हाशिये पर खुश वामदल
पश्चिम बंगाल में 35 साल के शासन के बाद वाममोर्चा को मिली शर्मनाक शिकस्त के बाद माना जा रहा था कि माकपा अपनी गलतियों को सुधारते हुए एक नई ऊर्जा के साथ सामने आएगी, लेकिन कांग्रेस के बाद जो तस्वीर सामने आई उसने कोई उम्मीद नहीं जगाई। हां! भाकपा ने जरूर कुछ आशाभरी बातें कहीं। उसने सशक्त और संघर्ष की ओर बढ़ते पार्टी के निर्माण का आह्वान किया, जो वास्तविक कार्यक्रम आधारित वाम और लोकतांत्रिक विकल्प के लिए व्यापक वाम एकता के निर्माण की पहल करे। इस कांग्रेस में भाकपा में नेतृत्व परिवर्तन हुआ और ए.बी. बर्धन की जगह एस. सुधाकर रेड्डी नए महासचिव बने। रेड्डी ने 35 हजार पार्टी इकाइयों को सक्रिय करने और स्थानीय मुद्दों पर संघर्ष करते हुए परिणाम की ओर बढऩे की बात कही। भाकपा ने वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के कारण पूरी दुनिया में बन रहे हालात और गंभीर वित्तीय संकट में फंसने को रेखांकित किया और समाजवाद के विकल्प को एकमात्र रास्ते के रूप में पेश किया।
पर सवाल यह है कि भारत में 1991 के बाद से आर्थिक उदारीकरण के इन दो दशकों में वामपंथी राजनीति की स्थिति क्या रही है? अगर पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल को छोड़ दें तो शेष भारत में खासकर इतने बड़ी हिंदी प्रदेश ( भारतीय राजनीति को प्रभावित करने वाला क्षेत्र) में वामदलों का हाल किसी से छिपा नहीं है। माकपा और भाकपा ही नहीं बल्कि नक्सलवादी आंदोलन के गर्भ से निकले मार्क्सवादी-लेनिनवादी दलों का हाल भी उतना ही खराब है। सांगठनिक (युवा, छात्र और महिला) मोर्चो तथा राजनीतिक स्तर पर वामदलों की हैसियत लगातार कमजोर होती गई है। वह भी ऐसे समय में जब ये दो दशक बुर्जुआ शासक पार्टियों के लिए जबरदस्त अंतर्र्विरोध के रहे हैं। केंद्रीय राजनीति में 1996 से किसी एक पार्टी का वर्चस्व समाप्त हुआ है। राजनीति क्षेत्र एक मायने में खुला है। इसी स्पेस के चलते बसपा, सपा और त्रिणमूल कांग्रेस जैसे क्षेत्रीय दल उभरे हैं। पर विडंबना यह है कि इस दौर में वामदल लगातार हाशिए पर जा रहे हैं। संसदीय राजनीति में दशकों की उनकी सक्रियता के बावजूद उनकी स्थिति एक पुछल्ले से अधिक नहीं है। कम्युनिस्टों के बारे में कहा जाता है कि वे शासकवर्ग के अंतर्विरोधों का फायदा उठाकर आगे बढ़ते हैं, लेकिन भारत में वामदलों के अंदर खुद ही इतने ज्यादा अंतर्विरोध हैं कि वे उनसे ही पार नहीं पा पाते।
माकपा की कांग्रेस में विचारधारात्मक मुद्दे पर एक प्रस्ताव लाया गया, जो कि निरुत्साह करने वाला ही साबित हुआ। सीताराम येचुरी ने कहा, ”हमने चीन, क्यूबा, लातिन अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों का अध्ययन किया है, यह सीखने के लिए कि क्या प्रासंगिक है जिससे हम अपना आंदोलन विकसित कर सकते हैं।” अगर 2012 में आप इस तरह का विश्लेषण सामने रखते हैं तो यह मजाक से ज्यादा कुछ नहीं। भारत के कम्युनिस्ट नेता बुर्जुआजी जैसे शब्दों का अनगिनत बार इस्तेमाल करते हैं और इस कांग्रेस में भी इस तरह के शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया लेकिन इस बुर्जुआजी से पार पाने की कोई रणनीति इनके पास नहीं है। कांग्रेस में अपने उद्घाटन भाषण में प्रकाश करात ( जो तीसरी बार माकपा के महासचिव चुने गए) ने कहा, ”हाल के राजनीतिक घटनाक्रमों ने दोनों गठबंधनों यूपीए और एनडीए की असफलता को सामने रखा है। जनता एक विकल्प की ओर देख रही है, जो कि वाम और लोकतांत्रिक ताकतें ही दे सकती हैं।”
हिंदी पट्टी में माकपा और भाकपा की जो शर्मनाक स्थिति है वह हाल के विधानसभा चुनावों में साफ परिलक्षित हुई है। पहले बात उत्तर प्रदेश की करते हैं। उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों के लिए फरवरी और मार्च में चुनाव हुए। भाकपा ने 51 सीटों पर चुनाव लड़ा। उसे एक भी सीट नहीं मिली। पिछले विधानसभा चुनाव के लिहाज से इस बार भी न उसे हानि हुई और न ही लाभ। यानी जैसे हाल पहले थे, वैसे ही रहे। भाकपा को मात्र 0.13 प्रतिशत मत मिले। जिन सीटों पर उसने चुनाव लड़ा उनमें से प्रत्येक सीट पर उसका वोट प्रतिशत 1.06 प्रतिशत था। माकपा ने 17 सीटों पर चुनाव लड़ा। किसी भी सीट पर उसे जीत हासिल नहीं हुई। उसका वोट प्रतिशत 0.09 रहा। जिन सीटों पर उसने चुनाव लड़ा उनमें प्रत्येक सीट पर उसका मत प्रतिशत 2.13 रहा। वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले वोटों का झुकाव 0.21 प्रतिशत घटा था। उत्तर प्रदेश में इस बार के चुनाव में रिकार्ड 60 प्रतिशत मतदान हुआ था।
अब बात करते हैं उत्तराखंड की। उत्तराखंड के चुनाव में इस बार 67 प्रतिशत मतदान हुआ। यहां 70 विधानसभा सीटों में से भाकपा ने पांच सीटों पर चुनाव लड़ा। उसे कोई सफलता नहीं मिली। पिछले चुनाव में भी उसने कोई सीट नहीं जीती थी। इस बार भाकपा का जो मत प्रतिशत रहा वह 0.21 था। पिछली बार के मुकाबले मतों का झुकाव 0.02 प्रतिशत कम था। माकपा ने छह सीटों पर चुनाव लड़ा। कोई सफलता नहीं मिली। पिछली बार भी उसे कोई सफलता नहीं मिली थी। इस बार उसका मतों का हिस्सा 0.27 प्रतिशत था। उत्तराखंड के मतदाताओं के लिए बेरोजगारी मुख्य मुद्दा था। उसके बाद महंगाई दूसरा सबसे अहम मुद्दा था। इस राज्य में भाकपा और माकपा का यूकेडी(पवार) के साथ चुनावी गठबंधन था। यूकेडी (पी) ने 44 सीटों पर चुनाव लड़ा था और उसे सिर्फ एक सीट पर सफलता मिली। इस तरह उसे दो सीटों का नुकसान हुआ।
वामदलों के लिए पंजाब में भी स्थिति काफी बुरी रही। यहां 117 विधानसभा सीटों के लिए हुए चुनाव में भाकपा ने 14 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे। एक भी सीट पर जीत नहीं मिली। पिछली बार भी उसे कोई सीट नहीं मिली थी। उसका मतों का हिस्सा 0.82 प्रतिशत रहा। पंजाब में इस बार 78.6 प्रतिशत मतदान हुआ। माकपा ने भी राज्य की नौ सीटों पर चुनाव लड़ा। पर उसका भी खाता नहीं खुला। उसके मतों का हिस्सा 0.16 फीसदी रहा। पिछली बार के मुकाबले 0.12 प्रतिशत प्वाइंट कम था। रहा मणिपुर का सवाल तो वहां भी यही स्थिति रही। मणिपुर में 28 जनवरी को 60 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए थे। इस बार यहां 80 प्रतिशत मतदान हुआ। माकपा दो सीटों पर चुनाव लड़ी। कोई सफलता नहीं मिली। उसको मिले मतों का हिस्सा 0.02 प्रतिशत था। पिछली बार के मुकाबले मतों में 0.06 प्रतिशत कमी आई थी। भाकपा ने इस राज्य में 24 सीटों पर चुनाव लड़ा। उसे भी कोई सफलता नहीं मिली। उसको 5.78 प्रतिशत मत मिले। पिछली बार के मुकाबले मतों का झुकाव 0.01 प्रतिशत कम रहा। मणिपुर में ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस ने 47 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे सात सीटों पर सफलता मिली। पिछली बार के मुकाबले उसे सात सीटों का फायदा हुआ। उसका मत प्रतिशत 21.77 प्रतिशत रहा। पिछली बार के मुकाबले उसके पक्ष में मतों का झुकाव + 17.00 प्रतिशत रहा।
गौर करने वाली बात यह है कि हिंदी पट्टी के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में एक समय भाकपा का ठीक-ठाक जनाधार था, लेकिन वक्त के साथ यह बढऩे के बजाय खत्म होता चला गया। आंकड़ों पर नजर डालें तो 1951 में भाकपा को इस राज्य के विधानसभा चुनाव में कोई सफलता नहीं मिली थी। सन् 57 में उसने नौ सीटें जीती। सन् 62 में 14, वर्ष 67 में 13, 69 में चार, 74 में 16, 77 में नौ, 80 में सात, 85 में छह, 91 में चार, 93 में तीन, 98 में एक और 2002, 2007 और 2012 के विधानसभा चुनावों में भाकपा को कोई सीट नहीं मिली।
यह जो पूरी तस्वीर है वह भाकपा और माकपा जैसे दो बड़े वामदलों दलों की संसदीय राजनीति में स्थिति को बयान करती है। न तो दोनों कहीं व्यापक जनांदोलनों का हिस्सा हैं और न ही संसदीय राजनीति में उनकी कोई हैसियत है। ऐसे में भविष्य में स्थिति क्या होगी सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा इस देश में पिछले डेढ़ दशक में हजारों की संख्या में किसानों ने आत्महत्या की है, लेकिन वामदल इन क्षेत्रों से एकदम गायब रहे हैं।
बंगाल में माकपा ने जो गलतियां की हैं उसे लेकर उसमें बहुत अधिक पछतावे जैसी बात भी नहीं है। उल्टा वह अपनी आलोचना से आहत है। पार्टी की सांगठनिक रिपोर्ट में कहा गया कि पश्चिम बंगाल में चुनावी हार के बाद वाममोर्चा के सहयोगियों में असंतोष के स्वर रहे हैं, इनमें से कई ने सार्वजनिक रूप से चुनावी हार के लिए माकपा को जिम्मेदार ठहराया। इस तरह के आरोप उस समय लगाए गए जब माकपा पर जबरदस्त हमले हो रहे थे और बड़ी संख्या में कामरेड मारे जा रहे थे। शासक वर्ग के द्वारा किए गए हमलों के समय हमने पहले भी कुछ वामदलों को डांवाडोल होते हुए देखा है। माकपा की इस भाषा से साफ है वह अभी भी स्टालिनवाद से बाहर निकलने को तैयार नहीं है।
अगर भविष्य में पश्चिम बंगाल में उसे संजीवनी मिलती है तो यह उसके अपने कारण नहीं होगा बल्कि यह ममता बनर्जी की ओर से लगातार की जा रही भयावह मूर्खताओं के कारण होगा।
कांग्रेस में करोड़ों की जो धनराशि खर्च की गई वह कारपोरेट घरानों की कृपा से मिली। शायद यह नए कम्युनिस्टों की पुराने कम्युनिस्टों को श्रद्धांजलि थी। अगर आज ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद होते तो शायद आंसू बहाने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। ई.एम.एस. ने एक बार टाटा समूह से आठ लाख रुपए ठुकरा दिए थे। कांग्रेस में पानी की तरह जो पैसा बहाया गया उसमें बड़ा हिस्सा व्यापारिक घरानों और व्यापारियों का था। खासकर सोने और रत्नों का कारोबार करने वाले व्यापारियों का। अंग्रेजी दैनिक मेल टुडे ने चार अप्रैल 2012 के अंक में एक रिपोर्ट में पार्टी सूत्रों के हवाले से लिखा कि जेवरातों का कारोबार करने वाली कंपनी मालाबार गोल्ड ने, जो कि केरल के बाजार में घुसने के लिए जबरदस्त जद्दोजहद कर रही है, माकपा की कांग्रेस के लिए 25 लाख रुपए दिए। अखबार ने लिखा है कि पार्टी के एक अंदरूनी व्यक्ति के अनुसार एक व्यवसायी ने ऐतिहासिक शहर कोझिकोड में टीपू सुल्तान के फोर्ट की प्रतिकृति बनाने के लिए करोड़ों रुपए दिए जो कि पार्टी कांग्रेस का एक हिस्सा था।
”केरल में दो ही राजनीतिक मोर्चे हैं। एक कांग्रेस के नेतृत्व वाला और दूसरा माकपा के नेतृत्व वाला। कारपोरेट घराने माकपा को किसी तरह से नाराज नहीं करना चाहते हैं। इस तरह का ‘डोनेशन’ व्यापारिक घरानों के लिए एक दीर्घकालिक निवेश होता है। वरिष्ठ पत्रकार अप्पूकुट्टन वल्लीकुन्नु, जिन्हें पार्टी के आधिकारिक पत्र देशभिमानी से हटा दिया गया था, ने कांग्रेस के लिए धन के प्रवाह का ब्यौरा बताया था। उन्होंने आरोप लगाया था कि कांग्रेस के विस्तृत ब्यौरे को निश्चित करने के लिए एक माह पहले बुलाई गई एक बैठक में पहली पंक्ति की सभी सीटें व्यवसायिक दिग्गजों के लिए आरक्षित रखी गई थीं और ढाई करोड़ से ज्यादा रुपये का प्रस्ताव रखा गया था। पार्टी ने अगले ही दिन देशभिमानी में घोषणा करके इसकी पुष्टि भी की।”
इस तरह की वाम राजनीति होगी तो वामदलों के जनसंगठनों की स्थिति क्या होगी? नया खून इन संगठनों में आ नहीं रहा है। अगर परंपरागत गढ़ों को छोड़ दिया जाए तो वामदलों के पास युवा कार्यकर्ताओं की संख्या में गिरावट आ रही है। इसकी पुष्टि माकपा के मुखपत्र पीपुल्स डेमोक्रेसी में भी की गई है। पीपुल्स डेमोक्रेसी के अनुसार युवा, छात्र और महिला मोर्चों में सदस्यों की कुल संख्या में काफी गिरावट आई है। महिला मोर्चे पर जो सदस्यता की स्थिति है वह इस प्रकार है- वर्ष 2008 में कुल सदस्य संख्या 1,19,21,719, थी जो 2011 में घटकर 1,07,01,810 रह गई थी। इसी तरह यूथ फ्रंट का में वर्ष 2008 में 1,75,40,039 थी वर्ष 2011 में यह 1,34,72,478 रह गई थी। पार्टी की सदस्यता की वृद्धि की दर में भी यही प्रवृत्ति नजर आती है। जहां 1994 में 8.8 प्रतिशत, 1998 में 13.7 प्रतिशत, 2001 में 10.9 प्रतिशत, 2004 में 9 प्रतिशत, 2007 में 13.18 प्रतिशत थी 2011 में वह गिर कर 6.3 प्रतिशत पर पहुंच गई थी।
कुल मिलाकर जो तस्वीर बनती है उसका संकेत साफ है कि वामदल संघर्ष और जनांदोलनों के जरिए ही अपनी जो पुरानी जमीन बची है उसे बचा सकते हैं और नई बना सकते हैं। वरना उन्हें भविष्य में इतिहास की वस्तु बनने से कोई रोक नहीं सकता।
पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश वामपंथी विचारक तारिक अली पिछले दिनों भारत आए हुए थे। तारिक साठ के दशक के छात्र आंदोलन की देन हैं। आजकल वह न्यू लैफ्ट रिव्यू के संपादक मंडल में हैंऔर लंदन रिव्यू आफ बुक्स के लिए लिखा करते हैं। प्रस्तुत है इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित उमा विष्णु के लिए उनके साक्षात्कार के कुछ अंश:
…आपको क्या लगता है कि भारतीय वामपंथ प्रेरणा के लिए किस ओर देखे?
भारतीय वामपंथ को धार्मिक तरीके से नहीं सोचना चाहिए, यह कोई दैवीय नियम नहीं है। उन्हें भारत को देखते हुए एक नक्शा बनाना चाहिए और भारत में जो है उसके हिसाब से रास्ता तय करना चाहिए। वामपंथ को हर समय आलोचना में लगे रहने के बजाए, जो किया जाना चाहिए, उसे देखते हुए ठोस विकल्पों को प्रस्तुत करना चाहिए। लेकिन माकपा के अलावा सामाजिक आंदोलन भी हैं और फिर माओवादी हैं। माओवादियों का फिर से सामने आना ही इस राज्य की जबर्दस्त भत्र्सना है, जो कि हाशिये के लोगों के लिए कुछ नहीं कर पाया है।
प्रधानमंत्री ने माओवादियों को ”सबसे बड़ा आंतरिक खतरा” बतलाया है।
सबसे बड़ा आंतरिक खतरा तो सरकार की गरीबों को मदद न कर पाने की अक्षमता है। अब माओवादी फिर से सामने आ गए हैं – अपहरण हो रहे हैं, हत्याएं हो रही हैं। यह बेवकूफाना है। उन्होंने अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है। लेकिन मैं सोचता हूं उन्हें अकेला कर देना या खत्म कर देना ज्यादा लंबे समय तक कारगर नहीं होगा। इसका सीधा-सा मतलब दमन होगा और उनका दमन दूसरी ओर क्रोध पैदा करेगा तथा स्थितियां वहीं पहुंचेंगी जहां आज हैं।
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