शुक्रवार, 21 सितंबर 2012


मजदूर वर्ग और साम्राज्यवादी युद्धों पर कुछ विचार – 2

[10 फरवरी, 2012 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में आयोजित नवीन बाबू स्मृति व्याख्यान में यॉन मिर्दल द्वारा दिये गये भाषण का दूसरा भाग। 
karl-marxमार्क्स ने कभी भविष्य के लिए कोई नुस्खे नहीं सुझाये। इससे ज्यादा , जैसा कि एंगेल्स ने बताया है, अहम् यह है कि मार्क्स के लेखन में परिभाषाएं नहीं हैं। उन्होंने विकास-क्रम ही दर्शाया। यदि हम इतिहास के किसी दौर की बात करें, मिसाल के तौर पर 1848 के योरोप की या 1944 के भारत की, तो हम जो कुछ घटा था उसका वर्णन कर सकते हैं और (थोड़ी मेहनत से) कारण बता सकते हैं। इसके बाद हम उन कारणों की ओर संकेत कर सकते हैं। लेकिन उस वक्त घटनाओं का जो सिलसिला देखा गया वह कोई निर्धारित, अटल या धार्मिक शब्दावली का प्रयोग करें, तो नियती नहीं था। उस वक्त के दायरे में जितनी संभावनाएं मौजूद थीं उनसे तमाम सारे रास्तों से घटनाएं विकसित हो सकती थीं। इसी को दूसरे शब्दों में यूं कह सकते हैं कि ऐसा नहीं है कि स्वर्ग लोक में ऐसा कोई महान ग्रंथ नहीं है जिसमें वह सब कुछ लिखा हुआ मिले जो आगे होने वाला है। मनुष्य खुद ही खुद को बनाता है और लगातार अपने इतिहास को रचता जाता है। (और मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओ को ‘इलहाम’ नहीं हुआ था; उन्होंने जो कुछ लिखा वह अपने दौर की संभावनाओं को लेकर था और उसी के अनुरूप उन्होंने कार्य भी किए।)
इतिहास यानि कि जो कुछ घटा है उसका भी लगातार पुनरांकलन होता रहता है। यह कहानी अविश्वसनीय लग सकती है कि जब चाओ एन-लाई को फ्रांसीसी क्रांति के बारे में बोलने को कहा गया, तो उनका जवाब था कि अभी इसका समय नहीं आया है। मुझे इस बारे में उनसे पूछना चाहिए था, पर कभी पूछा नहीं। जो भी हो वह थे सही।
इसी प्रकार, इतिहास का कोई अंत नहीं है। (यह दीगर बात है कि इंसानियत का अंत हो सकता है, जिस तरह कि मेरे जीवन का अंत निश्चित है।) यह कहा जा सकता है कि समाजवाद से हमारे समाज के प्राक्-इतिहास का अंत और सचेत इतिहास की शुरुआत होगी। लेकिन इससे कोई बहुत बड़ा सौहार्द कायम नहीं हो पाएगा। इस तरह का कोई सतत स्थायित्व या सौहार्द की अंतहीन अवस्था नहीं हो सकती। वर्गों के बीच टकराहट वर्गों के खत्म होने के साथ ही होगी। लेकिन जैसा कि माओ का कहना था, टकराव जारी रहेंगे। यहां तक कि दस हजार वर्ष तक भी।
ये बातें विषय से भटकाव नहीं हैं। जवाबों के करीब पहुंचने का यह एक तरीका है। क्योंकि सवाल है इस वर्तमान ऐतिहासिक दौर में मजदूर वर्ग और उसके सहयोगियों के अनुभव क्या रहे हैं? और हम किन युद्धों की बात कर रहे हैं?
1914 में जब साम्राज्यवादी युद्ध हकीकत में छिड़ गया, तो आधिकारिक तौर पर, शक्तिशाली ‘दूसरे इंटरनेशनल’ (जिसने कि बेसल में 1912 की अपनी असाधारण कांग्रेस में आसन्न युद्ध का सटीक अनुमान लगा लिया था) ताश के पत्तों की तरह ढह गया। दशकों तक क्रांतिकारी लफ्फाजी के बावजूद नेतृत्वकारी काडर के हर व्यक्ति को शासक वर्ग ने अपने साथ कर लिया (कोआप्ट) और पूंजीपति वर्ग के हाथ की कठपुतली बनी लोकप्रिय संस्कृति ने आम लोगों को असंपृक्तता की नींद सुला दी गई। और इसका खामियाजा उन्हें सामूहिक मौत के रूप में मिला।
व्यवहार में जो कुछ हिटलरी जर्मनी में घटा और बाद में, उत्तरी अफ्रीका में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के अन-औपनिवेशिकरण के दौरान जो कुछ फ्रांस की बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी में हुआ, उससे एम.एन. राय और ”इंग्लैंड की समाजवादी पार्टी के कामरेड क्वेल्च “ का पक्ष पुष्ट हुआ।
league-of-nationsअब सार की बात देख लीजिए! 1920 से ‘लीग ऑफ नेशंस’ के प्राधिकार में रह चुके सार की जनता ने 13 जनवरी, 1935 को मतदान किया। चुनाव अंतरराष्ट्रीय निगरानी में संपन्न हुए। जनता ने जर्मनी के साथ पुन: एकीकृत हो जाने और ‘लीग आफ नेशंस’ के प्राधिकार के तहत स्वतंत्र रहने के बीच चुनाव करना था।
30 जनवरी, 1933 को हिटलर के राइशस्कांजलर के रूप में माशट्यूबरनेम्ह के समय से (यानि जब से हिटलर को जर्मन साम्राज्य के चांसलर के रूप में सत्ता-हस्तांतरण हुआ – अनु.) तब से उस नए जर्मनी अर्थात् तीसरे राइश में बढ़ते आतंक के चलते मजदूर संघों के कार्यकर्ता, समाजवादी, कम्युनिस्ट, बुद्धिजीवी और यहूदी लोग भागकर सीमा पार सार में बस आए थे।
सार में मजदूर वर्ग की पार्टियां कमजोर नहीं थीं। मतदाता हर सूचना से वाकिफ थे। जर्मनी में उठ रही नाजी आतंक की लहर की जानकारी आम थी। बंदी शिविरों में, जून, 1934 की ”तलवारों की रात” के दौरान हत्याओं, यहूदियों के विरुद्ध नस्ल-आधारित नरसंहारों, आदि सभी घटनाओं के समाचार सर्वविदित थे। फिर भी 13 जनवरी, 1935 को अंतरराष्ट्रीय निगरानी के तहत हुए स्वतंत्र चुनावों में 90.3 प्रतिशत सार वासियों ने हिटलर के पक्ष में वोट डाले।
इसका कारण किसी किस्म का कोई ट्यूटोनी राष्ट्रवाद नहीं था। कारण विशुद्ध रूप से आर्थिक था। नोट छाप-छाप कर और आगामी युद्ध के लिए तेजी के शस्त्रों का जखीरा जमा कर हिटलर की सरकार ने जर्मनी में बेरोजगारी जो 1933 में 26.3 थी घटाकर 1934 में 14.9 प्रतिशत तक पहुंचा दी थी। (जैसे-जैसे युद्ध की तैयारियां आगे बढ़ीं, बेरोजगारों की संख्या घटती चली गई—1935 में 11.6 प्रतिशत, 1936 में 8.3 प्रतिशत, 1937 में 4.6 प्रतिशत, 1938 में 2.1 प्रतिशत पहुंच गई।) मजदूर वर्ग और उसके सहयोगियों ने, उन में से कई सारे लोगों के पूर्व कम्युनिस्ट और समाजवादी होने के कारण थोड़ा शंकालु होने के बावजूद उसका इसलिए समर्थन किया क्यों कि जर्मनी में सबको रोजगार और समाजिक सुरक्षा हकीकत बनती नजर आने लगी थी और सामाजिक सुरक्षा और श्रमिकों के हित में कानून बनाए गए जो स्कैंडिनेविया के समाजिक जनवादी मुल्कों की तरह थे।
‘लोकतांत्रिक’ साम्राज्यवादी मुल्कों में मजदूर वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानने लगा था कि उपनिवेशवाद उन्हें भौतिक समृद्धि प्रदान कर रहा है। लेकिन आगे जो हुआ वह और भी बुरा था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन अधिकारियों ने ऐसे प्रबंध किए कि सामान्य सैनिक भी लूटपाट कर अपनी जेबें भर सके। हरमन ग्वेरिंग ने इस ओर विशेष ध्यान दिया था। किसी अधिकृत देश में तैनात सिपाही भी वहां की जनता से जो कुछ भी ऐंठ ले उसे साधरण डाक से ही सीधे अपने घर भेज सकता था। इसके साथ ही, जर्मन राज्य ने अधिकृत मुल्कों का शोषण तो किया ही, पर इस कमाई का एक छोटा हिस्सा सीधे अपनी जनता में बांटा भी।
ध्यान दीजिए कि नाजियों का प्रतिरोध करने वाले कम्युनिस्टों और समाजवादियों पर (उदारपंथियों और इसाईयों पर भी) और किसी भी तरह की सामाजिक मान्यता या हैसियत वाले यहूदियों पर आतंक का कहर पूरी क्रूरता के साथ हुआ। लेकिन चुप्पी साधकर सीधे-सीधे जीते चले जाने वालों के लिए तीसरे राइश के अधीन जीवन पहले से बेहतर हो गया था। बच्चों और माता-पिता को ठीक-ठाक और शानदार छुट्टियां मिलने की संभावना बनती थी। निस्संदेह उस वक्त राजनीतिक वजहों से हमने इस बारे में कुछ नहीं लिखा। (युद्ध के दौरान तो हमने ये कहानी भी चलने दी कि आस्ट्रिया, जो कि खौफनाक नाजियों का गढ़ बन चुका था, ऐसा ”मुल्क है जिसपर कब्जा है” )।
लेकिन मुझे स्वयं यह याद आता है कि कैसे सार के चुनाव नतीजे से मेरे अपने माता-पिता और अन्य सामाजिक-जनवादियों लोगों के लिए किसी धक्के से कम नहीं थे। इसी चुनाव के कारण ‘कामिन्टर्न’ और सोवियत विदेश नीति, दोनों ही में बदलाव करना पड़ा था। जर्मनी में पराजय के लिए जिम्मेदार पहले से संकीर्ण नीति को बदलने के लिए ‘कामिन्टर्न’ में संघर्ष हुआ। प्राग में गेगानानग्राफिक जैसी पत्रिकाएं, जो अभी तक इस तरह का लेखन करती आई थीं मानो जर्मनी में इन्कलाब की घड़ी करीब आ गई हो और अर्ध-सैनिक बल ‘एस.ए.’ व नाजी पार्टी ‘स्टूरमाबटाईलुंग’ भी हिटलर की विरोधी हो जाने वाली हो, अब हकीकत से ज्यादा मेल खाने वाले लेख छापने लगी थीं।
नाजी जर्मनी से खतरा उत्पन्न होने पर सोवियत विदेश नीति की दिशा बदल गई थी। पियेर लावाल को मास्को आमंत्रित किया गया और 2 मई, 1935 को फ्रांस और सोवियत संघ के बीच परस्पर सहयोग की संधि हुई। जैसा कि फ्रांसीसी प्रेस में छपा कि उन्होंने फ्रांसीसी पार्टी की विशुद्ध सैन्य-विरोधी रणनीति का विरोध किया, ”श्रीमान् स्तालिन राष्ट्रीय सुरक्षा की फ्रांसीसी नीति को समझ रहे हैं और वे उसका पूरा-पूरा अनुमोदन करते हैं। “
हम जानते हैं कि ”आक्रमणकारी राज्यों जर्मनी, इटली, जापान” के खिलाफ व्यापक फासीवादी मोर्चा गठित करने के प्रयास सफल नहीं हो पाए थे। यह बात का प्रमाण नहीं है कि ब्रिटेन और फ्रांस की सरकारों में इसके लिए इच्छाशक्ति नहीं थी, बल्कि इसके विपरीत उनकी मुख्य दिलचस्पी उनके इन दुश्मनों को तुष्ट करने में थी, जिससे कि हिटलर को और खुद उनको भी सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध में खुलकर उतरने का अवसर मिल सके। लेकिन फासीवाद के विरुद्ध व्यापक मोर्चे की विफलता के पीछे वास्तविक कारण इन्हीं साम्राज्यवादी राज्यों में मजदूर वर्ग को साझे मोर्चे में लामबंद न कर पाना थी।
इस तरह के अदूरदर्शी राजनीतिक नजरिये का हमारे सामने एक उदाहरण यह है कि भारतीय स्वतंत्रता के प्रति इंग्लैंड के मजदूर वर्ग का समर्थन नहीं के बराबर रहा; इंग्लैंड में आम जनता में व्याप्त भावनाएं वैसी ही रहीं जैसी एक पीढ़ी बाद के अल्जीरिया की स्वतंत्रता के प्रति फ्रांस में थी।
‘लोकतांत्रिक’ साम्राज्यवादी मुल्कों में मजदूर वर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा यह मानने लगा था कि उपनिवेशवाद उन्हें भौतिक समृद्धि प्रदान कर रहा है। लेकिन आगे जो हुआ वह और भी बुरा था। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जर्मन अधिकारियों ने ऐसे प्रबंध किए कि सामान्य सैनिक भी लूटपाट कर अपनी जेबें भर सके। हरमन ग्वेरिंग ने इस ओर विशेष ध्यान दिया था। किसी अधिकृत देश में तैनात सिपाही भी वहां की जनता से जो कुछ भी ऐंठ ले उसे साधरण डाक से ही सीधे अपने घर भेज सकता था। इसके साथ ही, जर्मन राज्य ने अधिकृत मुल्कों का शोषण तो किया ही, पर इस कमाई का एक छोटा हिस्सा सीधे अपनी जनता में बांटा भी। जर्मनी के इर्द-गिर्द अधिकृत किए जाने वाले मुल्क जहां गरीबी और भुखमरी की चपेट में फंसते चले जा रहे थे, वहीं जर्मनी की जनता योरोपीय महाद्वीप के किसी भी दूसरे हिस्से की जनता से ज्यादा बेहतर जीवन जी रही थी। लूटपाट को संस्थागत रूप दिया गया था, जिससे कि जर्मन लोगों का जीवन-स्तर ‘शासक नस्ल’ के ऊंचे स्तर पर रहे। (जब मुर्गी पर बौछारें पड़ती हैं तो चूजों पर टपकती हैं)।
मेरा तो यह पक्का मानना है कि अगर जर्मनी में 1945 के शुरुआती दिनों में ही स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हो जाते, तो हिटलर को स्पष्ट बहुमत जरूर मिल जाता। उस वक्त उसका प्रचार का तरीका जबर्दस्त था। ‘अमोघ हथियारों’ पर चरम विश्वास था। सेना में भर्ती हुए प्राय: हर जवान को पूरब के (नस्ली) ‘सफाई अभियानों’ के जरिये हाथ साफ कर लेने और नाजियों के युद्ध अपराधों में अपने हाथ खून से रंग लेने के निर्देश दिए गए थे। नतीजतन उसे डर था कि यदि हिटलर हार गया, तो उसे बदले की कार्रवाइयों का समाना करना पड़ेगा। मित्र देशों द्वारा की गई हवाई बमबारी के दौरान नागरिक बड़ी तादाद में मार दिए गए थे। (जबकि जर्मन युद्ध-प्रयत्नों को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचा था)। हवाई बमबारी का शिकार होने वालों के लिए नाजी पार्टी द्वारा चलाई जा रही सहायता सेवा बेहतरीन काम कर रही थी। (इस विषय में अधिक जानकारी विक्टर-क्लेम्पेरेर की डायरियों में देखी जा सकती है)।
नाजी शासन ने जनसंहार किए। अपराधों की भयावहता जरा भी काल्पनिक नहीं थी। पर साथ ही साथ जो वैचारिक पाठ पढ़ाए जाते थे, उनका भी बड़ा असर था। इसके अलावा सेना में कार्यरत आम जर्मन लोगों के भयावह कार्रवाइयों में साझीदार बन जाने के साथ ही जनता का आम जीवन-स्तर भी अधिकृत मुल्कों का दोहन किए जाने के कारण अपेक्षाकृत ऊंचा उठा हुआ था। इस पूरे दौर में बुद्धिजीवी और नौकरशाह किस्म के अभिजन, जो कि कई बार नाजियों की भौंडी हरकतों से नफरत करते थे, आम जनता से ऊंचे स्तर के जीवन का आनंद ले रहे थे। इसी नाते बाद में जब नाजी शासन का पतन हो गया और फिर से जर्मन राज्य मध्य योरोप की प्रभुत्वशाली ताकत बन उभरा, तो उन्हीं के दिशा-निर्देशों की बदौलत योरोपीय संघ की वर्तमान संरचना तैयार हुई। उच्च-वर्गीय जर्मन अभिजनों की युद्ध में हार हुई ही नहीं।
यही थी वह परिस्थिति जिसमें बाद में सोवियत अधिकृत क्षेत्र में, जो कि बाद में जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य बना, कम्युनिस्टों और अन्य नाजी-विरोधियों का राजनीतिक कार्य बहुत मुश्किल हो गया। पचास के दशक की शुरुआत में युद्ध के दौरान पहले ही मिले चुके कुछ बहुत ही स्पष्टवक्ता कामरेडों के साथ इस पर चर्चा की थी। पश्चिम जर्मनी की स्थिति निश्चय ही भिन्न थी। वहां आदेनॉएर के दौर में सत्ता पुराने नाजीपंथियों के हाथ में थी। तब वहां कम्युनिस्टों और मुझ जैसे लोगों को मात्र भिन्न तरीके से सोचने और लिखने पर जेल हो सकती थी। जब मैं पश्चिम जर्मनी में ट्रेन से सफर कर रहा होता, तो ध्यान रखता कि डिब्बे में जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य से लाये गए जर्मन भाषा के अखबार और अन्य सामग्री किसी की निगाह में न पड़े।
आज आर्थिक संकट बढ़ता जा रहा है। युद्ध के बाद के वर्षों में सुधारवादियों ने जनता को जिस कारपोरेट समझौते के मार्फत सुरक्षा प्रदान किए जाने के प्रति आश्वस्त कर रखा था, वह अब तितर-बितर हो चुका है। अमेरिका तक में इसके खिलाफ व्यापक प्रदर्शन हो रहे हैं। यूनान और स्पेन जैसे मुल्कों में, जो कि इस संकट की बड़ी बुरी मार झेलने के साथ ही योरोपीय संघ के नए हमलों का शिकार भी हैं, हिंसक विरोध हो रहा है। वहां बेरोजगारी की दर जर्मनी में 1932 के वाइमार गणराज्य के स्तर तक पहुंच रही है। लोग हताश हैं। वे संघर्ष कर रहे हैं। मगर संगठित नहीं हैं। योरोप में अगर कोई एक राजनीतिक शक्ति आज कमान संभालने को तैयार है और इसकी सामथ्र्य रखती दिखाई दे रही है, तो वह 1930 के शुरुआती वर्षों की ही तरह चरम दक्षिणपंथी हैं, जो अच्छी तरह संगठित भी हैं। ल पेन की बेटी आज ‘फ्रंट नाश्योनाल’ पार्टी में उन प्रश्नों को उठाती है जो जनसाधारण के करीब हैं, जबकि फ्रांस का वामपंथ अब वर्ग की भाषा बोल भी नहीं पाता है और इस भ्रष्ट राज्य एवं उसकी पतनशील अर्थव्यवस्था को ध्वस्त करने की जरूरत को व्यक्त करने के लिए मुंह खोलने का साहस भी नहीं कर पाता है।
जिस परिस्थिति का मैं यहां बयान कर रहा हूं वह कोई नई नहीं है। उत्तर अमेरिका के मूल निवासी इंडियनों के नरसंहार को आधुनिक कानूनी दायरा प्रदान करने के लिए 28 मई, 1830 को राष्ट्रपति ऐंड्रू जैक्सन ने ‘इंडियन रिमूवल एक्ट’ (इंडियनों को हटाने के कानून) पर दस्तखत किए थे। इस कानून को भारी समर्थन मिला था, इसलिए कि इससे जमीनें हासिल करने का रास्ता साफ हो गया था।
बाद के दशकों में इन्हीं जमीनों को लेकर बड़ी तीखी लड़ाइयां भी लड़ी गईं और ये बढ़ती भी गईं—योरोप से आ बसने वाले प्रवासियों और गुलाम-व्यवस्था चलित उन राज्यों के बीच जिनको कपास की खेती के लिए इसलिए जमीन की जरूरत थी कि पहले की जमीनें अधिक दोहन के कारण ऊसर हो चली थीं। (मसलन जॉर्जिया की जमीनों पर कपास की खेती के बजाय गुलाम पैदा करने के लिए स्टड फार्म बनाए जा रहे थे)। यह मामला गृह-युद्ध के दौरान 1862 के ‘होमस्टीड एक्ट’ के जरिये तय कर लिया गया था, जिस पर अब्राहम लिंकन ने 20 मई, 1862 को अपने दस्तखत किए थे। इससे 21 साल का कोई आदमी, श्वेत हो या आजाद हो चुका गुलाम, जिसने संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध कभी हथियार न उठाएं हों, संघीय भूमि अनुदान का दावा करने का अधिकारी हो जाता था।
wounded_knee-bury_the_newsइस कानून को प्रगतिशील समझा गया। इससे योरोप की निरंकुशशाही से पलायन करने वालों को प्रवास में नया जीवन शुरू करने का अवसर मिला। इसी कानून से स्वतंत्र किसानों का वह वर्ग पैदा हुआ जो गृह-युद्ध में उत्तर की विजय के फलस्वरूप उभरने वाले गणराज्य का स्तंभ बना। लेकिन साथ ही साथ यह कानून जमीन कब्जाने वाली उस जनसंहारक नीति का एक दौरभी था जिसका अंत 29 दिसंबर, 1860 को ‘वूण्डेड नी’ नामक स्थान पर सामूहिक हत्याकांड के साथ हुआ। इसी घटना से उन तथाकथित इंडियन मूल निवासियों ने, जिनकी की जमीनें कब्जाई जा चुकी थीं, अपना स्वतंत्र प्रतिरोध छोड़ देने का फैसला किया।
हमारे लिए यह बात प्रासंगिक है। उन्नीसवीं सदी के बाद के हिस्से और बीसवीं के पहले हिस्से के दौरान अमेरिका में बड़े महत्त्वपूर्ण वर्ग-संघर्ष छिड़े थे। ‘प्रथम इंटरनेशनल’ वहां एक सशक्त राजनीतिक ताकत रहा। उन्नीसवीं सदी में साठ के दशक से लेकर हाल-फिलहाल तक बार-बार व्यापक आधार वाली ट्रेड यूनियनें और मजदूर वर्ग के संगठन पूंजीवादी समाज के प्रभुत्व को चुनौती देते हुए खड़ेे होते रहे। बार-बार इन्हें ध्वस्त भी किया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका के मजदूर आंदोलन का अपना बहादुराना इतिहास रहा है जिसका अध्ययन किया जाना चाहिए।
लेकिन हमें यह समझ लेना होगा कि इन आंदोलनों को संभव एक नरसंहार ने बनाया था। योरोप में पराजय के बाद आ बसे क्रांतिकारी शरणार्थियों ने अपने बिरादर मजदूरों को समाजवाद के लिए एक ऐसे बुर्जुआ लोकतंत्र में संगठित किया, जो मूल निवासियों की बेदखली और हत्याओं के परिणामस्वरूप संभव हो पाया था। इस ऐतिहासिक विरोधाभास को हमें देखना और उसका अध्ययन करना चाहिए।
साम्राज्यवादी मुल्क आज उन्नीस सौ तीस के दशक के शुरुआती वर्षों के बाद के सबसे बुरे आर्थिक और राजनीतिक दौर से गुजर रहे हैं। इन पंक्तियों को लिखते वक्त 1939 में भयानक पराजय झेल चुकी स्पेन की जनता की बेरोजगारी की दर 21.5 प्रतिशत है, जो कि जर्मनी में 30 जनवरी, 1933 को वाइमर गणराज्य के अंत और हिटलर द्वारा सत्ता हथियाने के समय की दर के करीब है। लेकिन एक फर्क है। 1933 में जर्मनी में मजदूर वर्ग के जो संगठन पराजित हुए, वे मजबूत थे। स्पेन में हमारे अन्य सभी मुल्कों की तरह आज पुराने संगठन कमजोर मालूम होते हैं और संगठित भी नहीं हैं। भेद भी केवल पारंपरिक किस्म के नहीं हैं। आव्रजन के जरिये नए-नए एथनिक लोग भी यहां आकर बस गए हैं। पर मजदूर वर्ग और उसके सहयोगी चुप नहीं हैं, वर्ग-संघर्ष तीखा होता जा रहा है और जन संगठनों के नए-नए रूप आकार ले रहे हैं। फौरी तौर पर देखा जाए तो अभी कई रास्ते खुले हैं।
साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक युद्ध क्रूर रहे हैं और उनमें सैनिक अमानवीय तरीकों से व्यवहार करते रहे हैं, यह कोई नई बात नहीं है। पिछली सदियों में हुए युद्धों में इस तरह के उदाहरण हर किसी ब्यौरे में मिलते हैं। कुछ किस्म के युद्धों – औपनिवेशिक और गृहयुद्धों – में शासक वर्गों ने अत्यंत निर्मम तरीके अपनाए हैं। यह छिपा नहीं है।
आप लोग भारत में इसे अच्छी तरह जानते हैं। अंग्रेजों ने जिसे ‘म्यूटिनी’ (सिपाही विद्रोह) कहा, उसके बाद की उनकी बदले की कार्रवाइयों के बारे में आपने पढ़ा हुआ है। आज भी जनता के खिलाफ अपने युद्ध में सरकारी बल बलात्कार का प्रयोग विद्रोहों के दमन (काउंटर-इन्सरजेंसी) के हथियार के रूप में करते हैं। इस तरह का संगठित बलात्कार किसी पौरुषी हवस और यौनिकता का मामला नहीं है। यह सोच-समझ कर अपमानित करने के लिए किया जाता है। जनता के गर्व को तोडऩे के लिए।
इंग्लैंड और फ्रांस की क्या कहें, संयुक्त राज्य अमेरिका को ही लें और इन मुल्कों की पुरानी स्थिति से तुलना करें, जब लगता था कि वे दुनिया पर राज कर रहे हैं, तो आज वे निश्चित रूप से कागजी शेर बनते जा रहे हैं। लेकिन जैसा कि अध्यक्ष माओ ने कहा है, कागजी शेरों के पंजे बिल्कुल असली होते हैं और यही साम्राज्यवादी युद्धों में बदलाव भी ला रहे हैं।
पिछले कुछ दशकों में हुए नए साम्राज्यवादी युद्धों की कुछ अपनी ही चारित्रिक विशेषताएं हैं। इन युद्धों और षड्यंत्रों का लक्ष्य यूगोस्लाविया, इराक, लीबिया जैसे राज्यों को केवल जीत लेना ही नहीं, इनको बुनियादी तौर पर ध्वस्त कर देना भी रहा है। फिलहाल ईरान और सीरिया का भी राज्य के रूप में वजूद मिटा देने का प्रयास होता दिखाई दे रहा है। यह एक नया खासियत है।
ये प्राकृतिक संसाधनों और बाजारों पर नियंत्रण कायम करने के लिए किए जाने वाले कोई सामान्य औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी युद्ध नहीं हैं। निस्संदेह आर्थिक कारण हैं, जैसे कि तेल। मगर इसी के साथ दूसरा हित जुड़ा है। अब युद्ध उन मुल्कों के राज्य के ढांचे को ही नेस्तानाबूद करने के लिए छेड़े जा रहे हैं, जो अमेरिकी साम्राज्यवादियों और उनके अधीनस्थ सहयोगियों या प्रतिद्वंदियों की निगाह में अड़चन हों। अगर आप ईराक युद्ध में अमेरिका की कुल आर्थिक लागत और लाभ की तुलना करें, तो अतार्किक लगने वाले इस तथ्य का खुलासा हो जाता है कि भले ही शासक वर्ग के कई हिस्सों ने उस युद्ध से खूब चांदी काटी हो, संयुक्त राज्य अमेरिका को जो कुल कीमत चुकानी पड़ी, वह लाभ से कहीं ज्यादा है। फिर भी यह युद्ध अमेरिकी साम्राज्यवाद को तार्किक लगता है।
साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक युद्ध क्रूर रहे हैं और उनमें सैनिक अमानवीय तरीकों से व्यवहार करते रहे हैं, यह कोई नई बात नहीं है। पिछली सदियों में हुए युद्धों में इस तरह के उदाहरण हर किसी ब्यौरे में मिलते हैं। कुछ किस्म के युद्धों – औपनिवेशिक और गृहयुद्धों – में शासक वर्गों ने अत्यंत निर्मम तरीके अपनाए हैं। यह छिपा नहीं है।
आप लोग भारत में इसे अच्छी तरह जानते हैं। अंग्रेजों ने जिसे ‘म्यूटिनी’ (सिपाही विद्रोह) कहा, उसके बाद की उनकी बदले की कार्रवाइयों के बारे में आपने पढ़ा हुआ है। आज भी जनता के खिलाफ अपने युद्ध में सरकारी बल बलात्कार का प्रयोग विद्रोहों के दमन (काउंटर-इन्सरजेंसी) के हथियार के रूप में करते हैं। इस तरह का संगठित बलात्कार किसी पौरुषी हवस और यौनिकता का मामला नहीं है। यह सोच-समझ कर अपमानित करने के लिए किया जाता है। जनता के गर्व को तोडऩे के लिए।
औपनिवेशिक युद्धों और नाजी युद्धों के तौर-तरीकों की विशिष्टता, खास कर पूरब में यही रही कि इन तरीकों का इस्तेमाल नियमित रूप से किया गया। बलात्कार और यातना राजनीतिक हथियार थे। दूसरी ओर निजी मकसद के लिए बलात्कार, यातना और कत्ल जैसे कृत्यों की इजाजत नहीं थी। इनको अपराध समझा जाता था। नाजी-अधिकृत योरोप में निजी कारण से की गई किसी यहूदी की हत्या का दंड कानून के मुताबिक दिया जाता था। बंदी शिविरों में यदि कोई व्यक्ति अपनी वहशी हवस को शांत करता, तो उसे कड़ी से कड़ी सजा दी जाती थी। इस मामले में हिटलर का रवैया सख्त था। (हालीवुड फिल्में इस बात से नावाकिफ मालूम होती हैं)।
पिछले दशक में इराक और अफगानिस्तान के अपने युद्धों में अमेरिका का नया गुण सामने आया है। ‘एस.एस.’ (नाजी जर्मनी के सिपाही) कर्तव्य-पालन के तौर पर यातना और बलात्कार करता था। अबू गरीब के बंदियों के साथ अमानवीय व्यवहार, अफगानिस्तान में दुश्मनों की लाशों पर पेशाब करना, ग्वांतानामो की खाड़ी के नौसैनिक अड्डे में नियमपूर्वक यातना देना हिटलर के ‘एस.एस.’ से भिन्न किस्म की फौजी संस्कृति के लक्षण हैं।
iraq-warलेकिन इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है किसी राष्ट्र को ध्वस्त करने का सचेत प्रयास। इराक में अमेरिका ने देश का पूरा इतिहास और पूरी विरासत ही जड़ से उखाड़ देने और रौंद डालने का सोचा-समझा प्रयास किया और बहुत हद तक सफलता भी पाई। वैश्विक स्तर पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण संग्रहालयों एवं पुस्तकालयों की लूट और विध्वंस, सेना भेज कर दुनिया के सबसे पुराने और सर्वाधिक मूल्यवान ऐतिहासिक स्थलों का विनाश करना, योजनाबद्ध तरीके से इराक के बुद्धिजीवियों को मिटना और उनकी हत्या करना, ये सब ऐसे राज्य का नामोनिशान मिटा देने के लिए अपनाई गई नीतियां थीं, जिसके अपने बल पर विकास करने के संकेत नजर आने लगे थे को अमेरिकी क्षेत्रीय प्रभुत्व के लिए बढ़ता खतरा माना जाने लगा था। संयुक्त राज्य अमेरिका उसी तरह के तौर-तरीके अपना रहा है जो रोम ने कार्थेज के खिलाफ अपनाये थे। और उसके कारण भी यही थे।
अमेरिकी शताब्दी भी कमोबेश एक ही सदी की रही है – 1898 के स्पेनिश-अमेरिकी युद्ध से लेकर हाल के वर्षों तक। उन हिस्सों – दक्षिण अमेरिका, दक्षिण पूर्व एशिया, पूर्वी एशिया में जहां साम्राज्य ने सीधे अपने को स्थापित करने की कोशिश की हिंसा और हवस की बातों को याद करना पीड़ा दायक होगा। लेकिन जहां अमेरिकी साम्राज्य ने योरोप की तरह स्वयं जाकर उपनिवेश स्थापित करने की कोशिश की, उसका अधिपत्य घट रहा है, लेकिन वह अभी वहां है। हम सब शर्म के साथ अपने चापलूस, रीढ़हीन राजनीतिक और अकेडमिशियनों को याद कर सकते हैं। क्या श्रमिक वर्ग और उसके सहयोगी अब हमें पतन की ओर जाते संयुक्त राज्य साम्राज्य के द्वारा पैदा किए भंवर में गहरे डूबने से बचा सकेंगे यह सवाल है।
हम यह कर सकते हैं, हमें यह हर हाल में करना चाहिए और इसके लिए संगठित होना चाहिए। इस अंधकार युग में हमें यह उसी मुश्किल भरी उम्मीद के साथ करना है जिसने योरोप में नाजी आधिपत्य के दौरान प्रतिरोध के सदस्यों को और चीन में ”सब को मार डालो” वाले जापानी दौर में चीनी देशभक्तों को कम्युनिस्टों और उनकी मित्र शक्तियों को प्रेरित किया था। मंजिल साफ तौर पर दिखाई दे रही है, पर हम पक्के तौर पर नहीं बता सकते कि इस कठिन दौर में, जबकि कागजी शेर तबाही जारी रखे है, यह संघर्ष कितना लंबा चलेगा। केवल हमारी आने वाली पीढिय़ां ही इस सवाल का जवाब दे पाएंगी कि यह सन्निकट है या दूर।
(समयांतर से साभार)

मजदूर वर्ग और साम्राज्यवादी युद्धों पर कुछ विचार – 1

[10 फरवरी, 2012 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में आयोजित नवीन बाबू स्मृति व्याख्यान में यॉन मिर्दल द्वारा दिये गये भाषण का पहला भाग]
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सबसे पहले यह बतलाना जरूरी है कि मैं बोल किसकी ओर से रहा हूं। मैं कम्यूनिस्ट हूं। मगर लगभग 60 साल से एक गैर-पार्टी कम्युनिस्ट रहा हूं। इसके कारणों की चर्चा मैं अपनी अनेक पुस्तकों में कर चुका हूं। मतलब यह कि मैं किसी संगठन विशेष का प्रवक्ता नहीं हूं और जो बातें मैं कह रहा हूं उन के लिए और कोई नहीं बल्कि मैं जिम्मेदार हूं।
इधर हाल ही में मेरी एक किताब रेड स्टार ओवर इंडिया—ऐज द रेचेड ऑफ द अर्थ आर राइजिंग प्रकाशित हुई है। यह मेरे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के आमंत्रण पर दंडकारण्य के छापामार क्षेत्र के दौरे पर आधारित है। इसमें मैंने बताया है कि कैसे जंगलों से होते हुए लंबी यात्रा तय करने के बाद जब रात में हम दंडकारण्य के एक कैंप में पहुंचे और चाय पी रहे थे तो जंगल के बीच से एक टोली निकलकर हमारी ओर बढ़ती दिखाई दी। थोड़ी देर बाद मेरी समझ में आया कि ये भाकपा (माओवादी) के महासचिव गणपति और उनके कॉमरेड हैं।
फिर उनके साथ हुई चर्चा में मैंने स्वीडन जैसे छोटे से साम्राज्यवादी देश में पिछली एक सदी में युद्ध और साम्राज्यवाद के खिलाफ राजनीतिक कार्य के हमारे दोनों तरह के अनुभवों —सकारात्मक और नकारात्मक — के बारे में बतलाने की कोशिश की। अपनी 16 दिन की यात्रा की समाप्ती और औपचारिक विदाई के दौरान मुझ से श्रमिक वर्ग और योरोप की वर्तमान स्थिति के बारे में भी पूछा गया।
उस सभा में हमने दुनिया के हमारे हिस्से के मौजूदा हालात पर कुछ और औपचारिक चर्चा की। जैसे कि गहराते आर्थिक और सामाजिक संकट, बढ़ती बेरोजगारी और सशक्त किंतु मुख्यत: स्वत:स्फूर्त लोकप्रिय जनसंघर्षों के बारे में।
वहां सरकारों की विध्वंसकारी आर्थिक नीतियों और पारराष्ट्रीय (ट्रांसनेशनल) पूंजी का विरोध करने वाले तरह-तरह के नए संगठन हैं जो ज्यादातर इंटरनेट के जरिये बने हैं। ये संगठन सरकारों के मौजूदा और भविष्य के हमलों के खिलाफ संघर्ष के मामले में कितने कारगर सिद्ध हो पाते हैं, यह तो समय ही बता पाएगा। संगठनों का यह ढीला-ढाला रूप सरकारी दमन से अपनी रक्षा करने में कारगर है। पर इसके साथ ही इससे सचेत किस्म की सामूहिक कार्रवाई असंभव हो जाती है। पिछली लगभग आधी सदी से, जब से औपनिवेशीकरण के खात्मे की शुरूआत हुई या कम से कम औपचारिक तौर पर शुरूआत हुई, तब से हमारे यहां के देशों में अनेक एकता संगठन बनाए गए हैं। ये तरह-तरह के हैं। इनमें से कुछ वास्तविक और राजनीतिक महत्त्व के सिद्ध हुए हैं। पार्टी के स्तर पर भी विभिन्न समूह हैं। इनमें से कई समूह बड़े हिम्मती हैं, लेकिन ज्यादातर में संकीर्णतावादी कमियां पाई जाती हैं और ये अभी तक तो मजदूर वर्ग और उसके सहयोगियों तक अपनी पहुंच नहीं बना पाए हैं।
तथाकथित ‘वामपंथ’ की पारंपरिक और आधिकारिक पार्टियों, सामाजिक-जनवादी, लेबर और भूतपूर्व कम्युनिस्ट पार्टियों की बात करें, तो वे मजदूर वर्ग को बेहाल कर देने वाले आज के संकट के विरुद्ध कोई पारंपरिक किस्म की सुधारवादी नीति तक नहीं बना पाई हैं।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि स्वीडन की भूतपूर्व कम्युनिस्ट पार्टी की ही तरह ये सभी राज्य द्वारा वित्त-पोषित हैं न कि अपने सदस्यों के आर्थिक योगदान से चलती हैं। यही वजह है कि अपनी संरचना के स्तर पर ही इन संगठनों में वह सामथ्र्य नहीं रह गयी है कि वे साम्राज्यवाद के नए युद्धों को जबानी समर्थन देने से ज्यादा कुछ भी कर पायें। विचारधारात्मक रूप से भी इन्होंने स्वयं को पूरी तरह मुक्त कर लिया है। चाहे पारंपरिक किस्म के सुधारवादी हों या किसी हद तक क्रांतिकारी – आर्थिक कारणों से ही इन्होंने ना केवल अखबार-पत्रिकाएं निकालना और पुस्तक बिक्री केंद्र बंद किए हैं बल्कि इन्होंने अपना सैद्धांतिक अध्ययन भी बंद कर दिया है। केवल इक्का-दुक्का सदस्य ही कहीं-कहीं अपने तयीं स्थानीय पैमाने पर अध्ययन-गोष्ठियों (स्टडी सर्किल)को जीवित रखे हुए हैं। राज्य द्वारा पोषित ये कार्यकर्ता और बाकी सदस्य इस प्रकार विचारधारात्मक रूप से अस्पष्ट से नारीवादी और जर्मन मुहावरे में कहा जाए तो बहुत हुआ तो – रिव्योल्यूज्जर- जैसे यानी क्रांति-से हैं।
वर्ग समाज के इस दौर में आप अपनी निगाह रोम साम्राज्य पर डालें या मुगल समाज पर, चाहे गृह-युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के उस स्वर्ण-काल देखें या आज के भारत को, आप वर्गों को संघर्षरत ही पाएंगे। यहां तक कि अगर आप नाजी जर्मनी जैसी कठोर फासीवादी तानाशाही के आधिकारिक (ऑफिशियल) समाज का विश्लेषण करने लगेंगे, जहां कि न केवल कम्युनिस्ट और समाजवादी, बल्कि उदारपंथी प्रवृत्तियों को भी प्रतिबंध और दमन का सामना करना पड़ता था, तो भी आपको देखेंगे कि किस तरह वर्ग संघर्ष उनकी नीतियों को निर्धारित करता है। हर स्तर पर।
इनमें कुछ ऐसे भी हैं जिनके पार्टी संगठन में साम्राज्यवादी समूहों की घुसपैठ हो चुकी है या आंशिक तौर पर उनकी गिरफ्त में आ चुके हैं। पचास के दशक में ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनल’ के संगठनों के साथ सी.आई.ए. ने ऐसा ही कर रखा था। पिछले साल की गर्मियों के जर्मनी के एक ऐसे ही उदाहरण को लिया जा सकता है, जब बुंदरसरबेक्रिसेस शेलोम दर लिंक्सजुजेंद नामक युवा आंदोलन ( एक संसदीय राजनीतिक पार्टी की संघ-स्तरीय युवा शाखा) के अंदर शियनवादी एवं इजराइल से प्रेरित एक दक्ष धड़े ने उसके संसदीय समूह पर कब्जा कर लिया। इन धड़ों को फिलिस्तीन के पक्ष में काम करनेवाले समूहों को पार्टी-विरोधी करार देने में सफलता मिली और अब इस साल सर्दियों में ”पार्टी-विरोधी आचरण” की परिभाषा में इन्होंने साम्राज्यवादी युद्ध का मुकाबला कर रही सीरिया और ईरान की जनता को समर्थन देना भी शामिल करा दिया है।
एक विशेषता यह भी है कि किसी हद तक जनाधार वाले, मुख्यत: उदारपंथी किस्म के शांतिवादी संगठन, जो कि कभी स्वतंत्र और ईमानदार रहे, या तो बेहद कमजोर हो चुके हैं या फिर जो ”मानवतावादी दखल” कहलाता है उन कार्यों को ही समर्थन देने वाले समूहों में तब्दील हो चुके हैं।
आप मेरी पुस्तक में देखेंगे कि शुरू से अंत तक मैंने इस सवाल की बराबर चर्चा की है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आखिरकार विगत् सत्तर वर्षों से मैंने इन आंदोलनों को न केवल देखा है, बल्कि इनमें कई तरह से भाग भी लिया है और इस तरह मुझे दोनों ही तरह के संघर्षों का तजुर्बा है जिनमें अक्सर विजय और पराजय भी मिली है।
दंडकारण्य के जंगल में एक रात मैं लेटे-लेटे मन ही मन एक ऐसी रचना का पाठ कर रहा था जो हमारे हालात का मेरी समझ से बहुत सही चित्रण करती है:
वह ‘एन डाई नाशजेबोरेनेन’ शीर्षक एक कविता है जिसे तीस के दशक में बर्तोल्त ब्रेख्त ने डेनमार्क में अपने निर्वासन के दौरान रचा था। अंग्रेजी में इसका अनुवाद अक्सर टू द पोस्टेरिटी (आने वाली पीढिय़ों के नाम) शीर्षक से किया जाता है। परंतु मुझे लगता है कि साम्राज्यवादी मुल्कों की हमारी पीढ़ी के लिए इस अनुवाद ने सबसे अमूल्य पंक्तियों को छोड़ दिया था। वे हैं:
जिनजेन विर डॉश, ओफटर एल्स डाई शूहे डाई लेंडर वेशलेंड bertolt-brecht
डुस्र्च डाई क्रिएग डर क्लासेन वर्जवेफेल्ट
वेन डा नुर अनरेशत वार अंड केइन इंपोरुंग।

इसका शाब्दिक अर्थ होगा:
युद्धों से होते हुए चलते रहे हम वर्गों के बीच
मुल्कों से ज्यादा जूतों को बदलते -
हताश होते हुए , पाया कि वहां केवल अन्याय है और नहीं है बगावत।

मैं उन रातों में ‘जन मुक्ति छापामार सेना’ के युवा आदिवासी कॉमरेडों के बगल में लेटा, अपने स्लीपिंग बैग में जगा हुआ, हमारी इसी त्रासद ऐतिहासिक परिस्थिति के कारणों के बारे में सोचता रहा।
[Photo Source] आखिर क्यों ‘केवल अन्याय है और नहीं है बगावत’ ? बीते सौ से भी ज्यादा वर्षों से – तथाकथित ‘वामपंथ’ से जुड़े राजनीतिक आंदोलनों में भी – यही केंद्रीय सवाल रहा है। योरोप में 1848 की क्रांति की पराजय, 1870 में फ्रांस और प्रशा के बीच हुए युद्ध, 1841 के कम्यून की हार के बाद के क्रूरतापूर्ण दमन और 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ जाने के संदर्भ में हम इसी सवाल पर ठोस रूप से चर्चा करते आए हैं। साम्राज्यवादी राज्यों का मजदूर वर्ग इन पराजयों और युद्धों को रोक पाने में अक्षम सिद्ध हुआ है। 1914-18 के दौरान का मुख्यत: सामाजिक-जनवादी मजदूर वर्ग लाखों की तादाद में फ्लैंडर्स में अपनी मौत की ओर कोई विरोध किए बिना बढ़ता चला गया —वैसे ही जैसे बूचडख़ाने की ओर बछड़े जाते हैं।
हमारे मुल्कों में तब से लेकर आज तक के इस पूरे कालखंड की विशेषता प्रदर्शन व राजनीतिक तथा आर्थिक संघर्ष ही रही है। कई बार बड़ी-बड़ी आंशिक जीतें हुई हैं जैसे कि स्वीडन में तीस के दशक में नाजियों द्वारा पे्ररित प्रतिक्रियावाद की पराजय; 1936 में फ्रांस में ‘पाप्यूलर फ्रंट’ की जीत; पचास के दशक में तब संयुक्त राज्य अमेरिका की परमाणु युद्ध की योजना को रोकने वाला शांति आंदोलन; अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का वह आंदोलन जिसने पचास वर्ष पहले दक्षिण-पूर्वी एशिया की समूची जनता के खिलाफ युद्ध छेडऩेवाले अमेरिकी साम्राज्यवादियों को रोक दिया था। इन संघर्षों से जनता को जो भी हासिल हुआ, हमें न तो उसे भूलना चाहिए और न ही नजरअंदाज करना चाहिए।
मगर जैसा कि हम सब जानते ही हैं, कई निर्णायक पराजय भी हुई हैं। जर्मनी में हिटलरी ताकतों का सत्तासीन होना; स्पेन में फ्रांको की जीत; सोवियत संघ में सत्ता का रंग उतरना और फिर अध:पतन और विघटन; और अब, आज के नए साम्राज्यवादी युद्धों को रोकने के लिए मजदूर वर्ग की संगठित न हो पाने की असमर्थता।यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हमारे साम्राज्यवादी मुल्कों का मजदूर वर्ग और उसके सहयोगी अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होने में अब तक नाकाम साबित हुए हैं। त्रासद बात यह भी है कि वे या तो सक्रिय रूप से या फिर चुप्पी साधकर शासक वर्ग की विध्वंसकारी नीतियों का समर्थन करते रहे हैं।
लेकिन ऐसा हुआ क्यों? इसका एक उत्तर वह है जिस पर जुलाई, 1920 में ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की दूसरी कांग्रेस में ‘राष्ट्रीय एवं औपनिवेशिक प्रश्न के लिए आयोग’ में व्लादिमीर इल्यीच लेनिन और मानबेन्द्र नाथ राय (एम.एन. राय) ने चर्चा की थी।
राय का मत था: ”औपनिवेशिक जनता के शोषण के क्रम में योरोपीय साम्राज्यवाद अपने यहां के नगरीय (मेट्रोपोलिटन) सर्वहारा को कई सारे फायदे पहुंचाने की क्षमता रखता है। “
leninनिश्चय ही लेनिन को यह समस्या नजर आ रही थी। कुछ ही वर्ष पहले जब विश्वयुद्ध का सामना करते हुए अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन पतन का शिकार हुआ था तब इस महाविपदा के विरुद्ध लेनिन ने न केवल सघन रूप से कार्य किया, बल्कि यह बात भी दर्ज की कि:
”हमारे आयोग में इंग्लैंड की समाजवादी पार्टी के साथी क्वेल्च ने इस बारे में अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि सारा ब्रितानवी मजदूर वर्ग अंग्रेज शासन के खिलाफ किसी भी गुलाम देश के विद्रोह के मौके पर उन मुल्कों की मदद करने को गद्दारी मानेगा।”
लेकिन लेनिन इस बात को स्वीकारने को तैयार नहीं थे कि यह स्थिति ”सामान्य मजदूरों” की है। बल्कि उनका कहना था कि यह्र केवल ”मजदूरों के अभिजनों” की है और इसका वास्तविक समाधान नए इंटरनेशनल द्वारा इसे बदलने की जिम्मेदारी में है:
”कम्युनिस्ट पार्टियों के सिर्फ अपने ही देश में नहीं, वरन् औपनिवेशिक मुल्कों में भी और खास तौर से औपनिवेशिक अवाम को अपनी गुलामी के अधीन दबाये रखने के लिए शोषक राष्ट्रों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले सैनिकों के बीच किए जाने वाले क्रांतिकारी कार्यों के महत्त्व पर मैं बल देना चाहता हूं। “
मुड़कर देखने पर मालूम होता है कि लेनिन ने जिस तरह का अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन विकसित करने का प्रयास किया वह इंसानियत के बेहतर भविष्य के लिए होने वाले संघर्षों के लिहाज से बड़ा ही वीरोचित था। मगर ”औपनिवेशिक और निर्भर देशों” की समूची जनता के संघर्ष के साथ जिस जुझारू एकजुटता की जरूरत थी उसकी पूर्ति करने में वह आंदोलन कामयाब नहीं हो सका, जैसा कि लेनिन बल देते थे।
इसीलिए 1924 में जब हो ची-मिन्ह ने ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ की पांचवीं विश्व कांग्रेस के दौरान साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी ताकतों की कम्युनिस्ट पार्टियों की ओर से सच्ची एकजुटता के अभाव की आलोचना की, तो उनकी इस बात को ऐतिहासिक रूप से उचित ही माना जाना चाहिए।
इसके कारणों और यह समझने के लिए कि इसका हम सबके एक-सामुहिक भविष्य के लिए क्या तात्पर्य है, यह जरूरी है कि हम कुछ कदम पीछे की ओर लौटें, ताकि हम आज के दौर पर विहंगम् दृष्टि डाल सकें और फिर इसे करीब से भी देखें।
मार्क्स यह कहते हुए सजग थे कि मैं पहला व्यक्ति नहीं हूं जिसने समझा हो कि समूचा इतिहास असल में वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। तब एंगेल्स ने, जब उनका प्राक्-इतिहास का पहला वास्तविक अध्ययन प्रकाशित हुआ, यह निष्कर्ष निकाला कि मार्क्स का यह कथन समूचे लिखित इतिहास के लिए सही है। अर्थात यह वर्ग समाज के प्रारंभ से सत्य है।
वर्ग समाज के इस दौर में आप अपनी निगाह रोम साम्राज्य पर डालें या मुगल समाज पर, चाहे गृह-युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के उस स्वर्ण-काल देखें या आज के भारत को, आप वर्गों को संघर्षरत ही पाएंगे। यहां तक कि अगर आप नाजी जर्मनी जैसी कठोर फासीवादी तानाशाही के आधिकारिक (ऑफिशियल) समाज का विश्लेषण करने लगेंगे, जहां कि न केवल कम्युनिस्ट और समाजवादी, बल्कि उदारपंथी प्रवृत्तियों को भी प्रतिबंध और दमन का सामना करना पड़ता था, तो भी आपको देखेंगे कि किस तरह वर्ग संघर्ष उनकी नीतियों को निर्धारित करता है। हर स्तर पर। बंदी शिविरों (कंसनट्रेशन कैंप) में कार्यरत गार्डों के भी शासकों के साथ वर्ग हितों के ही अंतर्विरोध हैं।
मार्क्स ने अपने समय में जो समझा वह यह था कि पूंजीवाद के उदय और पूंजीपति वर्ग की विजय ने एक बढ़ते हुए ‘मुक्त’ वेतन कमानेवालों के वर्ग का निर्माण किया—ऐसे सर्वहाराओं का, जिन्हें इधर-उधर कहीं नहीं बस सिर्फ सामने की ओर ही बढऩा था। इस तरह उनका संघर्ष आगे चल कर बुर्जुवा वर्ग द्वारा निर्मित समाज की अवधारण के ही खिलाफ संघर्ष बना।
योरोप में इस परिवर्तनकारी (रेडिकल) चुनौती को बारहवीं और सत्रहवीं सदियों के बीच तब एक स्वरूप मिला जब गरीब किसानों ने सामंती ताकतों के विरुद्ध बेहद हिंसक और क्रूरतापूर्ण युद्धों का सिलसिला छेड़ रखा था। इन संघर्षों में अपनी राष्ट्रीय और धार्मिक जड़ों के आधार पर यूरोप के इन गरीब किसानों ने जो विचारधारा बनाई थी वह उन्नीसवीं सदी के चीन में ताइपिंग विद्रोह के किसान क्रांतिकारियों की विचारधारा से मेल खाती है। यह कोई चकित होने वाली बात नहीं है। समान संघर्षों से समान विचारधाराएं उत्पन्न होती हैं।
मैंने अपनी किताब में, भारत के नक्सलवादी संघर्ष के दौरान हुए विचारधारात्मक विकास को, इसकी आम तौर पर मार्क्सवादी, माओवादी जड़ों को और इस क्रांतिकारी व्यवहार के जरिये सिद्धांत को लगातार तराशे जाने के संदर्भ में, इस पर भी चर्चा की है।
फ्रेडरिक एंगेल्स की निगाह में पांच सौ साल पहले के योरोप के किसान-युद्ध प्रारंभिक क्रांतिकारी युद्ध थे; इनकी असफलता अपरिहार्य थी। लेकिन मैं इस बारे में निश्चित नहीं हूं। हम अगर इनकी तुलना मजदूर वर्ग के वर्तमान युद्धों के साथ के साथ करें, तो अवश्य ही इनके लक्ष्य सीमित कहलाएंगे। लेकिन स्वीडन और स्विट्जरलैंड में उल्टा वे विजयी हुए और इसने इन समाजों को ऐसा रूप दिया जो कि सामान्य तौर पर योरोपीय महाद्वीप से काफी भिन्न है।
यह बात कि दौर विशेष की सीमाओं को लांघना संभव नहीं होता, जैसा कि हेगेल ने लिखा है, सच ही है। ऐसा करना अपनी साया से भागने की कोशिश जैसा होगा। परंतु इस वर्तमान को परिप्रेक्ष में समझना संभव है, यह पता लगाने के लिए कि हमारे वर्तमान दौर की कुछ विशेषताएं दरअसल किस जमाने की हैं।
जारी,,,,,,,,,, (समयांतर से साभार)