कोई फरक नहीं अलबत्ता......
कांग्रेस और भाजपा दोनों ही नीतिओं के स्तर पर एक हैं. दोनों नई आर्थिक नीतियों की पक्षधर हैं. जनता वोट देती है लेकिन संप्रग- राजग सरकार कारपोरेट जगत की गुलामी करती हैं. फर्क के नाम पर एक शब्द आड़े आता है वह है साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता. लेकिन यह भी इनका छद्म आवरण ही है. वाजपेयी जी जब पहली बार सरकार बनाने से चुके थे, चूकने के पूर्व भाषण दिया था कि भाजपा के सभी मूल एजेंडे (कामन सिविल कोड, राम मंदिर, कश्मीर आदि) ताक पर रखने के लिए तैयार हैं. बाद किया भी वही. सिर्फ नरसिंह राव-मन मोहन के "सुधारों" को आगे बढाते रहे. संप्रग सरकार हर घपले पर कहती है कि हम तो भाजपा नीत सरकार के फैसलों पर अमल कर रहे हैं. दोनों के माई-बाप वैश्विक कारपोरेट्स हैं, जनता साधन है जिससे वोट ले लेते हैं. मोदी अभी कारपोरेट्स के नए खैरख्वाह के रूप में अपने आप को प्रमाणित करने में लगे हैं. रही बात उनके पीएम बनाने की तो न इसे भाजपा तय करेगी न आरएसएस. कांग्रेस को यदि तीसरी बार आना है तो यह उनके हाथ में नहीं है.
असल मुद्दा देश के पर्याप्त गुलाम हो जाने का है. डंकल प्रस्ताव से लेकर अभी तक देश सरपट उसी दिशा में जा रहा है जहां अमेरिकी-यूरोपीय भेजना चाहते हैं. समूचा यूरोप घपले में पड़ा है, अमेरिका भी बहुत परेशान है. हमेशा चारों ओर से घेरेबंदी कर रहे हैं. अरब देशों में मनचाही अस्थिरता फैला ही दी है ताकि अपार सम्पदा (तेल) पर नियंत्रण हो जाए. चीन को घेरने पाकिस्तान, भारत, अफगानिस्तान सहित बहुत से देशों को धमकाए पड़ा है. भारत में दोनों गठबन्धनों में से कोई भी अमेरिका के खिलाफ नहीं है. हाँ देश की जनता को बांटे रखकर, विभ्रम फैलाकर सत्ता हथियाने की जुगत ही कर रहे हैं.
अभी कोई विकल्प भी नहीं है. पिछले लोकसभा चुनाव में एक बेहद भौंडा मोर्चा बना था. हश्र ये हुआ कि जनता दल (एस) के कुमार स्वामी रिजल्ट के पहले ही दस जनपथ हो आये. मायावती जी जिसे प्रधानमंत्री का लालीपाप दिया गया था, बिना शर्त आज तक संप्रग का समर्थन कर रही हैं. जयललिता जी को सिर्फ तमिलनाडु से मतलब है. उनका काम तो हो ही गया. बच गए वामपंथी- वे धन भी गए और धरम से भी. न बंगाल बचा न केरल. खुरचन में बिहार, महाराष्ट्र, यूपी सहित देश सभी हिस्सों में बूढों के सहारे अपने आप को ढो रहे हैं. असफलताओं ने और भी दिग्भ्रमित कर दिया है. तीसरे मोर्चे से अब सीपीएम को एलर्जी हो गई है तो वर्धन साहब को अभी अकल नहीं आई है. क्षेत्रीय दल या तो भाजपा के साथ हैं या कांग्रेस के. इनकी भी नीति स्पष्ट है. ममता बनर्जी खूब चर्चा में हैं सरकार के फैसलों में अडंगा डाल रही हैं, लेकिन यह उनकी मजबूरी है. 33 साल के वामपंथी भाषण सुनने वाली जनता के लिए इस तरह की हरकतें जरूरी हैं, वरना बंगाल की खाड़ी में नजर आयेंगी.
कांग्रेस और भाजपा दोनों ही नीतिओं के स्तर पर एक हैं. दोनों नई आर्थिक नीतियों की पक्षधर हैं. जनता वोट देती है लेकिन संप्रग- राजग सरकार कारपोरेट जगत की गुलामी करती हैं. फर्क के नाम पर एक शब्द आड़े आता है वह है साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता. लेकिन यह भी इनका छद्म आवरण ही है. वाजपेयी जी जब पहली बार सरकार बनाने से चुके थे, चूकने के पूर्व भाषण दिया था कि भाजपा के सभी मूल एजेंडे (कामन सिविल कोड, राम मंदिर, कश्मीर आदि) ताक पर रखने के लिए तैयार हैं. बाद किया भी वही. सिर्फ नरसिंह राव-मन मोहन के "सुधारों" को आगे बढाते रहे. संप्रग सरकार हर घपले पर कहती है कि हम तो भाजपा नीत सरकार के फैसलों पर अमल कर रहे हैं. दोनों के माई-बाप वैश्विक कारपोरेट्स हैं, जनता साधन है जिससे वोट ले लेते हैं. मोदी अभी कारपोरेट्स के नए खैरख्वाह के रूप में अपने आप को प्रमाणित करने में लगे हैं. रही बात उनके पीएम बनाने की तो न इसे भाजपा तय करेगी न आरएसएस. कांग्रेस को यदि तीसरी बार आना है तो यह उनके हाथ में नहीं है.
असल मुद्दा देश के पर्याप्त गुलाम हो जाने का है. डंकल प्रस्ताव से लेकर अभी तक देश सरपट उसी दिशा में जा रहा है जहां अमेरिकी-यूरोपीय भेजना चाहते हैं. समूचा यूरोप घपले में पड़ा है, अमेरिका भी बहुत परेशान है. हमेशा चारों ओर से घेरेबंदी कर रहे हैं. अरब देशों में मनचाही अस्थिरता फैला ही दी है ताकि अपार सम्पदा (तेल) पर नियंत्रण हो जाए. चीन को घेरने पाकिस्तान, भारत, अफगानिस्तान सहित बहुत से देशों को धमकाए पड़ा है. भारत में दोनों गठबन्धनों में से कोई भी अमेरिका के खिलाफ नहीं है. हाँ देश की जनता को बांटे रखकर, विभ्रम फैलाकर सत्ता हथियाने की जुगत ही कर रहे हैं.
अभी कोई विकल्प भी नहीं है. पिछले लोकसभा चुनाव में एक बेहद भौंडा मोर्चा बना था. हश्र ये हुआ कि जनता दल (एस) के कुमार स्वामी रिजल्ट के पहले ही दस जनपथ हो आये. मायावती जी जिसे प्रधानमंत्री का लालीपाप दिया गया था, बिना शर्त आज तक संप्रग का समर्थन कर रही हैं. जयललिता जी को सिर्फ तमिलनाडु से मतलब है. उनका काम तो हो ही गया. बच गए वामपंथी- वे धन भी गए और धरम से भी. न बंगाल बचा न केरल. खुरचन में बिहार, महाराष्ट्र, यूपी सहित देश सभी हिस्सों में बूढों के सहारे अपने आप को ढो रहे हैं. असफलताओं ने और भी दिग्भ्रमित कर दिया है. तीसरे मोर्चे से अब सीपीएम को एलर्जी हो गई है तो वर्धन साहब को अभी अकल नहीं आई है. क्षेत्रीय दल या तो भाजपा के साथ हैं या कांग्रेस के. इनकी भी नीति स्पष्ट है. ममता बनर्जी खूब चर्चा में हैं सरकार के फैसलों में अडंगा डाल रही हैं, लेकिन यह उनकी मजबूरी है. 33 साल के वामपंथी भाषण सुनने वाली जनता के लिए इस तरह की हरकतें जरूरी हैं, वरना बंगाल की खाड़ी में नजर आयेंगी.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें