बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

गरीबी का दुश्चक्र

सुधांशु रंजन

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गरीबी रेखा पर भड़के विवाद ने योजना आयोग की भूमिका के साथ शासन की नीतियों और उद्देश्यों के बारे में भी सवाल खड़ा किया है। संविधान के चौथे अध्याय में राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों का उल्लेख है, जो अदालतों द्वारा लागू तो नहीं किए जा सकते, किंतु यह स्पष्ट किया गया है कि वे शासन के लिए मूलभूत सिद्धांत के रूप में काम करेंगे। अनुच्छेद 38 में कल्याणकारी राज्य की बात कही गई है। वर्ष 1978 में 44वां संविधान संशोधन कर इस अनुच्छेद में यह जोड़ा गया कि सरकार विभिन्न गुटों के बीच असमानता दूर करने का प्रयास करेगी।

सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक पॉवर्टी ऐंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया के जरिये गरीबी का मुद्दा उठाया था। आजादी के बाद जब योजनाबद्ध तरीके से आर्थिक विकास की संरचना बनाई गई, तो योजना आयोग का उद्देश्य गरीबी उन्मूलन न होकर देश को उद्योग एवं उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाना था। गरीबी पर कई वर्षों तक कोई व्यापक चर्चा देश में नहीं हुई। संविधान की छठी अनुसूची में भी ग्रामीण विकास, श्रम आदि की तो चर्चा है, किंतु गरीबी की नहीं। गरीबी के सवाल को डॉ राममनोहर लोहिया ने लोकसभा में 1963-67 के दौरान मजबूती से उठाया। और 1971 के चुनाव में इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया।

फिलहाल गरीबी का मुद्दा बड़ा मुद्दा बना हुआ है। योजना आयोग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दायर गरीबी रेखा के बारे में हलफनामे को लेकर पूरा देश उद्वेलित हो गया, जिसमें कहा गया था कि शहरों में 32 और ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रुपये प्रतिदिन कमाने वाले गरीब नहीं है। 2004-05 में गरीबी रेखा और कम रखी गई थी, जो शहरों के लिए साढ़े सत्तरह एवं गांवों के लिए 12 रुपये थी। सुखद है कि राष्ट्रीय विरोध के बाद योजना आयोग ने अपना पक्ष बदल दिया है।

वर्ष 2001 में सर्वोच्च न्यायालय में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने एक जनहित याचिका दायर कर यह निर्देश जारी करने की प्रार्थना की थी कि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों की कमी के कारण जो खाद्यान्न सड़ रहे हैं, उन्हें गरीबों में मुफ्त बांट दिया जाए। केंद्र सरकार ने आपत्ति की कि यह नीतिगत मसला है, जिस पर अदालत निर्देश नहीं दे सकती। यह मामला अब तक चल रहा है। योजना आयोग अब भी मानता है कि ऐसे निर्देश देकर न्यायपालिका अपनी सीमा से बाहर जा रही है। यह अदालत नहीं तय कर सकती कि गरीबों की पहचान कैसे हो।

गरीबी रेखा से नीचे की जनसंख्या की गणना हर पंचवर्षीय योजना के पहले की जाती है। वर्ष 1992 में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने आठवीं पंचवर्षीय योजना 1992-97 के लिए यह गणना करवाते हुए सुझाव दिया था कि 11,000 रुपये की वार्षिक आय को गरीबी रेखा माना जाना चाहिए। इसे बहुत अधिक बताते हुए योजना आयोग ने खारिज कर दिया। यही वह समय था, जब ग्रामीण विकास मंत्रालय के कार्यक्षेत्र पर योजना आयोग का कब्जा हो गया। गौरतलब है कि 1992 में जो पैमाना तय किया गया था, वह आज से ज्यादा है। इस तरह की गणना 1997 तथा 2002 में भी करवाई गई, लेकिन विभिन्न कारणों से 2007 में ऐसी गणना नहीं हो पाई। 11वीं पंचवर्षीय योजना के लिए ऐसी गणना करवाने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 2008 में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। एन सी सक्सेना की अध्यक्षता वाली इस समिति ने अगस्त, 2009 में रिपोर्ट सौंप दी, जिसे राज्य सरकारों, केंद्र शासित प्रदेशों और केंद्र सरकार के संबद्ध मंत्रालयों को उनकी टिप्पणी के लिए भेज दिया गया।

समस्या की शुरुआत दरअसल 1993 में हो गई थी, जब सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली को लक्षित जन वितरण प्रणाली में बदल दिया गया। इसके कार्यकलाप की जांच करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी पी वाधवा की अध्यक्षता में गठित आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार तथा लूट-खसोट है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जन वितरण प्रणाली में कई तरह के भ्रष्टाचार और खामियां हैं। इसका खाद्यान्न अन्यत्र चला जाता है, क्योंकि इसमें नौकरशाहों, राशन दुकान के मालिकों और बिचैलियों का घृणित तंत्र कार्य करता है। आयोग ने लिखा भी कि फरीदाबाद की एक महिला के पास 925 कार्ड पाए गए।

गरीबों की पहचान का काम 1972 में प्रारंभ हुआ, जब दो रुपये प्रतिदिन की आमदनी गरीबी रेखा के रूप में निर्धारित की गई थी। इस पैमाने को बदला नहीं गया, क्योंकि इससे कई जटिलताएं पैदा होतीं। उस दो रुपये का मूल्य आज 32 रुपये हो गया है। प्रसिद्ध पोषण वैज्ञानिक सुखात्मे ने पहली बार यह अवधारणा दी कि शहरों में 2,400 तथा गांवों में 2,100 कैलोरी का उपभोग जीने के लिए आवश्यक है। उस समय गरीबी का अर्थ था, भुखमरी। और गरीबी से बचने के लिए नियत कैलोरी ग्रहण करना आवश्यक था। वाई के अलघ आयोग ने सुखात्मे के पैमाने को सही माना। पर योजना आयोग का समर्थन करने वाले मानते हैं कि कैलोरी को पैमाना बहुत पुराना हो चुका है।

योजना आयोग का उद्देश्य है गरीबी कम करना। आजादी के समय देश की आबादी 32 करोड़ थी। अभी उससे कहीं ज्यादा आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की है, जबकि गरीबी रेखा बहुत नीचे रखी गई है। इसकी तुलना अमेरिका से करें, तो फर्क पता चलेगा, जहां 11,139 डॉलर से कम वार्षिक आय वालों को गरीब माना जाता है। 
(अमर उजाला से साभार)

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