रविवार, 13 मार्च 2016

आहत हैं, तो नीति बदलें

अमेरिका के कैलिफोॢनया में हुई गोलीबारी की घटना के बाद मुसलमानों के खिलाफ राजनीतिक बयानबाजी से राष्ट्रपति बराक ओबामा बेहत आहत-मर्माहत हैं. उनके बयान को विश्व से सबसे पुराने लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य में देखने से सर्वथा उचित प्रतीत होता है. उन्होंने भरोसा जताया है कि आम और खास अमेरिकी, लोगों को उनकी धाॢमक आस्था के आधार पर हिंसा का शिकार नहीं बनाएगी. उन्होंने मुस्लिम समुदाय की रक्षा के लिए प्रतिबद्धता भी जताई और स्पष्ट शब्दों में कहा है कि संघीय सरकार सहयोग देगी. अर्नेस्ट के माध्यम से दिए गए बयान में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साफ किया अल-कायदा और आईएस जैसे समूहों से लड़ाई विश्व के आम मुसलमानों से युद्ध नहीं है. यहां दिलचस्प एेतिहासिक सन्दर्भों की चर्चा आवश्यक है, अमेरिकी राष्ट्रपतियों के बयान, जनतांत्रिक मूल्यों की चर्चा और व्याख्याएं उनकी करनी के प्रतिकूल ही रही हैं. 
अमेरिका की वर्चस्ववादी-विस्तारवादी रणनीति दो-ध्रुवीय विश्व के समय से साफ रही हैं. तत्कालीन यूएसएसआर के समय कोल्डवार ने कई दशक पहले समूचे विश्व को दीर्घकालीन खतरे की ओर धकेल दिया था. एक ओर अरब देशों के तेल भंडार पर कब्जा करने की मुहिम और समाजवादी खेमे को कमजोर करने के लिए जो कारगुजारियां की गई थी, उससे अब लोग परिचित होने लगे हैं. अरब देशों में ईरान के शाह से लेकर मिस्त्र सीरिया आदि देशों में समर्थक शासकों और उनकी निरकुंशता के विरूद्ध जनता के विद्रोह ने अमेरिका रणनीति को प्रभावित किया और अल-कायदा आईएसआईएस जैसे संगठनों को पल्लवित-पुष्पित किया. अमेरिका के पूर्व और मौजूदा विदेश मंत्रियों सुश्री कोंडालिजा राइज और हिलेरी क्ंिलटन ने इस बात की ताईद की है कि अल-कायदा और आईएसआईएस जैसे संगठनों को अमेरिका ने अपने आॢथक हितों और वैश्विक रणनीति के तहत जन्म दिया, पाला-पोसा इस्तेमाल किया. अल-कायदा को लाल रूस को खत्म करने अहम रणनीतिक देश अफगानिस्तान में अरब देशों से भेजा, जहां तालिबान के साथ मिलकर सोवियत संघ के विरूद्ध मोर्चा लिया गया, वही अल-कायदा अमेरिका में वल्र्ड ट्रेंड सेंटर की तबाही का कारण बना. 
इतना नहीं मुस्लिम आतंकवाद शब्द को स्थापित करने के लिये सतत प्रयास चलते रहे और बीस साल बाद इस कथित आतंकवाद को विश्व-पटल पर स्थापित करने में सफलता पाई. वल्र्ड ट्रेंड सेंटर की तबाही के बाद जिस तरह से अमेरिका में मुस्लिम समुदाय के व्यवहार हुआ, जनता में नफरत फैली, मीरा नायर की फिल्म रिलक्टेंट फंडामेंटिलिस्ट बखूबी बयान करता है. इतना ही नहीं, हिंदुस्तानी सिक्ख भी सिर्फ अपनी केश-दाढ़ी के कारण हिंसा के शिकार हुए. आईएसआईएस की गतिविधियां अमेरिका-पश्चिमी हितों को साधने तक सीमित थी, जो नई मुसीबत के रूप में सामने आ गई. 
अधुनातन हथियार, भीषणतम निर्मम हत्यारों से सजी सेना अब भस्मासुर साबित हो गई है. अल-कायदा के खिलाफ लंबी जंग में अमेरिका और पश्चिमी देशों के लाखों सैनिक और अकूत धनराशि खर्च हो रही है. इसका प्रतिरोध इन्हीं देशों की जनता कर रही है. अमेरिकी गलतियों का नतीजा और स्याह पहलू यह भी है कि मुस्लिम बहुल देशों में यह कौम ज्यादा मिलिटेंट होती जा रही है, वहीं अन्य देशो में बेहद असुरक्षित महसूस कर रही है. ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया सहित यूरोपीय देशों में खूंखार आतंकी संगठनों के पैरोकार-मददगारों की संख्या में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है. इस दशा में अमेरिकी राष्ट्रपति का बयान बेहद मानीखेज है, लेकिन दशकों से पड़ी खटास के लिए मामूली कवायद है, अगर धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करने की प्रतिबद्धता दिखाई जाती है तो अमेरिका और साथी देशों को अपनी पूरी वैश्विक रणनीति को बदलने की तुरंत पहल करनी चाहिए. तमाम सामरिक विस्तारवादी गतिविधियों पर तत्काल विचार करने की आवश्यकता है.

अनुत्पादक सम्पदा का इस्तेमाल जनता की बेहतरी के लिए हो

भारतीय परम्परा में आभूषणों, कीमती धातुओं के प्रति आसक्ति हमेशा से रही है. निश्चित रूप से सोना-चांदी सम्पन्नता का प्रतीक रहा है, लेकिन घरों में संग्रहित यह सम्पदा अनुत्पादक भी है. भारतीय घरों में रखी इस अकूत सम्पदा को देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देने प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार ने स्वर्ण मौद्रिकीकरण की योजना पेश की. इस योजना को जिस तरह का प्रतिसाद मिलने की उम्मीद जताई गई थी, परिणाम उसके उलट रहा. सोने और आभूषणों के मोहपाश में जकड़े आम और खास भारतीयों ने लाभ हासिल करने जरा भी रूचि नहीं दिखाई. अब योजना को एक नया कंधा मिल सकता है, देश के अमीर तिरूपति बालाजी मंदिर ने 1320 करोड़ रूपए से भी अधिक कीमती 5.5 टन सोने को जमा कराने की मंशा जताई है. मंदिर ट्रस्ट को ब्याज स्वरूप अतिरिक्त राशि भी मिलेगी और यह सोना सरकारी योजनाओं का हिस्सा भी बन सकती है. 
देश में लाखों मंदिर हैं, लेकिन सिर्फ दस सबसे समृद्ध मंदिरों की चर्चा करें तो 50 हजार करोड़ रूपए की सम्पत्ति वाले बालाजी मंदिर के मुकाबले तिरूअनंतपुरम स्थित पद्नाभ स्वामी मंदिर की संपत्ति और स्वर्ण भंडार सवा लाख करोड़ रूपए से भी अधिक है. पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भारी रकम दान स्वरूप आता है. सांई बाबा मंदिर में प्रतिवर्ष 350 करोड़ का दान श्रद्धालु समर्पित करते हैं. सिद्धि विनायक मंदिर, वैष्णो देवी मंदिर, सोमनाथ मंदिर, गुरूवायूर मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर, मिनाक्षी अम्मन मंदिर में हजारों करोड़ रूपए के सोने सहित नगद राशि का चढ़ावा आता है. इसी तरह देश के दूसरे महत्वपूर्ण समुदाय मुस्लिम धर्मावलंबियों की धाॢमक संपत्ति वक्फ बोर्डों के अधीन है. सच्चर कमेटी के अनुसार 4.9 लाख से अधिक पंजीकृत वक्फ संपत्तियां हैं, जो बाजार मूल्य के लिहाज से 1.2 लाख करोड़ रूपए से अधिक है. स्वतंत्र और राज्यों से मिल रहे आंकड़ों के मुताबिक वक्फ संपत्तियां वस्तुत: कई लाख करोड़ रूपए की हैं. भारत में चर्च की संपत्ति कई बड़े औद्योगिक घरानों की कुल जमा पूंजी से भी ज्यादा है. यह कड़वी सच्चाई है कि मंदिरों, वक्फ बोर्डों, मिशनरियों सहित सिक्ख, जैन व अन्य धार्मिक समूहों के पवित्र स्थलों में अकूत सम्पदा है, लेकिन हर समूह का साधारण व्यक्ति जिसमें किसान, नौजवान, श्रमिक, मध्यवर्ग, महिलाएं शामिल हैं, घोर अभाव, परेशानियों और गरीबी से जूझ रहे हैं. विश्व के किसी भी धर्म के नबियों, ऋषियों, अवतारों की शिक्षाओं की बात करें तो सभी ने एक स्वर से मनुष्य की मुक्ति और उनकी बेहतरी की बात ही नहीं की, अपितु पूरे जीवन काल में संघर्ष किया, पुरानी शिक्षाओं से बेबहरा हो जाने के बाद भी एक सभ्य समाज की अपेक्षा कम से कम यह होती है कि सभी को भोजन मिले, जीवन-यापन के लिए काम और वेतन मिले, शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो, स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हों. जीवन में बेहतरी और समृद्धि की कामना लेकर धर्मस्थलों में प्रार्थना और भेंट देने वाला आम आदमी लगातार दरिद्रावस्था की ओर ही जा रहा है. वहीं धर्मस्थलों की सम्पदा अनुपयोगी पड़ी हुई है. सरकार को विकास के लिए सम्पत्ति की जरूरत होती है, स्वर्ण मौद्रिक योजना की मंशा नागरिकों और संस्थाओं के पास रखे 22 से 23 हजार टन सोने को अर्थव्यवस्था में शामिल करने की है. 
इस दिशा में बालाजी मंदिर ने रूचि दिखाई है. यदि आस्था केंद्रों की संपत्ति उनकी समितियों या सरकारी योजनाओं में भागीदारी के जरिए बाहर आती है तो स्वागत योग्य कदम होगा. भारत में गरीबी इतनी भयावह है कि यदि ईश्वर, खुदा, गॉड, गरीब-वत्सल हैं तो मंदिरों, मठों, वक्फ, मिशनरी संस्थाओं की अथाह सम्पदा पड़ी सड़ क्यों रही है. किसी भी एक समूह की संपत्ति से गांव के गरीबों को रोजगार देने वाली मनरेगा योजना को दस साल तक संचालित करने योग्य राशि मिल सकती है. शिक्षा, स्वास्थ्य सहित गंभीर समस्याओं का समाधान हो सकता है. इस विषय पर चर्चा करते समय इस बात की ताकीद जरूरी है कि देश में मुक्त अर्थव्यवस्था, उदारीकरण जनता की पक्षधरता खोती जा रही है, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य के बजट में निरंतर कटौतियां हो रही हैं. इस दशा में अहम सवाल यह भी है कि अनुपयोगी पड़ी संपत्ति बाहर आए, अर्थव्यवस्था को गतिशील करे, साथ ही शासन की जन-कल्याणकारी भावना को विलोपित होने से भी रोके. 

बड़े ब्रांड का छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ राज्य को अस्तित्व में आए तेरह साल हो गए और अधिकतम समय 12 वर्ष डा. रमन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में गुजर रहा है. इस बीच राज्य में अभूतपूर्व प्रगति हुई है, निश्चित रुप से इस बात के लिए मौजूदा मुख्यमंत्री की प्रशंसा की जानी चाहिए. राजधानी सहित शहरों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सुविधाएं उपलब्ध कराने में बहुत ध्यान दिया गया है, नए औद्योगिक क्षेत्रों का विकास हुआ है, जिसमें रायगढ़ और जांजगीर-चाम्पा जिले उल्लेखनीय हैं. 
राजधानी रायपुर में तो नए रायपुर की संकल्पना को साकार किया जा रहा है, वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की खेलकूद के लिए संसाधन जुटाए गए हैं. व्यवसाय के क्षेत्र में वैश्विक महाकाय कम्पनियां भी अब छत्तीसगढ़ की ओर रुख कर रही हैं, मैकडोनाल्ड जैसी कम्पनी रायपुर में स्टोर खोलने जा रही है. कोई भी बड़ी कम्पनी जब किसी स्थान पर अपना व्यवसाय कर विस्तार करती है तो संबंधित स्थान के लोगों की आय, खरीद की क्षमता, खान-पान की प्रकृति और समृद्धि का ठोंक-बजाकर आंकलन करने के बाद ही फैसला लेती है. लगातार राजधानी सहित कतिपय शहरों में नामचीन कम्पनियों का आना इस बात का संकेत देती है कि छग के शहरों में समृद्धि बढ़ी है. इस समृद्धि का स्वागत होना चाहिए, लेकिन छग की विकास यात्रा की समग्रता से समीक्षा भी किए जाने की जरुरत है.
इस लिहाज से छत्तीसगढ़ भी दो हिस्सों में बंटा हुआ है. यहां वनांचल में आदिवासी हैं तो प्रदेश का सबसे बड़ा हिस्सा किसानों, खेतिहर मजदूरों, गरीबों का है. सिंचाई की व्यवस्था पर्याप्त नहीं है, इसका सबूत अल्प वर्षा के कारण सूबे के 117 तहसीलों का सूखाग्रस्त घोषित होना है. रोजगार के लिए प्रदेश के बड़े हिस्से में उद्योग-व्यवसाय भी नहीं हैं. राज्य सरकार ने अपनी ओर से अकालग्रस्त किसानों को 50 फीसदी फसल नुकसान पर मुआवजा देने की बात की है, तो मनरेगा के दिनों को सौ से बढ़ाकर 150 दिन करने का एेलान किया है. दूसरी ओर समृद्धि और विपन्नता की तस्वीर इतनी भयावह है कि फसल बर्बाद होने और कर्ज से डूबकर जान दे देने वाले किसानों के लिहाज से प्रदेश चौथे स्थान पर आता है. महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश के किसान-समाज के साथ बदहाली में छग कदमताल कर रहा है. शहरों, खासतौर पर राजधानी की सूरत बदलने और बड़े ब्रांडो का आकर्षण केन्द्र बनने से ही प्रदेश की समृद्धि का समुचित आंकलन संभव नहीं है. समय की जरुरत है कि गांव-गांव तक समृद्धि पहुंचे और अंतर्राष्ट्रीय बड़े ब्रांड पूरे छत्तीसगढ़ के हर कोने पर अपने उत्पाद पहुंचाएं. प्रदेश में दो तस्वीर दिखाई न दे, इसके लिए बेहद जरुरी है कि किसानों, गांव के गरीबों को तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं जिससे समृद्धि का समान बंटवारा हो.

बस्तर की पत्रकारिता और चुनौतियां

संविधान ने हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया है, और पत्रकारिता ने तो भारत के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सहित हर मोर्चे पर मुखरता से हस्तक्षेप करते हुए लोकतंत्र के प्रहरी होने की भूमिका का निर्वाह किया है. इस पेशे में बेबाकी और आलोचना प्रमुख तत्व हैं, और किसी भी संस्थान, सत्ता व अन्य क्षेत्रों को आलोचना सहने के लिए तैयार रहना चाहिए. इन दिनों बस्तर में पत्रकारिता को लेकर जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिए शासन-प्रशासन के अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन किसी भी दशा में यह मामला उत्पीडऩ तक पहुंच जाना और पत्रकारों का आंदोलित होना चिंता का विषय है. बस्तर में प्रशासन द्वारा पत्रकारों पर दबाव और उन पर आरोप लगाकर जेल भेज देने का मामला देश ही नहीं विदेशों तक चर्चा का विषय बन गया है और धुर-नक्सली क्षेत्र के खबरनवीसों के साथ सैकड़ों की संख्या में पत्रकार और बुद्धिजीवी आ खड़े हुए हैं. 
बस्तर में दो पत्रकारों की गिरफ्तारी के विरूद्ध जेल-भरो आंदोलन चल रहा है. बस्तर के पत्रकार संतोष यादव को नक्सली गतिविधियों में संलिप्त रहने के आरोप में अक्टूबर के महीने में गिरफ्तार कर लिया गया, तो जुलाई माह में एक अखबार के प्रतिनिधि सोमारू नाग को इसी तरह के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था. दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इन पत्रकारों पर ‘छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम’ के तहत कार्रवाई की गई है, जिसे मानवाधिकार संगठनों टाडा और पोटा से भी खतरनाक कानून करार दिया है. इस अधिनियम का देश के नामी पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी ने छग की राजधानी में मुखर विरोध किया था. बस्तर नक्सली गतिविधियों का प्रमुख केंद्र है और आए दिन यहां भयावह हिंसाचार होते हैं. आंदोलनरत पत्रकारों की मानें तो वहां के स्थानीय सक्षम अधिकारी अपने खिलाफ समाचार लिखने के कारण इन दो पत्रकारों पर वह कार्रवाई की है, वह भी उस कानून के तहत जिसे नक्सली समस्या से निबटने के लिए बनाया गया है. दूसरी ओर पत्रकारों के समक्ष बड़ी चुनौती यह भी है कि नक्सल संगठन के लोग भी पत्रकारों से यह अपेक्षा करते हैं कि उनके खिलाफ कुछ न लिखा जाए, एेसा नहीं होने पर पत्रकारों को नक्सलियों से प्रताडि़त होना पड़ा और हत्याएं तक हुई हैं. वस्तुत: बस्तर की पत्रकारिता ‘इधर कुंआ उधर खाई’ जैसी है. 
सरकार ने स्थानीय प्रशासन और पुलिस को इतने अधिकार सौंप रखे हैं कि उसका दुरूपयोग आसानी से किया जा सकता है. जबकि बस्तर जैसे इलाके में पत्रकारों की सुरक्षा के लिए विशेष नीति बनाए जाने की जरूरत है ताकि वे खबरों का तथ्यपूर्ण संकलन सुरक्षित तरीके से कर सकें. यह इन बातों के मद्देनजर जरूरी लगता है कि 2013 में पत्रकार नेमीचंद जैन पर पुलिस ने माओवादी होने के आरोप में जेल में डाला, वहीं श्री जैन की हत्या नक्सलियों ने पुलिस का मुखबिर बताकर कर दी. सांई रेड्डी की हत्या भी नक्सली हिंसा में जान गंवा चुके हैं. वस्तुत: यहां पत्रकार न सिर्फ बेहद असुरक्षित हैं, बल्कि प्रशासन व नक्सलियों के बीच पिस रहे हैं. पत्रकार जमीनी रिपोर्टिंग करते हैं और प्राप्त तथ्यों की अनदेखी नहीं कर सकते. इस स्थिति में माओवादी और प्रशासन दोनों को ही आलोचना का शिकार होना स्वाभाविक है. छत्तीसगढ़ ही नहीं, पूरे देश में पत्रकारिता की प्रवृत्ति लगभग यही है. एेसी स्थिति में बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में पत्रकारों को सुरक्षा की दरकार है, लेकिन दुर्भाग्य से पत्रकारों की जमात रहबरों पर विश्वास नहीं कर पा रही है. यहां बेहद जरूरी है कि प्रशासन संवेदनशीलता से काम करे और समाज के लोगों की सुरक्षा का दायित्व संभालने के साथ ही समाचारों के संकलन करने वालों से अन्याय न हो, यह भी सुनिश्चित करे. 

पीडि़तों को न्याय कैसे मिले?

त्तीसगढ़ में रसूखदार व्यक्ति अभिषेक मिश्रा की हत्या की गुत्थी पुलिस ने 44 दिन बाद सुलझा ही ली और आरोपियों के रूप में पकड़े गए लोगों में से सभी पीडि़त और भयादोहन का शिकार निकले. निजी कालेज समूहों में ऊंचा ओहदा रखने वाले शंकराचार्य के डायरेक्टर की हत्या बहुचॢचत फिल्म दृश्यम के तरीके से की गई. हत्याकांड की चर्चा में बहुत से विचारणीय मुद्दे सामने आते हैं, जो समाज शास्त्र, अपराध शास्त्र सहित पुलिस-तंत्र पर सवाल-दर-सवाल दागते नजर आते हैं. लंबे समय से ‘आपत्तिजनक जरूरतों’ के लिए लगातार भयावह प्रताडऩा के शिकार परिवार आखिर क्यों अपनी फरियाद लेकर पुलिस के पास नहीं गया और अपराध का प्रतिकार अपराध के जरिए करने विवश हुए? आमतौर पर पुलिस-तंत्र अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाने और आम-नागरिकों को भयमुक्त जीवन देने के लिए होता है. लेकिन धरातल पर स्थिति उल्टी है. 
अगर ये कहा जाए कि अपराधियों को पुलिस का खौफ नहीं, बल्कि आम-आदमी के मन-मानस में पुलिस के प्रति डर की भावना है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. कतिपय पुलिस के जवानों, अधिकारियों ने अपनी हरकतों से एेसे वातावरण को बना दिया है, जहां अपराध और अपराधियों का संरक्षण होता है. समाज का प्रभुत्वशाली तबका मनमाफिक प्राथमिकी दर्ज कराने और पीडि़तों को थाने के स्तर पर न्याय से वंचित करने में सफल हो जाता है. आरोपियों के पक्ष में थाने में भीड़ का दबाव बनाना और समाज और राजनीति के क्षेत्रों के लोगों का किसी न किसी के पक्ष में सक्रिय होना रोजमर्रा की बात हो गई है. विवेचना में त्रुटि प्रभुत्वशाली वर्ग के आरोपियों में पक्ष में होती है वे और न्यायालय से बेदाग बरी हो जाते हैं. कुल मिलाकर पुलिस और समाज के बीच अविश्वास की खाई निरंतर गहरा रही है. यह बात दहला देने वाली है कि अभिषेक मिश्रा हत्याकांड का आरोपी कहता है, ऊंची पहुंच वाले व्यक्ति की पुलिस के पास शिकायत उल्टी पड़ सकती है और उनकी हत्या कराई जा सकती थी. 
जनता और पुलिस के बीच विश्वास कायम रखने संवाद स्थापित करने पुलिस मित्र योजना, ग्राम रक्षा समितियां, शांति समिति जैसे संगठनों का फिलहाल अस्तित्व ही नहीं है. जानकारों के मुताबिक इस तरह की कवायदें सामानान्तर पुलिस व्यवस्था बन आरोपियों-पीडि़तों के दोहन का जरिया बन गई थी. बहुचॢचत अभिषेक मिश्रा हत्याकांड ने तमाम सवालों पर नए सिरे से बहस की जरूरत को रेखांकित किया है कि आखिर कब तक लोग अपनी सुरक्षा के लिए बनाए गए तंत्र से ही भयभीत रहेंगे. पूरे देश में कमोबेश हालात यही है और सवालों के जवाब ढूंढने ही पड़ेंगे. प्रधानमंत्री की मौजूदगी में देश भर के पुलिस प्रमुखों ने मंथन किया, वहां भी पुलिस की छवि को लेकर चिंता जाहिर की गई. एक सभ्य समाज के लिए जरूरी है कि अपराध का प्रतिकार अपराध न हो और पीडि़तों को न्याय मिले, यह सुनिश्चित हो. 

जीवन रक्षक दवाएं सर्व-सुलभ बने

ठंड, धूप, हवा, भूख, बीमारियां, भेदभाव नहीं करती. इनके लिए अमीर-गरीब मायने नहीं रखता. जिस सामाजिक ढांचे में हम रहते हैं, वहां विषमता की खाई इतनी गहरी है कि बीमारियों से मरने वालों की तुलना में उपचार न करा सकने वालों की मौत कई हजार गुनी अधिक है. निश्चित रूप से रोगग्रस्त होने के लिए कारण होते हैं, लेकिन वे सारे कारण हमारी व्यवस्था के अंदर ही देखे जा सकते हैं. गंभीर बीमारियों के लिए तो कारणों की तलाश अभी भी चिकित्सा विज्ञान के विद्वतजन अभी भी कर रहे हैं. देश में अब विश्वस्तरीय चिकित्सा सुविधाएं और दवाएं हर प्रमुख श्हरों में उपलब्ध हैं, लेकिन उसका लाभ सिर्फ सम्पन्न भारत के लोगों को मिल रहा है. कई दशकों से सरकारों ने जन-औषधि सुलभ कराने की योजनाएं बनाई है, जिसका क्रियान्वयन नीति और नीयत के अभाव में सहीं ढंग से नहीं हो सका. 
चीन के बाद भारत विश्व का सबसे बड़ा बाजार है और अन्य उपभोक्ता सामग्रियों की तरह दवाईयों का कारोबार भी अरबों रूपए का है. दवा व्यवसाय में न्यूनतम मुनाफा सौ फीसदी से शुरू होकर अनंत की सीमा को छूता है. मूल-औषधि यानि जेनेरिक दवाइयों के मामले में भारत आज तक जरूरी आधारभूत संरचना और प्रयोगशालाओं का विकास-विस्तार नहीं हो सका है, फलस्वरूप विदेशी कंपनियों पर हमेशा से निर्भरता रही है. दवा कम्पनियां इस बात का लाभ लेते हुए अतिशय मुनाफा बटोरती हैं. ब्रांडेड दवाओं और जेनेरिक दवाओं के बीच मूल्य का अंतर हमेशा से सौ प्रतिशत से ज्यादा ही रहा है, फिर भी आक्रामक मार्केटिंग ने मरीजों ने सबसे महंगी दवाइयां लेने के लिए विवश किया. 
जन-स्वास्थ्य आंदोलन जैसी मुहिम, जो पुणे से बिलासपुर के गनियारी जैसे ग्रामीण क्षेत्रों में फैली हैं, सस्ती चिकित्सा का मार्ग दशकों पहले से दिखा दिया है. अ.भा. आयुर्विज्ञान संस्थान में हिंदुस्तान लेटेक्स लिमिटेड ने कैंसर की दवाओं को 95 फीसदी तक सस्ती दर पर उपलब्ध कराकर फिर नई राह दिखाई है. केंद्र सरकार को एम्स के डायरेक्टर ने प्रस्ताव भेजकर रायपुर तक 60 से 90 फीसदी सस्ती दवाओं का आउटलेट खोलने की योजना बनाई है, इसकी जितनी भी सराहना की जाए कम है. यद्यपि जेनेरिक दवाओं का प्रचलन बहुत पुराना है लेकिन इसके बारे में दुष्प्रचार भी बहुत किया जाता है. यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि जेनेरिक के नाम पर अमानक दवाओं ने भी अपना वर्चस्व बनाया है, जिसके कारण पेंडारी नसबंदी कांड में महिलाओं की मौतों समेत मोतियाबिंद आपरेशन के बाद आंखों की रोशनी जाने जैसे आंख-फोड़वा कांड भी हो चुके हैं. आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि मानक दवाओं को अमृत फार्मेंसी की तर्ज पर सर्व-सुलभ बनाया जाए ताकि कैंसर, हृदय रोग, किडनी रोग, फेफेड़े, गॉल ब्लेडर सहित अन्य बीमारियों के उपचार की लागत 8 से 10 लाख रूपए के स्थान पर डेढ़ लाख तक की जा सके. साथ ही साथ अमानक दवाओं के कारोबार को खत्म करने के लिए सभी कड़े कदम उठाए जाएं ताकि उपचार के नाम पर मुनाफाखोरों की हत्यारी मुहिम पर रोक लगाई जा सके. 

अंधविश्वासों के खिलाफ मुहिम जरूरी

भावनात्मक मुद्दों से भला नहीं होगा

राम मंदिर मुद्दे को स्थायी रूप से चुनावी औजार बनाने की मंशा साफ हो चुकी है. मामला अदालत में है और सभी पक्ष न्याय मंदिर की बात मानने का जिक्र करते हैं, लेकिन जब भी चुनाव की आहट होती है, खासतौर पर उत्तरप्रदेश जैसे राज्य की बात करें तो बार-बार चर्चा शुरु हो जाती है. अयोध्या में शिला-पूजन, दिल्ली विश्वविद्यालय में राम मंदिर मुद्दे पर सेमिनार के बाद विश्व हिन्दू परिषद ने राम नवमीं से हर गांव में राम मंदिर स्थापना का अभियान बनाया है. केन्द्र सरकार खामोश है, इसका साफ अर्थ है कि इस मुद्दे को चर्चा पर लाने में केन्द्र की भी सहमति है. प्रधानमंत्री अभी तक विदेशों व चुनावी सभाओं में बोलते आए हैं ओर ट्विट भी आमतौर पर देश से जुड़े मुद्दों पर नहीं करते. यह सहज संयोग नहीं है कि एकबारगी चौतरफा मंदिर निर्माण के मुद्दे को उठाया जा रहा है. 
यहां इस बात को जेहन में रखना जरुरी है कि जब भारतीय जनता पार्टी के संसद में सिर्फ 2 संसद थे तो लालकृष्ण आडवानी ने रथ बैठकर अयोध्या कूच किया, कार सेवा के नाम पर बाबरी मस्जिद का ढांचा ढहा और देश में उन्माद के वातावरण ने अनगिनत शहरों में साम्प्रदायिक तनाव के साथ धु्रवीकरण की प्रक्रिया तेज की. फलस्वरूप राष्ट्रीय जनता पार्टी को 86 सीटें लोकसभा की मिली. ऐसे प्रयासों अल्प-जीवन होता है लेकिन जब इस दिशा में लगातार काम किया जाए तो सामाजिक समरता को स्थायी जख्म ही मिलता है. भाजपा ने लगातार मुद्दे बदले, रणनीति बदली और जब विकास की बातें की तो एनडीए की पहली सरकार अटल बिहारी बाजपेयी और दूसरी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी. फिर क्यों देश के आर्थिक विकास और जनता को राहत देने वाले मसलों से किनारा कर भावनात्मक मुद्दों को उछालने की जरुरत आ पड़ी है?  आज देश के विकास गति ठहरी हुई है, जनता को राहत मिलना तो दूर उनकी कठिनाईयां बढ़ी हैं. रोजगार के अवसर दूर ही होते जा रहे हैं, किसानी सजा हो गई है और किसान आत्महत्या कर हैं. नतीजा, दिल्ली फिर बिहार में भाजपा का निराशाजनक प्रदर्शन के बाद गुजरात और महाराष्ट्र की ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में केन्द्र सरकार की नीतियों को मतदाताओं ने नकार दिया और भाजपा चिंताजनक स्थिति में पहुंच गई है. 
इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो बेहद सुनियोजित तरीके से भावनात्मक मुद्दों को उठाया जा रहा है. राम अयोध्या के ही घर-घर में नहीं बसते, उसकी व्यापकता पूरे देश के जन मानस में है. पठन-पाठन, शोध के केन्द्र विश्वविद्यालय में अयोध्या और मथुरा-काशी की बात होने लगे तो सचेत हो जाने का समय है. देश अब फिर से साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा सहने के लिए तैयार नहीं है. देश के गांव, शहरों के किसानों और काम करने वालों को रोजगार की जरुरत है. नई पीढ़ी को शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और सर्वसमावेशी विकास चाहिए. ऐसी स्थिति में देश की सौहाद्र्र की परम्परा का अनुपालन करते सत्ता काम करे और एेसी कोशिशों को लगाम लगाने के लिए सचेत प्रयासों का भरोसा जनता को दे.

लिट्टी-चोखे पर टैक्स लगेगा?

देश के बाजार में विदेशी मिठाईयों को बनाने वाली वालमार्ट, मैकडोनाल्ड, पिज्जा हट जैसे दैत्यों को तमाम सुविधाओं के साथ कारोबार करने की दावत और हमारी देसी मिठाईयों, समोसे पर लक्जरी टैक्स! वह भी उस राज्य में जहां के राजनेताओं के साथ नारों में समोसा शब्द दशकों से जुड़ा है. ठेठ गंवई अंदाज को अपनी राजनीतिक शैली बनाने वाले बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव की सत्ता में वापसी हुई है. तब भी और अब भी, उनके समर्थक नारे लगाते हैं- जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू. यह विडंबना ही है कि देशज व्यंजनों पर उन्हीं की कुदृष्टि पड़ी है. भारत निश्चित रूप से दो भाग में बंटा है और एक सबसे बड़ा हिस्सा ग्रामीण भारत का है जो बेहद अभाव, कष्टों के बावजूद अपने पारंपरिक व्यंजनों, आहार प्रणाली के सहारे खुश रहता है. 
उसकी क्रय सीमा सीमित है लेकिन वैविध्य का भंडार है. इस ग्रामीण भारत की चिंता बिहार में ही सबसे ज्यादा की गई है और हाल में संपन्न हुए चुनाव में नई आॢथक नीति व उदारीकरण सहित कार्पोरेट जगत के पैरोकारों को मतदाताओं ने परास्त कर अपने जैसे दिखने वाले देसी मिजाज के लोगों को पुन: शासन चलाने का दायित्व सौंपा. देश में सभी दल भारतीय परंपराओं की वकालत करते हैं, एक दल तो कुछ ज्यादा ही तरजीह देता है, लेकिन दिल्ली के घंटाघर के पास सुप्रसिद्ध सौ साल पुरानी मिठाई की दुकान बंद हो जाती है. ग्रामीण भारत की बेहतरी और उनकी परंपराओं की दुहाई में जुबानी जमाखर्च करने वाले राजनीतिक दल क्या सत्ता में आने के बाद देश के करोड़ों छोटे हलवाईयों, मिठाई वालों को बचाने का उपक्रम नहीं कर सकती? उत्तर सीधा न मिलेगा. राजकोष को भरने की होड़ में नए-नए रास्ते ढूंढे जा रहे हैं. मिठाईयों, समोसे, निमकी, कचौड़ी, चनाचूर गरम, भुजिया, दालमोठ, तले हुए आलू के चिप्स, नमकीन मूंगफली को लक्जरी आयटम घोषित कर दिया गया और इन पर 13.5 प्रतिशत टैक्स लेने का निर्णय ले लिया गया है. मतलब साफ है- इन पारंपरिक मिठाईयों-नाश्तों को आम-आदमी की पहुंच से बाहर करना और छोटे कारीगरों को बेरोजगार करना. इसका फायदा मैक-डोनाल्ड, पिज्जा हट, केएफसी आदि को देना लगता है, जिन्हें मान-मनुहार कर देश में लाया गया है ताकि कारोबार कर मुनाफा कमा सकें. क्या अब बिहार में अगला निशाना लिट्टी-चोखा भी होगा? इनकी भी दुकानें जहां-तहां मिल जाती हैं और घरों में भी यह नियमित रूप से बनाई जाती हैं. भारत वैविध्यपूर्ण देश है और उतनी विविधता हमारे खानपान में है. हर मोड़ पर भुजिया, समोसा और मिठाई की दुकानों से लोगों का पेट भरता है और करोड़ों लोग अपना घर-बार चलाते हैं. 
यह न सिर्फ परंपराओं, खान-पान की संस्कृति पर प्रहार है, बल्कि विदेशी कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के मकसद से किया गया उपक्रम प्रतीत होता है. देसी और गंवई जनता का प्रतिनिधि बनकर ग्रामीण भारत पर अनावश्यक भार डालना किसी की दृष्टि उचित नहीं कहा जा सकता. भारतीय परम्पराओं को बचाने की कवायद में हमारे खान-पान की शैलियाँ भी शामिल हैं जिन्हें सुरक्षित रखना जरूरी है, लेकिन दुर्भाग्य से ठीक उल्टा काम किया जा रहा है.

जनता की आमदनी पर कैंची!

खबरें आ रही हैं कि केंद्र सरकार भविष्य निधि और राष्ट्रीय बचत पत्र पर ब्याज दरों को घटाने की तैयारी में है. यह खबर पुष्ट भले न हो, लेकिन नई आर्थिक नीति के जानकार इस तथ्य से बखूबी परिचित हैं कि मौजूदा आॢथक माडल के विकास का एक आयाम जनता की आमदनी पर नियंत्रण करना भी है. अभी तक मिल रही सुविधाओं में कटौती पूंजी के केन्द्रीकरण के लिए जरूरी है. भविष्य निधि, राष्ट्रीय बचत पत्र सहित तमाम छोटी बचत योजनाओं का ताल्लुक सीधे देश के करोड़ों लोगों से होता है. अर्थशास्त्र की भाषा बहुत कठिन होती है, उसे समझना सबके लिए सहज नहीं है, लेकिन एक बात बहुत साधारण सी लेकिन महत्वपूर्ण है कि जो विद्वता और योजनाएं देश की जनता की कठिनाइयां बढ़ाए, उनकी आमदनी घटाए- वह किस काम का? देश में बहुत बड़ी आबादी गरीब और निम्न मध्य वर्ग से ताल्लुक रखती है. इनमें से भी एक छोटा समूह ही बचत योजनाओं के जरिए अपने आने वाले वर्षों की जरूरतों के ताने-बाने बुनता है. यदि अर्थशास्त्र के सिद्धांत जनता की बचत पर कैंची चलाने की कोशिश करता है तो लोक-कल्याण की भावना का विलुप्तीकरण हो जाता है. 
इस देश में सामाजिक सुरक्षा की योजनाएं अत्यंत प्रारंभिक अवस्था में हैं, किसी निराश्रित या जीवन के चौथे चरण में पहुंचे लोगो को सरकार चार दिन की भी सुरक्षा देने में असमर्थ है, इस दशा में छोटी बचत योजनाओं को हतोत्साहित करने का औचित्य समझ से परे है. बाजार के नियामक शक्तियों का अधिपत्य सरकार पर है और इनका दबाव उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा देना है. वित्त मंत्रालय खास प्रोडक्ट के लिए खास रेट तय करने की योजनाएं बना रहा है, ताकि बाजार सरकार और सक्षम लोगों को लाभ मिल सके. गौरतलब है कि भारत में बहुसंख्यक लोग अभी भी उपभोक्ता नहीं हैं और उनकी क्रय क्षमता न के बराबर है. वे जरूरी रोजमर्रा की चीजों से इसलिये वंचित रहते हैं कि उन्हें खरीद भी नहीं पाते. दालों सहित तेल, सब्जी की मंहगाई बढऩे पर उसे अपनी थाली में शामिल करना छोड़ देते हैं. 
एेसी स्थिति में भारत को चीन के बाद सबसे बड़ा बाजार मानने में हर्ज नहीं है, तब भी लोगों को आॢथक रूप से मजबूत बनाएं बगैर उपभोक्ता नहीं बनाया जा सकता. भारत में कृषि हमेशा घाटे का सौदा रही है और कर्ज में डूबे किसान आत्महत्या करते हैं. देश की ग्रामीण आबादी सिर्फ मनरेगा और कृषि मजदूरी से जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी जुगाड़ पाती है. लगातार लोग अन्य राज्यों में विषम परिस्थितियों के बावजूद रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं. नौजवानों को काम की तलाश बनी हुई है. स्वास्थ्य सुविधाएं सबको सुलभ नहीं है. इन सब स्थितियों के मद्देनजर कर्मचारियों की भविष्य निधि और गाढ़ी कमाई के पैसे से की जा रही छोटी बचत योजनाओं के ब्याज पर कटौती की योजनाएं बनाना किसी भी दशा में उचित नहीं ठहराई जा सकती. सरकारों को बाजार का विकास करना है तो देश के आम लोगों को आॢथक रूप से सशक्त करना होगा और सर्व-समावेशी योजनाओं के निर्माण पर ध्यान देना पड़ेगा. 

आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक युद्ध जरूरी

सारी सीमाएं पार कर दी फिर निर्मम हत्यारों ने, बाचा खान विश्वविद्यालय में आतंकवादियों ने सीमांत गांधी को श्रद्धांजलि देते पाकिस्तान के भविष्य होनहार छात्रों के बीच घुसकर अंधाधुंध गोलियां चलाकर दो दर्जन से ज्यादा जानें ले लीं. ये वहीं क्रूरतम लोग हैं जो पेशावर के सैनिक स्कूल में डेढ़ सौ से ज्यादा मासूम विद्याॢथयों को मार डाला था, जिनका जनाजा उठाते पाकिस्तान के उनके अभिभावकों सहित विश्व के सभी शांतिकामी लोगों का कलेजा फटा जा रहा था. बाचा खान या बादशाह खान या सीमांत गांधी पेशावर से ही थे. बाचा खान महात्मा गांधी के समकालीन स्वतंत्रता संग्राम के अप्रतिम योद्धा थे और सत्य के आग्रही होने के साथ शांति के लिए आजीवन प्रतिबद्ध रहे. महात्मा गांधी के दिवंगत होने के बाद भी सीमा के दोनों तरफ के लोग बादशाह खान से मिलकर अपनी साध पूरी करते थे. शांति के अग्रदूत की धरती खैबर-पख्तूनवा प्रान्त पाकिस्तान में बहुत अशांत है और आतंकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र भी. इस हिस्से में आतंकियों द्वारा निर्दोष छात्रों को लगातार निशाना बनाना अत्यधिक चिन्ता का कारण बन गया है.
 भारत के मुकाबले पाकिस्तान में कई गुनी आतंकी घटनाएं होती हैं और आए दिन आम-नागरिक मारे जाते हैं. भारत की घटनाओं के लिए भी पाकिस्तान से आए दहशतगर्दों पर ही अंगुलियां उठती हैं और वहीं से प्रशिक्षित आतंकी आमतौर पर मारे या पकड़े जाते हैं. गौरतलब है कि हाल में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी पाकिस्तान को आतंकवादियों का मददगार और पनाहगार देश के रूप में चिन्हित कर वहां के हुक्मरानों को चेतावनी दी कि अपना रवैया बदलें. भारतीय उप महाद्वीप सहित दक्षिण एशिया में आतंकी घटनाओं की वृद्धि चिंताजनक है ही, खुद पाकिस्तान इस आग से झुलस रहा है. भले ही बांग्लादेश सहित यह देश भारत का पड़ोसी हो गया हो, रिश्तेदारी सहित सांस्कृति, भाषा, खान-पान, रहन सहन में एक जैसे हैं. खून चाहे पठानकोट में बहे या पेशावर में दर्द दोनों तरफ के लोगों को एक जैसा होता है. यह सामूहिक जिम्मेदारी बनती है कि दोनों देशों के शासकवर्ग जनता की भावनाओं को समझें और उन्हें तकलीफ देने वाले संगठित तंत्र का खात्मा करें. पाकिस्तान के शासक वर्ग हमेशा इस बात को दुहराते हैं कि भारत की अपेक्षा वे आतंकवाद से ज्यादा पीडि़त हैं. इस बात पर जरा भी संदेह नहीं है, परंतु आतंकी दबाव समूह का नियंत्रण भी स्वीकार कर हर दृष्टि से ढिलाई बरती जाती है और क्रूरतम लोगों वहां प्रोत्साहन मिलता है, 
यह भी सच्चाई है. निश्चित रूप से पाकिस्तान में जम्हूरियत है और इंतखाब भी होते हैं. हुक्मरानों को वहां की बहुसंख्यक जनता, जो बाचा खान को दिल से चाहती है, वहीं चुनकर सत्ता सौंपती है. फिर क्यों मनुष्यता के दुश्मनों के दबाव में सरकार आती है? उन छात्रों को निशाना बनाया जाना किसी भी दृष्टि से असहनीय है जो नए विचार, ज्ञान, विज्ञान से देश के भविष्य को गढऩा चाहते हैं. अब बहुत हो चुका, अब तो सिर्फ इस बात का समय है कि सीमांत गांधी जैसे शंतिकामी महामानवों और आम-आदमी की सुनें और दहशतगर्दी को सभी अर्थों में खत्म करने अभियान चलाएं. 

भारत से विदेश जा रही पूंजी

भारत मेें पंूजी निवेश के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ताबड़तोड़ विदेशी दौरे किए. उन्होंने सभी देशों में व्यापारिक कूटनीति ही अधिक की और पूंजी निवेश के लिए विश्व के अनेक देशों के व्यवसायियों को आमंत्रित किया. इसके साथ ही उन्होंने भरोसा दिलाया कि उन्हें अनुकूल वातावरण मिलेगा. प्रधानमंत्री की कवायद का व्यापक पैमाने पर स्वागत भी हुआ, लेकिन डेढ़ साल से ज्यादा अवधि बीतने के बाद भी विदेशी निवेश की रफ्तार धीमी ही बनी हुई है. निश्चित रुप से इसका कारण घरेलू मोर्चे पर तैयारी का न होना है. यह विडंबना ही है कि इस मामले में ठीक उल्टी बात हो रही है. भारत की आर्थिक गतिविधियों का पल-पल का हाल देने वाले शेयर बाजार से विदेशी संस्थागत पूंजी निवेशकों ने सिर्फ 7 महीने में 2 अरब डॉलर देश से बाहर भेज दिया. वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में अर्थव्यवस्था पर वित्तीय पूंजी का प्रभुत्व पिछले दो दशक से बढ़ा है. इसके साथ ही भारत विदेशी निवेशकों के लिए सबसे पसंदीदा स्थान रहा है. 
साल भर पहले तक रेमिटेंस की रकम भारतीय रिजर्व बैंक ने सवा लाख डॉलर निर्धारित की थी, जो जुलाई 2015 से ढाई लाख डॉलर कर दी गई. इसके बाद संस्थागत विदेशी निवेशकों द्वारा पैसे विदेश भेजने की रफ्तार तीव्र गति से बढ़ी और 66.5 करोड़ से बढक़र 2 अरब डॉलर तक जा पहुंची. इसका जबर्दस्त असर रुपये की सेहत पर पड़ा है. आमतौर पर शेयर बाजार से वित्तीय पूंजी निकालने से मुद्रा कमजोर होती है, लेकिन विदेश भेजी जाने वाली रकम ज्यादा ही असर डाल रही है. रिजर्व बैंक द्वारा रेमिटेंस स्कीम में ढील दिए जाने के पीछे व्यावसायिक रुप से उदार बनना था, परन्तु विदेशों में रहने वाले भारतीय निवेशक अपना पैसा तेजी से वापस मंगा रहे हैं. 
इसके अतिरिक्त एनआईआर अपनी परिसम्पत्तियां भी बेच रहे हैं तथा टैक्स संबंधी मुश्किलों की आशंका के चलते भारत में पैसा लगाने से भी कतरा रहे हैं. शेयर बाजार सहित भारत में तमाम तरीके से निवेश की जरुरतों से किसी को इनकार नहीं है. यदि धरातल पर स्थिति विपरीत दिखाई देती है, तो भारत के नीति नियंताओं को इसकी समीक्षा करने की जरुरत है. यह भी सच है कि नई सरकार के गठन के बाद गंभीरता से काम सिर्फ उद्योग जगत के लिए हुआ है और वह भी देश की सवा सौ करोड़ आबादी की दुश्वारियों की कीमत पर. आश्चर्यजनक बात है कि इसके बाद भी भारत में निवेश और औद्यौगिक विकास का मामला एक कदम आगे बढऩे की बजाय दो कदम पीछे हटता दिखाई देता है. वास्तव में ऐसे कदमों के प्रभाव तत्काल दिखाई नहीं देते और पक्ष में अनेक तर्क गढ़े जा सकते हैं. लेकिन अब मूल्यांकनकर्ता सतर्क हो गए हैं और रणनीति के खोखलेपन को महसूस कर रहे हैं. यह भी उतना ही सच है कि देश में आबादी के समूचे हिस्से को उनके हक की खुशहाली नहीं मिली है, जनता की आर्थिक ताकत ही देश के शेयर बाजारों को परवान चढऩे देने और विकास को गति देने के लिए पर्याप्त होगी.

‘धरती पर फरिश्ते’ दयनीय

भारत में चिकित्सा सेवा की हालत बेहद दयनीय है, केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने लोकसभा में स्वीकार किया है कि 11 हजार रोगियों के बीच सिर्फ एक एलोपैथी डॉक्टर उपलब्ध है. जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चिकित्सक-रोगी का अनुपात 1000 तय किया है. इन डॉक्टरों की चिकित्सा का बड़ा हिस्सा उनके सहयोगी स्टाफ पर निर्भर होता है और उसमें भी नर्सों का दायित्व अतुलनीय होता है. देश की सबसे बड़ी अदालत ने दिन-रात मरीजों की सेवा करने वाली नर्सों और खासतौर पर निजी अस्पताल में कार्यरत स्टाफ की दयनीय दशा पर गौर करने के लिए केन्द्र सरकार को निर्देश दिया है. उच्चतम न्यायालय ने चार हफ्ते के भीतर विशेषज्ञ समिति बनाने सहित कानून बनाने को भी कहा है ताकि नर्सों को उचित वेतन सहित अनुकूल वातावरण मिल सके. सरकारी क्षेत्र में कार्यरत नर्सों को वेतनमान सहित काम के तयशुदा घंटे में सेवा ली जाती है, लेकिन निजी अस्पतालों में संचालकों की मनमर्जी ही कानून होता है. वेतन की बात करें तो चिकित्सा के निजी व्यावसायिक संस्थानों का जोर सिर्फ खुद के लिए मुनाफा बटोरने पर होता है. बहुतेरे स्थानों पर कलेक्टर द्वारा निर्धारित दर पर भी सहयोगी स्टाफ और नर्सों को वेतन नहीं मिलता. 
यह भी सच है कि सरकारी अस्पतालों की उपलब्धता ही गरीब जनता के लिए उपचार का माध्यम है. मरीजों से भारी शुल्क लेकर चिकित्सा करने वाले निजी संस्थाओं के द्वारा शासकीय चिकित्सालयों की बेवजह बदनामी कर मरीजों को भरमाने का क्रम लम्बे समय से चल रहा है. लेकिन रायपुर मेकाहारा, बिलासपुर के सिम्स सहित तमाम जिला चिकित्सालयों में नाम मात्र शुल्क के साथ बेहतर उपचार की सुविधाएं उपलब्ध हैं. भिलाई स्थित अस्पताल तो श्रेष्ठ उपचार का मशहूर केन्द्र रहा है, जिसे स्टील प्लांट संचालित करता है. बेहतर चिकित्सा के लिए न सिर्फ डॉक्टर बल्कि अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में काम करने वाली नर्सें भी उत्तरदायी होती हैं. किसी दशा में विशेषज्ञ चिकित्सक की अपेक्षा स्टाफ और नर्सों को अधिक देखभाल करनी पड़ती है. ‘धरती पर फरिश्ते’ के रूप में पेश की जाने वाली नर्सों की पेशेवर जिंदगी बेहद खस्ताहाल है. विभिन्न अध्ययनों से जो तथ्य सामने आए हैं उनमें उनका मौखिक, शारीरिक उत्पीडऩ के साथ डॉक्टरों, प्रबंधन तथा सहकर्मियों द्वारा दुव्र्यवहार जैसी बातें शामिल हैं. नर्सों और प्रबंधन के बीच गुलाम और मालिक जैसे रिश्ते की बात अतिरंजनापूर्ण नहीं है. निजी क्षेत्रों में कार्यरत नर्सों को अपनी पढ़ाई के लिए चार से छह लाख रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जब रोजगार मिलता है तो वेतन ढाई से छह हजार रुपये तक ही सीमित होता है. 
मरीजों की जान बचाने वाली नर्सों के उल्लेखनीय योगदान पर कभी भी चर्चा नहीं होती न ही किसी दस्तावेज पर उनका नाम ही दर्ज होता है. इसके अलावा निजी संस्थानों में उनके प्रमाण पत्रों को जब्त करने और दर्शाए गए वेतन से भी कम देने की शिकायतें भी आम बात हैं. एेसी स्थिति में भारत के सबसे बड़े न्यायालय की पहल बेहद स्वागतेय है और अपेक्षा की जानी चाहिए कि भारत सरकार चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण किरदार नर्सों को दयनीय स्थिति से उबारने सारी कोशिशें करेगी.

पूरा तंत्र स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है

छत्तीसगढ़ की निर्भया ने जब सिस्टम की दोगलेबाजी को नजदीक से महसूसा तो आत्महत्या कर ली और समाज के सामने उन्हीं भयावह सवालों को खड़ा कर दिया जिससे लगातार लोग जूझ रहे हैं. हर रोज, हर घंटे, हर मिनट मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त लोग स्त्री-शरीर को काबू पाने की चेष्टा में मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना को अंजाम दे रहे हैं. आखिर क्या फायदा है उन सब बातों का जिसमें स्त्री को शक्ति-स्वरूपा मानने, विद्वता के शिखर में स्थान देने, पूज्यनीय बताने की कोशिश करते हैं. प्रतिदिन परम्पराओं की दुहाई और हर क्षण पाशविक अत्याचार? आखिर समूचा तंत्र क्यों स्त्री विरोधी और असंवेदनशील है? 
सामूहिक अनाचार का शिकार छत्तीसगढ़ की निर्भया ने अन्याय को चुनौती दी थी और अपराधियों को दंड दिलाने सिस्टम के पास गई थी. यह बेहद दुर्भाग्यजनक है कि तंत्र को चाहे कितना भी मजबूत बनाने की सैद्धांतिक कवायद की जाए, व्यवहारवाद अंतत: अन्याय करने वालों के पक्ष में जा खड़ा होता है. छग की निर्भया के मामले में वकील, न्यायपालिका, पुलिस, अफसर, सरकार सब के सब संवेदनहीनता के शिकार नजर आए और पीडि़ता को न्याय पाने की राह में भयावह उत्पीडऩ का फिर से शिकार होना पड़ा, जिसने सीधे- सीधे भयावह नैराश्य डालकर आत्महत्या करने के लिए प्रेरित किया, ताकि समाज के दरिंदे बिना दंड के सुख से रहे सकें. यह मामला रोंगटे खड़े कर देने वाला है. 
मरीज डॉक्टर के पास जाकर सुरक्षित महसूस करता है, पुलिस आम आदमी की सुरक्षा के लिए होती है, वकील न्याय दिलाने में कानूनी मदद के लिए होता है और न्यायपालिका तो न्याय देने के लिए ही, लेकिन सबने निराश किया. डॉक्टर, पुलिस अपराधी बने, वकील मदद नहीं कर सकी और न्यायपालिका से जब तक न्याय आता ये निर्भया हार गई. सवाल-दर-सवाल खड़े करती ये आत्महत्या यह यह भी पूछती है कि क्या यह व्यवस्था नारी सुरक्षा के सिर्फ खोखले वादे करती है? दिल्ली के निर्भया कांड के बाद जन-प्रतिरोध के ज्वार ने व्यवस्था के सभी अंगों को झकझोरा था, लेकिन स्थिति जस की तस है. बाल अपराध कानून में संशोधन करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि मध्यकालीन मूल्यबोध से ग्रस्त स्त्री विरोधी और उन पर दमन करने वाली प्रवृत्तियों के खिलाफ कारगर कार्रवाई के लिए रंचमात्र भी प्रयास किए गए? किसी भी दृष्टि से एेसा नहीं लगता. उल्टे नौजवानों से गलती हो जाने पर क्या फांसी पर चढ़ा दोगे, अनाचार की घटनाओं का कारण वेशभूषा, मोबाइल आदि है- एेसा वक्तव्य देकर स्त्री- विरोधी अत्याचारों को प्रोत्साहन देने का काम देश के जिम्मेदार लोग कर रहे हैं. पुलिस, अफसर आज भी अपनी अकड़ के साथ समाजद्रोही ताकतों के साथ जा खड़े होने में शर्मिदगी महसूस नहीं करते. वकील और न्यायपालिका में व्यवस्थागत व्यवहारिक निर्ममता बनी हुई है.
आखिर इस असंवेदनशील समय में स्त्री विरोधी जड़ों को हिलाने और उखाडऩे की कोशिश कब होगी? छ.ग. की निर्भया मामले में आत्महत्या के लिए प्रेरित करने वाले कारणों की सख्त पड़ताल के साथ तंत्र के दोषियों पर कार्रवाई सुनिश्चित करने की पहल की जानी चाहिए.

यमुना की भी चिंता जरुरी

सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है और गंगा-जमुनी तहजीब का भी. धार्मिक परम्पराओं में नदी का विशेष महत्व है. स्नान, कर्मकांड, विशाल मेले, कुंभ आदि सब नदियों के तट पर ही होते हैं. इसका दूसरा पहलू यह भी है कि प्राचीन परम्पराओं के निर्वाह के नाम पर हम प्रकृति की रक्षा के दायित्व से मुकरते भी रहे हैं. इन्हीं बातों पर बहस के साथ अध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर का भव्यतम आयोजन दिल्ली में यमुना तट पर आरंभ हो गया. 
विश्व संस्कृति महोत्सव कराने के पीछे कारण यह बताया गया है कि श्री श्री की संस्था के 35 वर्ष पूरे हो रहे हैं और भारतीय संस्कृति और भारतीयता की ताकत दिखाने का अवसर है. आयोजन के लिए देश की राजधानी और यमुना तट का चयन ही विवाद का कारण बना. पिछले कई दशक से नदियों की दुर्दशा और गंदगी पर चिंता जताई जा रही है. एनडीए की वाजपेयी सरकार ने नदियों को जोडऩे की योजना बनाई थी, तो नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने पवित्र नदियों खासतौर पर गंगा की सफाई के लिए विशेष योजना बनाई है. प्रधानमंत्री ने ‘नमामि गंगे’ परियोजना भी प्रस्तुत की है. ऐसी स्थिति में जब वाकई संस्कृति, सभ्यता की धरोहर नदियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा हो तो यह भी जरुरी है कि हम अपनी आस्था, उत्सवधर्मिता को व्यक्त करने का तरीका बदलें. तटों को लेकर सावधानी बरतने की चिंता से ही नदियों का भला नहीं होगा. 
श्री श्री के आयोजन को लेकर जिस तरह की चिंताएं व्यक्त की गई, उसमें यमुना के डूब वाले भूकम्प और बाढ़ की दृष्टि के संवेदनशील इलाके शामिल हैं. इसके अलावा किसानों की फसल काटकर जमीन के इस्तेमाल से लेकर विभिन्न अस्थायी निर्माण कार्य सहित तट पर बने शौचालयों से यमुना के प्रभावित होने की आशंका है. आयोजक पर्यावरण व यमुना नदी की हानि की संभावना से इंकार कर रहे हैं, जबकि इन तर्कों से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल सहमत नहीं है और पांच करोड़ रुपये के जुर्माने के साथ कार्यक्रम की अनुमति दे दी. सवाल यह भी है कि अनुमानित 35 लाख लोगों की भागीदारी वाले आयोजन से संभावित पर्यावरण की क्षति को पांच करोड़ रुपये से कैसे बचाया जा सकता है. किसी भी आयोजन के पूर्व और बाद की स्थिति में नुकसान हमेशा चिरस्थायी होता है. केन्द्र सरकार की ओर से कहा गया है कि श्री श्री का आयोजन सांस्कृतिक विविधताओं का उत्सव है, यह भारत को प्रसिद्धि दिलायेगा, अत: इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए. अन्य तर्कों में यह भी शामिल है कि कुंभ जैसे आयोजन के लिए सेना की मदद ली जाती है तो पुल बनाने पर आपत्ति क्यों? मामला तर्क-वितर्क का नहीं, पक्षधरता का है. सरकारों पर यह जिम्मेदारी आयद होती है कि भारत को प्रसिद्धि भी मिले और समय की जरुरतों का ध्यान भी रखा जाये. पर्यावरण से लेकर विश्व के सभी देशों सहित भारत भी चिंतित है, इस लिहाज से कोई अन्य बेहतर स्थल का चयन भी हो सकता था. बहरहाल बॉलीवुड स्तर के चकाचौंध के साथ विविधताओं का उत्सव आरंभ हो चुका है, आनंद लें, पर्यावरण की चिंता भी होती रहेगी.

मिले इंसानी हक

हर साल की तरह रस्मी आयोजनों के साथ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस गुजर गया और तमाम सवाल जहां के तहां पड़े रह गए. मई दिवस की तरह संघर्ष की कोख से जन्मे इस दिवस को महिलाओं के साथ गैर-बराबरी और प्रताडऩा के खिलाफ जागरण और संघर्ष का हथियार बनाया गया था. अब यह दिवस बाजार के हवाले होता जा रहा है. गहनों-कपड़ों पर भारी छूट सहित सौन्दर्य उत्पादों पर शानदार ऑफर देकर बाजार अपना हिस्सा मांगता है. किन्हीं उपलब्धियों को लेकर कतिपय महिलाओं का सम्मान किया जाता है तो संसद से लेकर शहरों के सभागृहों तक मातृ-शक्ति का गुणगान किया जाता है.
 इस साल भी बातें अलग नहीं थीं. 1908 में अमेरिका के कपड़ा कारखाने की हड़ताल से लेकर प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर रोटी और शांति की मांग को लेकर रूसी महिलाओं के जुलूस की एेतिहासिक पृष्ठभूमि के मद्देनजर महिला दिवस स्त्रियों की अस्मिता की लड़ाई का प्रतीक है और मातृशक्ति से इंसानी वजूद हासिल करने का संघर्ष है. भारतीय संदर्भों में यह दिवस बहुत ही औपचारिक है. अभी भी संसद में महिला आरक्षण बिल लटका हुआ है और इस अध्यादेश में पेंच फंसाने वाले पुरूष प्रभुत्व समाज के प्रतिनिधि ही हैं जो स्त्री के दोयम दर्जे पर रखने के हामी हैं या उन पर बलात्कार जैसी भयावह प्रताडऩा के लिए दोषियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए लड़कियों को ही सुधर जाने की हिदायत देते हैं. कानून से लेकर समूची व्यवस्था इस कदर सड़ चुकी है कि उत्पीडऩ की शिकार महिला थक-हारकर जुल्म से लड़ते हुए खुद को मिटा डालने पर विवश हो जाती हैं. 
मध्यकालीन मूल्यों से मस्तिष्क इस तरह जकड़ा हुआ है कि महिलाओं को पुष्ट-बलिष्ठ बनाने की जगह जीरो फिगर की ओर प्रेरित कर कुपोषित-कमजोर बनाए रखने की कोशिश की जाती है ताकि उस पर अधिकार कायम रहे. महिलाओं के उत्पीडऩ की स्थिति यह है कि यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार भारत की 77 फीसदी किशोरियां यौन हिंसा का शिकार बन जाती हैं तो दूसरी ओर इसी उम्र समूह की आधी से ज्यादा लड़कियां अपने माता-पिता के हाथों शारीरिक प्रताडऩा झेलती हैं. भारत में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण को विदेश से भी आने वाली महिलाओं ने महसूस किया है, भारत को शानदार देश लेकिन महिलाओं के लिए बेहद असुरक्षित करार दिया है. महिला दिवस अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया है, लेकिन समूचे विश्व में लैंगिक समानता का प्रश्न ठिठका हुआ है. 
भारत में महिलाओं के प्रति कितनी गंभीरता है इस बात का अंदाजा प्रधानमंत्री के भाषण से भी लगाया जा सकता है जो उनके सशक्तिकरण, नेतृत्व क्षमता सहित मल्टी टास्ंिकग प्रतिभा का जिक्र करते हैं, लेकिन संसद और विधानसभाओं में 33 फीसदी आरक्षण के मुद्दे पर मौन साध लेते हैं. महिला दिवस पर आज की सबसे भीषण समस्या यौन ङ्क्षहसा है. इसके खिलाफ पहलकदमी की जा सकती थी, लेकिन यह प्रमुख चर्चा का विषय भी नहीं बन सकी. महिलाओं को सम्मान, स्तुतिगान की जरूरत नहीं है बल्कि उन्हें असमानता और प्रताडऩा से मुक्ति की दिशा में ठोस समाधान चाहिये. आशावान होने की जरूरत है कि एक दिन यह लक्ष्य हासिल करने निर्णायक संघर्ष होगा और विवशताएं खत्म होंगी. 

अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना जरुरी

सौहाद्र्र और शान्ति पर एक बार फिर विघ्न डालने की कोशिश की गई. रायपुर के समीप गिरजाघर में प्रार्थना के दौरान हमला, तोडफ़ोड़ और लोगों को घायल करने वाले किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है. प्रार्थना, पूजा या आस्था की निजता का सम्मान किया जाना चाहिए. इस आपराधिक कृत्य को अंजाम देने वालों का खोखलापन इसी से उजागर होता है कि कथित रूप से धर्म परिवर्तन का आरोप लगाया गया है. एेसे लोगों को न तो स्वधर्म की चिन्ता होती है न परधर्म की परवाह. ये सिर्फ अच्छी शिक्षाओं और संस्कारों के विरोधी ही हो सकते हैं. छग में अल्पसंख्यकों पर निशाना साधने वालों को उन लोगों का भी समर्थन हासिल है जो निरंतर द्वेष की राजनीति करते हैं. छत्तीसगढ़ अनोखा है और इसकी परम्पराएं निराली है. 
आदिवासी बहुल प्रदेश शांति और सौहाद्र्र की मिसाल है. देश भर में जब विघ्न संतोषियों ने सांप्रदायिक उन्माद फैलाया था तब भी छग की जनता ने समझदारी दिखाई थी और अमन भाईचारे को बनाए रखा. देश भर के हर किस्म के लोग आए और सब अंतत: ‘छत्तीसगढिय़ा’ बनकर रह गए, जिसे ‘सबसे बढिय़ा’ कहा जाता है. हर धर्म, समुदाय के लोगों सहित ईसाई धर्मावलंबी भी आए और सुदूर वन प्रांतरों में शिक्षा का प्रसार और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम किया. इसी तरह अन्य संगठनों ने भी इन क्षेत्रों में समाज सेवा के लिए तत्परता दिखाई, लेकिन इसके केंद्र में धर्म और धर्म परिवर्तन को रखकर संघर्ष बढ़ाना निश्चित रूप से समाजद्रोही कार्य ही हो सकता है. चर्च पर हमले के आरोपियों को तत्परता से पकड़ा गया यह स्वागतेय है और एेसे तत्वों पर कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए. अनुभव बताते हैं कि राजनीतिक उद्देश्यों की पूॢत के लिए कानून के पालनकर्ताओं द्वारा ढिलाई बरतने की प्रवृत्ति बढ़ी है. बस्तर और जशपुर क्षेत्र में अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों तथा समुदाय पर पिछलेएक दशक से हमले बढ़े हैं. 
व्यवस्था संचालित करने वालों को इस बात को जेहन में रखना जरूरी है कि भारत के संविधान में ‘हम भारतवासी’ की प्रतिस्थापना के साथ विचार, आचार, व्यवहार की आजादी दी गई है. इसके साथ ही अल्पसंख्यक समुदायों को भी उनके अधिकार उसी तरह दिए गए हैं जैसे बहुसंख्यकों के हैं. उनकी सुरक्षा, निजता की रक्षा का दायित्व भी सत्ता को दिया गया है. कई दशक से बहुसंख्यक समुदाय का वर्चस्व स्थापित करने के लिए संविधानेत्तर आचरण करने की कोशिश को नाकाम करने के लिए सबसे पहले व्यवस्था की कमजोरी दुरूस्त करने की जरूरत है. समाज में भी उन तत्वों को अलग-थलग करने की आवश्यकता है जो आए दिन सौहाद्र्र व भाईचारे के लिए बाधा बनते हैं. किसी भी स्थिति में आपराधिक आचरण करने वालों को किसी भी स्तर पर संरक्षण न मिले यह सुनिश्चित किया जाये ताकि सबके साथ अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का वातावरण मिल सके. ‘छत्तीसगढिय़ा सबसे बढिय़ा’ इसी शर्त पर बना रह सकता है. जब उन्मादी तत्वों के राजनीतिक इस्तेमाल के विरूद्ध जनता भी सतर्क घेरेबन्दी करे ताकि इनके हौसले टूटें और दोबारा आपराधिक कृत्य को अंजाम न दे सकें. 

लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाना जरुरी

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय सुर्खियों में है और लम्बे समय बाद एक विद्यार्थी प्रतिरोध का नायक बनकर देशवासियों का ध्यान आकृष्ट कर रहा है. इसके साथ ही विपरीत ध्रुव वाली विचारधाराओं के बीच तेज होता संघर्ष भी सतह पर है. जेएनयू प्रकरण किसी विस्फोट की तरह भारतीय जन-मानस को हिला देने वाली घटना के रूप में आता है और मीडिया में एकबारगी छात्रों का स्वरूप देशद्रोहियों की तरह पेश हो जाता है. छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार न सिर्फ गिरफ्तार होता है, बल्कि अदालत परिसर में ही न्याय दिलाने के लिए मददगार कतिपय अधिवक्ता दो-दो बार सजा देने की कोशिश कर लेते हैं. आश्चर्यजनक रुप से देश के गृहमंत्री का हस्तक्षेप भी होता है और आतंकवादी हाफिज सईद की संलिप्तता का संकेत राष्ट्रवाद के नाम से उन्माद की आग में घी का काम करता है. अब जब कन्हैया कुमार को छह महीने की अंतरिम जमानत इस आधार पर दे दी जाती है कि दिल्ली पुलिस अदालत में कन्हैया कुमार के खिलाफ कोई सबूत पेश नहीं कर सकी और जांच जारी रखी जाए, तब स्थितियां काफी बदल जाती हैं. अभी तक जेएनयू प्रकरण को लेकर एकपक्षीय प्रचार का ही जोर था, अब सवालों का जवाब तलाशने आरोपी कन्हैया कुमार भी उपलब्ध हैं. देर रात टीवी चैनलों ने इस बहुचर्चित युवा को जीवंत प्रसारित किया. 
कन्हैया कुमार ने देश की न्यायिक व्यवस्था, संविधान और लोकतंत्र पर आस्था जताते हुए विशुद्ध राजनीतिक- वैचारिक सवालों पर बात की. प्रेस वार्ता में भी स्पष्ट किया कि उनके आदर्श अलगाववादी, आतंकवादी नहीं, बल्कि व्यवस्था के विरुद्ध आक्रोश जताने वाले हैदराबाद विवि के छात्र रोहित वेमुला हैं. इसके साथ ही भारत के दक्षिणपंथी माने जाने वाले संगठनों ने भी अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से जारी बयान में जमानत देने के फैसले के उन मुद्दों पर ध्यान देने की बात की गई है, जिसमें छात्रों के बीच राष्ट्रविरोधी भावनाएं पनपने पर चिंता व्यक्त की गई है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने जेएनयू के राष्ट्रवाद के खिलाफ होने और इस प्रवृत्ति के विरुद्ध संघर्ष की बात दोहराई है. इस समूचे प्रकरण की पृष्ठभूमि में वैचारिक भिन्नता है. आजादी के पहले ही देश में आरएसएस और कम्युनिस्ट पार्टी का उदय हो चुका था. जेएनयू की महत्ता और विरासत पर चर्चा भी यहां जरुरी है. इस विवि के विद्यार्थी देश के हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा से महत्वपूर्ण सेवाएं दे रहे हैं.
राजनीति से लेकर प्रशासन, शिक्षा, कला, सिनेमा में भी जेएनयू से निकली प्रतिभाएं हैं. इस विवि में 40 फीसदी छात्र उस पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं, जिनके घर के बच्चों को स्कूल में भी पढ़ाना आसान नहीं होता. यहां बहुलतावादी संस्कृति, लोकतांत्रिक मूल्यों और विमर्श की लम्बी परम्परा रही है. यह सही है कि वामपंथी छात्र ज्यादातर हावी रहे हैं, लेकिन अन्य विचारधारा के लोग भी अपना स्थान रखते हैं. भारत लोकतांत्रिक देश है और इसकी ताकत विमर्श है. सहमति-असहमति के अधिकार को सुरक्षित रखते हुए इसे कटु संघर्ष में तब्दील करने से लोकतंत्र ही कमजोर होगा. सत्ताधारी दल, विपक्ष सहित सबका दायित्व बनता है सदियों से कमाई जनवादी प्रवृत्तियों को बचाएं.

बर्बर प्रवृत्तियों को रोकना आवश्यक

सभ्य समाज व्यवस्थित और नैतिक होता है और इसे हासिल करने लिए हमें हजारों साल लगे हैं, और भी बेहतर समाज के लिए निरंतर कोशिशें हो रही हैं. आदिमकाल की प्रवृत्तियों में जो अच्छाईयां थी उन्हें लगातार पल्लवित हुए बर्बर समाज से मुक्त होते गये. इक्कीसवीं सदी का समाज लोकतांत्रिक और समानता का पक्षधर हैं. यह विडंबना ही है कि कतिपय लोग समाज की धारा को बर्बर संस्कृति की ओर मोडऩा चाहते हैं. पिछले दिनों ‘दिनों घर में घुसकर मारेंगे, देश छोडऩे या देश से भगाने, दफन कर देंगे’ जैसे नारे लगे, तो अब बहुत ही असहनीय बातें होने लगी है जिसमें किसी भी ‘जीभ काट लेने’ पर पांच लाख और ‘हत्या करने’ पर दस लाख रूपए इनाम देने की भी घोषणाएं होने लगी हैं. यह पहली बार नहीं हो रहा है. भारत में ही पैगम्बर निन्दा के आरोपी के कत्ल के लिए करोड़ों के उपहार देने की बात की गई थी. हाल की घटनाओं पर नजर डालें तो मणिपुर और दादरी में सिर्फ अफवाह उड़ाकर दो लोगों की सरेआम हत्या कर दी गई. तर्कवादी दाभोलकर, पानसरे और डा. कालबुर्गी को बर्बरता का शिकार होना पड़ा. 
पूरा देश एेसी घटनाओं पर चिंतित है और संविधान, कानून पर आस्था रखने वाला हर व्यक्ति मर्माहत और भयभीत है. यह याद रखना जरूरी है कि प्रकृति, विज्ञान और समाज विकास के नियम के तहत बीते हुए समय को वापस नहीं लाया जा सकता. समाज पाषाण युग, धातु युग से होते हुए सामंतवाद-राजतंत्र से मुक्ति पाकर जनतांत्रिक बना है और साथ ही सभ्यता-संस्कृति परिष्कृत और उद्दात्त हुई है. इसका अर्थ यह नहीं है कि बर्बर सोच के लोगों से समाज मुक्त है या सामंतवादी प्रवृत्तियों के लोग आज भी नहीं रहते. खाप पंचायतों के फैसलों ने समाज के अनिष्ट करने वाले संकेतों दिखाया है तो एेसे संगठनों की भरमार है जो कानून और संविधान की परवाह नहीं करते. जंगलों में रहने वाले अति-वामपंथी भी इन्हीं प्रवृत्तियों के शिकार हैं और अपने प्रभाव क्षेत्र में समानान्तर सरकार चलाते हैं. वे अपनी अदालत में नृशंस सजाएं देते हैं. इस रोग से विश्व का समूचा हिस्सा पीडि़त है और तरह-तरह के आतंकवादी संगठन असभ्य, अराजक और बर्बर समाज की स्थापना के लिए प्रयास कर रहे हैं. 
इस तरह की कोशिशों ने मनुष्य और मनुष्यता के समक्ष बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है. यह सच है कि विश्व के तमाम देशों सहित भारत की बहुसंख्यक आबादी सभ्य और कानून सम्मत समाज का पक्षधर है. भारत में आजादी के बाद श्रेष्ठतम प्रवृत्तियों को संविधान में समाहित किया गया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित समाज को अधिक लोकतांत्रिक बनाने की अनुमति भी दी गई है. समाज सहित सरकार को संविधान के द्वारा प्रदत्त अधिकारों के इस्तेमाल करने की इजाजत देनी होगी, इसी दशा में भारत श्रेष्ठ और भद्र समाज बन सकेगा. हाल में दिख रही कमजोरी या प्रतिगामी सोच के प्रति शासकवर्ग की पक्षधरता नए किस्म के संकट को जन्म देने वाली साबित होगी. आतंकवाद से त्रस्त और गृह युद्ध के बर्बाद देशों से सबक लेकर बर्बर और गैर-लोकतांत्रिक सोच पर अंकुश लगाना वक्त की जरूरत है. 

मंगलवार, 1 मार्च 2016

सियाचीन पर युद्धोन्माद और शहादतें

दुनिया का सबसे ऊंचा और खर्चीला रणक्षेत्र सियाचीन भारत-पाकिस्तान के बीच गहरे अविश्वास और तनाव की जगह है. सवाल यह है कि दोनों देशों की सरकारें अपने परंपरागत दृष्टिकोण से हटकर अमन की एक नई उम्मीद जगाने के प्रति वास्तव में गंभीर होंगी? एक हफ्ते पहले हिमस्खलन से दस भारतीय सैनिकों के दब जाने से मौतों और लांस नायक हनुमनथप्पा को न बचाए जा सकने से फिर से एेसे सवालों पर विचार करना ही होगा. पहले भी पाकिस्तान के 126 सैनिक और 11 नागरिक यहीं 80 फीट गहरे बर्फ में दफन हो गए थे. सियाचीन में भारत-पाकिस्तान के कई हजार सैनिक जान गवां चुके हैं, जिनमें से अधिकतर की मौत कठोर मौसम से हुई. यहां तापमान शून्य से 50 डिग्री नीचे रहने के बावजूद सेनाओं के निगरानी केंद्र हैं. सिर्फ भारत अपनी सेनाओं को यहां बनाए रखने के लिए सालाना दो हजार करोड़ रूपए खर्च करता है. पाकिस्तान को यही खर्च प्रतिदिन पांच करोड़ रूपए पड़ता है. प्रेक्षकों की राय में बगैर रणनीतिक, खनिज, सामरिक महत्व के स्थान पर इतना भारी खर्च बुद्धिमानी के विरूद्ध है. 
2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राय जाहिर की थी कि इस बीहड़ युद्धक्षेत्र को शान्ति की घाटी में तब्दील करने का प्रयास करें. ठीक उसी वक्त पाकिस्तानी जनरल ने भी सियाचीन के असैन्यीकरण के पक्ष में अपनी राय दी थी. दुर्भाग्य से कुछ बातचीत के अलावा इस दिशा में ठोस पहलकदमी आज पर्यन्त प्रतीक्षित है. वर्षों से होती त्रासदियों से जनहानि, बहुमूल्य सैनिकों की निरर्थक कुर्बानी सहित असीमित खर्च के मुकाबले फिर सियाचीन मुद्दे पर बहस की जरूरत है. यह सन्दर्भ और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब दुनिया के सारे देश जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी को बचाने के लिए एकजुट हो रहे हैं, वहीं भारत-पाकिस्तान की फौजों की फायरिंग से सियाचीन के ग्लेशियर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. सारी समस्या की जड़ में गहरे तक पसरा अविश्वास हर दृष्टि से हानि पहुंचा रहा है. पाकिस्तानी सेना द्वारा सालटोरो रिज हथियाने की योजना, आपरेशन मेघदूत से परस्पर विद्वेष की खाई चौड़ी ही हुई है. 
असल सवाल यह है कि दोनों देशों के विवादास्पद मुद्दों को हल करने का काम सेनाओं का नहीं है, बल्कि जनता द्वारा चुनी गई निर्वाचित सरकारों का है जो परस्पर बातचीत और बेहतर रिश्ते बनाने से ही संभव होगा. जब दोनों देशों की जनता के पक्ष में बहुत से काम जब लंबित हों और आतंकवाद सहित आंतरिक सुरक्षा का प्रश्न मुंहबाए खड़ा हो, उस वक्त सत्ता प्रतिष्ठानों को समझदारी से काम लेने की जरूरत है. कमजोर होता, टूटता पाकिस्तान भी भारत के हित में इसलिए नहीं है क्योंकि वहां के विघटनकारी तत्व अंतत: भारत को ही नुकसान पहुंचाते हैं. आज अति-आधुनिक तकनीक के दौर में सियाचीन जैसी जगहों पर सैनिकों की तैनाती के विकल्प भी ढूंढने की जरूरत है ताकि बेशकीमती जानें सिर्फ वहां का निर्मम वातावरण न लेता रहे. भारत और पाकिस्तान के संबंधों को सामान्य और आगे की दिशा में ले जाने के लिए जरूरत है दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की. कम से कम सियाचीन के मामले में तो कुछ हो ही सकता है.

राष्ट्रीयकृत बैंकों का दुर्दशाकाल

बैकिंग का अर्थ धनराशि जुटाना और ऋण देना होता है. जब बैंक पूरी तरह से डूब जाने के लायक ऋण का जखीरा खड़ा कर लें तो हालात बेकाबू हो जाते हैं. सरकारी नियंत्रण वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों का यही हाल है. शेयर बाजार में निवेशक नाउम्मीद हो गए हंै. 1998-2002 के संकट के दौर में अलग से रकम डालने, कम ब्याज दरों की मदद से बैकों को उबारा गया था. अब स्थिति एेसी नहीं है. उस समय राष्ट्रीयकृत बैकों ने एक दूसरे को मदद की थी और निजी क्षेत्र के बैंक चुनौती भी नहीं थे. इसके अतिरिक्त लाख टके की बात यह भी है कि नई आॢथक नीति और मुक्त बाजार की व्यवस्था इस मुकाम पर है कि सार्वजनिक क्षेत्र को प्रोत्साहन देने की गुंजाइश ही नहीं बची है. सरकार का वास्तविक नियंत्रण अब बाजार की ताकतों के हाथ में है और सभी जरूरी-गैर जरूरी क्षेत्रों के विनिवेशीकरण और निजीकरण की प्रक्रिया निर्णायक मोड़ पर है. हाल में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन वित्त वर्षों के दौरान 29 राष्ट्रीयकृत बैंकों ने 1.14 लाख करोड़ रुपये के कर्ज को न वसूल हो सकने वाले डूबत खाते में डाल दिया. एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 7.32 लाख करोड़ रुपये का ऋण आश्चर्यजनक रूप से सिर्फ दस कंपनियों को दिए गए थे. ये रिपोर्टें ऐसे वक्त में आ रही हैं, जब आर्थिक मंदी को देखते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली वित्तीय सख्ती बरतने की बात कर रहे हैं. 
पिछले दो वर्षों के दौरान सरकार ने स्वास्थ्य, शिक्षा और कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती की है. कुछ प्रमुख अर्थशास्त्री भी शोर मचाते रहे हैं कि ये सब्सिडियां अनावश्यक हैं. बार-बार यह बताया जाता है कि देश को विकसित बनाना हैं, तो एेसी सब्सिडी खत्म करनी होगी. जब गरीबों को वित्तीय मदद दी जाती है, तो इसे सब्सिडी कहा जाता है, जिसे खलनायक का दर्जा दे दिया गया है. पर जब अमीरों को बड़े पैमाने पर खैरात, कौडिय़ों के मोल जमीन, प्राकृतिक संपदा और करों में छूट जैसी सौगातें दी जाती हैं, तो इन्हें विकास के लिए दिया जाने वाला प्रोत्साहन कहा जाता है. देश में रोजगार सृजन निराशाजनक हालात में है, औद्योगिक विकास धीमा है, निर्माण क्षेत्र नकारात्मक स्थिति में है और निर्यात भी गति नहीं पकड़ रहा. अगर कॉरपोरेट जगत को दी जाने वाली इन रियायतों का फायदा नहीं हो रहा, तो उन्हें दिया गया पैसा आखिर कहां चला गया? बैंकों की वसूली के मापदंड भी अलग-अलग हैं. 
अगर एक आम आदमी बैंक लोन का भुगतान नहीं कर पाता, तो उसे डिफॉल्टर कहा जाता है, जिसकी एवज में बैंक उसकी संपत्ति जब्त कर सकता है या फिर जबरन वसूली भी कर सकता है. जबकि, अमीर और कॉरपोरेट कंपनियां बैंकों को भुगतान नहीं करती, तो इसे नॉन परफॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) कहा जाता है. देश की अर्थव्यवस्था को लम्बे समय तक बचाने के लिए जरूरी है कि अभी तक जारी रवैये में बदलाव हो. रिजर्व बैंक के गवर्नर सहित प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री भी बैंकों की दुर्दशा पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं, लेकिन सवाल नीतियों, राहतों और सब्सिडियों को तर्कसंगत बनाने का है ताकि देश का हर आदमी लाभान्वित हो सके. 

मलेरिया, डेंगू पर खर्च असहनीय

सवा सौ करोड़ की आबादी में हर साल लगभग 16 लाख लोग मलेरिया से पीडि़त होते हैं और डेंगू से ग्रस्त होने वालों की तादाद भी अच्छी खासी है. आजादी के समय 33 करोड़ आबादी में से 7.5 करोड़ यानि जनसंख्या का 20 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा मलेरिया से पीडि़त रहता था. राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम जारी करने के छह साल बाद मलेरिया 20 लाख लोगों तक सीमित हो गया. फिर ढिलाई का दौर चला और 1976 में मलेरिया से बीमार होने वालों की संख्या 65 लाख से ऊपर दर्ज की गई. हर साल हजार लोगों की मलेरिया से मौत हो जाती है. दूसरा स्याह पहलू यह है कि भारत में सिर्फ मलेरिया के उपचार पर 11640 करोड़ रूपए खर्च हो रहे हैं. डेंगू के बढ़ते मरीजों का खर्च 6000 करोड़ रूपए से अधिक हो गया है. 
मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर चलाया जाता है और मच्छरजनित रोगों पर काबू पाने की जगह उसकी बढ़ोतरी इस समूचे अभियान पर सवाल-दर-सवाल खड़ा करती है. डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया, जीका जैसी बीमारियों ने विश्व भर के देशों के नागरिकों का सामाजिक-आॢथक भार बढ़ा दिया है, तो भारत की बहुसंख्यक गरीब जनता के लिए इन बीमारियों के उपचार का भार उठाना असहनीय हो गया है. सरकारी स्तर पर जिस तरह की लापरवाही बरती जाती है, वह किसी से छिपी नहीं है. मच्छरों से होने वाली बीमारियों के लिये उनके पैदा होने की जगह को निशाना बनाया जाना सर्वमान्य पद्धति है, लेकिन गलियों में धुंआ करना और जल जमाव वाले अनावश्यक स्थानों को हमेशा के लिए छोड़ देने की प्रवृत्ति बनी हुई है. स्वास्थ्य विभाग से राष्ट्रीय कार्यक्रमों का संचालन होता है लेकिन जितनी राशि मिलती है, उसका बहुत मामूली हिस्सा ही खर्च होता है. राशि के बड़े हिस्से की बंदरबाट हो जाती है. 
अमानक दवाओं की खरीदारी के प्रसंग आए दिन प्रकाश में आते ही रहते हैं. मलेरिया संवेदी क्षेत्रों में मच्छरदानी से लेकर अन्य बचाव की सामग्री कभी कभार ही पहुंच पाती है. कुल जमा मामला यह है कि इस कार्यक्रम की सारी प्रणाली का मूलाधार आवंटित राशि को हजम करना बनता जा रहा है. सरकारी कार्यक्रमों से परेशान लोग निजी चिकित्सालयों की ओर रूख करते हैं जहां भारी कीमत देकर उपचार कराने की विवशता होती है. देश की बहुसंख्यक आबादी जब गरीब हो, बेरोजगारी चरम पर हो और क्रय शक्ति न के बराबर हो तो निजी चिकित्सालयों के जरिये बीमारियों का सामना कैसे किया जा सकता है. स्थानीय प्रशासन स्वास्थ्य और सफाई को लेकर जितना निरंकुश और गैर-जिम्मेदार है, यह भी तथ्य छिपा हुआ नहीं है. सफाई, स्वच्छता का अभी तक सब्जबाग ही दिखाया जाता है और हमारे प्रदेश के शहर देश के सबसे गंदे, सबसे प्रदूषित स्थानों की सूची में अग्रणी रहते हैं. मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया और आने वाली बीमारी जीका देश की जनता की आॢथकी को तोड़ दे, उससे पहले हर स्तर पर ठोस पहलकदमी की जरूरत है. किसी खुशफहमी से न तो इन रोगों पर काबू पाया जा सकता और न ही दवा व्यवसाय की सेहत से भारत का स्वास्थ्य सुधर सकता है.  

नेताओं की विलासिता त्रासद प्रसंग

जिस देश में महात्मा गांधी जैसी त्याग और सार्वजनिक जीवन में शुचिता की प्रतीक हस्ती रही हो, वहीं जन-प्रतिनिधि अगर मध्य काल के राजा-महाराजाओं, सुल्तानों की चमक-दमक वाले हों तो इसे विडंबना ही कहेंगे. कर्नाटक में मौजूदा मुख्यमंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री के बीच बेशकीमती हीरे जड़ी घडिय़ों को लेकर जो प्रहसन चल रहा है, वह हंसकर उड़ा देने वाली बात नहीं, बल्कि गंभीर विमर्श का विषय है. देश ने आजादी के बाद दुनिया का सर्वश्रेष्ठ संविधान अपनाया जिसमें सभी देशवासियों की श्रेणी सिर्फ और सिर्फ ‘हम भारतवासी’ है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मतदान का अधिकार, चुनाव लडऩे की पात्रता, शिक्षा, स्वास्थ्य सहित तमाम मामलों में बिना किसी जाति, धर्म, नस्लीय भेदभाव के सबको समान अधिकार संविधान प्रदान करता है, तो दूसरी ओर कर्तव्य भी एक जैसे ही सुझाए गए हैं. जब एक आम-भारतीय मतदाताओं के मतों से निर्वाचित होकर निश्चित समयावधि के लिए सत्ता-सूत्र संभालता है तो उसका नैतिक दायित्व और सार्वजनिक जीवन में शुचिता कायम रखना महत्वपूर्ण हो जाता है. आजादी की जंग की आंच में तपे नेताओं की पहली पीढ़ी को महात्मा गांधी के सामान्य भारतीय की तरह जीवन यापन करने, समरस रहने का आदर्श कमोबेश याद रहा लेकिन धीरे-धीरे इसका क्षरण होने के साथ राजनीतिज्ञों का विद्रूप स्वरूप सामने आ रहा है. 
प्रधानमंत्री, मंत्रियों, सांसदों, मुख्यमंत्रियों, विधायकों को समस्त सुविधाओं के साथ पर्याप्त मानदेय और जीवन पर्यन्त आॢथक सुरक्षा भी मिलती है. इसके बावजूद हर कोई प्रश्नवाचक निगाह से यह भी देखता है कि इस राजनीतिक तबके की आमदनी लाखों में और खर्च करोड़ों में होती है. राजनीति पेशा नहीं है फिर भी इस क्षेत्र में आए लोगों की परिसम्पत्तियां ‘दिन दूनी रात चौगुनी’ बढ़ती है. दूसरी तरफ भारत का एक स्वरूप यह भी है कि स्कूल जाने के लिए बच्चे भारी संख्या में तरस रहे हैं, नौजवानों के पास काम नहीं है. कृषि से इतनी उपज हो रही है कि किसानों को आत्महत्या के अलावा कोई मार्ग नहीं सूझ रहा है. मेहनतकश तबका और कर्मचारी असुरक्षित होते जा रहे हैं. पूंजी का केन्द्रीकरण होने के साथ जनता की सुविधाएं छीनी जा रही हैं. 
सत्ता सूत्र संभालने वालों की जमात में शीर्ष पर रहे राजनेता हवाला से लेकर भीषणतम भ्रष्टाचार के मामलों के आरोपी हैं, रहे हैं तो आय से अधिक सम्पत्ति का मामला बेहद साधारण घटना बनकर रह गई है. स्थिति इतनी भयावह होने के बाद भी कतिपय राजनेता अभी भी सादगी की मिसाल बने हुए हैं. विभिन्न भावनात्मक मुद्दों पर बहस और फसाद करने की प्रवृत्ति जोर पकड़ चुकी है, इस बीच सार्वजनिक जीवन जीने वालों की भी पड़ताल की जानी चाहिए. लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सांसदों, मंत्रियों की जांच कराने की बात को अपनी पहली प्राथमिकता बताई थी. कालान्तर में दस लाख रूपए के सूट सहित जीवन शैली के आरोपों से घिरते नजर आए. महात्मा गांधी के देश में जहां भारत की बहुसंख्यक आबादी पीडि़त, वंचित है वहां सत्ता सूत्र संभालने वालों की वैभवशाली संदिग्ध जीवन शैली भारतीय जनतंत्र के त्रासद प्रसंग हैं. 

क्यों रहे देश बंधक?

अभिव्यक्ति की आजादी है, आंदोलनों के जरिए बात रखने की इजाजत भी है लेकिन हिंसा और देश की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने सहित जनजीवन को ठप करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? हाल के घटनाक्रमों को देखें तो राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर गुर्जर, गुजरात में पाटीदार और हरियाणा में जाट आंदोलन ने सार्वजनिक, निजी सम्पत्ति को क्षति पहुंचाने के साथ उन सबका जीना मुहाल कर दिया जो इन मामलों से सर्वथा असम्बद्ध थे. सुप्रीम कोर्ट ने पाटीदार आन्दोलन की सुनवाई करते समय विनाशलीला पर सख्ती दिखाई और साफ शब्दो में कहा कि सार्वजनिक सम्पत्ति को हुए नुकसान पर सभी के लिए दिशा-निर्देश तय होने चाहिए. उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी भी बेहद महत्वपूर्ण है कि आन्दोलनकारी देश को बंधक नहीं बना सकते और नुकसान के लिए राजनीतिक दलों को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. 
दुर्भाग्य है कि आजादी के इतने साल बाद भी देश को नुकसान पहुंचाने वालों की निशानदेही और जवाबदेही तय नहीं की जा सकी है. ज्यादातर आंदोलन राजनीतिक उद्देश्यों के लिए होते हैं, और गैर-राजनीतिक मंचों का भी उपयोग होता है. आन्दोलन की दशा-दिशा कितनी ही हिंसक और अराजक क्यों न कर दी जाए, राजनीतिक दल अपना दामन बचाने में कामयाब होते दिखते हैं. गुजरात में पटेल समुदाय द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर जो कुछ किया गया, उसकी पुनरावृत्ति हरियाणा में हुई. जाट आन्दोलन के खत्म होने की खबरों के साथ अरबों रूपये की सम्पत्ति के नुकसान का जख्म है तो देश के हर कोने के लोग इस आन्दोलन से प्रभावित हुए. सडक़ मार्ग ही नहीं, समूचा रेल तंत्र ठप हो गया था. आखिर कोई आन्दोलन क्यों इतना हिंसक और परपीडक़ हो जाता है? 
लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दल आखिर क्यों निष्प्रभावी हो जाते हैं या पिछले दरवाजे से देश को नुकसान पहुंचाने के लिए आमादा होते हैं. सरकार का तंत्र इतना विवश क्यों हो जाता है कि उपद्रवियों को रोक नहीं पाता या हिंसा-आगजनी की पूरी छूट देता है? इन प्रश्नों को संजीदगी से संबोधित नहीं किया गया तो देश में जनतांत्रिक मूल्य और नागरिक अधिकार भी सुरक्षित नहीं रहेंगे. आन्दोलनों की परम्परा देश में हमेशा से रही है और आजादी की जंग के दौरान महात्मा गांधी ने सत्याग्रह के जरिए अंग्रेजों की नाक दम कर दिया था. जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन ने देश की चेतना ही बदल दी थी. हाल ही में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आन्दोलन ने देश के गांव-गांव तक अपनी व्याप्ति बनाई लेकिन हिंसा जैसी घटनाओं से दूर रही. उच्चतम न्यायालय की चिंताओं के साथ देश का हर लोकतंत्रवादी मानस शामिल है जो अपनी बात मजबूती से रखता है, लेकिन विध्वंसक प्रवृत्तियों से दूरी रखते हुए अपने देश की बेहतरी की भी चिंता करता है. केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को अपनी नाकामी छिपाने के लिए अनुचित रास्तों से तौबा करने की जरूरत है, वहीं अन्य दलों को भी हिंसक आन्दोलनों से दूरी बनाने और राजनीतिक स्तर पर समस्याओं के समाधान ढूंढने की आवश्यकता है. देश के लोकतंत्र में इतनी ताकत है कि विध्वंस के बगैर भी अपनी बातें रखी और मनवाई जा सकती हैं. 

स्मृति-माया विवाद : कड़वाहट का अतिरेक

संसद में राजनीतिक दलों के बीच कटुता बढ़ती जा रही है, नेता एक दूसरे को हैसियत बता है. कभी यहीं परस्पर विरोधी दल मुस्कुराकर एक-दूसरे का सम्मान करते हुए तर्कों के आधार पर बहस और खंडन-मंडन करते थे. संसद में कड़वाहट का अतिरेक समाज के निचले हिस्से तक नफरत फैला रहा है. दलीलों में नौटंकी का अभी तक स्थान नहीं था. बजट सत्र शुरू होते ही शोध छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी और देशद्रोह के अपराध में गिरफ्तार जेएनयू छात्र कन्हैया कुमार पर संसद में हंगामा होना तय था, चर्चा की अनुमति समझदारी भरा निर्णय था. इसकी सार्थकता तब होती जब चर्चा संकीर्ण दायरे से बाहर निकल पाती. बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने छात्र रोहित की मौत की जांच समिति में दलित सदस्य होने के मामले को जर्बदस्त तरीके से तूल दिया तो मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने अपने एजेंडे से न हटने की ठान ली. दोनों के बीच अप्रिय टकराव ने सबका ध्यान खींचा, लेकिन चर्चा की व्यापक दृष्टि पर कुठाराघात ही हुआ. पहचान की राजनीति करने वाली मायावती राजनीतिके मैदान पर अपेक्षाकृत व्यापक हुई हैं, लेकिन विमर्श की दृष्टि से तंग गलियों में विचरण कर रही हैं. 
केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ एनडीए सरकार के साथ यह दुर्भाग्य जुड़ा है कि प्रमुख घटक दल भारतीय जनता पार्टी मौजूदा संविधान से इतर विषयों को स्थापित करने की कोशिश कर रही है. संसद के पहले दिन का कामकाज जांच कमेटी में दलित सदस्य होने या न होने पर खर्च हो गया और केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के अतिरंजित और तूफानी भाषण का दिन बन गया. आखिर परिणाम क्या निकला? इसका उत्तर तो संसद में निश्चित रूप से मिलेगा, भले ही उसका स्वरूप चाहे जैसा भी हो, लेकिन रोहित वेमुला प्रकरण पर जिम्मेदार मंत्री के बयान के प्रतिकूल तथ्य सामने आने लगे और मायावती वादे के मुताबिक सिर मांगने लगी तो विपक्ष संसद को गुमराह करने की बात पर विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव लाने की तैयारी कर रही है.
 मंत्री को शाबाशी देने में प्रधानमंत्री ने भी देर नहीं लगाई और स्मृति ईरानी के भाषण को सत्यमेव जयते करार दिया. यह सब अगर हड़बड़ी में की जा रही हो या सब कुछ जानबूझकर रणनीति के तहत, दोनों ही स्थितियां संसद और संविधान के लिए बेहद चिंता का विषय है. स्मृति ईरानी ने जेएनयू के मुद्दे को जिस तरह संसद में संबोधित किया, वह आस्था का एकपक्षीय आग्रह सकते में डालने वाला था. भारत में अंगीकृत संविधान देश की बहुलतावादी संस्कृति का संरक्षक है और निजी आस्थाओं को मानने की स्वतंत्रता देता है. दुर्गापूजक या महिषासुर वंदक होना संसद में चर्चा का विषय हो ही नहीं सकता. परंपराओं और अतिविचारों के साथ समाज सहजता से जीता है. यहां अज्ञानी होने की दलील नहीं चल सकती, लेकिन संविधानेत्तर विषयों को स्थापित करने का दुराग्रह करने का मामला साफ है. संविधान और संसद की व्यवस्था और सर्वोच्चता को कायम रखने के लिए बेहद जरूरी है कि अपने एजेंडे लेकर न आएं और संवैधानिक दायरे में बहस व चर्चाएं हों. 

लोकहित में बार-बार पलटे सरकार


वित्त मंत्री अरूण जेटली द्वारा प्रस्तुत बजट प्रस्ताव में कर्मचारी भविष्य निधि की निकासी पर आयकर का प्रस्ताव रखा गया है. इस संगठन में जमा की जाने वाली राशि सर्वाधिक होती है क्योंकि बहुमत कर्मियों के लिए ही ईपीएफओ है. इसी संगठन की राशि को म्युचुअल फंड, शेयर बाजार में लगाने की अनुमति दी गई है. बजट प्रस्ताव के तुरंत बाद ही सरकारी स्पष्टीकरण आया कि निकासी पर आयकर का प्रस्ताव पीपीएफ के लिए नहीं है. हर स्तर पर विरोध और श्रम संगठनों के गुस्से के बाद सरकार ने फैसले को पूरी तरह से नहीं पलटा और 60 फीसदी राशि निकासी के ब्याज पर आयकर लगाने का स्पष्टीकरण राजस्व सचिव से दिलवाया. स्थिति हास्यास्पद होने के बाद भी कर्मचारी हित में सरकार का गुलाटी मारना स्वागतयोग्य है. बेहतर होता कि सदन के पटल पर रखे इस प्रस्ताव को वित्त मंत्री वापस ले लें. देश के साढ़े छह करोड़ से अधिक वेतनभोगियों पर आरोपित अतिरिक्त भार उनका भविष्य कुछ हद तक खराब करता है. इसी तरह के बहुत से बजटीय प्रस्ताव हैं जिन पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए. संसद सर्वोच्च है और फैसले बहुमत से लेना सम्मानजनक स्थिति होती है. 
प्रस्तावित बजट में मध्य वर्ग को दुधारू गाय समझा गया है और सरकार ने खजाना भरने के लिए अतिरिक्त दोहन की योजना पेश की है. किसी भी तरह के कर हो, चाहे वह उत्पादन कर, विक्रय कर हो या और कुछ, सब उपभोक्ता ही देता है, स्वच्छता और कृषि के नाम से करारोपण, डिविडेंट पर कर, सेवा शुल्क में वृद्धि सीधी मार है, जिसके लिए उपभोक्ता तैयार नहीं है. इस सिलसिले में बहस के बाद वित्त अधिनियम में समुचित संशोधन के पश्चात पारित किया जाना चाहिए. बजट में कृषि क्षेत्र को केन्द्र में रखा गया है, लेकिन प्रस्ताव का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है कि उनकी वास्तविक स्थिति पर गौर नहीं किया गया है. पांच साल में किसानों की आय दोगुनी करने की बात फिलहाल झांसे की तरह है और सबसे गंभीर तथ्य यह है कि किसानों की आय फिलहाल तीन हजार रूपये मासिक ही है. देश में कृषि संकट और अकालजनित परेशानी से उबरने के लिए 28 लाख हेक्टेयर की जगह 141 मिलियन हेक्टेयर खेती योग्य जमीन की सिंचाई की चिंता करनी पड़ेगी. आय बढ़ाने की चिंता फसलों के सुनिश्चित दाम के लिए उपाय करने से ही संभव होगी, बाजार की ताकतों से किसानों को बचाने के लिए रणनीति बनाने की जरूरत है. जिस नई आॢथक नीति के तहत उदारीकृत अर्थव्यवस्था का अनुसरण सरकार कर रही है, उसकी पहली शर्त सशक्त उपभोक्ताओं की मौजूदगी है. 
देश में पांच करोड़ लोगों की क्रय शक्ति को ही भोथरा कर देने से बाजार और औद्योगिक विकास की गति पर गंभीर असर पड़ सकता है, जबकि जरूरत देश की समूची आबादी, जिसमें किसान, ग्रामीण भारत और शहरी गरीब शामिल हैं, उसे सशक्त बनाने की है. बजट प्रस्ताव सिर्फ प्रस्ताव हैं, जनहित और रियायतें देने के लिए फैसलों को पलटना सम्मान की बात होगी. गरीब भारत, मध्य वर्ग को सरकार से बहुत से यू टर्न की उम्मीदें हैं.