राम पुनियानी::
देश के सामने किसी भी तरह की समस्या खड़े होने पर उससे निपटने की पहली जिम्मेदारी सरकार की होती है। आखिर कोई भी राजनीतिक पार्टी चुनाव के समय इस तरह के आश्वासन देकर ही सत्ता में आती है। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में केंद्र सरकार शुरू से ही गलती करती रही। उसने कभी यह एहसास नहीं दिलाया कि वह अपने विकल्पों के साथ किसी समाधान के लिए प्रयासरत है। बल्कि अपने अहंकारी रवैये और स्वयं का कुछ न बिगड़ने की सोच वाली धारणा के साथ वह पूरे मामले से निपटती दिखी।
अन्ना हजारे को आंदोलन करने से रोका नहीं जाना चाहिए था। जिस तरह उनकी गिरफ्तारी हुई और फिर नाटकीय बयानबाजी का दौर चलता रहा, उससे यही लगा कि सरकार को सूझ नहीं रहा कि वह मामले से किस तरह निपटे। इस तरह गिरफ्तारी तो होनी ही नहीं चाहिए थी। गृह मंत्री का यह कहना, कि अन्ना कहां हैं, उन्हें मालूम नहीं, सरकार की दिशाहीनता के बारे में ही बताता था। अन्ना और उनकेआंदोलन का रुख भांपने का भी उसमें तजुर्बा नहीं दिखा।
अन्ना हजारे ने जिस तरह मुहिम छेड़ी है, उसके दूसरे पहलू पर भी मंथन करना चाहिए। आंदोलन में एक गति जरूर दिखती है, लेकिन यह कहीं झोल खाता हुआ भी नजर आता है। आखिर समाज में कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। लेकिन अन्ना हजारे और उनके लोग जनलोकपाल विधेयक को ही सारी समस्याओं का समाधान मान रहे हैं। एक मुद्दे पर ही केंद्रित हो जाने की बात समझ में नहीं आती। सरकार को तो अड़ियल रवैया सुधारना ही चाहिए, संघर्ष करने वाले भी थोड़ा लचीला रुख अपनाएं, तो किसी समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है। संसद में किसी विधेयक में संशोधन की भी व्यवस्था होती है। कुछ कदम तो चलें। आगे तर्क-वितर्क और बहस से कुछ समाधान निकल सकता है।
आम आदमी त्रस्त है और राजनेताओं को इसकी चिंता नहीं है। इसी का नतीजा है कि तमाम तरह की विकृतियां हमारी व्यवस्था में समा गई है। व्यवस्था को साफ-सुथरा बनाने की इच्छाशक्ति कहीं नजर नहीं आती। इसलिए अन्ना हजारे ने जब आवाज उठाई, तो लोग उनके साथ जुड़ते चले गए। उनमें लोग अपनी समस्याओं का समाधान देख रहे हैं। पर अब भी अन्ना हजारे के साथ एक निश्चित वर्ग नजर आता है। इस आवाज को और व्यापक बनाया जा सकता है। महंगाई और भ्रष्टाचार विकराल रूप से हमारे सामने है। आम लोगों का जीवन कठिन होता जा रहा है। निराशा इस कारण भी है कि समस्याओं से निपटने की कोई कोशिश सरकार में नजर नहीं आती। पता नहीं, उसे यह सीख कहां से मिली कि सत्ता में रहते हुए विपक्ष की तरह चिल्लाओ, सवाल उठाने वालों पर कीचड़ उछालो, अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल कर दूसरों की नैतिकता को खत्म कर दो। तू, तुम की जुबान से देश नहीं चलता। ऐसा आचरण देश को शर्मसार करता है। नतीजा सामने है। सरकार और पार्टी, दोनों ने अपनी छवि खोई।
इस समय के हालात को आपातकाल की तरह बताया जा रहा है। बेशक दिक्कतें हैं, पर आपातकाल जैसी बात नहीं कह सकते। आपातकाल में तो संविधान को कुचला गया था। यहां तो अन्ना हजारे गरज रहे हैं। मीडिया को भी रोकने वाला कोई नहीं। इस आंदोलन में सरकार की कारगुजारी को मीडिया ने जिस तरह उछाला, वह क्या आपातकाल में संभव था। इसे आजादी की दूसरी लड़ाई भी नहीं कह सकते। आजादी आई है, इसीलिए आज हमारी अभिव्यक्ति और मुखर है। आजादी की लड़ाई ने हमें गहरी निराशा से बाहर निकाला था। आज हमारे पास बहुत कुछ अपना है। हां, कुछ ऐसे अधूरे संकल्प हैं, जिन्हें पूरा करना है।
अन्ना के आंदोलन का महत्व इस बात के लिए है कि वह गांधीवादी तरीका अपनाने की कोशिश करते हुए दिखते हैं। वह इस बात पर पूरे ईमानदार नजर आते हैं कि उनका तरीका अहिंसात्मक हो। वह अपने लक्ष्य को लेकर हड़बड़ी में नहीं दिखते। तथ्यों के आधार पर आप उनसे असहमत भले हो सकते हैं, लेकिन उनकी निष्ठा और जीवन मूल्य पर सवाल नहीं कर सकते। सवाल थोड़ी असहमति का है, तो इसलिए कि हम उनसे थोड़े लचीलेपन की उम्मीद करते हैं। हालांकि देखा जाए, तो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में भी कुछ कमियां थीं। वह आंदोलन और गहरा हो सकता था। फिर भी आज आंदोलनों को खड़ा करते हुए उससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। उस आंदोलन में हर तबका जुड़ गया था। अगर आज की तरह तब भी मीडिया इतना सक्षम होता, तो उसकी ऊष्मा दूर-दूर तक महसूस होती। आज की चुनौतियां विकट हैं और शासक निरंकुश है। यह बात हताशा की ओर ले जाती है।
अन्ना के आंदोलन से स्वर मुखर हुए हैं, लेकिन कठिनाइयां बहुत हैं। लक्ष्य इतने आसान भी नहीं हैं। आंदोलन एक या दो दिन का नहीं होता। जो समस्याएं हैं, उनसे लड़ाई लंबी है। पर डर यही है कि इसका फायदा दूसरी शक्तियां न उठा लें। अन्ना हजारे और उनके साथियों को इसे तरीके से नियंत्रित करना होगा। जरा भी लगे कि यह किसी राजनीतिक पार्टी का हथियार बनने जा रहा है, तो इसके नतीजे देश हित में नहीं होंगे। अन्ना हजारे की सबसे बड़ी लड़ाई तो यही है कि वह आंदोलन को साफ-सुथरा बनाए रखें और उसे जन-जन से जोड़ने की कोशिश करते रहें। यह उम्मीद उनसे है, क्योंकि वह ऐसा करने में सक्षम हैं।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
देश के सामने किसी भी तरह की समस्या खड़े होने पर उससे निपटने की पहली जिम्मेदारी सरकार की होती है। आखिर कोई भी राजनीतिक पार्टी चुनाव के समय इस तरह के आश्वासन देकर ही सत्ता में आती है। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में केंद्र सरकार शुरू से ही गलती करती रही। उसने कभी यह एहसास नहीं दिलाया कि वह अपने विकल्पों के साथ किसी समाधान के लिए प्रयासरत है। बल्कि अपने अहंकारी रवैये और स्वयं का कुछ न बिगड़ने की सोच वाली धारणा के साथ वह पूरे मामले से निपटती दिखी।
अन्ना हजारे को आंदोलन करने से रोका नहीं जाना चाहिए था। जिस तरह उनकी गिरफ्तारी हुई और फिर नाटकीय बयानबाजी का दौर चलता रहा, उससे यही लगा कि सरकार को सूझ नहीं रहा कि वह मामले से किस तरह निपटे। इस तरह गिरफ्तारी तो होनी ही नहीं चाहिए थी। गृह मंत्री का यह कहना, कि अन्ना कहां हैं, उन्हें मालूम नहीं, सरकार की दिशाहीनता के बारे में ही बताता था। अन्ना और उनकेआंदोलन का रुख भांपने का भी उसमें तजुर्बा नहीं दिखा।
अन्ना हजारे ने जिस तरह मुहिम छेड़ी है, उसके दूसरे पहलू पर भी मंथन करना चाहिए। आंदोलन में एक गति जरूर दिखती है, लेकिन यह कहीं झोल खाता हुआ भी नजर आता है। आखिर समाज में कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। लेकिन अन्ना हजारे और उनके लोग जनलोकपाल विधेयक को ही सारी समस्याओं का समाधान मान रहे हैं। एक मुद्दे पर ही केंद्रित हो जाने की बात समझ में नहीं आती। सरकार को तो अड़ियल रवैया सुधारना ही चाहिए, संघर्ष करने वाले भी थोड़ा लचीला रुख अपनाएं, तो किसी समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है। संसद में किसी विधेयक में संशोधन की भी व्यवस्था होती है। कुछ कदम तो चलें। आगे तर्क-वितर्क और बहस से कुछ समाधान निकल सकता है।
आम आदमी त्रस्त है और राजनेताओं को इसकी चिंता नहीं है। इसी का नतीजा है कि तमाम तरह की विकृतियां हमारी व्यवस्था में समा गई है। व्यवस्था को साफ-सुथरा बनाने की इच्छाशक्ति कहीं नजर नहीं आती। इसलिए अन्ना हजारे ने जब आवाज उठाई, तो लोग उनके साथ जुड़ते चले गए। उनमें लोग अपनी समस्याओं का समाधान देख रहे हैं। पर अब भी अन्ना हजारे के साथ एक निश्चित वर्ग नजर आता है। इस आवाज को और व्यापक बनाया जा सकता है। महंगाई और भ्रष्टाचार विकराल रूप से हमारे सामने है। आम लोगों का जीवन कठिन होता जा रहा है। निराशा इस कारण भी है कि समस्याओं से निपटने की कोई कोशिश सरकार में नजर नहीं आती। पता नहीं, उसे यह सीख कहां से मिली कि सत्ता में रहते हुए विपक्ष की तरह चिल्लाओ, सवाल उठाने वालों पर कीचड़ उछालो, अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल कर दूसरों की नैतिकता को खत्म कर दो। तू, तुम की जुबान से देश नहीं चलता। ऐसा आचरण देश को शर्मसार करता है। नतीजा सामने है। सरकार और पार्टी, दोनों ने अपनी छवि खोई।
इस समय के हालात को आपातकाल की तरह बताया जा रहा है। बेशक दिक्कतें हैं, पर आपातकाल जैसी बात नहीं कह सकते। आपातकाल में तो संविधान को कुचला गया था। यहां तो अन्ना हजारे गरज रहे हैं। मीडिया को भी रोकने वाला कोई नहीं। इस आंदोलन में सरकार की कारगुजारी को मीडिया ने जिस तरह उछाला, वह क्या आपातकाल में संभव था। इसे आजादी की दूसरी लड़ाई भी नहीं कह सकते। आजादी आई है, इसीलिए आज हमारी अभिव्यक्ति और मुखर है। आजादी की लड़ाई ने हमें गहरी निराशा से बाहर निकाला था। आज हमारे पास बहुत कुछ अपना है। हां, कुछ ऐसे अधूरे संकल्प हैं, जिन्हें पूरा करना है।
अन्ना के आंदोलन का महत्व इस बात के लिए है कि वह गांधीवादी तरीका अपनाने की कोशिश करते हुए दिखते हैं। वह इस बात पर पूरे ईमानदार नजर आते हैं कि उनका तरीका अहिंसात्मक हो। वह अपने लक्ष्य को लेकर हड़बड़ी में नहीं दिखते। तथ्यों के आधार पर आप उनसे असहमत भले हो सकते हैं, लेकिन उनकी निष्ठा और जीवन मूल्य पर सवाल नहीं कर सकते। सवाल थोड़ी असहमति का है, तो इसलिए कि हम उनसे थोड़े लचीलेपन की उम्मीद करते हैं। हालांकि देखा जाए, तो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में भी कुछ कमियां थीं। वह आंदोलन और गहरा हो सकता था। फिर भी आज आंदोलनों को खड़ा करते हुए उससे काफी कुछ सीखा जा सकता है। उस आंदोलन में हर तबका जुड़ गया था। अगर आज की तरह तब भी मीडिया इतना सक्षम होता, तो उसकी ऊष्मा दूर-दूर तक महसूस होती। आज की चुनौतियां विकट हैं और शासक निरंकुश है। यह बात हताशा की ओर ले जाती है।
अन्ना के आंदोलन से स्वर मुखर हुए हैं, लेकिन कठिनाइयां बहुत हैं। लक्ष्य इतने आसान भी नहीं हैं। आंदोलन एक या दो दिन का नहीं होता। जो समस्याएं हैं, उनसे लड़ाई लंबी है। पर डर यही है कि इसका फायदा दूसरी शक्तियां न उठा लें। अन्ना हजारे और उनके साथियों को इसे तरीके से नियंत्रित करना होगा। जरा भी लगे कि यह किसी राजनीतिक पार्टी का हथियार बनने जा रहा है, तो इसके नतीजे देश हित में नहीं होंगे। अन्ना हजारे की सबसे बड़ी लड़ाई तो यही है कि वह आंदोलन को साफ-सुथरा बनाए रखें और उसे जन-जन से जोड़ने की कोशिश करते रहें। यह उम्मीद उनसे है, क्योंकि वह ऐसा करने में सक्षम हैं।
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)
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