सूफ़ी गुलाम मुस्स्तफ़ा ‘तबस्सुमुम’
‘शामे शहरे यारां’ नामक फ़ैज़ के संग्रह की भूमिका में उनके कालेज के छात्रा जीवन की कुछ यादें
उनके शिक्षक तबस्सुम साहब ने दर्ज़ की हैं, ख़ासकर, परीक्षा के सभागार में सिगरेट पीने पर पाबंदी
के कारण बेचैनी और फिर इजाज़त मिल जाने पर कलम की चाल और सिगरेट की कश में
मुक़ाबले की दिलचस्प दास्तान। संन् 1931 था और अक्टूबर का महीना। मुझे सेंट्रल टेनिंग
कॉलेज से गर्वमेंट कॉलेज में आये हुए कोई तीन हफ़्ते गुज़रे थे। पिछले स्कूल में पढ़ने-पढ़ाने की
ख़ुश्क फ़ज़ा और अनुशासन की सख़्ती से तबीयत घुटी-घुटी सी थी। नये कॉलेज में आते ही
तबीयत में खुशी की एक लहर दौड़ गयी। शेरो-शायरी का शौक़ फिर से उभरा। चुनांचे
‘बज़्मे-सुख़न’ की ओर से एक बड़े मुशायरे की सदारत (अध्यक्षता) प्रो. पतरस बुख़ारी के सुपुर्द हुई।
शाम होते ही कॉलेज का हाल छात्रों से भर गया। स्टेज की एक तरफ़ ‘नियाजमंदाने-लाहौर’
अपनी पूरी शान से विराजमान थे। दूसरी ओर सामने लाहौर की तमाम साहित्यिक संस्थाओं के
नुमाइंदे क़तार में सजे बैठे थे। दोनों तरफ़ से सहृदयता और स्पर्धा के माहौल के बावजूद सारी
सभा एक-दूसरे का ख़ैर मक़दम (स्वागत) कर रही थी। रिबायती दस्तूर के मुताबिक अध्यक्ष ने
अपने कॉलेज के छात्रों से शेर पढ़ने का एलान किया। दो-एक छात्रा आये और बड़े अदब और
विनम्रता से कलाम पढ़कर चले गये। अचानक एक दुबला-पतला सा लड़का स्टेज पर प्रकट हुआ।
सियाह रंग, सादा लिबास, अंदाज़ में गंभीरता बल्कि रूखापन, चेहरे पर अजनबी होने का गहरा
एहसास। इधर-उधर कुछ फुसफुसाहट होने लगी। इतने में उसने कहा: अर्ज़ किया है। कलाम में
शुरुआती रियाज़ के बावजूद पुख़्तगी और शैली में सहजता थी। सब ने दाद दी। ये हफ़ीज़
होशियारपुरी थे।
फिर एक नौजवान आये, गोरे चिट्टे, चौड़ा माथा, चाल में शालीनता, आंखें और होंठ जैसे एक ही
समय में हल्की मुस्कान में डूबे हुए। शेर बड़े ढंग और सलीक़े से पढ़े। इशारे हुए, पतरस ने कुछ
मानीख़ेज नज़रों में लाहौर के ‘नियाज़मंदों’ से बातें कीं और उनकी हलकी ख़ामोशी को रज़ा
(सहमति) समझकर दोनों नौजवानों को दोबारा स्टेज पर बुलाया गया। नयी शायरी सुनी। फ़ैज़
साहब ने ग़ज़ल के अलावा एक नज़्म भी सुनायी। ग़ज़ल और नज़्म दोनों में सोच का अंदाज़ और
बयान का अछूता ढंग था। मुशायरा ख़त्म हुआ। तय पाया कि सभी दोस्त इन दोनों को साथ लेकर
ग़रीबख़ाने पर जमा हों।
रात काफ़ी गुज़र चुकी थी, उन्हें बोर्डिंग में पहुंचना था। बुख़ारी साहब ने उनकी ग़ैरहाज़िरी का
ज़िम्मा लिया और फिर घंटे भर के लिए शेरो-शायरी पर बातचीत होती रही। ये उनकी शायरी का
उस्तादों की हौसला अफ़ज़ाई का इम्तिहान था। दोनों कामयाब रहे।
अभी पूरा महीना भी नहीं गुज़रा था कि कॉलेज के इम्तिहान शुरू हुए। जिस दिन की मैं बात कर
रहा हूं उस दिन पतरस साहब कॉलेज हॉल में इम्तिहानात के कर्ताधर्ता थे और हम जैसे नये
तजर्बेकारों को छोटे कमरे सुपुर्द किये गये थे। मुझे कॉलेज की दूसरी मंज़िल में तैनात किया गया।
यहां एम.ए. इंग्लिश के छात्रा थे और उनमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी थे। इम्तिहान का कमरा पाबंदी
वाली जगह होती है। उम्मीदवारों के दिमाग़ी इम्तिहान के साथ-साथ धैर्य और अनुशासन का भी
इम्तिहान होता है। सिगरेट पीना मना था। मैंने अपनी आदत को दबाने के लिए पान का इंतज़ाम
कर लिया था। मगर फ़ैज़ साहब कभी सवालात के पर्चे पर नज़र डालते और कभी मेरी तरफ़
हल्की मुस्कराती नज़रों से देखते और फिर क़लम को उठाकर सर को खु़जाते और कभी ख़ामोशी
से अपने पड़ोसियों का हालचाल लेते, कभी-कभी उनका बायां हाथ ऐसे हरकत करता जैसे किसी
नामालूम राय को टटोल रहे हैं। मैं सोच रहा था। इतने में वो उठे और हमसे पूछा हमें यहां
सिगरेट पीने की इजाज़त है? मैंने कहा, मैं अभी बताता हूं। इतने में पतरस दूसरे कमरों का
मुआयना करते-करते मेरे कमरे के बाहर आकर खड़े हो गये। मैं जब सम्मान में प्लेटफ़ार्म से
उतरकर दरवाज़े पर पहुंचा तो उन्होंने, पूछा: सब कुछ ठीक है? मैंने कहा, जी!
मैंने अर्ज़ किया: प्रोफेसर साहब (मैं उन्हें प्रोफेसर साहब कहा करता था) कुछ छात्रा सिगरेट पीना
चाहते हैं। इजाज़त है? पतरस ने मेरे कान में दबी आवाज़ में कहा: ‘जब तक प्रोफेसर जोधसिंह
इस कॉलेज के प्रिंसीपल नहीं बनते, उस वक्त तक पी सकते हैं।’ और फिर मुस्करा कर चले गये।
मैंने अंदर आते ही फ़ैज़ साहब की तरफ़ देखा और इशारों से सिगरेट पीने का एलान किया। फ़ैज़
साहब के हाथ में फ़ौरन एक सिगरेट प्रकट हुआ। जैसे क़लम ही से उभर आया हो। फिर क़लम
की चाल और सिगरेट के कश में मुक़ाबिला शुरू हुआ और इस कशमकश में सुगंधित धुएं के
ग़्ाुब्बारे पूरे कमरे में फैल गये। मैं उस्ताद (शिक्षक) था, अनुशासन की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ बैठा
रहा और क़िवामदार पान को छोड़कर इस ख़ुशबू से अपने सिगरेट पीने के शौक़ के सुकून में डूब
गया। क्या मालूम था कि धुएं के ये ग्ुब्बारे कॉलेज की चारदीवारी से दूर-दूर तक फ़ज़ा में फैल
जायेंगे और उनमें सिगरेट पीने वाले की सुगंधित सांसों की खुशबूएं भी लहरायेंगी और शेरो-शायरी
और अदब की दुनिया को अपने आग़ोश (गोद) में ले लेंगी।
उर्र्दू से अनुवाद: गोबिंदं प्रसाद
‘शामे शहरे यारां’ नामक फ़ैज़ के संग्रह की भूमिका में उनके कालेज के छात्रा जीवन की कुछ यादें
उनके शिक्षक तबस्सुम साहब ने दर्ज़ की हैं, ख़ासकर, परीक्षा के सभागार में सिगरेट पीने पर पाबंदी
के कारण बेचैनी और फिर इजाज़त मिल जाने पर कलम की चाल और सिगरेट की कश में
मुक़ाबले की दिलचस्प दास्तान। संन् 1931 था और अक्टूबर का महीना। मुझे सेंट्रल टेनिंग
कॉलेज से गर्वमेंट कॉलेज में आये हुए कोई तीन हफ़्ते गुज़रे थे। पिछले स्कूल में पढ़ने-पढ़ाने की
ख़ुश्क फ़ज़ा और अनुशासन की सख़्ती से तबीयत घुटी-घुटी सी थी। नये कॉलेज में आते ही
तबीयत में खुशी की एक लहर दौड़ गयी। शेरो-शायरी का शौक़ फिर से उभरा। चुनांचे
‘बज़्मे-सुख़न’ की ओर से एक बड़े मुशायरे की सदारत (अध्यक्षता) प्रो. पतरस बुख़ारी के सुपुर्द हुई।
शाम होते ही कॉलेज का हाल छात्रों से भर गया। स्टेज की एक तरफ़ ‘नियाजमंदाने-लाहौर’
अपनी पूरी शान से विराजमान थे। दूसरी ओर सामने लाहौर की तमाम साहित्यिक संस्थाओं के
नुमाइंदे क़तार में सजे बैठे थे। दोनों तरफ़ से सहृदयता और स्पर्धा के माहौल के बावजूद सारी
सभा एक-दूसरे का ख़ैर मक़दम (स्वागत) कर रही थी। रिबायती दस्तूर के मुताबिक अध्यक्ष ने
अपने कॉलेज के छात्रों से शेर पढ़ने का एलान किया। दो-एक छात्रा आये और बड़े अदब और
विनम्रता से कलाम पढ़कर चले गये। अचानक एक दुबला-पतला सा लड़का स्टेज पर प्रकट हुआ।
सियाह रंग, सादा लिबास, अंदाज़ में गंभीरता बल्कि रूखापन, चेहरे पर अजनबी होने का गहरा
एहसास। इधर-उधर कुछ फुसफुसाहट होने लगी। इतने में उसने कहा: अर्ज़ किया है। कलाम में
शुरुआती रियाज़ के बावजूद पुख़्तगी और शैली में सहजता थी। सब ने दाद दी। ये हफ़ीज़
होशियारपुरी थे।
फिर एक नौजवान आये, गोरे चिट्टे, चौड़ा माथा, चाल में शालीनता, आंखें और होंठ जैसे एक ही
समय में हल्की मुस्कान में डूबे हुए। शेर बड़े ढंग और सलीक़े से पढ़े। इशारे हुए, पतरस ने कुछ
मानीख़ेज नज़रों में लाहौर के ‘नियाज़मंदों’ से बातें कीं और उनकी हलकी ख़ामोशी को रज़ा
(सहमति) समझकर दोनों नौजवानों को दोबारा स्टेज पर बुलाया गया। नयी शायरी सुनी। फ़ैज़
साहब ने ग़ज़ल के अलावा एक नज़्म भी सुनायी। ग़ज़ल और नज़्म दोनों में सोच का अंदाज़ और
बयान का अछूता ढंग था। मुशायरा ख़त्म हुआ। तय पाया कि सभी दोस्त इन दोनों को साथ लेकर
ग़रीबख़ाने पर जमा हों।
रात काफ़ी गुज़र चुकी थी, उन्हें बोर्डिंग में पहुंचना था। बुख़ारी साहब ने उनकी ग़ैरहाज़िरी का
ज़िम्मा लिया और फिर घंटे भर के लिए शेरो-शायरी पर बातचीत होती रही। ये उनकी शायरी का
उस्तादों की हौसला अफ़ज़ाई का इम्तिहान था। दोनों कामयाब रहे।
अभी पूरा महीना भी नहीं गुज़रा था कि कॉलेज के इम्तिहान शुरू हुए। जिस दिन की मैं बात कर
रहा हूं उस दिन पतरस साहब कॉलेज हॉल में इम्तिहानात के कर्ताधर्ता थे और हम जैसे नये
तजर्बेकारों को छोटे कमरे सुपुर्द किये गये थे। मुझे कॉलेज की दूसरी मंज़िल में तैनात किया गया।
यहां एम.ए. इंग्लिश के छात्रा थे और उनमें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भी थे। इम्तिहान का कमरा पाबंदी
वाली जगह होती है। उम्मीदवारों के दिमाग़ी इम्तिहान के साथ-साथ धैर्य और अनुशासन का भी
इम्तिहान होता है। सिगरेट पीना मना था। मैंने अपनी आदत को दबाने के लिए पान का इंतज़ाम
कर लिया था। मगर फ़ैज़ साहब कभी सवालात के पर्चे पर नज़र डालते और कभी मेरी तरफ़
हल्की मुस्कराती नज़रों से देखते और फिर क़लम को उठाकर सर को खु़जाते और कभी ख़ामोशी
से अपने पड़ोसियों का हालचाल लेते, कभी-कभी उनका बायां हाथ ऐसे हरकत करता जैसे किसी
नामालूम राय को टटोल रहे हैं। मैं सोच रहा था। इतने में वो उठे और हमसे पूछा हमें यहां
सिगरेट पीने की इजाज़त है? मैंने कहा, मैं अभी बताता हूं। इतने में पतरस दूसरे कमरों का
मुआयना करते-करते मेरे कमरे के बाहर आकर खड़े हो गये। मैं जब सम्मान में प्लेटफ़ार्म से
उतरकर दरवाज़े पर पहुंचा तो उन्होंने, पूछा: सब कुछ ठीक है? मैंने कहा, जी!
मैंने अर्ज़ किया: प्रोफेसर साहब (मैं उन्हें प्रोफेसर साहब कहा करता था) कुछ छात्रा सिगरेट पीना
चाहते हैं। इजाज़त है? पतरस ने मेरे कान में दबी आवाज़ में कहा: ‘जब तक प्रोफेसर जोधसिंह
इस कॉलेज के प्रिंसीपल नहीं बनते, उस वक्त तक पी सकते हैं।’ और फिर मुस्करा कर चले गये।
मैंने अंदर आते ही फ़ैज़ साहब की तरफ़ देखा और इशारों से सिगरेट पीने का एलान किया। फ़ैज़
साहब के हाथ में फ़ौरन एक सिगरेट प्रकट हुआ। जैसे क़लम ही से उभर आया हो। फिर क़लम
की चाल और सिगरेट के कश में मुक़ाबिला शुरू हुआ और इस कशमकश में सुगंधित धुएं के
ग़्ाुब्बारे पूरे कमरे में फैल गये। मैं उस्ताद (शिक्षक) था, अनुशासन की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ बैठा
रहा और क़िवामदार पान को छोड़कर इस ख़ुशबू से अपने सिगरेट पीने के शौक़ के सुकून में डूब
गया। क्या मालूम था कि धुएं के ये ग्ुब्बारे कॉलेज की चारदीवारी से दूर-दूर तक फ़ज़ा में फैल
जायेंगे और उनमें सिगरेट पीने वाले की सुगंधित सांसों की खुशबूएं भी लहरायेंगी और शेरो-शायरी
और अदब की दुनिया को अपने आग़ोश (गोद) में ले लेंगी।
उर्र्दू से अनुवाद: गोबिंदं प्रसाद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें