्वीकार' और 'स्वीकार' का सवाल ही नहीं उठा। उन्हें कबीर में कोई अंतर्विरोध नहीं दिखाई पड़ा। कबीर में जो कुछ उन्हें अपने प्रतिकूल लगा, उसे उन्होंने ब्राह्मणवाद की साजिश या प्रक्षिप्त कहकर खारिज कर दिया और जो कुछ अनुकूल मिला उसे उन्होंने प्रामाणिक करार दिया। अध्ययन का यह वैज्ञानिक तरीका नहीं है। बेहतर होता कि कबीर की चर्चा करने के पहले, डॉ. धर्मवीर मेहनत करके कबीर का प्रामाणिक पाठ लाते और उसके आधार पर बात करते। ऐसा न करके-कबीर का जो कुछ है उसी को मनोनुकूल स्वीकार या अस्वीकार करते हुए वे आगे बढ़े हैं।
बहरहाल, हम अपनी बात पर आएँ।
क्या है, कबीर का 'अस्वीकार'-जिसके नाते वे आधुनिक और समकालीन हैं, नई सदी के हमारे सरोकारों के अनुरूप हमारे मार्गदर्शक कबीर के इस अस्वीकार में है-धर्म और धर्मशास्त्रा आधारित निहायत अमानवीय और आदमी और आदमी में वर्ण और जात के स्तर पर भेद करने वाली, हमारी सामाजिक संरचना का विरोध धर्म के बाह्याचारों और उससे जुड़े अंध श्रद्धावाद की भर्त्सना, सामाजिक-धार्मिक पाखण्ड पर कबीर का व्रज प्रहार। ऊँच-नीच, छूत-अछूत, हिन्दू-मुसलमान के स्तर पर आदमीयत में फर्क करने वाली मानसिकता के खिलाफ बगावत। सारे धर्मों को हाशिए पर डालते हुए-एक-मानव धर्म की बात जहाँ आदमी की शिनाख्त का पैमाना उसकी आदमीयत हों। एक ही खाल से सबके रचे सिरिजे जाने की बात। बहुत कुछ है कबीर के इस अस्वीकार में जो हमारे समय में उन्हें जोड़ता है।
और क्या है, कबीर का 'स्वीकार' जो उन्हें मध्ययुग में सीमित किए हुए है-उससे आगे नहीं आने देता।
कबीर के इस स्वीकार में शामिल है-ब्रह्म, जीव, माया का प्रपंच, उनका रहस्य चिंतन, गगन-गुहा, इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना, सृष्ट दल, सहस्र दल कमल और नाना-चारों का उनका हठ योग, उनका अध्यात्म, उनकी उलटबाँसियाँ, पूवर्जन्म-पुनर्जन्म पर उनका विश्वास, भाग्य-नियति पर उनकी आस्था, जीवन की क्षणभंगुरता पर उनका विश्वास, उनकी भक्ति, आदि का अपनी भक्ति में निःसंदेह कबीर बहुत ऊँचे और बहुत मार्मिक है, परन्तु है वह परंपरा से चले आज का स्वीकार ही। इस 'स्वीकार' के बिन्दु पर कबीर मध्यकाल के सगुण भक्तों से तुलनीय बनते हैं-मध्ययुग के दायरे में विवेच्य बनते हैं। अपनी कोई खास पहचान नहीं बना पाते।
यह एक अस्वीकार है, उससे जुड़ी उनकी सामाजिक सोच हैं, जो उन्हें सगुण भक्तों से अलग, मध्ययुग में भी एक खास पहचान देती है और उन्हें आधुनिक और समकालीन भी बनाती है।
व्यवस्था और शासन सत्ता ने हमेशा कबीर की उपेक्षा की। समय के बदले माहौल में वही व्यवस्था और वही सत्ता अपने स्वार्थ के लिए कबीर का इस्तेमाल करना चाहती है उनकी जयैंतियां आयोजित हो रही हैं, कबीर मेले हो रहे है-ताकि अपनी राजनीतिक पकड़ को उस वर्ग में मजबूत किया जाये, जो कबीर का अपना वर्ग है।
परन्तु व्यवस्था कबीर के 'अस्वीकार' वाले पहलू से घबराती है। इस नाते उसे हाशिए पर डालकर उनके 'स्वीकार' वाले पहलू को गौरवान्वित कर रही हैं, जो उसके हितों के अनुरूप हैं। 'अस्वीकार' वाले पहलू को वह हाशिए पर तो डाले ही हुए है। उसे भी विरूद्ध और डाइल्यूट करने का प्रयास कर रही है। व्यवस्था चाहती है कि सारे कवि ब्रह्म, जीव, माया के प्रपंच में उलझे रहें और उसका रथ आगे बढ़ता रहे। कुमार गंधर्व कबीर के निर्गुण गा रहे हैं-अवकाश भोगी मध्यवर्ग खा पीकर उनके संगीत का आस्वाद कर रहा है। किसे फुरसत है यह जानने-सोचने की कि वो कुछ गाया जा रहा है। वह है क्या? गगन-मंडल में गाये-बगाएँ उससे समाज और दलितों का कोई हित नहीं होता, परन्तु यही निर्गुण गाए जा रहे है। डॉ० धर्मवीर तक की निगाह व्यवस्था के इस पहलू पर नहीं है, यही विडम्बना है।
सवाल यही है, हमारे सामने कि व्यवस्था की इस साजिश को कैसे बेनकाब करें। दायित्व यही है कि हमारा कि नई सदी के अनुरूप हम 'अस्वीकार' के कबीर के तेज को मद्धिम न होने दें। नई सदी के हमारे सफर में 'अस्वीकार' के ये कबीर ही हमारे मार्गदर्शक हैं। हम उन्हें लेकर आगे बढ़ें। 'स्वीकार' के कबीर को हम अकादमिक चर्चाओं के लिए, शोध के लिए, मध्ययुग के खाते में विवेच्य होने के लिए छोड़ दें। कबीर होते तो यही चाहते भी। कबीर ने भी अपने समय में बहुत कुछ छोड़ा था। उन्हीं के मार्गदर्शन में यदि हम कबीर का एक पहलू छोड़ते हैं, तो कबीर के किए घरे का ही अनुसरण करते हैं।
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