सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

आबादी का बोझ ढोते शहर

कुमार विजय
हमारा विश्व तेजी से शहरीकरण की तरफ बढ़ रहा है और एशिया इसमें आगे है। अभी दुनिया में 27 महानगर ऐसे हैं, जहां की आबादी एक करोड़ से अधिक है। इनमें से 13 महानगर केवल एशिया में हैं। अगर द्वितीय श्रेणी के नगरों की बात करें, तो उनकी संख्या दुनिया भर में 387 है, जिनमें से 194 नगर अकेले एशिया में हैं। ऐसे नगरों की आबादी 10 लाख या उससे अधिक है। स्पष्ट है कि एशिया तेज गति से शहरीकरण की तरफ बढ़ रहा है। अभी यहां के शहरों में एक अरब 70 करोड़ की आबादी रहती है, लेकिन 2050 तक यह आबादी तीन अरब 40 करोड़ हो जाएगी।

एशिया के नगरों में बढ़ती आबादी के पीछे मुख्य वजह यह है कि लोग बेहतर भविष्य की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, क्योंकि रोजगार की उपलब्ध्ता ज्यादातर शहरों में ही है। पूरे एशिया का करीब 80 फीसदी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) शहरों से ही आता है। फिर भी सचाई यही है कि एशिया के विकासशील देशों में शहरों की स्थिति अच्छी नहीं है। मुंबई में एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी धारावी है, तो कराची में दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी मच्छर कॉलोनी।

अगर आज के संदर्भ में विश्व जनसंख्या की बात करें, तो 2010 में दुनिया के 50.46 फीसदी लोग शहरों में अपना जीवन गुजर-बसर कर रहे थे, 2030 में यह आंकड़ा 58.97 फीसदी तक पहुंचने का अनुमान है। अधिक विकसित जगहों में रहने वाले लोगों की संख्या अभी 75.16 फीसदी है, जो 2030 में बढ़कर 80.88 फीसदी हो जाएगी। कम विकसित जगहों में रहने वालों की संख्या अभी 45.08 फीसदी है, जो 2030 में बढ़कर 54.98 फीसदी हो जाएगी। साफ है कि भविष्य में अधिक विकसित जगहों की तुलना में कम विकसित जगहों पर जनसंख्या का भार अधिक बढ़ेगा।

अपने देश की बात करें, तो 2010 में 30.01 फीसदी जनसंख्या शहरों में रहती थी, जो 2030 में 39.75 फीसदी हो जाएगी। 2001 की जनगणना के अनुसार, शहरों और नगरों की संख्या 5,161 थी, जो 2011 की जनगणना के संकेतों के अनुसार 7,937 पर पहुंच गई है। जाहिर है कि देश की शहरी जनसंख्या में तेज वृद्धि हो रही है। पर विकसित होते इन शहरों और नगरों में मूलभूत संरचना के हालात कैसे हैं, यह भी एक अहम सवाल है। हमारे शहरों की मूलभूत संरचना का सहज अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब देश में शहरों और नगरों की संख्या 5,161 थी, तब उसमें से 4,861 शहरों और नगरों में आंशिक रूप से भी सीवेज की व्यवस्था नहीं थी। आज भी इसमें ज्यादा फर्क नहीं आया है। साथ ही हमारे देश की 24 फीसदी शहरी आबादी झुग्गी-झोंपड़ी में रहने को अभिशप्त है।

खुली जगहों और पार्क के मामलों में भी शहरों की स्थिति बेहतर नहीं कही जा सकती, क्योंकि हमारे देश में प्रति व्यक्ति केवल 2.7 वर्ग मीटर स्थान ही उपलब्ध है, जबकि बुनियादी सेवा मापदंड के आधार पर प्रति व्यक्ति कम से कम नौ वर्ग मीटर स्थान होना चाहिए। पश्चिमी देशों में यह आंकड़ा 16 वर्ग मीटर का है।
अपने शहरों की दशा सुधारने को लेकर हम कितना चिंतित है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि हम सालाना केवल 300 शहरी योजनाकार ही तैयार कर पाते हैं। इनमें से भी ज्यादातर निजी क्षेत्रों में चले जाते हैं। दूसरी ओर हमारे शहरों के नगर निकायों की आमदनी भी अन्य देशों की तुलना में काफी कम है। हमारे देश में म्यूनिसिपल राजस्व की जीडीपी में केवल 0.75 की भागीदारी है, जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा नौ फीसदी, जर्मनी में आठ फीसदी, दक्षिण अफ्रीका में छह फीसदी और ब्राजील में पांच फीसदी का है।

इसलिए अंधाधुंध शहरीकरण के इस दौर में न केवल इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि हम अपने शहरों को कैसे सजाएं-सवारें, बल्कि हमें इसके लिए नगरपालिकाओं की आमदनी बढ़ाने पर भी ध्यान देना होगा, क्योंकि इसके बिना न तो शहर में आधारभूत संरचना विकसित की जा सकेगी और न ही बुनियादी सुविधाओं का विकास हो पाएगा।

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