जोसफ़ इ स्टिंगलिज
9/11 के बाद अलकायदा से जितना बड़ा खतरा दिख रहा था, अब नहीं है. पर इस स्थिति तक पहुंचने में अमेरिका ने जो विशाल कीमत चुकायी है, उसका नतीजा अगली पीढ़ियों को भी भुगतना पड़ेगा.
ग्यारह सितंबर 2001 के आतंकी हमले के पीछे अलकायदा का मूल मकसद अमेरिका को नुकसान पहुंचाना था. उन्होंने बड़ा नुकसान पहुंचाया भी, लेकिन जिस तरीके से पहुंचाया उसकी कल्पना शायद अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन ने भी नहीं की होगी. हमले के बाद राष्ट्रपति जार्ज बुश ने अमेरिका के बुनियादी सिद्धांतों से समझौता किया, अपनी अर्थव्यवस्था को कमतर आंका और अपनी सुरक्षा को भी कमजोर बना दिया.
9/11 के बाद अफ़गानिस्तान पर किये हमले को समझा जा सकता है. पर बाद में इराक पर आक्रमण का अलकायदा से कोई संबंध नहीं था, हालांकि बुश ने इसके लिंक जोड़ने की कोशिश जरूर की थी. अमेरिका का यह युद्ध जल्द ही बहुत खर्चीला साबित होने लगा जबकि शुरू में केवल 60 अरब डॉलर का अनुमान था.
इससे अमेरिकी अक्षमता और गलतबयानी उजागर हो गयी. लिंदा बिल्म्स और मैंने तीन साल पहले अमेरिकी युद्धों के खर्च का अनुमान लगाया था, तो आंकड़ा तीन से पांच खरब डॉलर तक पहुंच चुका था. गत तीन वर्षो में यह खर्च और अधिक हो चुका है. इतना ही नहीं, वहां से लौट रहे करीब आधे सैनिक विकलांगता का भुगतान पाने के हकदार हैं और अब तक छह लाख से अधिक सैनिकों को विशेषज्ञ चिकित्सा सुविधाएं मुहैया करायी जा चुकी है. हमारा अनुमान है कि अमेरिका को भविष्य में सैनिकों के विकलांगता मुआवजे और चिकित्सा सुविधा के एवज में 600 से 900 अरब डॉलर का भुगतान करना है. लेकिन सैनिकों की आत्महत्या (जो हाल के वर्षो में औसतन 18 प्रतिदिन तक पहुंच चुकी है) और उनके पारिवारिक बिखराव से हो रहे सामाजिक नुकसान की कीमत नहीं आंकी जा सकती.
यदि हम बुश को गलत बहाने के साथ अमेरिका और दुनिया के कई हिस्सों पर युद्ध थोपने के लिए माफ़ कर भी दें, तो भी इन युद्धों में जिस तरह से उन्होंने बड़ी राशि झोंकने की अनुमति दी, उसके लिए कोई बहाना नहीं चल सकता. यह इतिहास का पहला ऐसा युद्ध था, जिसका पूरा भुगतान कर्ज लेकर किया गया. अमेरिका ने जिस वक्त युद्ध शुरू किया, कर राहत के कारण बजट घाटा पहले से बढ़ रहा था, फ़िर भी 2001 में बुश प्रशासन ने कर राहत के दूसरे दौर की घोषणा की थी.
आज अमेरिका बेरोजगारी और बजट घाटे पर ध्यान केंद्रित कर रहा है. दोनों अमेरिका के भविष्य के लिए बड़े खतरे साबित हो रहे हैं, जिनकी जड़ें इराक और अफ़गानिस्तान युद्ध में तलाशी जा सकती हैं. बढ़ा रक्षा खर्च और कर राहत, ये दो मुख्य कारण हैं, जिनसे अमेरिका बुश के राष्ट्रपति निर्वाचित होने के समय जीडीपी के दो फ़ीसदी राजकोषीय अधिशेष से आज बजट घाटे और भारी कर्ज की स्थिति में पहुंच गया है. दोनों युद्धों पर सरकार का करीब 2 खरब डॉलर सरकारी खर्च हो चुका है.
लंबित और भविष्य के बिलों का भुगतान करने पर यह राशि 50 फ़ीसदी तक बढ़ सकती है. जैसा कि बिल्म्स और मैंने हमारी किताब द थ्री ट्रिलियन डॉलर वार में उल्लेख किया है, इन युद्धों ने अमेरिका को व्यापक ओर्थक कमजोरी की राह पर धकेल दिया. इससे अमेरिकी बजट घाटे और कर्ज की स्थिति गंभीर होती गयी. मध्यपूर्व में पैदा हुए व्यवधान से तेल की कीमतों में उछाल आया, जिससे अमेरिकियों को आयातित तेल पर अधिक खर्च करने पर मजबूर होना पड़ा, वरना इस राशि को वे अमेरिका में उत्पादित माल पर खर्च कर सकते थे. लेकिन अमेरिकी फ़ेडरल रिजर्व ने इन कमजोरियों को छिपाते हुए हाउसिंग क्षेत्र में बुलबुला तैयार किया, जिससे खपत में भारी उछाल आया. अब अत्यधिक ऋण और रियल एस्टेट क्षेत्र के उभार के विपरीत नतीजों से उबरने में वर्षो लग जायेंगे.
विडंबना यह भी है कि इन युद्धों ने अमेरिका और दुनिया की सुरक्षा व्यवस्था को कमतर साबित किया है. एक अलोकप्रिय युद्ध ने किसी भी स्थिति के लिए सेना में बहाली को मुश्किल बना दिया है. युद्ध के खर्च के बारे में बुश न केवल देशवासियों को झांसा देते रहे, बल्कि सैनिकों की बुनियादी जरूरतों के लिए भी खर्च की मंजूरी नहीं दी. अमेरिकी सैनिकों की जान बचाने के लिए बख्तरबंद और बारूदी सुरंग प्रतिरोधी वाहनों की जरूरत थी और लौट रहे जांबाजों को बेहतर स्वास्थ्य देखभाल मुहैया करायी जा सकती थी. एक अमेरिकी अदालत ने हाल में कहा भी कि अमेरिकी सैनिकों के अधिकारों का हनन हुआ है. उधर, ओबामा प्रशासन कह रहा है कि सैनिकों के कोर्ट में अपील करने के अधिकार पर रोक लगा देनी चाहिए!
सैनिकों के साथ इस धोखे के कारण सैन्य शक्ति के उपयोग के बारे में घबराहट की स्थिति पैदा हो रही है. खतरा यह भी है कि दूसरों की नजर में इसने अमेरिका की सुरक्षा को कमजोर किया है. हालांकि अमेरिका की वास्तविक शक्ति सैन्य क्षमता और ओर्थक ताकत से कहीं ज्यादा इसकी ’सॉफ्ट पावर’ में छिपी है. लेकिन उसकी यह ताकत भी कमजोर हुई है, क्योंकि बंदी प्रत्यक्षीकरण और यातनाएं देने के मामले में बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है. इससे अंतरराष्ट्रीय कानूनों के प्रति उसकी पुरानी प्रतिबद्धता अब सवालों के घेरे में है.
अफ़गानिस्तान और इराक में अमेरिका और उसके गंठबंधन के देश जानते थे कि लंबी अवधि की जीत लोगों के दिल और दिमाग को जीत कर ही हासिल की जा सकती है. पर, शुरुआती गलतियों ने युद्ध को जटिल बना दिया. अध्ययन बताते हैं कि दोनों देशों में पिछले दस साल में 1 लाख 37 हजार आम लोग मारे गये. अकेले इराक में, 18 लाख लोगों को शरणार्थी और 17 लाख को विस्थापित होना पड़ा है.
बजट घाटे और कर्ज से बढ़ती चिंता के बीच शीत युद्ध की समाप्ति के दो दशक बाद भी अमेरिका का सैन्य खर्च करीब-करीब बाकी दुनिया के सैन्य खर्च के बराबर है. इनमें से ज्यादातर राशि ऐसे हथियारों पर बर्बाद की गयी है, जिसे दुश्मन की पहचान नहीं होती है. अब इन हथियारों की नये सिरे से तैनाती की जरूरत है, जिससे कम खर्च में अमेरिका की सुरक्षा ज्यादा मजबूत हो सके. अलकायदा पर विजय भले न मिली हो, पर 9/11 के बाद इससे जितना बड़ा खतरा दिख रहा था, अब नहीं है. लेकिन इस स्थिति तक पहुंचने में अमेरिका ने जो विशाल कीमत चुकायी है, उसका नतीजा अभी अगली पीढ़ियों को भी भुगतना पड़ेगा.
(कोलंबिया विवि में प्रोफ़ेसर और नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री)
9/11 के बाद अलकायदा से जितना बड़ा खतरा दिख रहा था, अब नहीं है. पर इस स्थिति तक पहुंचने में अमेरिका ने जो विशाल कीमत चुकायी है, उसका नतीजा अगली पीढ़ियों को भी भुगतना पड़ेगा.
ग्यारह सितंबर 2001 के आतंकी हमले के पीछे अलकायदा का मूल मकसद अमेरिका को नुकसान पहुंचाना था. उन्होंने बड़ा नुकसान पहुंचाया भी, लेकिन जिस तरीके से पहुंचाया उसकी कल्पना शायद अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन ने भी नहीं की होगी. हमले के बाद राष्ट्रपति जार्ज बुश ने अमेरिका के बुनियादी सिद्धांतों से समझौता किया, अपनी अर्थव्यवस्था को कमतर आंका और अपनी सुरक्षा को भी कमजोर बना दिया.
9/11 के बाद अफ़गानिस्तान पर किये हमले को समझा जा सकता है. पर बाद में इराक पर आक्रमण का अलकायदा से कोई संबंध नहीं था, हालांकि बुश ने इसके लिंक जोड़ने की कोशिश जरूर की थी. अमेरिका का यह युद्ध जल्द ही बहुत खर्चीला साबित होने लगा जबकि शुरू में केवल 60 अरब डॉलर का अनुमान था.
इससे अमेरिकी अक्षमता और गलतबयानी उजागर हो गयी. लिंदा बिल्म्स और मैंने तीन साल पहले अमेरिकी युद्धों के खर्च का अनुमान लगाया था, तो आंकड़ा तीन से पांच खरब डॉलर तक पहुंच चुका था. गत तीन वर्षो में यह खर्च और अधिक हो चुका है. इतना ही नहीं, वहां से लौट रहे करीब आधे सैनिक विकलांगता का भुगतान पाने के हकदार हैं और अब तक छह लाख से अधिक सैनिकों को विशेषज्ञ चिकित्सा सुविधाएं मुहैया करायी जा चुकी है. हमारा अनुमान है कि अमेरिका को भविष्य में सैनिकों के विकलांगता मुआवजे और चिकित्सा सुविधा के एवज में 600 से 900 अरब डॉलर का भुगतान करना है. लेकिन सैनिकों की आत्महत्या (जो हाल के वर्षो में औसतन 18 प्रतिदिन तक पहुंच चुकी है) और उनके पारिवारिक बिखराव से हो रहे सामाजिक नुकसान की कीमत नहीं आंकी जा सकती.
यदि हम बुश को गलत बहाने के साथ अमेरिका और दुनिया के कई हिस्सों पर युद्ध थोपने के लिए माफ़ कर भी दें, तो भी इन युद्धों में जिस तरह से उन्होंने बड़ी राशि झोंकने की अनुमति दी, उसके लिए कोई बहाना नहीं चल सकता. यह इतिहास का पहला ऐसा युद्ध था, जिसका पूरा भुगतान कर्ज लेकर किया गया. अमेरिका ने जिस वक्त युद्ध शुरू किया, कर राहत के कारण बजट घाटा पहले से बढ़ रहा था, फ़िर भी 2001 में बुश प्रशासन ने कर राहत के दूसरे दौर की घोषणा की थी.
आज अमेरिका बेरोजगारी और बजट घाटे पर ध्यान केंद्रित कर रहा है. दोनों अमेरिका के भविष्य के लिए बड़े खतरे साबित हो रहे हैं, जिनकी जड़ें इराक और अफ़गानिस्तान युद्ध में तलाशी जा सकती हैं. बढ़ा रक्षा खर्च और कर राहत, ये दो मुख्य कारण हैं, जिनसे अमेरिका बुश के राष्ट्रपति निर्वाचित होने के समय जीडीपी के दो फ़ीसदी राजकोषीय अधिशेष से आज बजट घाटे और भारी कर्ज की स्थिति में पहुंच गया है. दोनों युद्धों पर सरकार का करीब 2 खरब डॉलर सरकारी खर्च हो चुका है.
लंबित और भविष्य के बिलों का भुगतान करने पर यह राशि 50 फ़ीसदी तक बढ़ सकती है. जैसा कि बिल्म्स और मैंने हमारी किताब द थ्री ट्रिलियन डॉलर वार में उल्लेख किया है, इन युद्धों ने अमेरिका को व्यापक ओर्थक कमजोरी की राह पर धकेल दिया. इससे अमेरिकी बजट घाटे और कर्ज की स्थिति गंभीर होती गयी. मध्यपूर्व में पैदा हुए व्यवधान से तेल की कीमतों में उछाल आया, जिससे अमेरिकियों को आयातित तेल पर अधिक खर्च करने पर मजबूर होना पड़ा, वरना इस राशि को वे अमेरिका में उत्पादित माल पर खर्च कर सकते थे. लेकिन अमेरिकी फ़ेडरल रिजर्व ने इन कमजोरियों को छिपाते हुए हाउसिंग क्षेत्र में बुलबुला तैयार किया, जिससे खपत में भारी उछाल आया. अब अत्यधिक ऋण और रियल एस्टेट क्षेत्र के उभार के विपरीत नतीजों से उबरने में वर्षो लग जायेंगे.
विडंबना यह भी है कि इन युद्धों ने अमेरिका और दुनिया की सुरक्षा व्यवस्था को कमतर साबित किया है. एक अलोकप्रिय युद्ध ने किसी भी स्थिति के लिए सेना में बहाली को मुश्किल बना दिया है. युद्ध के खर्च के बारे में बुश न केवल देशवासियों को झांसा देते रहे, बल्कि सैनिकों की बुनियादी जरूरतों के लिए भी खर्च की मंजूरी नहीं दी. अमेरिकी सैनिकों की जान बचाने के लिए बख्तरबंद और बारूदी सुरंग प्रतिरोधी वाहनों की जरूरत थी और लौट रहे जांबाजों को बेहतर स्वास्थ्य देखभाल मुहैया करायी जा सकती थी. एक अमेरिकी अदालत ने हाल में कहा भी कि अमेरिकी सैनिकों के अधिकारों का हनन हुआ है. उधर, ओबामा प्रशासन कह रहा है कि सैनिकों के कोर्ट में अपील करने के अधिकार पर रोक लगा देनी चाहिए!
सैनिकों के साथ इस धोखे के कारण सैन्य शक्ति के उपयोग के बारे में घबराहट की स्थिति पैदा हो रही है. खतरा यह भी है कि दूसरों की नजर में इसने अमेरिका की सुरक्षा को कमजोर किया है. हालांकि अमेरिका की वास्तविक शक्ति सैन्य क्षमता और ओर्थक ताकत से कहीं ज्यादा इसकी ’सॉफ्ट पावर’ में छिपी है. लेकिन उसकी यह ताकत भी कमजोर हुई है, क्योंकि बंदी प्रत्यक्षीकरण और यातनाएं देने के मामले में बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ है. इससे अंतरराष्ट्रीय कानूनों के प्रति उसकी पुरानी प्रतिबद्धता अब सवालों के घेरे में है.
अफ़गानिस्तान और इराक में अमेरिका और उसके गंठबंधन के देश जानते थे कि लंबी अवधि की जीत लोगों के दिल और दिमाग को जीत कर ही हासिल की जा सकती है. पर, शुरुआती गलतियों ने युद्ध को जटिल बना दिया. अध्ययन बताते हैं कि दोनों देशों में पिछले दस साल में 1 लाख 37 हजार आम लोग मारे गये. अकेले इराक में, 18 लाख लोगों को शरणार्थी और 17 लाख को विस्थापित होना पड़ा है.
बजट घाटे और कर्ज से बढ़ती चिंता के बीच शीत युद्ध की समाप्ति के दो दशक बाद भी अमेरिका का सैन्य खर्च करीब-करीब बाकी दुनिया के सैन्य खर्च के बराबर है. इनमें से ज्यादातर राशि ऐसे हथियारों पर बर्बाद की गयी है, जिसे दुश्मन की पहचान नहीं होती है. अब इन हथियारों की नये सिरे से तैनाती की जरूरत है, जिससे कम खर्च में अमेरिका की सुरक्षा ज्यादा मजबूत हो सके. अलकायदा पर विजय भले न मिली हो, पर 9/11 के बाद इससे जितना बड़ा खतरा दिख रहा था, अब नहीं है. लेकिन इस स्थिति तक पहुंचने में अमेरिका ने जो विशाल कीमत चुकायी है, उसका नतीजा अभी अगली पीढ़ियों को भी भुगतना पड़ेगा.
(कोलंबिया विवि में प्रोफ़ेसर और नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री)
(प्रभात खबर से साभार)
हालात गम्भीर है।
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