शनिवार, 31 मार्च 2012

रोजगार सुरक्षा की बात क्यों नहीं होती

मस्तराम कपूर
(जनसत्ता)  गरीबी हटाने या समाज कल्याण के नाम पर जनता को खैरात बांटने की योजनाएं भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत रही हैं। इन योजनाओं में इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा और बाद की कांग्रेसी सरकारों द्वारा चलाई गई अनेक योजनाएं भी शामिल हैं और उनके अनुकरण में क्षेत्रीय पार्टियों की सरकारों द्वारा चलाई गई सस्ते अनाज, मुफ्त टीवी, साड़ियां आदि बांटने और स्कूलों में बच्चों को पौष्टिक भोजन देने की योजनाएं भी शामिल हैं। इसी क्रम में अब तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक सरकार ने दुधारू पशुओं के वितरण की योजना भी चलाई है, जिसकी सरकारी पैसे की लूट के कारण इन दिनों खूब धूम है।
चारा कांड भी एक ऐसी ही योजना थी, जिसका लक्ष्य तो था गरीब जनता की मदद करना, लेकिन जो कुल मिला कर जनता के नाम पर सरकारी पैसे की लूट का प्रतिनिधि उदाहरण बन गई। इन सारी योजनाओं में प्रधानमंत्री सड़क निर्माण योजना ही ऐसी थी जिससे ग्रामीण क्षेत्रों की मूल सुविधाओं के निर्माण का कुछ काम हुआ और जनता को कुछ फायदा मिला, हालांकि भ्रष्टाचार से वह योजना भी मुक्त नहीं रही। इंदिरा आवास योजना और समेकित बाल विकास योजनाएं भी कुछ उपलब्धियों के बावजूद भारी भ्रष्टाचार का स्रोत रही हैं।
मनरेगा के अंतर्गत भूमिहीन बेरोजगार परिवार के एक व्यक्ति को साल में सौ दिन की मजदूरी सौ रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मिलती है। अब इसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ दिया गया है और इसकी वजह से इसमें मामूली बढ़ोतरी हो गई है। यह गौरतलब है कि कई राज्यों में मनरेगा की मजदूरी, घोषित न्यूनतम मजदूरी से कम है, और इसकी वजह से केंद्र सरकार को सर्वोच्च न्यायालय की फटकार भी सुननी पड़ी है। पहले कर्नाटक हाईकोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम पैसा मनरेगा के तहत नहीं दिया जा सकता। इस फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की। मगर सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी और कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को सही ठहराया। अगर मनरेगा की मजदूरी बिना कमीशन कटे पूरी की पूरी भी मिल जाए तो भी वह पांच व्यक्तियों के परिवार में प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में साढ़े पांच रुपए रोज पड़ती है। इतने में एक कप चाय भी आज नहीं मिलेगी। हालांकि इस योजना पर पिछले पांच सालों में कई लाख करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं जिनमें से शायद आधे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़े हैं। इसी क्रम में खाद्य सुरक्षा योजना बनी है, जिससे संबंधित विधेयक संसद में पेश हो चुका है और स्थायी समिति के पास हैे।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के अनुसार सत्तर प्रतिशत ग्रामीण जनता और पचपन प्रतिशत शहरी जनता को दो रुपए किलो गेहूं और तीन रुपए किलो चावल प्रति व्यक्ति के हिसाब से मिलेगा। लगभग पैंसठ प्रतिशत आबादी मामूली खर्च पर (जो लगभग मुफ्त ही होगा) भरपेट खाना खा सकेगी। इस योजना के कारण, सरसरे अनुमान के अनुसार, एक लाख करोड़ रुपए का बोझ सरकारी खजाने पर प्रति वर्ष पडेÞगा। इसके लिए छह करोड़ टन अनाज की जरूरत होगी।
सरकार की ओर से की जाने वाली खरीद ज्यादा से ज्यादा पांच करोड़ टन होती है। लगभग डेढ़ करोड़ टन अनाज हर साल विदेशों से खरीदना पड़ेगा। इससे हमारा विदेशी मुद्रा का भंडार इतना क्षीण होगा कि हम 1990 की स्थिति में पहुंच जाएंगे। यही सोच कर वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की नींद उड़ गई है।
लेकिन फिलहाल हम इसके इस पहलू को छोड़ते हैं और इसके दूसरे पहलू पर विचार करें। हमारे देश की गरीब जनता, जो कुल आबादी का अस्सी प्रतिशत है, दो जून की रोटी के लिए ही संघर्ष करती रही है। उसका सारा श्रम, परिवार की औरतों और बच्चों के श्रम सहित, दो वक्त के भरपेट खाने के लिए ही रहा है। जब खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत मामूली खर्च पर भरपेट खाने की व्यवस्था हो जाएगी तो वह कोई भी काम क्यों करेगा? वह खेतों में अपने हाड़ क्यों तुड़वाएगा? वह उन सब कामों को क्यों करेगा जिनसे उसे अपने परिवार के लिए दो वक्त के भरपेट खाने की व्यवस्था करनी पड़ती थी। वह अपनी जमीन को बंजर पड़ा रहने देकर घर बैठे आराम की जिंदगी क्यों नहीं बिताएगा या ताश, जुआ आदि में अपना फालतू समय क्यों नहीं लगाएगा?
वह अपराधों के रास्ते सस्ती कमाई करने की ओर उन्मुख क्यों नहीं होगा या अपना फालतू समय राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में लगा कर क्रांतिकारी कहलाने का दावा क्यों नहीं करेगा? वह उद्योगपतियों को अपनी जमीन बेच कर शहरी मध्यवर्ग की जीवनशैली क्यों नहीं अपनाएगा और इस प्रक्रिया में निठल्ला जीवन जीने और जल्दी से जल्दी धनाढ्य बनने और रईस-राजाओं की तरह वैभव में जीने के लिए अपराध या राजनीति के धंधे में क्यों नहीं लगेगा?
यह संभावना शेखचिल्ली की उड़ान नहीं है। जिन गांवों में सस्ते अनाज की योजना लागू है वहां देखने में आया है कि श्रम-योग्य व्यक्तियों का अधिकांश समय ताश आदि खेलने या आपराधिक गतिविधियों में बीतता है। वहां खेतीयोग्य भूमि उजाड़ होती जा रही है। गांवों में रहने वाली सत्तर-अस्सी प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर रही है जिसमें किसान भी हैं और भूमिहीन मजदूर और कारीगर जातियां भी। खेती उजड़ गई तो यह सारी आबादी बेरोजगार हो जाएगी।
चूंकि श्रम या रोजगार पेट ही नहीं भरता, बल्कि स्वतंत्रता का सुख और स्वाभिमान भी देता है, इन बेरोजगार व्यक्तियों की हैसियत कुल मिला कर   सरकार की भीख पर पलने वाले भिखारियों की हो जाएगी। अगर इस योजना के साथ-साथ ग्रामीण आबादी के लिए बडेÞ पैमाने पर रोजगार सृजित नहीं हुए तो इस पूरे समाज का निठल्ले समाज में बदल जाना निश्चित है। वह एक समय के चीनी समाज की तरह अफीम पर जीने वाला समाज बन जाएगा। यह प्रक्रिया भारत में चलने भी लगी है। खेती की दृष्टि से सबसे समृद्ध माने जाने वाले प्रदेश पंजाब में ऐसे ही हालात बनने लगे हैं। यहां का युवा वर्ग नशीले पदार्थों के चंगुल में फंसता जा रहा है। अगर इस स्थिति पर काबू नहीं पाया गया तो पुलिस और सेना के लिए स्वस्थ युवाओं की कमी की समस्या खड़ी हो जाएगी। यह कमी सेना में महसूस भी की जाने लगी है।
कहते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। हम लोगों के हाथ का काम छीनते जा रहे हैं। एक तरफ उद्योगों के लिए खेती को उजाड़ा जा रहा है, दूसरी तरफ उन्नत प्रौद्योगिकी शहरी आबादी के रोजगार छीनती जा रही है। इधर खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश से लगभग पांच करोड़ खुदरा कर्मियों के रोजगार छिनने वाले हैं। खाली हाथ और खाली दिमाग की यह फौज क्या गुल खिलाएगी, यह अनुमान का विषय है।
एक समय था जब विकास का पैमाना रोजगार को माना जाता था। पूर्ण रोजगार का सिद्धांत पिछली सदी में इंग्लैंड के अर्थशास्त्री कीन्ज ने रखा था। इसे अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने अपने न्यू डील कार्यक्रम में भी अपनाया था। भूमंडलीकरण के दौर में इस सिद्धांत को उलट दिया गया और प्रौद्योगिकी के सतत विकास से मानव-श्रम में लगातार कटौती कर रोजगारों को खत्म किया जाता रहा। महात्मा गांधी की आर्थिक कल्पना में मानव-श्रम को पवित्रता प्रदान की गई थी।
उन्होंने चरखे को आजादी का साधन बनाया, जिसकी उस समय के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी रवींद्रनाथ ठाकुर ने आलोचना की थी। लेकिन चरखा न केवल कलात्मक श्रम था, बल्कि  अल्प मात्रा में ही सही, रोजगार भी था। वह आम जनता को आत्म-निर्भरता और आत्म-गौरव का सुख भी देता था और एक महान लक्ष्य की लंबी लड़ाई के लिए आम आदमी को तैयार भी करता था। गांधी ने सिद्ध किया कि मानव-श्रम ही सृजन है। अर्थशास्त्र में इसी सिद्धांत का विस्तार कीन्ज ने किया। पर नवउदारवाद ने रोजगारों में उत्तरोत्तर कटौती वाले आर्थिक विकास का रास्ता अपनाया। जाहिर है, यह रास्ता झूठ, छल, जुआ, सट्टा, कीमतों की हेराफेरी, ब्याज पर ब्याज, छद्म उत्पादन (वस्तुओं और माल के उत्पादन के बजाय सुविधाओं का उत्पादन) का ही हो सकता है। इस उत्पादन का लक्ष्य वही वर्ग हैं जो आहार, निद्रा, भय की मूलभूत जरूरतों से मुक्त हो चुके हैं और अब सुविधाओं के पीछे पागल हैं।
यह वर्ग कुल आबादी के पंद्रह-बीस प्रतिशत से अधिक नहीं होता। शेष अस्सी प्रतिशत, जिसके हाथ से रोजगार छिनता जाता है, सरकार की सहायता पर निर्भर रहता है। यह सहायता इतनी ही होती है कि आदमी जिंदा भर रहे। मनरेगा और खाद्य सुरक्षा की योजनाएं इसी तरह की सहायता पहुंचाने वाली योजनाएं हैं। यह सहायता उसी तरह की होती है जैसे पुराने जमाने के सेठ-सेठानियां मंदिरों के बाहर लगी भिखारियों की भीड़ को पहुंचाते थे और पुण्य अर्जित करते थे। आज की सरकारें भी नकद पैसा, भोजन आदि का दान कर अपने लिए सत्ता-सुख अर्जित करती हैं।
गरीबी की समस्या मनरेगा, खाद्य सुरक्षा या नकद धनराशि देकर हल नहीं हो सकती। ये योजनाएं राजनेताओं के लिए वोटबैंक और भ्रष्ट लोगों के लिए अवैध कमाई का स्रोत तो हो सकती हैं, लेकिन रोजगार से मिलने वाला स्वाभिमान और सम्मानपूर्ण जीवन नहीं दे सकतीं। प्रत्येक श्रम-योग्य व्यक्ति के लिए उचित रोजगार की व्यवस्था ही आर्थिक नीतियों का लक्ष्य होना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में मूल सुविधाओं के निर्माण का काम आज भी इतना पड़ा है कि अगर कल्पनाशील सरकार हो तो करोड़ों लोगों को रोजगार पर लगाया जा सकता है।
वास्तव में तीसरी दुनिया में मूल सुविधाओं के निर्माण के काम से सारी दुनिया की बेरोजगारी दूर हो सकती है। इस तरह का सुझाव कभी डॉ लोहिया ने रखा था। उन्होंने कहा था कि विश्व को एक परिवार मान कर अविकसित देशों के विकास के लिए विकसित देश छोटी मशीन और औजार बनाएं, बजाय अपना फालतू माल वहां डंप करने के, तो विकसित देशों में भी लाखों रोजगार सृजित हो सकते हैं और अविकसित देशों में भी। आउटसोर्सिंग या इनसोर्सिंग से बेरोजगारी दूर होने वाली नहीं हैं। यह पूंजी के स्थानांतरण की तरह ही उपलब्ध रोजगारों का स्थानांतरण मात्र है।

साहित्य की सबसे बड़ी मंडी

सुधीश पचौरी, हिंदीं साहित्यकार
हिंदी साहित्य की सबसे बड़ी मंडी है दिल्ली। किसिम-किसिम के साहित्यफरोश रहते हैं यहां। हर सीजन के, हर मौके के मिलते हैं। यहां लोकार्पण एक्सपर्ट, पैरवी एक्सपर्ट, रिव्यू एक्सपर्ट, इसे उठा-उसे गिरा एक्सपर्ट, टंगड़ीमार एक्सपर्ट मिलते हैं। आप फोन पर ऑर्डर कीजिए, फ्री होम डिलीवरी। घर तक!

आपको ‘फ्रीडम फाइटर’ चाहिए, तो वह मिल जाएगा। आपको ‘जेपी फाइटर’ चाहिए, तो वह मिल जाएगा। आपको ‘अन्ना फाइटर’ चाहिए, तो वह भी हाजिर है। आपको सुविचारक मिल जाएगा। कुविचारक मिल जाएगा। आपको निंदक मिल जाएगा, छिद्रान्वेषी मिल जाएगा। प्रलेस वाला चाहिए, तो वह मिलता है। जलेस वाला चाहिए, तो वह भी हाजिर है। जसम वाला चाहिए, तो वह भी हाजिर है। आपको भारालेस वाला चाहिए, तो उसमें भी कोई दिक्कत नहीं। दलेसं भी मिल जाएगा। दलित लेखक तो इन दिनों इफरात में मिलेंगे। आपको दलितों में ‘अतिदलित’ चाहिए, तो अतिदलित भी मिलेंगे। आपको ‘अंतर्दलित’ चाहिए, तो वह मिलेगा-दलितोत्तम भी मिलेगा। ‘ललित-दलितजी’ चाहिए, तो मिलेंगे। ‘दलित-ललितजी’ चाहिए, तो मिलेंगे। ‘दलित-दलित’ चाहिए, तो मिलेगा। ‘ललित-ललित’ चाहिए, तो वह मिलेगा। ‘दलित’, ‘दलिततर’, ‘दलिततम’ मिलेंगे। क्रीमी लेयर वाले मिलेंगे। क्रीमी बनने के इंतजार में मिलेंगे। खुरचन वाले भी मिलेंगे! ओबीसी लेखक चाहिए, तो ओबीसी मिलेंगे। उनकी बहार बहाली के दिन हैं। पिछड़ों में ‘कुछ पिछड़ा’, ‘कुछ अधिक पिछड़ा’, ‘कुछ अधिकतम पिछड़ा’ मिलेगा। ‘पिछड़ोत्तम’ पिछड़ा मिलेगा। आपको ब्राह्माण लेखक चाहिए, तो सरयूपारी से कान्यकुब्ज तक खूब मिलेंगे। आज तक साहित्य पर शुक्ल, मिश्र, शर्मा, वाजपेइयों आदि इत्यादियों का ही कब्जा रहा है। यह लेखक खुद बामन है। अपनी जाति का सच जानता है। अंदर की बात इससे ज्यादा नहीं कहूंगा। बोलूंगा, तो जाति बाहर कर दिया जाऊंगा। जाति में रहूं, इसलिए जरूरी है कि चुप रहूं। हिंदी साहित्य का वैश्य युग भी रहा है। आज कॉरपोरेट युग आ गया है। गुप्तजी के बाद साहित्य में यह प्रवृत्ति ‘गुप्त’ रहने लगी है। तो भी यत्र-तत्र दर्शन दे देते हैं। इनका संकोच श्लाघ्य है। साहित्य में क्षत्रिय भी पर्याप्त मिलते हैं। तरह-तरह के क्षत्रिय। मित्र क्षत्रिय, शत्रु क्षत्रिय। कुछ का कहना है कि हिंदी साहित्य का जितना नाश एक क्षत्रिय ने किया है, उतना बाकी मिलकर भी नहीं कर सकते। हर रंग का, हर वर्ण का, हर धर्म का, हर इलाके का मिलेगा। बिहार का चाहिए, तो इन दिनों प्रचुर मात्र में है। साहित्य में तो पूरी बिहारी कॉलोनी बस गई है। कभी पहाड़वालों का वर्चस्व हुआ करता था। अब बिहार वाले छा गए हैं। यूपी वाला तो पहले से ही खूब रहा है। मध्य प्रदेश वाले से लेकर राजस्थान वाला तक मिलेगा। पंजाब वाला भी मिलता है। अब तो गैर हिंदी भाषी वाले भी थोक में मिल जाते हैं। आपको गृहस्थ प्रेमी, गृहस्थ-भंजक, राष्ट्रवादी, अंतरराष्ट्रवादी, लोकलवादी, ग्लोबलवादी, मानववादी, दानववादी सब तरह के मिल जाएंगे। दिल्ली में हर तरह के साहित्यकार मिलते हैं- आप बस फोन कीजिए। अध्यक्ष चाहिए? मुख्य अतिथि चाहिए? विशेषज्ञ चाहिए? बस दिल्ली फोन कीजिए। यह ऐसी विचित्र मंडी है, जिसमें बिकने वाला आइटम खुद को बाजार विरोधी कहते हुए बिकने को तैयार रहता है। आप उसके अनाड़ीपन का बुरा न मानें। बिकते हुए विरोध करते दिखना उसकी स्टाइल भर है...।

सरकार का अर्थशास्त्र मंजूर नहीं

सीताराम येचुरी
 
वित्तीय सुधार और विकास का तर्क देकर सब्सिडी में कटौती कर रही सरकार के बजट को अपनी उग्र सहयोगी तृणमूल कांग्रेस से फिलहाल भले ही राहत मिल गई हो, विपक्ष और खासकर माकपा ने सरकार को गरीबों और आम आदमी के कठघरे में खड़ी करने की रणनीति बना ली है। बजट को गरीब विरोधी करार देते हुए उन्होंने एक पंक्ति तैयार कर ली है- सरकार की नजर में अमीरों को सब्सिडी फायदा और गरीबों के लिए सब्सिडी घाटा। सपा के साथ फिर से परवान चढ़ी दोस्ती और तीसरे मोर्चे की आहट के बीच माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य और राज्यसभा सांसद सीताराम येचुरी से दैनिक जागरण के विशेष संवाददाता आशुतोष झा ने कई मुद्दों पर बातचीत की। पेश हैं बातचीत के अंश- बतौर विपक्ष आपने रेल बजट और आम बजट, दोनों से विरोध जता दिया। फिर भी इन दोनों में से आप किसे बेहतर मानते हैं? [हंसते हुए] बेहतर बताना तो बहुत मुश्किल होगा, क्योंकि दोनों में एक बात स्पष्ट है कि गरीब और मेहनतकश लोगों पर बोझ और बढ़ेगा। हां, आम बजट का असर च्यादा व्यापक होता है। लिहाजा वह च्यादा चिंता का विषय है। जिस तर्क के साथ गरीबों पर बोझ बढ़ाया गया है वह किसी मायने में सही नहीं है, लेकिन हमें आश्चर्य नहीं है कि सरकार ने वैकल्पिक रास्ते क्यों नहीं तलाशे। दरअसल यह नीति का सवाल है। पिछले तीन-चार साल से सरकार का कोई काम गरीबों के हित में नहीं है। लेकिन बजट में तो आयकर में लगभग साढ़े चार हजार करोड़ की राहत देने की बात कही गई है। लेकिन इसका फायदा गरीबों को तो नहीं मिलेगा। किसी भी अर्थशास्त्री से पूछिए कि इसका लाभ कौन उठाएंगे। इसका फायदा उसे होगा जिसके हाथ में साधन हैं। जिसके पास साधन नहीं हैं उसे कुछ भी नहीं मिलने वाला है। उल्टा सरकार दाम बढ़ाकर पैसे उगाहेगी और उसका सीधा असर आम लोगों को भुगतना होगा। यह गलत रास्ता है। अर्थशास्त्रियों का ही मानना है कि सब्सिडी का बोझ कम करना होगा। बजट में सरकार ने वही करने की कोशिश की है। रोकते हुए. देखिए, सरकार का अर्थशास्त्र हमें मंजूर नहीं है। उनके अर्थशास्त्र के अनुसार गरीबों को दी जा रही सब्सिडी घाटा है, इकोनामिक ग्रोथ के लिए बाधा है और अमीर को दी गई सब्सिडी देश के हित में है। ग्रोथ का यह फंडा हमें मजूर नहीं है। लेकिन आज की वित्तीय स्थिति में क्या कुछ कठोर सुधार की जरूरत नहीं है? सुधार चाहिए लेकिन किस रास्ते से, यह तो चुनना होगा। कोई नहीं चाहेगा कि गैर जवाबदेही से देश का वित्तीय घाटा बढ़े। सरकार की सोच गलत रास्ते पर है। बजट को ही देखिए-घाटा 5.9 फीसदी है, यानी 5 लाख 22 हजार करोड़ रुपये। वित्तमंत्री का ही वक्तव्य है कि पिछले बजट में 5 लाख 28 हजार करोड़ रुपये की छूट दी गई। गरीबों को नहीं, अमीरों को। फिर कहते हैं कि घाटा हो रहा है। उसे गरीब पूरा करेगा। और फिर सरकार हमसे आशा करे कि समर्थन देंगे। यह हमें मंजूर नहीं है। तो क्या घाटे की पूर्ति के लिए कारपोरेट व‌र्ल्ड पर च्यादा टैक्स बढ़ाना चाहिए? उसकी जरूरत नहीं। जो घोषणा हुई उसी के अनुसार सभी से टैक्स वसूल लिया जाए इतने में काम हो जाएगा। अमीरों को छूट देकर गरीबों पर बोझ डाले और कहे कि यह ग्रोथ के लिए जरूरी है तो हम सहमत नहीं हैं। वित्तमंत्री का कहना है कि राजनीतिक कारणों ने उनके कदम रोक लिए. अब इसका जवाब तो उन्हीं से पूछिए कि वह क्या करना चाहते थे जो नहीं कर सके, लेकिन जो बजट आज हमारे सामने है वह भी बोझ बढ़ाने वाला है। सुधार के जो रास्ते सरकार दिखाती रही है वह अमीरों के पक्ष में जाता है। जो रास्ते हम दिखाते हैं वह उन्हें मंजूर नहीं है। रिफार्म एजेंडे से जुड़े कई विधेयक संसद में लंबित हैं। क्या उसमें सरकार को आप मदद करेंगे। [इंतजार किए बिना] आप अगर पेंशन, इन्श्योरेंस आदि की बात कर रहे हैं तो कभी नहीं, क्योंकि यहां भी सरकार वही करना चाहती है जो बजट में करती रही है। आम आदमी के साथ धोखा होने वाला है। हम यह नहीं कर सकते हैं। विपक्ष में आप भले ही हों, लेकिन सरकार की सहयोगी ममता बनर्जी का विरोध च्यादा उग्र रहा है। आपको नहीं लगता है कि वह विपक्ष की भूमिका को खत्म कर चुकी हैं? वह अपने दोहरेपन से किसी को बेवकूफ नहीं बना सकती हैं। सरकार के हर फैसले में उनकी पार्टी हिस्सेदार होती है। कैबिनेट में वह गरीब विरोधी विधेयकों को हरी झंडी देती हैं और संसद में विरोध जताकर जनता को भरमाती हैं। उन्हें गलतफहमी हो तो कोई कुछ नहीं कर सकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी नैतिकता सवालों के घेरे में है। ममता के तेवरों को देखते हुए सरकार के स्थायित्व पर कितना खतरा देखते हैं? स्थायित्व तो आंकड़ों का खेल है और आज के दिन सपा और बसपा का सरकार को समर्थन बरकरार है। इन दोनों में से कोई एक समर्थन वापस ले तभी खतरा होगा। सपा के साथ वामदलों की दोस्ती फिर से परवान चढ़ने लगी है। तो क्या संसद में वैचारिक मुद्दों पर सपा वामदलों के साथ खड़ी नहीं होगी? वैचारिक मुद्दों पर हम साथ हैं, लेकिन कई बातें सिर्फ वैचारिक मुद्दों पर ही तय नहीं होती हैं। अखिलेश यादव अभी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने हैं। उनकी अपनी भी कुछ सोच और जरूरतें हो सकती है। वह भी चाहेंगे कि उन्हें भी स्थायित्व मिले। पेंशन विधेयक, इंश्योरेंस विधेयक जैसे कई मुद्दे है जो इसी सत्र में आने हैं। विपक्षी ताकत बढ़ाने के लिए क्या सपा और बसपा से होगी? जरूर बात करेंगे। पहले भी हम बात कर चुके हैं। हम हर कोशिश करेंगे कि सरकार की गरीब और मेहनतकश विरोधी कोशिशों को नाकाम करें। और जो भी जनता के साथ जुड़ा है वह इस हकीकत को पहचानता है। ऐसी भी खबरें हैं कि कांग्रेस ने वामदल के साथ भी संबंध बनाने की कोशिश शुरू कर दी है। इसकी जरूरत तो तब होगी जब सपा और बसपा समर्थन वापस ले ले। फिलहाल ऐसी कोई बात नहीं हुई है। सपा के साथ फिर मजबूत हुई दोस्ती क्या तीसरे मोर्चे की आहट है? ध्रुवीकरण तेज हुआ है, इसमें तो कोई शक नहीं है। वामदल के साथ-साथ सभी क्षेत्रीय दलों में सक्रियता बढ़ी है। आने वाले दिनों में कुछ और चुनाव हैं। उन्हें होने दीजिए। फिर यह स्पष्ट होगा कि धु्रवीकरण कौन सा रूप लेता है।

सर्वोपरि तो संसद ही रहेगी

सोमनाथ चटर्जी, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष
 
मेरे दिमाग में जो दो प्रश्न हैं। अगर आपके पास इनके जवाब हों, तो जरूर बताएं। पहला, कितने लोग भारतीय संविधान पर विश्वास नहीं रखते हैं, यानी वे लोग जिनका भरोसा संसदीय प्रणाली से उठ गया है? और दूसरा, अगर सचमुच उनका भरोसा संसदीय लोकतंत्र से पूरी तरह से उठ गया है, तो उनके पास इसका क्या विकल्प है? मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आप खुद को निरुत्तर पाएंगे। चंद लोग, जो तथाकथित सिविल सोसायटी हैं, टीम हैं, अपनी अलग राय बना रहे हैं, उन्हें भी अपनी बकबक में इन प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलेंगे। यही वह सही वक्त है, जब हम भीड़तंत्र और लोकतंत्र के अंतर को समझों और सिविल सोसायटी व जन प्रतिनिधि के अर्थ को स्पष्ट करें। यह भी विनती है कि मीडिया अपने कर्तव्यों को रेखांकित करे और अपनी लोकप्रियता की हद को जाने।


इसमें कोई दोराय नहीं कि भारत में संसद ही सवरेपरि है। यह भारतीय समाज का आईना है। यह जनता का सदन है। यह कानून-सम्मत है। देश का विकास, जरूरी मसलों पर बहस और तंत्र की बहाली, सब कुछ लोकसभा और राज्यसभा के दायरे में ही संभव है। लेकिन गुजरे साल में इस संस्था को काफी आहत किया गया है। भले ही ये चंद लोगों की करतूत थी, पर मीडिया की वजह से उन्हें बेवजह लोकप्रियता हासिल हुई। ऐसा कहा गया, जैसे हमारे जन प्रतिनिधि संसद में जाने व बैठने के लायक ही नहीं हैं। मानो संसद के अंदर बहस की जगह कुरसियां ही चलती हैं। ऐसा एक बार नहीं कहा गया। कुछ मुट्ठी भर लोगों ने तो लगातार संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाई। हालांकि उन शब्दों को मैं यहां नहीं दोहराना चाहूंगा, पर ऐसा जरूर लग रहा था कि सांसद अपनी जिम्मेदारी निभाने के अलावा तमाम जन विरोधी कामों में लिप्त रहते हैं, जबकि हकीकत यह है कि देश में कानून बनाने की जिम्मेदारी सांसदों की ही है। पिछले कुछ वर्षों की तमाम रिपोर्टों का अध्ययन करें, तो पता चलता है कि संसदीय कार्यवाही पहले से ज्यादा चली है, बेदाग जन प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ रही है और लोकसभा व राज्यसभा में कई अहम और बड़े मसलों को बैठकर सुलझाया गया है। यह सही है कि संसद में कुछ दागी सदस्य चुनकर आ जाते हैं। मैं दस बार सांसद रह चुका हूं, मुङो इस बात का अहसास है कि संसद में पहुंचे अधिकतर जन प्रतिनिधि सजग व पढ़े-लिखे होते हैं। किसी भी विधेयक को पारित करने से पहले काफी सोच-विचार किया जाता है। हम यह कैसे भूल जाते हैं कि जब लोकपाल के मसले पर संसद का सत्र बढ़ाया गया था, तो आखिरी दिन लगभग दो सौ संशोधन पटल पर रखे गए। क्या यह बिना पढ़े-लिखे मुमकिन है? पांच लोग मिलकर जब भ्रष्टाचार दूर करने के तरीके बताते हैं, तो उन सुझावों को मीडिया सही मानता है, जबकि सैकड़ों सांसदों के सुझावों को भ्रामक बताया जाता है। क्या यह उचित है? पिछले मंगलवार को जब सांसदों ने तथाकथित सिविल सोसायटी के आपत्तिजनक बयान पर लोकसभा में निंदा प्रस्ताव पेश किया, तो इसी से साफ हो गया कि हमारा संसदीय लोकतंत्र मजबूत है। अरसे बाद पहली बार हमारे जन प्रतिनिधि बिखरे हुए नहीं दिखे, बल्कि उन्होंने हमारी संसदीय मर्यादा को पूरी निष्ठा के साथ निभाया। ठीक है कि किसी भी संस्था में कुछ गड़बड़ियां आ सकती हैं, लेकिन एक संप्रभु संस्था को कमजोर करने की कोशिश सही नहीं है। हमारा तंत्र सीरिया व लीबिया की तरह नहीं, जहां सदियों से जनता के अरमान कुचले जाते रहे हों। न ही यहां पाकिस्तान जैसी व्यवस्था है, जहां कोई भी गुबार उठकर सीधे जम्हूरियत को डिगा देता है। हम किसी व्यक्ति विशेष पर लगे आरोपों को सहन कर लेते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि संसदीय व्यवस्था को ही निशाना बनाया जाए। बार-बार मैं सिविल सोसायटी के साथ तथाकथित शब्द को जोड़ रहा हूं। दरअसल, इसे समझने की जरूरत है। इसके सदस्य खुद को जनता के नुमाइंदे बताते रहे हैं। अगर वे जनता के नुमाइंदे हैं, तो सांसद, विधायक और तमाम चुने हुए लोग क्या हैं? माइक हाथ में आते ही वे खुद को ‘पीपुल ऑफ इंडिया’ बताने लगते हैं। उनके शब्द ऐसे होते हैं, मानो वे ‘फाइट फॉर करप्शन’ के चैंपियन हैं। क्या जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में भीड़ जुटा लेने का मतलब यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ वही लड़ रहे हैं? हम यह कैसे भूल जाते हैं कि इसी संसद के अंदर मेरी अध्यक्षता में ‘कैश फॉर क्वेश्चन’ मामले में 11 सदस्यों को निष्कासित कर दिया गया था। इसी माहौल से भ्रष्टाचार के आरोप में कई लोग जेल पहुंचे। 2-जी घोटाले और काला धन जैसे मसले पर इसी संसद में ठोस कार्रवाई का आह्वान किया गया था। हां, कुछ सांसदों से एक चूक हुई कि वे संसद के अंदर बहस करने की बजाय सड़क पर बहस करने के लिए जंतर-मंतर पहुंच गए। इससे टीम अन्ना को लगा कि वही लोग सवरेपरि हैं। इसके बाद से तो इन लोगों ने सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति तैयार कर ली। वे कहते हैं कि हमारा कोई राजनीतिक हित नहीं है, फिर क्यों सरकार के खिलाफ सियासी माहौल बनाने के लिए वे हिसार से लेकर रायबरेली-अमेठी तक भागदौड़ करते हैं? और अगर वे सचमुच में जनता के नुमाइंदे बनना चाहते हैं, तो उन्हें मुख्यधारा में शामिल होकर चुनाव लड़ने से क्यों परहेज है? इस देश का हर व्यक्ति भ्रष्टाचार से छुटकारा पाना चाहता है। लेकिन भ्रष्ट कौन है और कौन नहीं, यह तय करने का अधिकार टीम अन्ना को नहीं है। इसके लिए सांविधानिक संस्थाएं पहले से ही हैं। अगर तंत्र में परिवर्तन निहायत जरूरी है, तो यह तय करने का हक संसद को है। अगर आपके पास कुछ सुझाव हैं, तो संसद की स्टैंडिंग कमेटी के पास जाएं, न कि रामलीला मैदान में। भीड़ के बल पर सरकार पर दबाव बनाना और जन समर्थन की दुहाई देकर प्रधानमंत्री को घेरना, यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। मीडिया को भी यह समझना होगा कि सांसदों को अपराधी से लेकर लुटेरा तक कह देना, यह सस्ती लोकप्रियता पाने का तरीका है। आखिर जब अंगुली सांसदों पर उठती है, तो साफ है कि उन्हें चुनने वाली जनता पर अंगुली उठाई गई है। जब हम सड़क पर बेवजह का ड्रामा करते हैं, तो वह भीड़तंत्र है, लोकतंत्र नहीं।

गरीबी के आंकड़ों की दरिद्रता

सीताराम येचुरी, सांसद और सदस्य, माकपा पोलित ब्यूरो

भारत में गरीबी के आकार को लेकर होने वाली बहस अक्सर अति-यथार्थवादी रूप ले लेती है। यह बहस दिखाती है कि वाकई ‘दर्शन की दरिद्रता’ ही मौजूदा आर्थिक सुधारों को संचालित कर रही है। यह भ्रम खड़ा किया जा रहा है कि मौजूदा विकास पर चलने से हमारे देश में गरीबी के परिमाण में उल्लेखनीय कमी आई है। ऐसा भ्रम आंकड़ों की भारी हेराफेरी के सहारे ही खड़ा किया जा सकता है।


योजना आयोग ने 2009-10 के लिए गरीबी के ताजा आंकड़े जारी किए हैं, वह ऐसी ही एक कसरत है। इन आंकड़ों में यह दावा किया गया है कि 2004-05 से 2009-10 के बीच भारत में गरीबी के अनुपात में 7.3 फीसदी की गिरावट हुई थी। यह गणना 2009-10 में शहरों में करीब 28 रुपये प्रति व्यक्ति और गांवों में 22 रुपये प्रति व्यक्ति की खर्च क्षमता को गरीबी की रेखा मानते हुए की गई थी। दरअसल, इस तरह के भारी फर्जीवाड़े के लिए पिछले कुछ अर्से से जमीन तैयार की जा रही थी। पिछले साल मई में योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका में पक्षकार बनते हुए यह दावा किया था कि भारत के शहरी इलाके में 20 रुपये और ग्रामीण इलाके में15 रुपये प्रतिदिन की आय लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर रखने के लिए काफी है। योजना आयोग के गणित के हिसाब से शहर में 578 रुपये मासिक आय हो, तो उस व्यक्ति को गरीबी की रेखा के ऊपर माना जाएगा। याद रहे कि इसमें घर किराये और आवाजाही के लिए 31 रुपये, शिक्षा के लिए 18 रुपये, दवाओं के लिए 25 रुपये और सब्जी-तरकारी के लिए 36.5 रुपये महीने का खर्चा भी शामिल है। वैसे योजना आयोग खुद यह मानता है कि एक साधारण व्यक्ति के स्वस्थ बने रहने के लिए 2,400 कैलोरी प्रतिदिन का आहार जरूरी है। इतने आहार के लिए 2010 में ही कम से कम 44 रुपये खर्च करने की जरूरत थी। जाहिर है कि अब तक यह जरूरी न्यूनतम खर्च और बढ़ गया होगा तथा सरकार की ओर से योजना आयोग द्वारा पेश किए गए ताजातरीन आंकड़े से कम से कम दोगुना तो जरूर ही बैठेगा। बहरहाल, योजना आयोग ने अपने गणित के आधार पर यह एलान कर दिया है कि गरीबी का अनुपात साल 2004-05 के 37.2 फीसदी से गिरकर वर्ष 2009-10 में 29.8 फीसदी ही रह गया था। वर्तमान सरकार द्वारा गठित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने गरीबी अनुपात का आंकड़ा 46 फीसदी रखे जाने की सिफारिश की है। जाहिर है कि ये दोनों ही अनुमान अजरुन सेनगुप्ता आयोग के अनुमानों से काफी घटकर हैं, जिसमें यह हिसाब लगाया गया था कि देश की 77 फीसदी आबादी 20 रुपये रोजाना या उससे भी कम में गुजारा करने पर मजबूर है। गौरतलब है कि सेनगुप्ता आयोग का वह आकलन भी पांच साल पहले की ठोस सच्चाइयों पर आधारित था। तब से आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में लगातार जैसी बढ़ोतरी होती रही है, उसने निश्चित रूप से हालात को बद से बदतर बना दिया है। मामला सिर्फ यही नहीं है कि देश में असमानता तेजी से बढ़ रही है। इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि आम आदमी की रोजी-रोटी के हिसाब से स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। पी साईनाथ ने अपने हाल के एक अध्ययन में यह बताया है कि 1972 से 1991 के बीच अनाज तथा दालों की औसत प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगभग 434 ग्राम से बढ़कर 480 ग्राम पर पहुंच गई थी। लेकिन 1992 से 2010 के बीच यही आंकड़ा एक बार फिर गिरकर 440 ग्राम प्रति व्यक्ति रह गया है। कहा जा सकता है कि  ऐसा आबादी के बहुत तेजी से बढ़ने के चलते हुआ होगा। बहरहाल, इस धारणा का पूरी तरह से गलत होना इस तथ्य से साबित हो जाता है कि साल 1981 से 1991 के बीच के दस वर्षो में जहां आबादी 2.16 फीसदी की दर से बढ़ रही थी, वहीं खाद्यान्न उत्पादन 3.13 प्रतिशत की औसत दर से बढ़ रहा था। लेकिन कथित आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया के शुरू होने के बाद से खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि दर आबादी में बढ़ोतरी की दर से पिछड़ती चली गई है। वर्ष 1991-2001 के बीच जहां आबादी की वृद्धि दर 1.95 फीसदी चल रही थी, वहीं खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की औसत दर 1.1 फीसदी पर आ गई थी। 2001-11 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि दर और घटकर 1.03 फीसदी ही रह गई, जबकि इस अर्से में आबादी में वृद्धि दर 1.65 फीसदी के स्तर पर चल रही थी। साफ है कि यह कोई सापेक्ष गरीबी के बढ़ने का नहीं, शुद्ध रूप से गरीबी के बढ़ने का मामला है। इस स्थिति को पलटने का एक ही तरीका है कि समूची जनता को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराई जाए, ताकि आम आदमी के लिए बेहतर जिंदगी सुनिश्चित की जा सके। लेकिन बढ़ते राजकोषीय घाटे पर अंकुश लगाने के नाम पर आज ठीक इन्हीं योजनाओं पर तो कैंची चलाई जा रही है। वर्तमान बजट के दस्तावेज दिखाते हैं कि खत्म हो रहे वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा 5.9 फीसदी के स्तर पर रहा, यानी कुल 5.22 लाख करोड़ रुपये। इसी साल कॉरपोरेट सेक्टर और अन्य संपन्न लोगों पर माफ कर दिया गया कर राजस्व पूरे 5.28 लाख करोड़ रुपये था। अगर इस कर राजस्व को वसूल लिया गया होता, तो कोई  राजकोषीय घाटा रहा ही नहीं होता। उल्टे कुछ बचत ही सरकार के हाथ लगी होती। बहरहाल, नवउदारवादी दर्शन राजकोषीय घाटे को कम किए जाने की वकालत तो करता है, लेकिन संपन्नों को दी जाने वाली ऐसी रियायतों को छीनने के रूप में यह घाटा कम किया जाना उसे मंजूर नहीं है। आखिरकार उसकी नजर में इस तरह की रियायतें तो संवृद्धि के लिए दिए जाने वाले ‘प्रोत्साहन’ हैं। इसलिए राजकोषीय घाटे को तो गरीबों को दी जाने वाली रियायतों को कम करने के जरिये ही नीचे लाना होगा। ये सब्सिडियां तो वैसे भी उसके हिसाब से अर्थव्यवस्था पर ‘बोझ’ ही हैं। इस तरह, ईंधन सब्सिडी में 25,000 करोड़ रुपये की और उर्वरक सब्सिडी में 6,000 करोड़ रुपये की कटौतियां की जानी हैं। ज्यादातर सब्सिडियां खासतौर पर गरीबी रेखा के नीचे जीने-मरने वालों तक सीमित कर दी गई हैं, इनमें कटौती का सबसे आसान तरीका यही है कि गरीबी की रेखा के नीचे जीने वालों की संख्या ही घटा दी जाए। योजना आयोग के फर्जीवाड़े का ठीक यही मकसद है।

गठबंधन की राजनीति बनाम उदारीकरण


अरुण कुमार त्रिपाठी 
जनसत्ता 30 मार्च, 2012: उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनावों के बाद छोटे-से बडेÞ होते क्षेत्रीय दलों के नए राष्ट्रीय गठबंधन की चर्चा शुरू हो गई है। इसमें क्षेत्रीयता से राष्ट्रीयता की तरफ बढ़ते क्षेत्रीय दलों की आवाजें तो हैं ही, अंतरराष्ट्रीयता से क्षेत्रीयता तक सिमट चुकी कम्युनिस्ट पार्टियों के भी स्वर हैं। हालांकि अभी तक उस दिशा में कोई ठोस राजनीतिक पहल नहीं हुई है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस के नाटकीय केंद्र-विरोध, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह की प्रधानमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा और माकपा महासचिव प्रकाश करात की गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा को एकजुट करने की इच्छा से उसकी आहटें सुनाई पड़ने लगी हैं।
लेकिन अभी तक यह साफ नहीं है कि इन आहटों के पीछे करों के बंटवारे और कुछ प्रशासनिक इकाइयों के गठन पर केंद्रवाद और संघवाद की एक खींचतान ही है या यह मामला कहीं ज्यादा गहरा और संभावनाशील है? आखिर वह कौन-सी वजह है, जिसके कारण तमाम राज्य सरकारें, जिनमें प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के साथ शामिल पार्टियों के अलावा यूपीए के भी घटक हैं, बार-बार केंद्र से टकराया करती हैं? क्या यह सब इसलिए हो रहा है कि केंद्र अब राजनीतिक तौर पर ज्यादा कमजोर हो गया है और उसे धमकाना आसान है? या केंद्र ऐसी किसी अधिनायकवादी नीति पर चल रहा है, जिसे रोकना राज्यों के लिए जरूरी हो गया है? या यह सब एक तरह की पैंतरेबाजी है, जिसमें 2014 के चुनाव तक राष्ट्रीय दलों को और कमजोर कर देना है?
इसी के साथ यह भी सवाल उठता है कि आज जब अपने सहयोगी दलों से यूपीए जैसा सत्ता में बैठा गठबंधन ही नहीं, राजग जैसा विपक्ष में बैठा गठबंधन भी परेशान है, तो इस बात की क्या गारंटी है कि किसी तीसरे या चौथे मोर्चे में शामिल होने की रणनीति बना रही पार्टियां वहां आपस में सहज रह पाएंगी। क्षेत्रीय और छोटे दलों ने अगर कांग्रेस की तानाशाही को काबू में किया है तो भाजपा की सांप्रदायिकता को भी लगाम लगाई है। यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग की सरकार तभी बन पाई थी जब भाजपा ने अयोध्या, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद-370 को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया था।
गठबंधन राजनीति की बड़ी उपलब्धि सवर्ण राजनीति को चुनौती देते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करवाना और आरक्षण के बारे में देश में आमराय तैयार करना भी रहा है। गठबंधन की राजनीति ने ही पिछड़ों और दलितों की शासकीय भागीदारी बढ़ाई है और उनके भीतर दिल्ली की सत्ता पर बैठने की महत्त्वाकांक्षा भी जगाई है। लेकिन कभी राजनीतिक, कभी सामाजिक तो कभी धार्मिक और अस्मिता संबंधी मसलों पर आगे बढ़ी गठबंधन की राजनीति अब उदारीकरण के प्रभावों पर उलझ गई है। केंद्र सरकार जिस तेजी से आर्थिक सुधार करना चाहती है उसे क्षेत्रीय दलों की राजनीति रोकती है।
यही वजह है कि जब-जब क्षेत्रीय दल इस मसले पर केंद्र का विरोध करते हैं तब-तब उन्हें सस्ती लोकप्रियता के आकांक्षी, राष्ट्रीय हितों को न समझने वाले और बुरी राजनीति से अच्छी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाले जैसे विशेषणों से नवाजा जाता है।
हाल में तृणमूल कांग्रेस ने जिस तरह रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया उसके पीछे निजी खुन्नस और किराया बढ़ाए जाने से ज्यादा उदारीकरण की नीतियों के आगे रेलवे का समर्पण था। त्रिवेदी ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और सैम पित्रोदा के प्रभाव में आकर रेल बजट तैयार किया था, जिसमें उसे आत्मनिर्भर और आधुनिक बनाने के बहाने उसके व्यवसायीकरण और निजीकरण का पूरा एजेंडा था।
क्या उसका विरोध करने वाली तृणमूल कांग्रेस महज दिल्ली से पश्चिम बंगाल के पैकेज के लिए लड़ती हुई कही जाएगी? उससे पहले भी क्षेत्रीय दल खुदरा क्षेत्र में निवेश के सवाल पर सरकार का कड़ा विरोध कर चुके हैं और वे भूमि अधिग्रहण अधिनियम, बीमा क्षेत्र के विनिवेश और श्रम कानूनों में सुधार पर भी आम सहमति नहीं बनने दे रहे हैं।
जाहिर है, नए गठबंधन की राजनीति का एजेंडा पिछले बीस सालों की उदारीकरण की नीतियों के दुष्प्रभावों पर केंद्रित हो रहा है। इसमें क्षेत्रीय दलों की तरफ से उदारीकरण की रफ्तार को धीमा करने का आग्रह भी है तो कहीं-कहीं रोकने का भी। लेकिन उसी के साथ इसमें ऐसी पार्टियां भी हैं, जो उसे तेज करने की अपेक्षा रखती हैं। यह खेल सभी पार्टियां खेल रही हैं। कांग्रेस कभी ओड़िशा के नियमगिरि की पहाड़ियों में वेदांता की गतिविधियों पर रोक लगा कर बीजू जनता दल को परेशान करती है तो कभी खुदरा निवेश पर क्षेत्रीय दलों का विरोध झेलती है। उधर बीजू जनता दल कभी तृणमूल के साथ गठजोड़ बनाता है तो कभी पॉस्को को छूट दिलाने के लिए केंद्र पर दबाव बनाता है। यही हाल कुडनकुलम नाभिकीय संयंत्र पर अन्नाद्रमुक की नेता और मुख्यमंत्री जयललिता की राजनीति का भी है।
भले राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के सवाल पर गंभीर पहल न कर रहे हों, लेकिन उदारीकरण का सवाल भी भ्रष्टाचार से जुड़ता है। इसलिए आने वाले समय में वे महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या जैसे तमाम सवालों के साथ इस मसले को जोड़ कर फायदा उठाना चाहेंगे। सवाल है कि आगे क्या और कैसे होगा?
भारत में केंद्रीय राजनीतिक गठबंधन की राजनीति के जन्म और विकास को गौर से देखें तो जब-जब ऐसा हुआ है तो उसके   पीछे कुछ बड़ी राजनीतिक और सामाजिक वजहें रही हैं। कम से कम इक्कीसवीं सदी में गठबंधन की राजनीति के स्थिर होने से पहले ऐसा ही रहा है। दो बार यह गठबंधन भ्रष्टाचार और कांग्रेस के अधिनायकवाद के खिलाफ खड़ा हुआ है और एक बार सामाजिक न्याय यानी आरक्षण और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, तो एक बार गैर-कांग्रेसी और भाजपाई राष्ट्रवाद के नाम पर। इक्कीसवीं सदी यानी 2004 में जब कांग्रेस ने सरकार बनाने के लिए यूपीए का गठन किया तो उसका भी मूल उद्देश्य सांप्रदायिकता को सत्ता से बाहर रखना था।
1977 में जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा से बनी जनता पार्टी एक प्रकार से भ्रष्टाचार-विरोधी गैर-कांग्रेसी गठबंधन ही था। उसने भ्रष्टाचारियों को भयभीत तो किया, पर उनको न सजा दिलवा पाया न ही राजनीति से बाहर रख पाया। बाद में उसका गैर-कांग्रेसी स्वरूप भी इतना कमजोर हो गया कि लगा कि अब फिर कांग्रेस की ही तूती बोलती रहेगी। लेकिन उसने इमरजेंसी तक लगा देने वाली कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व को बड़ा झटका दिया और भारतीय लोकतंत्र में तानाशाही की एक सीमा रेखा तो खींच ही दी।
दोबारा जब वीपी सिंह के नेतृत्व में भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान छिड़ा तो फिर वह राजनीति कांग्रेस-विरोध और उसे सत्ता से हटाने में कामयाब रही। संयुक्त मोर्चा के तौर पर उभरे इस गठबंधन के पीछे अस्सी के दशक का वह टकराव था, जब केंद्र सरकार राज्य सरकारों को बार-बार बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लगा रही थी और एनटी रामराव जैसे क्षेत्रीय चमत्कारिक नेता को अपना बहुमत साबित करने के लिए राष्ट्रपति के सामने विधायकों की गिनती कराते हुए प्रदर्शन तक करना पड़ा था। हालांकि यह काम जनता पार्टी ने बडेÞ पैमाने पर नौ कांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त कर किया था, लेकिन तब कांग्रेस-विरोधी लहर के चलते वह मुद्दा नहीं बन सकता था।
अस्सी के दशक में संविधान के अनुच्छेद-356 के मनमाने इस्तेमाल के बाद तमाम गैर-कांग्रेसी दलों ने केंद्र और राज्यों के शासन को नए सिरे से परिभाषित करने की मांग की। यह सब गोलबंदी उस समय हो रही थी जब पंजाब को अलग करने का आतंकवादी संघर्ष अपने चरम पर था। क्षेत्रीय स्वायत्तता की राजनीति करने वाले दलों ने इसकी व्याख्या राज्यों की स्वायत्तता में बढ़ते हस्तक्षेप के तौर पर की और उसका समाधान राज्यों को ज्यादा अधिकार दिए जाने में देखा।
बाकायदा यह राजनीतिक नजरिया बना कि पंजाब की समस्या आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को न मानने से पैदा हुई है और वह संविधान के भीतर स्वीकार किया जा सकता है। अस्सी के दशक में दिल्ली के अधिनायकवाद और क्षेत्रीय अलगाववाद के टकराव के बीच जो गठबंधन की राजनीति थी, वह इंदिरा गांधी की हत्या से कमजोर पड़ गई, क्योंकि जनता ने मान लिया कि देश क्षेत्रीय दलों के हाथ में छोड़ना खतरे से खाली नहीं है। उसे कांग्रेस ही संभाल सकती है।
सन 1984 के चुनाव ने राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रीय राजनीति को बुरी तरह दरकिनार तो कर दिया, लेकिन उनका मुद्दा खत्म नहीं हुआ। आखिरकार चार सौ से भी ज्यादा सीटें जीतने वाले राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद असम, पंजाब, मिजोरम जैसे राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों के साथ समझौते तो किए ही, बाद में फारूक अब्दुल्ला और शरद पवार जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों से राजनीतिक समझौते भी किए, जिनके आधार पर कुछ राज्यों में कांग्रेस की गठबंधन सरकारें भी बनीं। राजीव गांधी के इसी समझौतावादी रवैए से चिढ़े एक राजनीतिशास्त्री ने कहा कि वे तो मोहल्ले के बच्चों से भी समझौता करने को तैयार रहते हैं। लेकिन राजीव गांधी गठबंधन की राजनीति के नेता नहीं थे। अगर वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा, गुजराल जैसे नेताओं ने उस राजनीति के विफल प्रयोग किए तो अटल बिहारी वाजपेयी और उनके बाद मनमोहन सिंह ने उसके सफल प्रयोग।
अब मनमोहन सिंह की राजनीति अगर लड़खड़ा रही है तो उसकी वजह उनकी आर्थिक नीतियां ही हैं, जिनसे निकले इंडिया शाइनिंग के नारे के खिलाफ हवा पर सवार होकर उनकी कांग्रेस पार्टी 2004 में सत्ता में आई थी और दोबारा 2009 में उन नीतियों का मानवीय चेहरा पेश करते हुए। उनकी नीतियों का फायदा हर राज्य और हर क्षेत्रीय दल उठाना चाहता है, लेकिन उसका झंडा लेकर कोई नहीं चलना चाहता, कोई नहीं चाहता कि नुकसान का ठीकरा उसके सिर फूटे। यहां तक कि उनकी पार्टी के युवराज राहुल गांधी और सोनिया गांधी भी नहीं।
तीसरे मोर्चे या उस तरह के किसी नए गठबंधन का आधार अगर कुछ बनेगा तो इस बार वह उदारीकरण की नीतियों के दुष्प्रभावों पर ही होगा। इसके लिए क्षेत्रीय दलों को उसी तरह से एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाना होगा जिस तरह वे अभी एनसीटीसी, लोकपाल और सांप्रदायिक हिंसा संबंधी विधेयक के सवाल पर बनाए हुए हैं। बल्कि वह उससे ज्यादा स्पष्ट होना चाहिए। गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई दलों के भीतर इस मसले की सबसे बेहतर राजनीतिक व्याख्या वामपंथी ही कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने मंदी के दौर में कोई खास वैचारिक और राजनीतिक चमक का परिचय नहीं दिया है। वे 2009 और 2011 की हार से पस्त हैं। दूसरी तरफ उनके पास इन नीतियों के खिलाफ लड़ने वाला कोई चमत्कारिक नेतृत्व भी नहीं है। वैसा नेतृत्व मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और नवीन पटनायक का भी नहीं है।
तो क्या उदारीकरण के विरोध के आधार पर खड़े होने वाले इस तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करने का सबसे ज्यादा हक ममता बनर्जी का   बनता है? शायद हां, शायद ना। यही नए गठबंधन के धर्म की दुविधा और विरोधाभास है। पर सवाल यह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों को ठिकाने लगाने वाली गठबंधन की राजनीति क्या उदारीकरण को भी ठिकाने लगा पाएगी या उससे समझौता करके रह जाएगी?

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

अब तक का सारा इतिहास वर्ग संघर्ष का है- कार्ल मार्क्‍स

विज्ञान के इतिहास में मार्क्‍स ने जिन महत्त्वपूर्ण बातों का पता लगाकर अपना नाम अमर किया है, उनमें से हम यहाँ दो का ही उल्लेख कर सकते हैं।
पहली तो विश्व इतिहास की सम्पूर्ण धारणा में ही वह क्रान्ति है, जो उन्होंने सम्पन्न की। इतिहास का पहले का पूरा दृष्टिकोण इस धारणा पर आधारित था कि सभी तरह के ऐतिहासिक परिवर्तनों का मूल कारण मनुष्यों के परिवर्तनशील विचारों में ही मिलेगा और सभी तरह के ऐतिहासिक परिवर्तनों में सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन ही हैं तथा सम्पूर्ण इतिहास में उन्हीं की प्रधानता है। लेकिन लोगों ने यह प्रश्न न किया था कि मनुष्य के दिमाग़ में ये विचार आते कहाँ से हैं और राजनीतिक परिवर्तनों की प्रेरक शक्तियाँ क्या हैं। केवल फ्रांसीसी और कुछ-कुछ अंग्रेज़ इतिहासकारों की नवीनतर शाखा में यह विश्वास बरबस प्रविष्ट हुआ था कि कम से कम मध्ययुग से, सामाजिक और राजनीतिक प्रभुत्व के लिए उदीयमान पूँजीपति वर्ग का सामन्ती अभिजात वर्ग के साथ संघर्ष यूरोप के इतिहास की प्रेरक शक्ति रहा है। मार्क्‍स ने सिद्ध कर दिया कि अब तक का सारा इतिहास वर्ग-संघर्षों का इतिहास है, अब तक के सभी विविधरूपी और जटिल राजनीतिक संघर्षों की जड़ में केवल सामाजिक वर्गों के राजनीतिक और सामाजिक शासन की समस्या, पुराने वर्गों द्वारा अपना प्रभुत्व बनाये रखने तथा नये पनपते हुए वर्गों द्वारा इस प्रभुत्व को हस्तगत करने की समस्या ही रही है। लेकिन इन वर्गों के जन्म लेने और कायम रहने के कारण क्या हैं? इनका कारण वे शुद्ध भौतिक, गोचर परिस्थितियाँ हैं, जिनके अन्तर्गत समाज किसी भी युग में अपने जीवन-यापन के साधनों का उत्पादन और विनिमय करता है। मध्ययुग के सामन्ती शासन का आधार छोटे-छोटे कृषक समुदायों की स्वावलम्बी अर्थव्यवस्था था, जो अपनी ज़रूरत की प्रायः सभी चीज़ों का स्वयं उत्पादन कर लेते थे। इनमें विनिमय का प्रायः पूर्ण अभाव था, शस्त्रधारी सामन्त बाहर के आक्रमणों से इनकी रक्षा करते थे, उन्हें जातीय या कम से कम राजनीतिक एकता प्रदान करते थे। नगरों के अभ्युदय के साथ अलग-अलग दस्तकारियों और परस्पर व्यापार का विकास हुआ जो पहले आन्तरिक क्षेत्र में सीमित था और आगे चलकर अन्तरराष्ट्रीय हो गया। इस सबके साथ नगर के पूँजीपति वर्ग का विकास हुआ और मध्यवर्ग में ही उसने सामन्तों से लड़-भिड़कर सामन्ती व्यवस्था के अन्दर एक विशेषाधिकार प्राप्त श्रेणी के रूप में अपने लिए स्थान बना लिया। परन्तु 15वीं शताब्दी के मध्य के बाद से, यूरोप के बाहर की दुनिया का पता लगने पर, इस पूँजीपति वर्ग को अपने व्यापार के लिए कहीं अधिक विस्तृत क्षेत्र मिल गया। इससे उसे अपने उद्योग-धन्धों के लिए नयी स्फूर्ति मिली। प्रमुख शाखाओं में दस्तकारी का स्थान मैनुफेक्चर ने ले लिया जो अब फैक्टरियों के पैमाने पर स्थापित था। फिर इसकी जगह बड़े पैमाने के उद्योग ने ले ली जो पिछली सदी के आविष्कारों, ख़ासकर भाप से चलनेवाले इंजन के आविष्कार से सम्भव हो गया था। बड़े पैमाने के उद्योग का व्यापार पर यह प्रभाव पड़ा कि पिछड़े हुए देशों में पुराना हाथ का काम ठप हो गया और उन्नत देशों में उसने संचार के आधुनिक नये साधन – भाप से चलने वाले जहाज़, रेल, वैद्युतिक तार – उत्पन्न किये। इस प्रकार पूँजीपति वर्ग सामाजिक सम्पत्ति और सामाजिक शक्ति दोनों को अधिकाधिक अपने हाथों में केन्द्रित करने लगा, यद्यपि काफी अरसे तक राजनीतिक सत्ता से वह वंचित रहा जो सामन्तों और उनके द्वारा समर्थित राजतन्त्र के हाथ में थी। लेकिन विकास की एक मंज़िल ऐसी आयी – फ्रांस में महान क्रान्ति के बाद – जब उसने राजनीतिक सत्ता को भी हथिया लिया, और तब वे वह सर्वहारा वर्ग और छोटे किसानों के ऊपर शासन करनेवाला वर्ग बन गया। इस दृष्टिकोण से, समाज की विशेष आर्थिक स्थिति का सम्यक ज्ञान होने से सथी ऐतिहासिक घटनाओं की बड़ी सरलता से व्याख्या की जा सकती है, यद्यपि यह सही है कि हमारे पेशेवर इतिहासकारों में इस ज्ञान का सर्वथा अभाव है। इसी प्रकार हर ऐतिहासिक युग की धारणाओं और उसके विचारों की व्याख्या बड़ी सरलता से, उस युग की आर्थिक जीवनावस्थाओं और सामाजिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों के आधार पर (ये सम्बन्ध भी आर्थिक परिस्थितियों द्वारा ही निर्धारित होते हैं) की जा सकती है। इतिहास को पहली बार अपना वास्तविक आधार मिला। यह आधार एक बहुत ही स्पष्ट सत्य है जिसकी ओर पहले लोगों का ध्यान बिल्कुल नहीं गया था, यानी यह सत्य कि मनुष्यों को सबसे पहले खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना और सिर के ऊपर साया चाहिए, इसलिए पहले उन्हें लाज़िमी तोर पर काम करना होता है, जिसके बाद ही वे प्रभुत्व के लिए एक-दूसरे से झगड़ सकते हैं, और राजनीति, धर्म, दर्शन, आदि को अपना समय दे सकते हैं। आखि़रकार इस स्पष्ट सत्य को अपना ऐतिहासिक अधिकार प्राप्त हुआ।
समाजवादी दृष्टिकोण के लिए इतिहास की यह नयी धारणा सर्वोच्च महत्त्व की थी। इससे पता लगा कि पहले के सम्पूर्ण इतिहास की गति वर्ग-विरोधों और वर्ग-संघर्षों के बीच में रही है, कि शासक और शासित, शोषक और शोषित वर्गों का अस्तित्व बराबर रहा है और यह कि मानव-जाति के अधिकांश भाग के पल्ले सदा से कड़ी मशक्कत पड़ी है, आनन्दोपभोग बहुत कम। ऐसा क्यों हुआ? इसीलिए कि मानव-जाति के विकास की सभी पिछली मंज़िलों में उत्पादन का विकास इतना कम हुआ था कि ऐतिहासिक विकास इस अन्तरविरोधी रूप में ही हो सकता था, ऐतिहासिक प्रगति कुल मिलाकर एक विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक समुदाय के क्रियाकलाप का ही विषय बना दी गयी थी, और बहुसंख्यकों के भाग्य में अपने श्रम द्वारा जीवन-निर्वाह के अपने स्वल्प साधन और इसके अतिरिक्त विशेषाधिकार सम्पन्न समुदाय के लिए अधिकाधिक प्रचुर साधन उत्पादित करना रह गया था। परन्तु इतिहास की यही जाँच-पड़ताल, जो हमें इस प्रकार पहले के वर्ग शासन की स्वाभाविक एवं बुद्धिसम्मत व्याख्या प्रदान करती है (अन्यथा हम मानव-स्वभाव की दुष्टता द्वारा ही उसकी व्याख्या कर सकते थे), साथ ही साथ हमें यह बोध कराती है कि वर्तमान युग में उत्पादक शक्तियों के अति प्रचण्ड विकास के कारण मानव-जाति को शासक और शासित, शोषक और शोषित में बाँट रखने का अन्तिम बहाना भी, कम से कम सबसे उन्नत देशों में, मिट चुका है; कि शासक बड़े पूँजीपति अपनी ऐतिहासिक भूमिका समाप्त कर चुके हैं, और जैसा कि व्यापारिक संकटों, और ख़ासकर पिछली भयानक गिरावट और सभी देशों में फैली मन्दी से सिद्ध हो चुका है, वे समाज का नेतृत्व करने के योग्य अब नहीं रह गये हैं, बल्कि उत्पादन के विकास में बाधक बन गये हैं; कि ऐतिहासिक नेतृत्व सर्वहारा वर्ग के हाथ में चला गया है, ऐसे वर्ग के हाथ में चला गया है जो समाज में अपनी समग्र स्थिति के कारण सम्पूर्ण वर्ग शासन, सम्पूर्ण दासता एवं सम्पूर्ण शोषण का अन्त करके ही अपने को मुक्त कर सकता है; और यह कि सामाजिक उत्पादक शक्तियाँ, जो इतनी विकसित हो गयी हैं कि पूँजीपति वर्ग के काबू से बाहर हैं, बस इस प्रतीक्षा में हैं कि एकजुट सर्वहारा उन्हें अपने हाथों में ले ले जिससे कि ऐसी अवस्था कायम की जा सके जिसमें समाज का प्रत्येक सदस्य न केवल सामाजिक सम्पदा के उत्पादन में, बल्कि वितरण और प्रबन्ध में भी हाथ बँटा सकेगा, और जो अवस्था सम्पूर्ण उत्पादन के नियोजित संचालन द्वारा सामाजिक उत्पादक शक्तियों और उनकी उपज को इतना बढ़ा देगी कि प्रत्येक व्यक्ति की सभी उचित आवश्यकताओं की उत्तरोत्तर बढ़ती मात्रा में पूर्ति सुनिश्चित हो जायेगी।
मार्क्‍स ने जिस दूसरी महत्त्वपूर्ण बात का पता लगाया है, वह पूँजी और श्रम के सम्बन्ध का निश्चित स्पष्टीकरण है। दूसरे शब्दों में, उन्होंने यह दिखाया कि वर्तमान समाज में और उत्पादन की मौजूदा पूँजीवादी प्रणाली के अन्तर्गत किस तरह पूँजीपति मज़दूर का शोषण करता है। जब से राजनीतिक अर्थशास्त्र ने यह प्रस्थापना प्रस्तुत की कि समस्त सम्पदा और समस्त मूल्य का मूल स्रोत श्रम ही है, तभी से यह प्रश्न भी अनिवार्य रूप से सामने आया कि इस बात से हम इस तथ्य का मेल कैसे बैठायें कि उजरती मज़दूर अपने श्रम से जिस मूल्य को उत्पन्न करता है, वह पूरा का पूरा उसे नहीं मिलता, वरन उसका एक अंश उसे पूँजीपति को दे देना पड़ता है? पूँजीवादी और समाजवादी, दोनों ही तरह के अर्थशास्त्रियों ने इस प्रश्न का ऐसा उत्तर देने का प्रयत्न किया, जो वैज्ञानिक दृष्टि से संगत हो, परन्तु वे विफल रहे। अन्त में मार्क्‍स ने ही उसका सही उत्तर दिया। वह उत्तर इस प्रकार है : उत्पादन की वर्तमान पूँजीवादी प्रणाली में समाज के दो वर्ग हैं – एक ओर पूँजीपतियों का वर्ग है, जिसके हाथ में उत्पादन और जीवन-निर्वाह के साधन हैं, दूसरी ओर सर्वहारा वर्ग है, जिसके पास इन साधनों से वंचित रहने के कारण बेचने के लिए केवल एक माल – अपनी श्रम-शक्ति – ही है और इसलिए जो जीवन-निर्वाह के साधन प्राप्त करने के लिए अपनी इस श्रम-शक्ति को बेचने के लिए मजबूर है। परन्तु किसी माल का मूल्य उसके उत्पादन में, और इसीलिए उसके पुनरुत्पादन में भी, लगी सामाजिक दृष्टि से आवश्यक श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है। अतः एक औसत मनुष्य की एक दिन, एक महीना या एक वर्ष की श्रम-शक्ति का मूल्य इस श्रम-शक्ति को एक दिन, एक महीना या एक वर्ष तक कायम रखने के लिए आवश्यक जीवन-निर्वाह के साधनों में लगे श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है। मान लीजिये कि किसी मज़दूर को एक दिन के जीवन-निर्वाह के साधनों के उत्पादन के लिए छः घण्टे का श्रम चाहिए, या उसी बात को यों कहें कि उनमें लगा श्रम छः घण्टे के श्रम की मात्रा के बराबर है, तो श्रम-शक्ति का एक दिन का मूल्य ऐसी रकम में व्यक्त होगा जिसमें भी छः घण्टे का श्रम लगा हो। अब यह भी मान लीजिये कि इस मज़दूर को काम पर लगानेवाला पूँजीपति उसे बदले में यह रकम देता है, और इसलिए उसकी श्रम-शक्ति का पूरा मूल्य उसे अदा करता है। अब अगर मज़दूर दिन में छः घण्टे पूँजीपति के लिए काम करता है तो वह पूँजीपति की पूरी लागत को चुकता कर देता है – छः घण्टे के श्रम के बदले छः घण्टे का श्रम देता है। पर ऐसी हालत में पूँजीपति के लिए कुछ नहीं रहता, और इसलिए वह तो इसे बिल्कुल दूसरे ही ढंग से देखता है। वह कहता है : मैंने इस मज़दूर की श्रम-शक्ति छः घण्टे के लिए नहीं बल्कि पूरे दिन के लिए ख़रीदी है, और इसलिए वह मज़दूर से 8, 10, 12, 14 या इससे भी अधिक घण्टों की उपज अशोधित श्रम की, ऐसी श्रम की जिसका भुगतान नहीं किया गया होता, उपज होती है, और यह सीधे पूँजीपति की जेब में पहुँच जाती है। इस तरह पूँजीपति की नौकरी करनेवाला मज़दूर केवल उस श्रम-शक्ति का मूल्य ही नहीं पुनरुत्पादित करता जिसके लिए उसे मज़दूरी मिलती है, बल्कि इसके अलावा वह अतिरिक्त मूल्य भी पैदा करता है जिसे पहले पूँजीपति हस्तगत करता है और जो बाद में निश्चित आर्थिक नियमों के अनुसार समूचे पूँजीपति वर्ग के बीच वितरित होता है। यह अतिरिक्त मूल्य वह मूल कोष होता है जिससे लगान, मुनाफा, पूँजी का संचय बनता है – संक्षेप में वह सारी दौलत बनती है जिसका ग़ैर-मेहनतकश वर्ग उपभोग अथवा संचय करते हैं। इससे यह सिद्ध हो गया कि आज के पूँजीपतियों द्वारा धन संचय उसी प्रकार दूसरों के अशोधित श्रम का हस्तगतकरण है जिस प्रकार दास-स्वामियों या भू-दास श्रम का शोषण करनेवाले सामन्ती प्रभुओं का धन-संचय था, और शोषण के इन सभी रूपों में अन्तर केवल अशोधित श्रम के हस्तगतकरण के तरीके और ढंग का ही है। पर इस बात ने सम्पत्तिधारी वर्गों के ढोंग से भरे शब्दजाल का अन्तिम औचित्य भी समाप्त कर दिया, जिसका आशय यह होता था कि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में कानून और न्याय, अधिकारों और कर्तव्यों की समानता तथा हितों के सामंजस्य का बोलबाला है, और यह प्रकट कर दिया कि वर्तमान पूँजीवादी समाज, अपने पूर्ववर्ती समाजों की ही भाँति और उनसे किसी भी तरह कम नहीं, जनता की विशाल की बहुसंख्या के निरन्तर घटते ही जाते अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा शोषण की एक भीमकाय संस्था मात्रा है।
फ्रेडरिक एंगेल्स
एंगेल्स द्वारा जून, 1877 के मध्य में लिखित लेख का अंश।
नामक वार्षिकी में,
जो ब्रुंसविक में 1878 में निकली थी, प्रकाशित।
साभार – संवेदनाओं के पंख

साम्यवाद : द्वैत से अद्वैत की यात्रा

-ओमप्रकाश कश्यप-
मनुष्यता के इतिहास में उनीसवीं शताब्दी का बड़ा महत्त्व है. यह वह कालखंड है जब मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के नारे के साथ सर्वहारा क्रांति का आवाह्न किया था. ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ के माध्यम से दिए गए इस नारे की सीमाएं अथवा कमजोरियां 23वें वर्ष में ‘पेरिस कम्यून’ के प्रयोग की असफलता के साथ सामने आ गईं. मार्क्स के विचारों पर आधारित वह पहली समाजवादी क्रांति थी. अपने विचारों की प्रारंभिक असफलता से निराश होने के बजाय मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष की सैद्धांतिकी में सुधार हेतु स्वयं को नए सिरे से इतिहास, दर्शन, समाजविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीतिक दर्शन आदि के अध्ययन को समर्पित कर दिया. वह फ्रांस छोड़कर इंग्लेंड चला आया जहां अपेक्षाकृत शांति थी. साथ में बौद्धिकरूप से खुला माहौल भी. करीब 15 वर्ष के गहन अध्ययन-मनन के फलस्वरूप ‘पूंजी’ का पहला खंड सामने आया. इस युग प्रवर्त्तक ग्रंथ में पूंजी के शोषणकारी चरित्र तथा उसकी बहुआयामी पैठ को पहली बार समग्रता के साथ इतिहास, दर्शन एवं अर्थनीति के संदर्भ में उजागर किया गया था. सर्वहारा क्रांति का समर्थक मार्क्स इस नतीजे पर पहुंचा था कि पूंजीवादी अधिनायकवाद का उत्तर श्रम-अधिनायकवाद से नहीं दिया जा सकता. श्रम-अधिनायकत्व की संभावनाओं को कम करने के लिए उसने वर्गहीन समाज की संकल्पना की थी. लिखा था कि समाजवादी क्रांति का लक्ष्य बुर्जुआ वर्ग को अपदस्थ कर उत्पादन के साधनों पर कब्जा कर लेने से पूरा नहीं हो जाता. वास्तविक चुनौती उस एकाधिकारवादी भावना को समाप्त करने की है, जो वर्ग-विभाजन की संभावना को जन्म देती तथा प्रकारांतर में उसे मजबूत एवं स्वीकार्य बनाती है. ‘थीसिस आन फायरबाख’ में उसने लिखा था—
विद्वानों ने इस सृष्टि की अनेक प्रकार से व्याख्या की है. वास्तविक चुनौती तो इसको बदलने की है.’ 1
दुनिया को बदलने की कामना के साथ मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत प्रस्तुत किया. इसकी प्रेरणा उसको हीगेल के दार्शनिक सिद्धांत ‘द्वंद्ववाद’ से मिली थी. हीगेल के ‘शुभ’ एवं ‘अशुभ’ के द्वंद्व को उसने सर्वहारा और पूंजीपति के द्वंद्व के रूप में देखा था. उल्लेखनीय है कि हीगेल से बहुत पहले शंकराचार्य ने जीवन की व्याख्या के लिए आत्मा और परमात्मा के द्वैत का विचार प्रस्तुत किया था. कार्य-कारण संबंधों की व्याख्या करते हुए उन्होंने सृष्टि की रचना में माया की अतार्किक-अवैज्ञानिक परिकल्पना की थी. उनसे पहले सांख्य दर्शन में भी सृष्टि-रचना को प्रकृति एवं पुरुष के संपर्क द्वारा समझाने की कोशिश की गई. सांख्याचार्य के अनुसार प्रकृति प्रमुख कार्यकारी शक्ति है. वही पुरुष को कार्य के उकसाती है.2
तुलनात्मकरूप से देखा जाए तो माया की अपेक्षा प्रकृति की परिकल्पना अधिक यथार्थवादी है. वेदांताचार्य के अनुसार माया कार्य-कारण की प्रेरक शक्ति है. वहीं द्वैत की जन्मदाता है. इसके मूल में अज्ञान है. जैसे ही आत्मा अपने मूल-स्वरूप अर्थात परमात्मा को पहचानने लगती है, उसका मायारूपी संसार से मोहभंग हो जाता है. आत्मा और परमात्मा के द्वैत के समापन की अवस्था को वेदांत में ‘मोक्ष’ कहा गया. उसके अनुसार मोक्ष चिरंतन ठहराव और परमशांति की ऐसी कल्पनातीत अवस्था है, जिसमें मानवात्मा के समस्त विक्षोभ शांत हो जाते हैं. मन से माया का आवरण हट जाता है और मनुष्य परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को पहचानने लगता है. वेदांत दर्शन में आत्मतत्व स्वयं क्रियात्मक नहीं हैं. माया के संपर्क में आने के उपरांत उत्पन्न विक्षोभ उसे क्रियाधर्मी बनने को उकसाता है. इसके विपरीत हीगेल का ‘द्वंद्ववाद’ विपरीत गुणसंपन्न शक्तियों की नैसर्गिक क्रियाशीलता तथा उनके बीच सतत द्वंद्व की परिणति है. द्वंद्वात्मकता की प्रतीति सृष्टि में अनेक स्तर पर भिन्न रूपों में, विभिन्न प्रकार से द्रष्टिगत होती है. द्वंद्व के कारणों को हीगेल ने आभासी माना है. हीगेल के अनुसार यह सृष्टि परमसत्ता का विस्तार है. उसमें आभासी विपरीतात्मकता मानवेंद्रियों की सीमा की देन है.
सृष्टि व्यापार को द्वंद्वात्मकता के सिद्धांत से समझाने वाले हीगेल ने द्वैत को ‘शुभ’ और ‘अशुभ’ के रूप में देखा था. उसका मानना था कि सृष्टि में प्रत्येक विचार का प्रतिविचार मौजूद है. सफेद के साथ स्याह, अच्छे के साथ बुरा, पुण्य के साथ पाप, उत्तर के विरुद्ध दक्षिण आदि परस्पर विपरीतार्थी एवं समानधर्मा सत्ताओं से दुनिया भरी पड़ी है. साधारण द्रष्टिबोध उन्हें अलग, एक-दूसरे से स्वतंत्र तथा परस्पर विरोधी मानता है. हीगेल के लिए इस विपरीतार्थ के अलग मायने थे. वह द्वैत की सत्ता को स्वीकारता है, लेकिन उसका कारण वस्तुगत न होकर मानवेंद्रियों की सीमा है. दूसरों से अलग वह ‘शुभ’ को ‘अशुभ’ का पूरक, उनके द्वैत को अस्थायी मानता था, जिसको मनुष्य अपने ज्ञान के माध्यम से चुनौती दे सकता था. परमसत्ता के बारे में स्पिनोजा से सहमत हीगेल का मानना था कि वह परमशुभ है. उसका विस्तार अनंत है. मानवेंद्रियों का सामथ्र्य नहीं कि उसकी विलक्षणता और विराटपन का साक्षात कर सकें. शंकर इसे माया के आवरण के रूप में देखते हैं. उसको देखते हुए हीगेल का विचार अधिक तार्किक प्रतीत होता है. हीगेल के अनुसार मनुष्य की विवशता है कि वह सत्य को केवल टुकड़ों में देख पाता है. मसलन आंखें त्रिविमीय संसार की केवल दो विमाओं को देख पाती हैं. जबकि दृश्यमान जगत की समस्त वस्तुएं त्रिविमीय संसार का हिस्सा हैं. प्रसंगवश बता दें कि चैथी विमा के रूप में ‘समय’ को मान्यता बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशक में उस समय मिली, जब आइंस्टाइन ने अपने आपेक्षिकता के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए समय को चौथा आयाम माना. दर्शन के क्षेत्र में चैथी विमा की परिकल्पना बहुत पहले लगभग ढाई हजार वर्ष पहले की जा चुकी थी. उसकी ओर स्पष्ट संकेत अठारहवीं शताब्दी के दार्शनिक डेविड ह्यूम ने किया. समय को पहली बार महत्त्व देते हुए ह्यूम ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति एक ही नदी में दो बार पांव नहीं रख सकता. जब तक हम नदी के प्रवाह में दूसरी बार पैर रखते हैं, उसका जल कहीं आगे बढ़ चुका होता है. उस समय दार्शनिकों ने डेविड ह्यूम को संदेहवादी कहकर उसकी खिल्ली उड़ाई गई थी. बाद में जब यही बात आइंस्टाइन ने वैज्ञानिक प्रमाण देते हुए कही, तब जाकर समय को चैथी विमा के रूप में मान्यता मिल सकी. आज अनिश्चितता अथवा संदेह के सिद्धांत को वैज्ञानिक मान्यता मिल चुकी है. ‘थ्योरी आ॓फ अनसर्टेनिटी’ आधुनिक परमाणु विज्ञान का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अनुसंधान है, जिससे सृष्टि के रहस्यों को समझने में मदद मिल सकती है. विज्ञान की इस संशयवादी धारा ने दर्शन और विज्ञान के बीच की दूरी को पाटने का काम किया है.
ऐंद्रियक अनुभवों की सीमा की ओर संकेत करते हुए हीगेल का कहना था कि ‘सांत’ इंद्रियों द्वारा ‘अनंत’ को पूरी तरह समझा ही नहीं जा सकता. अपने बोध के लिए मनुष्य को जिन इंद्रियों पर भरोसा करना पड़ता है, वे पूरा सच कभी देख ही नहीं पातीं. मसलन आंखें दीवार पर लगी तस्वीर का एक समय में केवल एक ही पृष्ठ देख पाती हैं. तस्वीर के अगले-पिछले हिस्सों को, एक ही समय में देख पाना उनके लिए कदापि संभव नहीं है. यह कार्य मस्तिष्क को करना पड़ता है. इसलिए दीवार पर टंगी तस्वीर का हमारा आकलन सिर्फ वह नहीं होता जो हमारी आंखें तात्कालिक रूप से देख रही होती हैं. तस्वीर को पूरा देखने के लिए हमें अपनी स्थिति में बदलाव करना होता है. मगर स्थिति में परिवर्तन के साथ हम दूसरे समय में चले जाते हैं. पहला पक्ष तत्क्षण हमसे ओझल हो जाता है. पूरी छवि की परिकल्पना के लिए हमें अपने मस्तिष्क और अनुभव की मदद लेनी ही पड़ती है. आशय है कि किसी वस्तु अथवा विचार की अवधारणा के पीछे हमारे अनुभवों, स्मृतिबोध तथा मस्तिष्क का योगदान होता है.
यदि मनुष्य की इंद्रिया सांत हैं, उनकी सीमा है, तब तो वह अनंत को कदापि नहीं जान पाएगा. उस अवस्था में तो उसको अनंत सत्ता को जानने-समझने की कोशिश छोड़ ही देनी चाहिए. हीगेल के विचारों को पढ़ते हुए ऐसा निष्कर्ष सहसा दिमाग से टकराने लगता है. लेकिन अगर यहीं तक सीमित होता तो हीगेल का दर्शन द्वंद्ववाद से आगे बढ़ ही नहीं पाता. वह संशयवादी ही बना रहता. जबकि द्वंद्व उसके दर्शन का प्रस्थान बिंदू है, लक्ष्य नहीं. प्रारंभिक स्थापना से आगे बढ़कर वह कहता है कि ठीक है, मानवेंद्रियों की सीमाएं हैं. उसकी इंद्रियां उसको किसी वस्तु को समग्रता से एक ही पल में देखने का अवसर ही नहीं देतीं. इसके बावजूद उसके पास एक चीज है, जो उसके ऐंद्रियक अनुभवों की सीमा को पाटने में सहायक है. वह है उसका मस्तिष्क. मानव मस्तिष्क ही है जो एक ही क्षण में किसी तस्वीर को पूरा न देख पाने के बावजूद उसका यथार्थबोध कराने में सक्षम होता है. इसलिए जो मनुष्य अपने सांत ऐंद्रियक साधनों से अनंत को समझना चाहता है, उसे निरंतर अपना बौद्धिक परिष्कार करते रहना चाहिए. इसके लिए वह अनुभव के साथ निरंतर अध्ययन-मनन पर जोर देता है. कोई हताश न हो, इसलिए वह द्वंद्ववाद की आगे व्याख्या भी करता है. वह समझाता है कि ‘अच्छे’ और ‘बुरे’, ‘काले’ और ‘सफेद’, ‘गुण-अवगुण’ का भेद आभासी है.
असल में वह हमारी अज्ञानता और अधूरे ज्ञान की देन है. सही मायने में हमारी सीमाओं का प्रतीक. परोक्षरूप में वह भी द्वैत की महत्ता को स्वीकारता है. परंतु मानता है कि बोध के विकासक्रम में द्वैत-भाव तिरोहित होने लगता है. मनुष्य समझने लगता है कि ‘काला’ और ‘सफेद’ रंग एक-दूसरे के विपरीतधर्मा न होकर परस्पर भिन्न स्थितियां हैं. जो वस्तु काली दिखती है, वह अपने ऊपर पड़ी प्रकाश किरणों को पूरी तरह सोख लेती है. दूसरे शब्दों में उसका गुण है अपने ऊपर पड़ने वाली समस्त प्रकाश किरणों को अवशोषित कर लेना. जबकि सफेद रंग वाली वस्तु का गुण है, प्रकाश किरणों को ज्यों का त्यों परावर्तित कर देना. दोनों के अपने-अपने गुण हैं. उनमें विरोधाभास हो सकता है, परंतु विपरीत गुणसंपन्न होने के बावजूद दोनों में कहीं टकराव नहीं है. बल्कि वे एक-दूसरे के पूरक का कार्य करती हैं. साधारण मनुष्य इस अंतर को समझ नहीं पाता, इसलिए वह सफेद और काले को एक-दूसरे का विपरीतधर्मा मान लेता है. हीगेल के तर्कों के आगे हमारी आंखों के आगे पड़ी द्वैत की चदरिया लगातार झीनी पड़ती हुई अंत में गायब-सी हो जाती है. यही ‘सांत’ के ‘अनंत’ तक पहुंचने की यात्रा है.
अच्छे’ और ‘बुरे’, गुण-अवगुण’ के विपरीतार्थ को नकारता हुआ वह कहता है कि ‘अच्छा’, ‘बुरे’ का विलोम न होकर भिन्न स्थिति है. यह वह प्रत्यय है जो समाज के एक वर्ग द्वारा थोप दिया जाता है. समाज बदलने पर वह बदल भी सकता है. हीगेल की दृष्टि में ‘बुरा’ वह है जिसमें उन गुणों का, जिन्हें हम अच्छाई का प्रतीक मानते हैं, अभाव है. ये गुण या स्थापनाएं व्यक्ति की न होकर उस समाज की होती हैं, जिसमें वह जन्मा है. इसी प्रकार तस्वीर या कमरे में पड़ी मेज की वह व्याख्या करता है कि जो दिख रहा है, वह तस्वीर वास्तविक नहीं है. वह मात्र द्विविमीय छवि है. आंखें अपनी खूबी तथा मस्तिष्क की मदद से उसको त्रिविमीय छवि में बदल रही हैं. छवि की सीमा है कि वह केवल स्थिति एवं क्षण-विशेष में ही सत्य हो सकती है. मेज को पूरा समझने के लिए हमें उसके दूसरे पहलुओं को भी जोड़ना पड़ता है. इसलिए अलग-अलग समय में मस्तिष्क पर पड़ने वाले मेज के बिंबों को एक-दूसरे का विरोधी नहीं माना जा सकता, बल्कि वे एक-दूसरे के पूरक हैं. जैन दर्शन इसे स्याद्वाद के सिद्धांत द्वारा अभिव्यक्त करता है. चार अंधों और हाथी के रूपक द्वारा वह समझाता है कि हाथी को पहचानने में जुटे चार अंधों के अनुभव परस्पर भिन्न होंगे. उनमें जो व्यक्ति हाथी की सूंड की ओर होगा वह उसकी उपमा बेल से देगा, कानांे को छूकर हाथी को पहचानने में जुटे अंधे की निगाह में हाथी का आकार सूप के समान होगा. इसी प्रकार पेट और पैर का स्पर्श करने वाले अंधों के निष्कर्ष भी एक-दूसरे से अलग होंगे. व्यक्तिगत निष्कर्ष में वे चारों सही हैं, परंतु उनमें से एक भी सत्य का पूर्णानुमान लगाने में असमर्थ है. सामान्य व्यक्ति के प्रकरण में भी उसकी ऐंद्रियिक सीमा सत्य की पूर्णानुभूति कराने में अक्षम होती है. तर्कों के माध्यम से हीगेल स्पष्ट करता है संसार में दिखने वाली सभी विरोधी स्थितियां एक-दूसरे की पूरक हैं. यहां हम हीगेल को स्पिनोजा के करीब पाते हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि स्पिनोजा ‘सर्वेश्वरवाद’ को सीधे-सीधे एक झटके में छू लेता है. हीगेल वहां तक पहुंचने के लिए अनेक तर्कों, स्थितियों का सहारा लेता है. स्पिनोजा पर अतिरेकी आस्था का दबाव है. हीगेल बौद्धिकता के मुक्ताकाश में सत्य को समझने की चेष्ठा करता है. कह सकते हैं कि स्पिनोजा जो लक्ष्य निर्धारित करता है, हीगेल उसको स्वीकार करता है, लेकिन पूरी तर्कबुद्धि के साथ. एक-एक के लिए समर्थन जुटाते हुए. वह एक ओर तो मनुष्य को उसकी सीमाओं का एहसास कराता है, दूसरी ओर उसे यह विश्वास भी दिलाता है कि निरंतर अभ्यास, अध्ययन-चिंतन से वह अपनी दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त कर सकता है.
मार्क्स हीगेल से द्वंद्ववाद की विचारधारा उधार लेता है. लेकिन उसका उपयोग केवल साधन तक सीमित रखता है. वह द्वंद्ववाद से प्रभावित है. पूंजीवादी समाज में जन्मे मार्क्स को सर्वहारा और बुर्जुआ ही अपने चारों ओर दिखाई पड़ते हैं. अपने परिवेश के प्रति वह इतना सम्मोहित है कि उससे इतर अतींद्रिय दुनिया की परिकल्पनाएं उसको जम ही नहीं पातीं. आरंभ में समाज में वांछित परिवर्तन के लिए वह दोनों वर्गों के संघर्ष की अनिवार्यता पर जोर देता है. शुभ और अशुभ के शाश्वत संघर्ष की भांति, ताकि परमशुभ की सर्वकल्याणक, सर्वत्र शुभदायक स्थिति को प्राप्त किया जा सके. वह साम्यवाद का सपना रचता है, जिसमें सुख पर किसी का भी एकाधिकार न हो. बल्कि अधिकतम व्यक्ति अधिकतम सुख का भोग कर सकें. यह सपना उसकी आंखों में 1845 में ही जन्म ले चुका था. साम्यवाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसने ‘दि जर्मन आइडियोला॓जी’ में लिखा है—
हमारे लिए साम्यवाद किसी प्रस्तावित राज्य के गठन का ऐसा मसला नहीं है जिससे अपने आदर्श लक्ष्य की प्राति हेतु वह नागरिकों से सहयोग एवं समन्वय बनाए रखने की अपेक्षा करे. इसके बजाय साम्यवाद को ऐसा जमीनी आंदोलन कहना उचित होगा जो वर्तमान राज्य को विखंडित कर देगा. नए राज्य की शर्त उसके होने में न होकर उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता में निहित होगी.’3
वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि समाज में असमानता का कारण केवल आर्थिक विषमता नहीं है. अकेले पूंजी के रहने या न रहने से वर्गीय विषमताओं को मिटा पाना असंभव होगा. उसके पीछे धर्म, राजनीति, समाज आदि कारक भी सम्मिलित हैं, जो वर्गभेदकारी स्थितियों को जन्म देने के साथ-साथ नागरिकों को विभेदकारी तंत्र से अनुकूलन की प्रेरणा देते हैं. इन्हीं की मदद से शिखरस्थ शक्तियां उत्पादन केंद्रों पर अधिकार जमाए रहती हैं. स्थायी परिवर्तन वर्गभेद को जन्म देने वाली स्थितियों के उन्मूलन बगैर संभव नहीं. आमूल परिवर्तन के लिए उस मानसिकता में भी संशोधन करना पड़ेगा जो विभेदकारी वातावरण से अनकूलन करना सिखाती है. स्थितियों को उनकी समग्रता में देखने का यह गुण मार्क्स ने अपने गुरु हीगेल से लिया था. अन्य शब्दों में द्वंद्वात्मक भौतिकवाद वह दरवाजा है जिसको वह अपने जीवनकाल में ही पार कर चुका था. भौतिकवादी मार्क्स आत्मा, परमात्मा और माया जैसी अमूत्र्त धारणाओं के फेर में नहीं पड़ता. हीगेल की पुस्तक ‘फिलास्फी आ॓फ राइट’ की आलोचना करते हुए वह धर्म को जनसाधारण के लिए अफीम बताता है. ‘थीसिस आ॓न फायरबाख’, ‘क्रिटीक आन फिलास्फी आ॓फ राइट’ ऐसी ही पुस्तकें हैं, जिनमें उसके धर्म-संबंधी विचारों की आलोचना की झलक है. एक अन्य पुस्तक में उसने हीगेल के शिष्य और अपने मित्र बूनो बायर की आलोचना की थी. लेकिन पेरिस क्रांति की असफलता के बाद उसको अपने चिंतन के अधूरेपन की अनुभूति होती है. उसको लगता है कि ‘सर्वहारा’ और ‘पूंजीपति’ की विपरीतधर्मिता ‘काले’ और ‘सफेद’, ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ की द्वैत जितनी ही आभासी है. आमूल परिवर्तन के अभाव में ही सर्वहारा राज्य के सर्वहारा अधिनायकवादी राष्ट्र में बदलते देर नहीं लगती.
मार्क्स द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से अपने चिंतन की शुरुआत करता है, लेकिन वह उससे उतना ही काम लेता है, जितना कोई भौतिक विज्ञानी गणित के पूर्वस्थापित सूत्र से, मिस्त्री अपने औजार से. सर्वहारा वर्ग द्वारा सत्ता पर अधिकार कर लेने के बाद आंदोलन का दूसरा लेकिन अतिमहत्त्वपूर्ण चरण आरंभ हो जाता है, साम्यवाद के सिद्धांतों के अनुरूप राज्य को ढालने का. उसमें वह वर्गहीन समाज की स्थापना के लक्ष्य को सामने रखता है. वह एक ऐसे समाज की परिकल्पना करता है, जिसमें लोग पारस्परिक कल्याण भावना के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े हों. उसकी व्याख्या में साम्यवाद केवल राजनीतिक व्यवस्था तक ही सीमित नहीं रह जाता. साम्यवादी दर्शन को उठान देता हुआ मार्क्स , उसे अपने गुरु हीगेल के ‘परमशुभ’ का पर्याय बना देता है. उसके अनुसार साम्यवाद ऐसी अवस्था है, जहां समाज के सभी प्रकार के द्वैतों का शमन हो जाता है. समस्त द्वंद्वों का समाधान हो जाता है. सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-मनोभौतिक समरसता का वातावरण बनने लगता है. असंतुलन एवं असमानता की भावना कमजोर पड़ जाती है. कह सकते हैं कि साम्यवाद के रूप में वह ऐसे दर्शन की परिकल्पना करता है जहां नियंत्रणकारी समूहों की आवश्यकता ही न हो. मनुष्य जीवन और समाज के उच्चादर्शों से स्वतः अनुशासित हों. धर्म, संस्कृति जैसे परंपरागत मूल्यों के बजाय लोग उत्पादन, समान उपभोग और सहजीवन के वैज्ञानिक नियमों से एक-दूसरे से आबद्ध हों. समाज अपनी आंतरिक नैतिकता, समानता के सिद्धांत एवं लोकतंत्र द्वारा मर्यादित रहे . ऐसे राज्य में सरकार की उपस्थिति महज इसलिए जरूरी हो, ताकि वह शेष विश्व को उसकी भावनाओं और संकल्पों से परचा सके. हीगेल के दर्शन में परमशुभ एक लक्ष्य है. चूंकि वर्गहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य भी अपने आप में काफी जटिल और लंबी प्रक्रिया है, इसलिए साम्यवाद को समर्पित संस्थाओं को इसके लिए सतत प्रयासरत रहना होता है.
यहां एक स्वाभाविक प्रश्न उभरता है कि यदि साम्यवाद इतनी ही उत्कृष्ट व्यवस्था है तो यह विश्व में इतनी सिमटी हुई क्यों है? बीसवीं शताब्दी के मध्याह्न में विश्व के लगभग आधे देशों में प्रभाव रखने वाला साम्यवाद शताब्दी के अंत तक मात्र पांच देशों का खेवनहार बनकर रह गया, आखिर क्यों? सोवियत संघ जैसी व्यवस्था का पतन हुआ. अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए चीन पूंजीवाद के साथ समझौतावादी रुख अपनाए हुए है. आखिर क्या कारण है कि साम्यवाद जैसी आदर्शोन्मुखी प्रणाली अपनी प्रतिबद्ध सैद्धांतिकी के बावजूद बिखराव का शिकार होने से स्वयं को बचाने में असमर्थ रही? इसके बरक्स पूंजीवाद जिसकी अपनी कोई सैद्धांतिकी नहीं है, आज दुनिया के बड़े-बड़े देशों का भाग्यविधाता बना हुआ है. आखिर क्यों? मुझे लगता है कि साम्यवाद की अतिआदर्शोन्मुखी दार्शनिक प्रतिबद्धता ही उसकी असफलता का कारण है, बड़ा कारण. इसकी तह में जाने के लिए हमें एक बार फिर मार्क्स की शरण में लेनी होगी. कार्ल मार्क्स का कुल जीवनदर्शन दो हिस्सों में बंटा है. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद. जिसमें वह सर्वहारा और पूंजीपति के बीच संघर्ष को अनिवार्य मानता है. दूसरा वर्गहीन समाज की स्थापना का साम्यवादी लक्ष्य. जो उसका दूसरा और महत्त्वपूर्ण चरण है. इतना कि उसके अभाव में पहले चरण की सफलता के असफलता में बदलते देर नहीं लगती. यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो पहली अवधारणा में जबरदस्त राजनीतिक अपील है, जो व्यवस्था से उत्पीड़ित बहुसंख्यक वर्ग को सामूहिक कल्याण की भावना के अनुसार संगठित करने का सामर्थ्य रखती है. यह अपील बहुत कुछ परंपरागत सामंतवादी राजनीति से मिलती-जुलती है. जिसमें युद्ध एवं हिंसा के रास्ते सत्ता हथिया ली जाती थी. अंतर केवल इतना है कि सामंतवाद में प्रायः उग्र राष्ट्रवाद और बाद में तलवार की ताकत के दम पर ही उसको कायम रखा जाता था. अंतर सिर्फ इतना है कि राजशाही में युद्ध किसी एक व्यक्ति की साम्राज्यवादी लिप्साओं द्वारा आम प्रजा पर थोप दिए जाते थे, साम्यवाद में वे सर्वहारा वर्ग द्वारा, जो मार्क्स के अनुसार वास्तविक उत्पादक शक्ति है, परिवर्तन की कामना के साथ तय होते हैं. दोनों अवस्थाओं में हिंसा अपरिहार्य है. इसलिए हम देखते हैं कि जिन देशों में साम्यवादी क्रांति हुई वहां जनाक्रोश का लाभ उठाने के लिए ऐसे नेता उभरकर सामने आए जो सैन्य संचालन में निपुण थे. रूस, चीन, क्यूबा, वियतनाम, आदि इसके उदाहरण हैं. जर्मनी में हिटलर ने जब निरंकुश तानाशाही कायम की तो उसका नारा भी समाजवादी होने का था. भारत आदि देशों में जहां नेतृत्व की बागडोर गैर सैनिक नेताओं के हाथों में थी, वहां साम्यवाद केंद्रीय व्यवस्था का हिस्सा कभी न बन सका. जिन देशों में सैन्य कार्रवाही अथवा सैन्य नेताओं के प्रभाव से साम्यवाद आया, वहां जनता और सामरिक शक्तियां साथ-साथ थीं. लेकिन सैन्य नेतृत्व की अपनी कमजोरी होती है. साम्यवादी अनुशासन में स्वयं को ढालने के लिए बाहरी के साथ आंतरिक अनुशासन भी अपेक्षित था. सामरिक बल पर सत्तारूढ़ हुए सर्वहारा संगठन जनता पर बाहरी अनुशासन तो थोप सकते थे, आंतरिक अनुशासन के लिए उनमें न तो आवश्यक नैतिक बल था, न ही वैसा अभ्यास. इसलिए कि यह राजनीति से अधिक सामाजिक कृत्य था, जिसका उनको अभ्यास न था. तलवार की धार और बाहरी अनुशासन के बल पर साम्यवादी शक्तियां जब तक बनी रह सकती थीं, रहीं. बाद में उनको बढ़ते जनाक्रोश की मदद से अपदस्थ कर दिया गया.
पूंजीवाद साम्यवाद के मुकाबले बहुत लचीली व्यवस्था है. वह उपभोक्ता-अधिकार, मानवाधिकार, लैंगिक समानता, जातीय भेदभाव के उन्मूलन, मुक्त व्यापार, लोकतंत्र आदि लोकलुभावन नारों के बूते जनता का अपने प्रति अनुकूलन कर लेती है. साम्यवाद आधुनिकता का दावा करते हुए धर्म का विरोध करता था. लेकिन पूंजीवाद धर्म का उपयोग भी अपने पक्ष में माहौल बनाए रखने के लिए करता है. साम्यवाद के प्रचार में लगी शक्तियों की कमजोरी है कि जनता पर अपना प्रभाव बनाए रखने वे उन्हीं रास्तों का अनुसरण करती हैं, जिनपर चलकर धर्म मानवीय विवेक की उपेक्षा का वातावरण बनाता है. शायद इसी कारण अल्पचेतनशील समाजों वे आरोपित धर्म को अपनाने के बजाय परंपरागत धर्म की शरण में जाना उचित समझते हैं. ऐसा नहीं है कि साम्यवादी विचारक इस कमजोरी से अनभिज्ञ हों. अंतोनियो ग्राम्शी ने इसलिए सांस्कृतिक वर्चस्ववाद से मुक्ति का नारा भी साथ-साथ दिया था. उसने सर्वहारा वर्ग से अपील की थी कि वे अपने बीच से बुद्धिजीवी पैदा करें. ताकि उसके अनुरूप राजनीतिक नेतृत्व तैयार हो सके. भारत जैसे देशों में साम्यवाद की असफलता का कारण यह रहा है कि यहां राजनीति में वे लोग आए जो संसद में घुसपैठ के लिए गलियारों की तलाश में थे. साम्यवाद के दार्शनिक पक्ष को समझे-समझाए बिना केवल व्यावहारिक पक्ष की राजनीति को बढ़ावा दिया गया. उन समस्याओं को केंद्र में रखकर आंदोलन चलाए गए, जिनका जनता के वास्तविक विकास से कोई सीधा संबंध न था. उन्होंने सामाज के न तो मूल ढांचे में छेड़छाड़ की जरूरत महसूस की, न आमूल परिवर्तन के लिए वांछित प्रयास किए. वैचारिक निष्ठा के अभाव तथा लोकप्रिय राजनीति से लगाव के कारण वे हताशा की लड़ाई लड़ते रहे हैं.
अंत में एक प्रश्न कि क्या साम्यवाद का कोई भविष्य है. तो मैं बेहिचक बिना कोई पल गंवाए कहूंगा कि है. राजनीतिक सामंतवाद की तरह पूंजीवादी सामंतवादी निरंकुशता नहीं चल सकती. इसलिए एक न एक दिन साम्यवाद को अपनाना ही होगा. शोषणकारी शक्तियों में साम्यवाद का आज भी कितना भय है, वह एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है. मार्क्स ने ‘बुर्जुआ’ शब्द का उपयोग अनेक स्थान पर किया है. इस शब्द से उसका आशय उन लोगों से था जिन्होंने तीव्र मशीनीकरण का लाभ उठाकर, पूंजीगत निवेश-विनिवेश के माध्यम से अकूत पूंजी जमा की है. उसका उपयोग अब वे श्रमिक शोषण को बनाए रखने के लिए नए-नए रूप में कर रहे हैं. लेकिन आधुनिक शब्दकोशों में इस शब्द का अर्थ देख लीजिए, वह ‘मध्यवर्ग’ अथवा ‘शिक्षित मध्यवर्ग’ ही मिलेगा, जिसका मार्क्स की अवधारणा से कोई संबंध नहीं है.
अब यह सर्वहारा वर्ग के ऊपर है कि कब पूंजीवादी प्रलोभनों से बाहर निकलकर आमूल परिवर्तन का आवाह्न करता है.