सोमवार, 11 नवंबर 2019

अब नोटबंदी को गलत कैसे कह दूँ!


◾️नोटबंदी के बाद भी पहले की अपेक्षा ज्यादा ताकतवर बनकर केंद्र की सत्ता में काबिज हुआ, ज्यादा निरंकुश हुआ!
◾️क्या मतदाताओं की निर्णायक संख्या में नोटबंदी को जायज नहीं माना!
◾️नोटबंदी की घोषणा के साथ लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को लकवा मार गया था!
◾️ये बात अलग है कि बहुत बाद में ज्ञान झाड़ने आकर माथा ख़राब करते रहे.
◾️अर्थशास्त्र में दुनिया को लोहा मनवाने वाले वामदल, सीताराम येचुरी जैसे महान जानकार सिर्फ ये घिघियाते रहे कि केरल और त्रिपुरा को राहत दो! हो सके तो जनता को भी दे देना.
◾️इतने निकम्मे राजनीतिक दलों और नेताओं के बीच नरेंद्र मोदी क्या कोई भी ऐसी घटिया हरकत आराम से कर सकता है!
◾️3 साल बाद भी रोना-धोना विपक्ष के नेताओं और जिम्मेदार बुद्धिजीवियों का मात्र नाटक है !
◾️मुझे याद है, मेरे आदर्श रहे/हैं- ऐसे लोगों ने समझाने की कोशिश की नोटबंदी रद्द करने की मांग व्यर्थ है, यह सरासर कायरता थी!
◾️नोटबंदी दिवस हो या उसकी बरसी, नरेंद्र मोदी को चौराहे पर आने की चुनौती देने की जगह अपने मुंह पर थप्पड़ मारें तो यह दिवस सफल हो जाएगा.........

विरोधाभास

हिंदू पक्ष हमेशा से कहता रहा है कि बाबरी मसजिद राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। कोर्ट ने कहा, भारतीय पुरातत्व सर्वे यानी एएसआई की रिपोर्ट से ऐसा कुछ नहीं साबित होता कि यह मसजिद राम मंदिर या कोई भी मंदिर तोड़कर बनाई गई थी।
कोर्ट ने माना कि मसजिद किसी ख़ाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी। वहाँ किसी टूटे-फूटे मंदिर के अवशेष थे लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि इससे इस ज़मीन पर हिंदू पक्ष का क़ब्ज़ा साबित नहीं होता। यानी कोर्ट ने यह दलील नहीं मानी कि इस ज़मीन पर पहले कोई मंदिर होने के कारण इस भूमि पर हिंदुओं का अधिकार है।
कोर्ट ने यह भी माना कि 1855 से लेकर 16 दिसंबर 1949 तक वहाँ लगातार मुसलमान नमाज़ पढ़ते थे और मसजिद के अंदर यानी उस जगह पर जहाँ रामलला की प्रतिमा रखी गई है, वहाँ मुसलमानों का नियमित प्रवेश था। दूसरे शब्दों में यह परित्यक्त मसजिद नहीं थी और मुसलमानों का उसपर क़ब्ज़ा रहा है।
कोर्ट ने यह भी माना कि 23 दिसंबर 1949 की रात को मसजिद के अंदर मूर्तियाँ रखने की कार्रवाई ग़लत क़दम थी।
कोर्ट ने 6 दिसंबर 1992 को मसजिद के विध्वंस को भी ग़लत बताया।
कोर्ट ने हिंदू पक्ष की केवल यह दलील मानी कि मसजिद के बाहरी अहाते पर जहाँ राम चबूतरा, सीता रसोई आदि है, वहाँ लगातार हिंदुओं का क़ब्ज़ा रहा। लेकिन यह ऐसी दलील थी जिससे मुसलिम पक्ष ने कभी इनकार नहीं किया।

अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला समझना मेरे लिए मुश्किल: सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज


सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज अशोक कुमार गांगुली ने अयोध्या रामजन्म भूमि विवाद मामले पर अदालत के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि इससे उनके दिमाग में संशय पैदा हो गया है और वह फैसले से काफी व्यथित हैं.
द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस गांगुली (72) ने कहा, ‘अल्पसंख्यकों ने यहां कई पीढ़ियों से मस्जिद देखी है. उसे ढहा दिया गया. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार वहां मंदिर का निर्माण किया जाएगा. इससे मेरे दिमाग में संशय पैदा हो गया है. कानून का छात्र होने के नाते इसे स्वीकार करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है.’
उन्होंने कहा कि शनिवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया कि जब किसी स्थान पर नमाज़ अदा की जाती है तो नमाज़ अदा करने वाले का विश्वास होता है कि यह मस्जिद है और उसे चुनौती नहीं दी जा सकती.
उन्होंने कहा, ‘बेशक 1856-57 में वहां नमाज़ पढ़ने के सबूत नहीं मिले हों लेकिन 1949 से वहां नमाज़ पढ़ी गई. इसके सबूत हैं इसलिए जब हमारा संविधान अस्तित्व में आया तो नमाज़ वहां पढ़ी जा रही थी. एक जगह जहां नमाज़ पढ़ी गई और अगर उस जगह पर एक मस्जिद थी तो फिर अल्पसंख्यकों को अधिकार है कि वे अपनी धार्मिक स्वतंत्रता का बचाव करें. यह संविधान में लोगों को मौलिक अधिकार है.’
जस्टिस गांगुली ने कहा, ‘इस फैसले के बाद आज मुसलमान क्या सोचेगा? वहां वर्षों से एक मस्जिद थी, जिसे तोड़ा गया. अब सुप्रीम कोर्ट ने वहां मंदिर बनाने की अनुमति दे दी है. यह अनुमति इस आधार पर दी गई कि जमीन रामलला से जुड़ी थी. क्या सुप्रीम कोर्ट तय करेगा कि सदियों पहले जमीन पर मालिकान हक़ किसका था? क्या सुप्रीम कोर्ट क्या इस बात को भूल जाएगा कि जब संविधान आया तो वहां एक मस्जिद थी? संविधान में प्रावधान हैं और यह सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है कि वो उसकी रक्षा करे.’
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ने कहा, ‘संविधान के लागू होने के बाद वहां पहले क्या था, यह सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी नहीं है. उस समय भारत कोई लोकतांत्रिक गणतंत्र नहीं था. तब वहां एक मस्जिद थी, एक मंदिर था, एक बौद्ध स्तूप था, एक चर्च था. अगर हम इस तरह बैठकर फैसला देंगे तो बहुत सारे मंदिर, मस्जिदें और अन्य ढांचों को तोडना पड़ेगा. हम पौराणिक तथ्यों पर नहीं जा सकते. राम कौन थे? क्या किसी तरह का ऐतिहासिक साक्ष्य है? यह आस्था और विश्वास का मामला है.’
उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आस्था और विश्वास के आधार पर आपको कोई प्राथमिकता नहीं मिल सकती. वे कह रहे हैं कि मस्जिद के नीचे एक ढांचा था लेकिन ढांचा मंदिर का नहीं था. कोई नहीं कह सकता कि मंदिर को ढहाकर मस्जिद बनाई गई लेकिन अब मस्जिद को ढहाकर मंदिर बनाया जाएगा?’
गांगुली ने कहा, ‘500 साल पहले जमीन का मालिकाना हक किसके पास था? क्या कोई जानता है? हम इतिहास को दोबारा नहीं बना सकते. अदालत की जिम्मेदारी है कि जो भी है, उसका संरक्षण किया जाए. इतिहास को दोबारा बनाना अदालत की जिम्मेदारी नहीं है. वहां 500 साल पहले क्या था, यह जानना अदालत का काम नहीं है. मस्जिद का वहां होना सीधे एक तर्क था, ऐतिहासिक तर्क नहीं बल्कि एक ऐसा तर्क जिसे हर किसी ने देखा है. इसका गिराया जाना सभी ने देखा, जिसे रिस्टोर किया जाना चाहिए. जब उनके पास मस्जिद होने का कोई अधिकार नहीं है तो आप मस्जिद के निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन देने के लिए सरकार को निर्देश कैसे दे रहे हैं. क्यों? आप स्वीकार कर रहे हैं कि मस्जिद को नष्ट किया जाना उचित नहीं था.’
यह पूछने पर कि आप उचित और निष्पक्ष फैसला किसे मानेंगे? इस पर जस्टिस गांगुली ने कहा, ‘मैं दो में से कोई एक फैसला लेता या तो मैं उस क्षेत्र में मस्जिद को दोबारा बनाए जाने को कहता या अगर वह जगह विवादित होती तो मैं कहता कि वहां न तो मस्जिद बनेगी और न ही मंदिर. आप वहां कोई अस्पताल या स्कूल बना सकते हैं या इसी तरह का कुछ या कॉलेज. मंदिर और मस्जिद दूसरे इलाकों में बनाने को कहा जा सकता था. इस जमीन को हिंदुओं को नहीं देना चाहिए था. यह विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) और बजरंग दल का दावा है. वे उस समय और आज किसी भी मस्जिद को ढहा सकते थे. उन्हें सरकार का समर्थन मिल रहा था और अब उन्हें न्यायपालिका का भी समर्थन मिल रहा है. मैं बहुत व्यथित हूं. बहुत सारे लोग स्पष्ट तरीके से ये चीजें नहीं कहेंगे.’

मुस्लिम अब और हाशिए पर'


पिछले कई साल में मैं कई मुसलमानों से मिला, जो चाहते थे कि अयोध्या में मंदिर बन जाए, ताकि उन्हें इस मसले से छुटकारा मिले.
मुसलमानों को बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद देश में हुए दंगे याद हैं, इसलिए वो एक मस्जिद से ज़्यादा अपनी सुरक्षा की फ्रिक करते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद के लिए अलग से उपयुक्त ज़मीन देने की बात कही है. इसके बावजूद इस फ़ैसले से मुसलमानों को हाशिए पर धकेले जाने और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझे जाने की बात को एक तरह से क़ानूनी मान्यता मिल गई है.
आज के भारतीय मुसलमान ज़्यादा चिंतित हैं, क्योंकि उनके सामने नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न यानी एनआरसी जैसी चुनौतियां हैं.
वो जानते हैं कि उन्हें सिस्टम से अब न्याय नहीं मिलेगा, इसलिए अब वो कागज़ात ढूंढने की जद्दोजहद में लग गए हैं, ताकि ये साबित कर सकें कि उनके दादा-परदादा भारत से थे. (BBC HINDI)

विरोधाभास

हिंदू पक्ष हमेशा से कहता रहा है कि बाबरी मसजिद राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी। कोर्ट ने कहा, भारतीय पुरातत्व सर्वे यानी एएसआई की रिपोर्ट से ऐसा कुछ नहीं साबित होता कि यह मसजिद राम मंदिर या कोई भी मंदिर तोड़कर बनाई गई थी।
कोर्ट ने माना कि मसजिद किसी ख़ाली ज़मीन पर नहीं बनाई गई थी। वहाँ किसी टूटे-फूटे मंदिर के अवशेष थे लेकिन कोर्ट ने यह भी कहा कि इससे इस ज़मीन पर हिंदू पक्ष का क़ब्ज़ा साबित नहीं होता। यानी कोर्ट ने यह दलील नहीं मानी कि इस ज़मीन पर पहले कोई मंदिर होने के कारण इस भूमि पर हिंदुओं का अधिकार है।
कोर्ट ने यह भी माना कि 1855 से लेकर 16 दिसंबर 1949 तक वहाँ लगातार मुसलमान नमाज़ पढ़ते थे और मसजिद के अंदर यानी उस जगह पर जहाँ रामलला की प्रतिमा रखी गई है, वहाँ मुसलमानों का नियमित प्रवेश था। दूसरे शब्दों में यह परित्यक्त मसजिद नहीं थी और मुसलमानों का उसपर क़ब्ज़ा रहा है।
कोर्ट ने यह भी माना कि 23 दिसंबर 1949 की रात को मसजिद के अंदर मूर्तियाँ रखने की कार्रवाई ग़लत क़दम थी।
कोर्ट ने 6 दिसंबर 1992 को मसजिद के विध्वंस को भी ग़लत बताया।
कोर्ट ने हिंदू पक्ष की केवल यह दलील मानी कि मसजिद के बाहरी अहाते पर जहाँ राम चबूतरा, सीता रसोई आदि है, वहाँ लगातार हिंदुओं का क़ब्ज़ा रहा। लेकिन यह ऐसी दलील थी जिससे मुसलिम पक्ष ने कभी इनकार नहीं किया।

समाचारों के भी रंग होते हैं?

समाचारों के भी रंग होते हैं? काला, हरा, नीला, पीला, बैगनी, लाल, भगवा वगैरह वगैरह? शायद समाचार का अर्थ तथ्यों को बगैर तोड़े-मरोड़े यथावत रखना, अपने दृष्टिकोण से अलग रखते हुए रख देना होता है!
पैकेजिंग के बहाने दिमागी दुर्बलता और सड़ांध को परोसने का क्रम लंबे समय से जारी है।
अखबारों का पक्षकार बनना सामान्य सी बात हो चुकी है।
गोदी मीडिया -इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो सारे मूल्यों पद दलित कर खुद को खबरनवीसी की जिम्मेदारी से मुक्त कर लिया है पर खुद को मध्यकाल के सामंतों के चारण-भाट के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए आतुर है।
बहरहाल, आज के अखबारों के पहले पन्ने या जैकेट पर नजर डालें तो वह भगवा रंग में रंगा है। यह मात्र रंग हो सकता है, अन्य रंगों की तरह, लेकिन आरएसएस का ध्वज और 'जय श्री राम' के नाम पूरी पट्टी कौन सी कथा कह रही है?
समाचारों के प्रतुतिकरण का एक। पक्षीय हो जाना पत्रकारिता की किस श्रेणी में आएगा?
आकर्षक बनाना और पैकेजिंग का अर्थ यह तो नहीं हो सकता कि हिन्दू-मुसलमान-सिख, ईसाई, पारसी, जैनी, बौद्ध हो जाये।
तथ्यों को परोसने वाले आर्डर पर माल तैयार करने वाले हलवाई भी कैसे हो सकते हैं?
वाकई, अब कोई सोचता नहीं और भेड़चाल में ऐसा कुछ भी करने लगता है कि यह कहना पड़ता है कि "प्रभु इन्हें माफ कर देना...." अन्यथा जानबूझ ऐतिहासिक अपराध करते हैं, इस पेशे की नैतिकता की निर्मम हत्या में लिप्त रहते हैं।
समाचारों की दमदार पैकेजिंग का अर्थ क्या हो यह सब कैसे तय होगा?
वामपंथी, दक्षिणपंथी मध्यमार्गी सत्ता में आते जाते रहेंगे। कोई भी पक्ष अमरत्व हासिल नहीं कर सकता, लेकिन कुछ क्षेत्र शाश्वत होते हैं। प्रवृत्तियां स्थायी होती हैं, उसकी रक्षा देश की विविधता और धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बचाये रख सकती हैं।

जो समझ से परे है

सबसे बड़े उर्दू अखबार ‘इंकलाब’ ने ‘एक लंबे इंतजार के बाद’ नामक शीर्षक से लिखे अपने संपादकीय में लिखा कि जो फैसला आया है, उसे स्वीकार करने का करने का ही एक मात्र विकल्प था। लेकिन अब उम्मीद की आखिरी लौ भी अब बुझ गई है। अखबार ने लिखा कि निराशा की भावना खत्म नहीं होगी। इसमें सवालिया लहजे में कहा गया है, “यह एकमात्र बिंदु है जो समझ से परे है। यदि मस्जिद वहां थी, तो फैसला इसके पक्ष में क्यों नहीं आया?”
इंकलाब लिखता है, “फैसला सबूतों के बजाय परिस्थितियों पर आधारित है।” अखबार ने मस्जिद बनाने के लिए अयोध्या में वैकल्पिक 5 एकड़ जमीन मुहैया कराने पर भी सवाल उठाए हैं। इसमें कहा गया है,”अदालत ने फैसला सुनाया है कि मुसलमानों को भी नुकसान के मुआवजे के रूप में जमीन दिए जाने का अधिकार है, (लेकिन) समय और स्थान तय नहीं किया गया है। जबकि इसके विपरीत मंदिर बनाने के लिए सरकार ने तीन महीने के भीतर एक ट्रस्ट बनाने को कहा है। असंतोष इस बात का है कि 6 दिसंबर 1992 तक लोगों को दिखाई देने वाली मस्जिद के लिए कोई ठोस और विशेष निर्णय नहीं लिया गया।”