मंगलवार, 16 अगस्त 2011

उदार अर्थव्यवस्था का क्रूर चेहरा

सुभाष चंद्र कुश्वाहा

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वैश्विक बाजारों में एकाएक गिरावट से भारतीय बाजार का धराशायी होना, और पलक झपकते ही करोड़ों के वारे-न्यारे हो जाना उदारीकृत अर्थव्यवस्था से जन्मे लूटतंत्र का क्रूरतम खेल है। यही इस अर्थव्यवस्था का प्राण भी है।

गरीब और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था को संचालित करनेवाली महाशक्तियां उनकी नीतियों को अपने सापेक्ष तैयार करवाती हैं। बाजार अपने-आप नहीं गिरता, बल्कि ये महाशक्तियां जब चाहती हैं, तब तात्कालिक कारण पैदा कर बाजार को गिरा देती हैं। बाजार गिरते ही वे खरीदारी करने लगती हैं, फिर बाजार को चढ़ाकर अपना पैसा निकाल पुनः बाजार को गिरा देती हैं। इस प्रकार बाजार को चढ़ाने, उतारने का अंतहीन खेल शेयर बाजार में चलता रहता है।

मुक्त अर्थव्यवस्था का ही परिणाम है कि हमारा बाजार विश्व के बड़े खिलाड़ियों के हाथों में चला गया है। विदेशी निवेशक कब हमें बरबाद कर बाहर चले जाएंगे, यह समझ पाना आसान नहीं है। हमारा तंत्र उनकी गतिविधियों को रोक नहीं सकता। खुली अर्थव्यवस्था का यह एक ऐसा खेल है, जिसमें बड़े खेलते हैं और छोटे पिटते हैं। यह सब कुछ कानूनसम्मत प्रक्रिया के तहत होता है। इस ‘लूट’ को आप लुट जाने के बावजूद लूट नहीं कह सकते। यह प्रक्रिया खून बेचने वाले मजबूरों के शोषण की तरह चलती है। मसलन, कोई गरीब पैसे के लिए रक्त बेचता है और बदले में खरीददार उसे खाने-पीने के लिए कुछ रकम दे देता है। रक्तदाता खा-पीकर रक्त बटोरता है और फिर खरीदार सूई लगाकर उसका रक्त निचोड़ लेता है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। मामला कानूनसम्मत है, इसलिए कोई विरोध नहीं कर सकता। मुक्त अर्थव्यवस्था इसी तरह गरीबों को लूटती है और इसमें सहयोगी होता है, देश का तंत्र ।
विगत शुक्रवार को शेयर बाजार औंधे मुंह गिर पड़ा। मुंबई शेयर बाजार के निवेशकों के 1.33 लाख करोड़ रुपये पल भर में लुट गए। फिर भी कहीं कोई बेचैनी नहीं देखी गई। वित्त मंत्री लुटते बाजार को शांत करते हुए कहते दिखे कि घरेलू बाजार में कुछ भी ऐसा नहीं हुआ है, जिससे घबड़ाने की जरूरत हो। उनका कहना था कि अमेरिकी बाजार की मंदी के कारण ऐसा हुआ है। अब ऐसी साफगोई सुन लुटा निवेशक करे, तो क्या करे? जब देश का बाजार विदेशी कारणों से लुटता हो, तब आप स्वयं को सार्वभौमिक गणराज्य कैसे कह सकते हैं? मजबूरी का आलम यह है कि रिजर्व बैंक को कहना पड़ता है कि भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव के साथ जीना सीखना चाहिए। कुल मिलाकर आशय यह कि हम कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं हैं।
विश्व अर्थव्यवस्था को जिस रास्ते पर महाशक्तियां ले गई हैं, वह अनिश्चितता का बाजार है। ऐसे अनिश्चितता के बाजार में वही बचता है, जो चालाक और धूर्त होता है। जो सीधे-साधे होते हैं, वे लूट लिए जाते हैं। यहां छोटे खिलाड़ी बड़ों की घेरेबंदी में रहकर समय-समय पर अपनी गाढ़ी कमाई उनकी झोली में डालने को मजबूर होंगे। बड़े खिलाड़ी बिना युद्ध लड़े बहुतों पर शासन करते रहेंगे।

देश के तमाम लेखक, बुद्धिजीवी बाजारवाद के दुष्परिणामों से लगातार आगाह करते रहे हैं और इसे औपनिवेशिक मुखौटा बताते रहे हैं, पर उनकी चेतावनियों को वामपंथियों का प्रलाप बताकर कुछ अंगरेजीदां विद्वान बाजारीकरण का गुणगान करते रहे हैं। लेकिन अब बाजारवाद की असलियत सामने आ गई है। पूरी दुनिया इस अर्थव्यस्था की विसंगतियों से कराह रही है। बढ़ती महंगाई, खाद्यान्न संकट और दुनिया भर में हो रहे विद्रोह इस बात के गवाह हैं कि गुलाबी तसवीरों से विश्व के बहुसंख्यक लोगों का पेट नहीं भरनेवाला। महाशक्तियां दुनिया पर आधिपत्य जमाने के लिए गरीब मुल्कों की अर्थव्यवस्था को अपने नियंत्रण में लेना चाहती हैं । वे चाहती हैं कि हम अपनी आजादी का उपभोग उनके निर्देशों पर करें। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था एक तरह से औपनिवेशिक सत्ता का ही बदला रूप है । देखना यह है कि हम कब तक सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव पर इतराते रहेंगे और कब तक रिमोट कंट्रोल से संचालित होने के बावजूद स्वयं को आजाद बताते रहेंगे!

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