रविवार, 22 मई 2011

करुणानिधि का भविष्य

उनकी 76 वीं फ़िल्म स्क्रिप्ट ‘पोन्नार शंकर’ फ़ुस्स साबित हुई. कुछ सप्ताह पहले रिलीज हुई यह छद्म-ऐतिहासिक फ़िल्म धड़ाम हो गयी. इसकी तुलना में उनकी पहली 25 फ़िल्म स्क्रिप्टों की बात करें, तो वे द्रविड़ियन विचारधारा को बेहतरीन तरीके से पेश करती थीं. इसमें 1952 में आयी फ़िल्म ‘पराशक्ति’ भी शामिल है. यह एक प्रकार से पिछले 50 वर्षो में तमिलनाडु के सामाजिक अनुक्रम को पलट देने के लिए चले आंदोलन के लिए घोषणापत्र जैसा रहा है.
उन्होंने तमिल सिनेमा में संवाद बतौर राजा स्थापित कर दिया.उनकी सबसे छोटी बेटी (कवयित्री) जो कि राज्यसभा की सांसद हैं, उन्हें दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में हाजरी देने को बाध्य होना पड़ा और शायद यह मामला उनके जेल जाने के बाद ही खत्म हो (अब ऐसा हो भी चुका है-सं). उन्हें पार्टी द्वारा संस्कृति सम्राज्ञी के रूप में पेश किया गया, जो सांस्कृतिक राजनीति पर प्रीमियम लगाता है. यह भी संभव था कि उन्हें केंद्र में संस्कृति मंत्री बनाया जाता.कलैगनार टीवी चैनल, जो उनके नाम पर है, बंद होने का खतरा ङोल रहा है. उनकी 79 साल की बड़ी पत्नी, जिनकी चैनल में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है, वे भी इस जाल में फ़ंसती दिख रही हैं.
यह चैनल विज्ञापन के रूप में एक लाइन लिखा करता है, वो है ‘नॉन स्टॉप कोंडाट्टम’ यानी अबाध उत्सव! उनके बड़े बेटे, जो कि केंद्रीय मंत्री हैं, अभी हाल ही में हत्या के जुर्म से बरी किये गये हैं, पर संदेह अब भी बरकरार है और ऐसा लगता है कि दक्षिण तमिलनाडु में उनकी राजनीतिक पकड़ कम हुई है.उनका छोटा बेटा, जिसे तमिलनाडु का मुख्यमंत्री बनने के लिए लंबे समय से और बड़े जतन से राजनीति में खड़ा किया गया, शायद कभी गद्दी हासिल न कर सके. उनके भांजे का छोटा बेटा भी केंद्रीय मंत्री हैं.
उनके भांजे के एक बड़े बेटे ने करोड़ों डॉलर की लागत से एक बहुत बड़ा मीडिया हाउस खड़ा किया है, जिसका तमिलनाडु के फ़िल्म उद्योग पर जबरदस्त नियंत्रण है. लेकिन सन ग्रुप प्रोपेगंडा के इस मास्टर को शायद ही कोई जगह देता है, जो गोबेल्स की उस अवधारणा को आत्मसात कर चुका है, जिसके मुताबिक प्रोपेगेंडा का सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता.उनकी पार्टी एक बार फ़िर से तमिलनाडु में जे जयललिता और एआईडीएमके के खिलाफ़ मैदान में उतरी. इस बार अप्रत्याशित रूप से जहर उगलते हुए, किसी तरह डूबती नाव को बचाने के लिए समर्थकों की टोली बनाते हुए. इन सबका परिणाम यह हुआ कि आंतरिक कलह बढ़ता गया.
वह स्वयं भी 12वीं बार विधानसभा पहुंचने की दौड़ में रह सकते थे, पर मुख्यमंत्री मुथुवेल करुणानिधि का काउंटडाउन शुरू हो चुका है. कुछ ही सप्ताह में 87 वें वर्ष में प्रवेश करने वाले इस आदमी को शायद ही कभी भय हुआ हो और आप देखें कि कैसे धीरे-धीरे उनके द्वारा खड़े किये शक्ति, धन और आकर्षण खत्म हो रहे हैं. सीएन अन्नादुरई करुणानिधि के मेंटर थे. उन्होंने 1969 में अपने मरने से थोड़ा पहले करुणानिधि से कहा था कि थांबी, तुम्हें यह जानना चाहिए कि तुम्हारे सिर पर कांटों भरा ताज है.
विविधता से भरे इस ऐक्टविस्ट के लिए उम्र कोई बंधन नहीं रही. वह पिछले 44 साल से तमिलनाडु में द्रविड़ियन राजनीति का शिल्पी रहा है. उनके दीर्घकालीन राजनीतिक वर्चस्व को देश के उन मीडिया पंडितों ने कभी वैसी तवज्जो नहीं दी, जैसा कि वे बंगाल के वामदलों के शासन के बारे में कहते आये हैं. सात दशकों में संजोया उनका राजनीतिक कैरियर अब ढलान पर है. इस दौरान उन्होंने अपनी पार्टी का भाग्य निर्माण किया, जो चुनाव चिह्न उगते हुए सूरज के ही समान है. विधायिका के 57 सालों के इतिहास में वे 19 साल तक मुख्यमंत्री रहे. अब उनका सूरज अस्त हो रहा है. लेकिन राजनीतिक उठापटक और भ्रष्टाचार के आरोपों ने कभी भी इस मंङो हुए खिलाड़ी को विचलित नहीं किया. तमिलनाडु में उनके कार्यकाल में कोई ऐसा समय नहीं रहा है जब उन पर भ्रष्टाचार के आरोप न लगे हों. उनके कभी मित्र रहे और बाद में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बने एमजी रामचंद्रन ने भ्रष्टाचार के 18 मापकों के आधार पर डीएमके से खुद को अलग किया था. यहां तक कि सरकारिया कमीशन ने भी उन पर दोष मढ़े थे. इंदिरा गांधी ने उनके मंत्रालय को बरखास्त कर दिया था. जयललिता ने वहां वार किया, जहां करुणानिधि को चोट पहुंच सकती थी. लेकिन मुथुवेल करुणानिधि ने सिसीफ़स की तरह हर मुश्किल को पीछे धकेल दिया.यह भी सत्य है कि उनके खिलाफ़ भाई-भतीजावाद की राजनीति करने का भी आरोप है.
वस्तुत उन्होंने लंबे समय तक वंशवाद का कार्ड खेला है. शुरूआत में यह लगा था कि उनके भतीजे मुरासोली मारन ही उनके लेफ्टिनेंट हो सकते हैं. इसमें वह सफ़ल भी रहे थे. इसके बाद उन्होंने असफ़लतापूर्वक अपने बड़े बेटे एमके मुथु को एमजीआर के खिलाफ़ फ़िल्मस्टार के रूप में प्रोमोट किया. उन्होंने तो यहां तक दावां किया था कि उनकी पार्टी एक ऐसे प्रतिष्ठान की तरह है, जिसमें कैडर पान की पत्ती लाते हैं, सुपारी लाने का काम वरिष्ठ नेताओं का है और वे स्वयं इस पर चूने की तरह होते थे. कुल मिलाकर जो मिश्रण तैयार होता था, उसका रंग गहरा लाल होता है. जो लोग मुथुवेल करुणानिधि के आसपास होते थे और उनके प्रति समर्पित माने जाते थे, उन पर उन्हें हमेशा संदेह बना रहा. इसी व्यक्तिगत समर्पण को कायम रखने के लिए उन्होंने अपने ही परिवार से लोगों को चुना. एक सच्चे लोकतंत्र में व्यक्तिगत राजनीतिक दीर्घजीविता एक अभिशाप की तरह है. यह वास्तविक भ्रष्टाचार है, जो लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व को राजसी अधिकार में बदल देता है, जिससे पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है और जो वंशवाद को भी विधिसम्मत ठहरा देता है.
मुथुवेल करुणानिधि की सत्ता पर पकड़ लंबे समय से रही है. एकाध दशक पहले वे पीछे हट सकते थे, अपने उद्देश्यों, उपलब्धियों और फ़ैसलों की समीक्षा करने के लिए.उनके पास पार्टी में भीष्म की तरह भूमिका निभाने का भी अवसर था. वह एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाये रह सकते थे, जिससे कि पान का रंग लाल हो जाता है. सभी पक्षों से देखें, तो उन्होंने तमिल समाज का राजनीतिकरण कर दिया. इससे निर्वाचन मंडल भ्रष्ट हो गया, नौकरशाही का कोई महत्व नहीं रहा, न्यायपालिका हाइजैक कर ली गई, मीडिया का मुंह बंद किया गया, तमिल भाषा के विकास को रोका गया.
यह एक ऐसा कार्यकाल है, जिसे ऐरक हॉब्सबाम के शब्दों में इस तरह रखा जा सकता है- एक ऐसा समूह जिसमेंएक महत्वहीन बुद्धिजीवी और जनता का मजबूत भावनात्मक सहयोग साथ-साथ है.मुथुवेल करुणानिधि और दूसरे राजनीतिज्ञों द्वारा पहले के उन कार्यक्रमों से मुंह मोड़ा गया जो जनता के हित में थे. उनकी जगह गूढ़ राजनीति की आड ली गई. ऐसी राजनीति जिसमें लोगों के आंदोलन करने के लिए कोई जगह नहीं थी. प्रशासनिक सख्ती का आलम यह रहा कि यह राज्य एक कुरुप पुलिस राज्य में बदल गया, जहां कानून न होना ही कानून बन गया.मुथेवेल करुणानिधि की उपलब्धियों के बारे में केवल यही कहा जा सकता है कि उन्होंने वास्तविक द्रविड़ियन आदर्श को पलट कर रख दिया. प्रारंभ में आंदोलन एक अलगाववादी के रूप में उत्तर के खिलाफ़ हुआ. बाद में पार्टी ने भी उत्तरी भाषा के लिए कोई जगह नहीं रखी. अलगाववाद छोड़ संसदीय राजनीति में उतरने में उन्हें करीब एक दशक लगा (1957) और फ़िर सत्ता में आने के लिए एक दशक. इस बीच केंद्र और राज्य के बीच में मतभेद की स्थिति बनी रही.तमिलनाडु हर तरह से हाशिये पर रहा. आज यह लगभग केंद्र की राजनीति को संचालित करता है. इस बीच, जो भी पार्टी केंद्रीय सत्ता में रही है, उससे इसने लिए हर तरह की सुविधाएं प्राप्त की है, जिसे हम पैकेज डील के रूप में जानते हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो इसने यह दिखाया है कि कैसे सत्ता की ब्लैक मार्केटिंग होती है और इससे कैसे लाभ उठाया जा सकता है. यह एक प्रकार से भारतीय बुजुर्आ लोकतंत्र के लिए सबक है. खैर फ़िर भी मुथवेल करुणानिधि को निराश होने की जरूरत नहीं है.लेखक चेन्नई में रहनेवाले संस्कृति आलोचक हैं.
- सदानंद मेनन
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भारत की राजनीति का अनिवार्य हिस्‍सा है लेफ्ट

अजय राय
भारत की राजनीति में लेफ्ट की हमेशा से एक अहम भूमिका रही है. लेकिन पश्चिम बंगाल और केरल विधानसभा चुनावों में हार से देश की राजनीति में पिछले 34 वर्षो में पहली बार ऐसा हुआ है, जब किसी भी बड़े राज्य में लेफ्ट सत्ता में नहीं है. यह स्थिति देश की राजनीति व्यवस्था में बड़े बदलाव के संकेत दे रही है. भारत की राजनीति का आज जो चेहरा है, उसके निर्माण में कम्युनिस्ट पार्टियों का बड़ा योगदान है. भारत के भविष्य की तसवीर काफ़ी हद तक कम्युनिस्ट राजनीति पर टिकी है. इस बात से किसी भी समझदार व्यक्ति को कोई ऐतराज नहीं होगा कि अगर भारत में कम्युनिस्ट राजनीति कमजोर होती है, तो यह देश के लिए शुभ नहीं होगा. देश में जनतांत्रिक किस्म के शासन और कल्याणकारी राज्य को जीवित रखने में कम्युनिस्ट पार्टियों ने जो भूमिका निभायी है, उसे देखते हुए उन्हें भारत के अच्छे भविष्य के लिए अनिवार्य माना जाना चाहिए. कम्युनिस्ट पार्टी आजादी के बाद से गरीबों की आवाज रही है. सरकार को लोक-हितैषी नीतियां बनाने के लिए मजबूर करने में, लेफ्ट की भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता. देश की लगभग 50 फ़ीसदी जनता गरीबी का जीवन बसर कर रही है. एक बड़ी आबादी अभी भी अनपढ़, कुपोषित, भूमिहीन और बेहाल है. इसीलिए उनकी आवाज बनने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी का मजबूत होना निहायत ही जरूरी है.
लेफ्ट को छोड़कर गरीबों के कल्याण के बारे में किसी पार्टी के पास मुकम्मल सोच नहीं है. अन्य पार्टियां गरीबों के नाम पर अपनी रोटी सेंकने के जुगाड़ में लगी रहतीं हैं. इसलिए राजनीतिक शुचिता बढ़ाने और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए देश की राजनीति में कम्युनिस्ट विचारधारा की प्रासंगिकता बनी रहेगी.
किसी देश की सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन का वहां निवास करने वाली जनता पर प्रभाव पड़ता है. पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा के साथ-साथ पूरे भारत में नये मध्य वर्ग का उदय हुआ है. इसके अलावा इसी बीच चुपके से एक नयी पीढ़ी ने भी मुख्यधारा में अपनी जगह बना ली है. पिछले 34 वर्षो के दौरान लेफ्ट के शासन वाले राज्यों में क्रांतिकारी बदलाव देखे गये हैं. देश में सबसे पहले भूमि सुधार पश्चिम बंगाल और केरल में हुए. लेकिन अभी भी कई राज्यों में भूमि सुधार दूर की कौड़ी बनी है. इन दोनों राज्यों में न तो बिहार, यूपी ओद राज्यों जैसी गरीबी है और न ही महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश ओद राज्यों जैसी भुखमरी है. लेकिन लेफ्ट शासित राज्यों में इन सुधारों को अंजाम दिया जा चुका है. जनता को लंबे समय से इनका फ़ायदा भी मिल रहा है.
नयी पीढ़ी के लिए ये क्रांतिकारी सुधार कोई मायने नहीं रखते हैं. उनका मानना है कि ये तो हमें जन्मसिद्ध अधिकार के तौर पर प्राप्त हुआ है. नयी पीढ़ी नये सुधार की मांग करती है. जो उसकी आंखों के सामने से होकर गुजरे. इसी नयी मांग को, यानी ‘व्हाट नेक्स्ट’ की पूर्ति करने में कम्युनिस्ट पार्टी विफ़ल साबित हुई है. लेफ्ट को देश की राजनीति में वापसी करनी है तो इस मुद्दे पर गहराई से सोचना होगा. कम्युनिस्ट पार्टी का शासन हमेशा से ही साथ-सुथरा रहा है. आज तक इसके किसी नेता पर भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा है. न ही करुणानिधि और मायावती की तरह किसी कम्युनिस्ट नेता के व्यक्ति‍गत व्यवहार में परिवर्तन आया है.
आज देश बड़े बदलाव के दौर से गुजर रहा है. बढ़ती आबादी और शिक्षा के प्रसार से रोजगार की मांग में तेजी आयी है. लेकिन रोजगार उद्योगों के विकास पर निर्भर करता है. कम्युनिस्ट राजनीति यहीं मात खा गयी. सिंगूर और नंदीग्राम का भूत उसके सिर पर सवार हो गया. वामपंथियों को समझना होगा कि जो बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, वे अच्छी नौकरी की भी मांग करेंगे. और उनकी इस जरूरत को पूरा करने की जिम्मेदारी सरकार पर है. लेकिन जमीन कौन देगा? इसके लिए कोई कारगर नीति होनी चाहिए. भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए यह बहुत बड़ा मसला है. इसके लिए गहन सोच विचार और सहयोग करने की जरूरत होती है. कम्युनिस्ट कैडरों से यहीं चूक हुई और ममता एक विकल्प के तौर पर नजर आयीं. लोकतंत्र में मजबूत विकल्प के आने के बाद किसी दल का सत्ता पर बना रह पाना लंबे समय तक मुमकिन नहीं रहता. खासकर ऐसी स्थिति में जब कोई दल या सरकार अपनी नीतियों में समय के हिसाब से परिवर्तन करने में सफ़ल न हो पा रही हो. बंगाल में पार्टी कैडर को लोगों को विश्वास में लेकर पार्टी नेताओं को समझाना चाहिए था कि उद्योगों के लिए कृषि योग्य जमीन के बजाय उद्योग के लिए बंजर जमीन का इस्तेमाल किया जाये. अगर ऐसा होता तो स्थिति कुछ अलग हो सकती थी. लेकिन पार्टी कैडर में पिछले 34 वर्षो में भ्रष्टाचार और निकम्मापन व्याप्त हो गया. जिसे पार्टी ने भी सुधारने का प्रयास नहीं किया.
अब बंगाल की जनता ने लेफ्ट के टूटे वायदों को पूरा करने के लिए नया निजाम चुना है. ममता बनर्जी की यात्रा कितनी लंबी होगी यह तो आने वाला वक्त बतायेगा. लेफ्ट की इस हार को विचारधारा की नही बल्कि राजनीति की विफ़लता कहना ज्यादा उपयुक्त होगा. लोकतंत्र में अपने साधन के अनुसार विचारों से तालमेल नहीं रखने से विचारधारा पर संकट आने लगता है. पार्टी इससे सीख लेकर इसमें सुधार कर सकती है. क्योंकि, पश्चिम बंगाल में नौ फ़ीसदी वोटों के अंतर से हार हुई है. इस अंतर को पाटना कोई बड़ी बात नहीं होती है. वहीं केरल में एक फ़ीसदी से भी कम वोटों के अंतर से पार्टी हारी है. यहां वोट धर्म के आधार पर बंटे हैं, जो चिंता की बात हो सकती है. पिछले तीन दशक से अधिक समय से पश्चिम बंगाल में लेफ्ट को विपक्ष में रहने का अनुभव नहीं है. लेफ्ट के लिए बंगाल में विपक्ष में रहना आसान नहीं होगा. पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा से बचने की जरूरत है. लेकिन हिंसा का स्तर शासन के वातावरण पर निर्भर करेगा.
कभी भारत की राजनीति और बौद्धिक जीवन में कम्युनिस्ट विचारधारा का बोलबाला था. लेकिन आज मध्य वर्ग की युवा पीढ़ी को कम्युनिस्ट अपनी ओर आकर्षित करने में विफ़ल हैं. पहले समाज के हर स्तर पर, शहर, कस्बों, गांवों के पढ़े-लिखे लोगों का लेफ्ट के साथ भावनात्मक जुड़ाव रहता था. लेकिन आज के युवाओं की सोच में परिवर्तन आ गया है. एक लाख मासिक सौलरी पाने वाले युवाओं के रहन-सहन का तरीका तेजी से बदल रहा है. उन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा आकर्षित नहीं कर रही है. कम्युनिस्टों से नयी पीढ़ी का अलगाव चिंता की बात है. पार्टी को इस मुद्दे पर गहन विचार करना होगा, नहीं तो बौद्धिक शक्ति‍ के केंद्र के तौर पर पहचाने जाने वाले दल की शक्ति‍ क्षीण होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा.
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शनिवार, 21 मई 2011

फासीवाद, फैज़ और गांधी

फतह मोहम्मद मलिक

अनुवाद और प्रस्तुति : शकील सिद्दीकी
दूसरे महायुद्ध के दौरान फासीवाद के बढ़ते खतरे के चलते ब्रिटिश औपनिवेशिक भारतीय सेना में कई लेखक व बुद्धिजीवी शामिल हुए थे। प्रसिद्ध पाकिस्तानी कवि फैज अहमद फैज भी उनमें थे। फैज का यह कदम आज शताब्दी वर्ष में भी विवाद का विषय बना हुआ है। अज्ञेय के ब्रिटिश सेना में शामिल होने के संदर्भ में भी इस लेख को देखा जा सकता है। – संपादक

फैज की अपार लोकप्रियता व सम्मान के बावजूद उनके द्वारा लिखे गए कुछ महत्वपूर्ण निर्णयों को लेकर प्रश्न उठते रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में ब्रिटिश सेना में शामिल होने का फैसला भी इनमें से एक है। सुप्रसिद्ध कथाकार तथा प्रगतिशील आंदोलन के सहभागी अहमद नदीम कसिमी ने खासी चर्चा का विषय बने अपने एक लेख में इस ओर विशेष रूप से ध्यान खींचा है। फैज के ब्रिटिश सेना में शामिल होने के फैसले को लेकर कुछ अन्य लोगों ने भी आपत्तियां उठाई हैं। प्रस्तुत लेख इन आपत्तियों-आशंकाओं के उन्मूलन का उद्देश्य लेकर ही लिखा गया है। प्रोफेसर फतेह मुहम्मद मलिक पाकिस्तान के चर्चित वामपंथी विचारक व रचनाकार हैं। उनका यह लेख अखबारे उर्दू इस्लामाबाद के फरवरी, 2011 के अंक में प्रकाशित हुआ है। आपत्तियों का उत्तर देते हुए मलिक ने फैज की विख्यात नज्म ‘सियासी लीडर के नाम’ का विशेष उल्लेख किया है, साथ ही लंदन से प्रकाशित वर्डिक्ट ऑफ इंडिया का भी। लेख में दावा किया गया है कि यह नज्म दूसरे महायुद्ध के दौरान हिटलर व जापान की आक्रामकता के प्रति महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को लक्षित करके लिखी गई है।
यह नज्म 1952-54 के बीच लिखी गई जब फैज रावलपिंडी साजिश केस में हैदराबाद तथा अन्य जेलों में बंद थे। यह नज्म दस्तेसबा में संकलित है। लेख में गांधीजी के हिटलर व जापान के प्रति उदार दृष्टिकोण से कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद की तीखी असहमति को रेखांकित करते हुए इस नज्म को मौलाना आजाद के दृष्टिकोण से प्रभावित बताया गया है। जाहिर सी बात है ऐसे में गांधी जी को व्यंग्य का निशाना बनना ही था। स्वयं प्रो. मलिक ने गांधीजी को फासिस्ट व तानाशाह प्रवृत्ति का इंगित करते हुए विमर्श को तीखा बनाने का प्रयास किया है। बहरहाल लेख फैज की एक महत्वपूर्ण नज्म के ऐतिहासिक संदर्भों को तो खोलता ही है साथ ही स्वतंत्रता पूर्व के एक अति गंभीर दौर के बारे में कुछ सवाल भी खड़े करता है। फैज के जन्म शताब्दी वर्ष में लेख की विशिष्ट प्रासंगिकता है। बावजूद इसके कि लेख में उल्लिखित कुछ तथ्यों को इतिहास ने गलत सिद्ध कर दिया है। लेख में उल्लिखित गांधी जी व कांग्रेस के चरित्र से भी असहमतियां हो सकती हैं। – श.सि.
पिछले दिनों इस्लामाबाद में प्रगतिशील लेखक संघ के चंद शेष रह गए लोगों में इस प्रश्न पर गरमागरम बहस रही कि उनके रफीक व रहनुमा ने ब्रतानिवी फौज की मुलाजमत क्यों इख्तियार की थी। अहमद नदीम कसिमी ने मासिर (मार्च 2001) में प्रकाशित एक लेख में फैज पर यह इल्जाम लगाया था कि साम्राज्यवाद विरोधी होते हुए भी फैज ने साम्राजी सेना में शामिल होना स्वीकार कर लिया था, अब्दुलाह मलिक ने फैजको इस इल्जाम से बरी करने की इच्छा में ‘फैज और ब्रतानिवी फौज’ शीर्षक से एक लंबा लेख लिखा। मैं सोचता हूं कि फैज आखिर ब्रिटिश इंडियन आर्मी में क्यों शामिल हुए थे का जवाब एक-दूसरे सवाल में पोशीदा है कि फैज ने ब्रिटिश सेना का आला ओहदा क्यों छोड़ दिया था? कर्नल फैज अहमद फैज ने अपनी जिंदगी ही में इन दोनों सवालों का तसल्ली बख़्श जवाब दे रखा था। ब्रतानिवी हिंद फौज में ऊंचे पद से त्यागपत्र देने के फैसले पर रोशनी डालते हुए फैज बताते हैं:
”जब जंग खात्मे को पहुंची और आजादी की मंजिल करीब आने लगी तो इधर ब्रतानिवी हुकूमत ने हिंदुस्तान के संवैधानिक भविष्य के मंसूबे बनाने शुरू किए और उधर पाकिस्तान और मुस्लिम लीग की तहरीक उरूज पर पहुंची। मैं उन दिनों रावलपिंडी में था, जो उत्तरी कमान का मुख्यालय था। मैं उस इलाके के जनसंपर्क की निगरानी कर रहा था और उनकी खुफिया बैठकों में भी मुझे और चंद हिंदुस्तानी अफसरों को शामिल कर लिया जाता था। इससे दो-तीन बातें सामने आईं:
एक, इस जंग के बाद अंग्रेज और अमेरिकी अब उत्तरी खतरे या सोवियत रूस से जंग की पेश कदमियां कर रहे थे।
दो, उन्हें एक आजाद और स्वतंत्र पाकिस्तान का वजूद में आना गंवारा नहीं।
तीन, अगर हिंदुस्तान को आजादी मिल भी जाए या हिंदुस्तान तक्सीम भी हो जाए तो फौज किसी सूरत तक्सीम नहीं होगी और उसकी कमान अंग्रेजों के हाथ में ही रहेगी।
इसका सबसे बड़ा सुबूत उस वक्त मिला जब वायसराय लार्ड वेवेल 1946 के मार्च या अप्रैल में पिंडी अपना फौजी दरबार करने आए। उत्तरी खतरे के काल्पनिक भय की बिना पर साम्राज्यवादी हिंदुस्तान को रूस के खिलाफ ठिकाना बनाने की फिक्र में थे। रूस का समाजवादी राष्ट्र उनके दिल में कांटे की तरह खटक रहा था। उन्होंने उसे मटियामेट करने के मंसूबे बनाने शुरू कर दिए थे। लिहाजा हिंदुस्तान को मुकम्मल तौर पर आजाद करने का सवाल ही नहीं पैदा होता।
हमने जब यह सूरते हाल देखी और सुनी तो भौंचक्के रह गए। तोता चश्मी का मुहावरा सुना था मगर उसका अमली रूप देखकर हमारे पांव तले से जमीन खिसक गई। कल तक अंग्रेज और अमेरिका रूस के साथ शाना ब शाना हिटलर, टोजो और मुसोलिनी के खिलाफ मैदान में थे और आज ये रूस के खिलाफ साजिशों में मशगूल हो गए। हमने ठान ली कि हमारी जंग अब नए दौर में दाखिल हो गई है। हिंदुस्तान की मुकम्मल आजादी और पाकिस्तान के कयाम की जद्दोजहद में हमारा ईमान ज्यादा पुख़्ता हो गया। समाजवादी रूस के खिलाफ नाहंजारों की साजिशों को नंगा करना भी जरूरी हो गया था। हमारे लिए संघर्ष का अर्थ तो नहीं बदला मगर मैदाने अमल और हमारी मंजिल बदल चुकी थी। हम अपने वतन, अपने उसूलों और विश्व समाजवाद से गद्दारी नहीं कर सकते थे। मैंने पूछा, फिर?
फैज साहब घड़ी की सुई घुमाते हुए बोले, ”फिर फौज से कूच का वक्त आ पहुंचा।’’ (हम कि ठहरे अजनबी—पृ.77-79) फैज के इस बयान से यह हकीकत रो$जे रौशन की तरह साफ हो जाती है कि उन्होंने ब्रतानिवी हिंद में फौज के ऊंचे ओहदे को छोडऩे का फैसला नजरियाती बुनियादों पर किया था। जब उन पर यह बात साबित हो गई कि अंग्रेज हुकूमत पाकिस्तान के कय़ाम की मखालिफ है और वह कयामे पाकिस्तान को रोकने के लिए सर तोड़ कोशिशों में मसरूफ है, कल के दोस्त आज दुश्मन बन गए हैं और सरमायापरस्त दुनिया और समाजवादी दुनिया के बीच एक सर्द जंग की सूरते हाल यकीनी होकर रह गई है तो उन्होंने अपने सुख सुविधा का ख्याल किए बगैर फौजी ओहदे से त्यागपत्र देकर पाकिस्तान टाइम्स दैनिक का संपादक होना स्वीकार कर लिया। यह वह जमाना था जब कायदे आज़म के हुक्म पर मियां इफ्तिखार उद्दीन कयामे पाकिस्तान से पहले ही पाकिस्तान टाइम्स शुरू करने के प्रबंध में व्यस्त थे। यों फैज अहमद फैज ने अपने राष्ट्रीय विचार तथा अंतरराष्ट्रीय समाजवाद के लक्ष्यों की खातिर फौजी कर्नल की जिंदगी की सुविधाओं को तज दिया और एक पत्रकार की कठिनाइयों भरी गरीब दुनिया में रहना स्वीकार किया। ब्रतानिवी हिंद की फौज में सम्मिलित होने की वजह भी सिर्फ यही थी। डॉक्टर अयूब मिर्जा ने एक गुफ्तगू के दौरान जब अपनी इस उलझन का बयान किया जिसमें अहमद नदीम कासमी भी शामिल थे, तो फैज ने कहा था:
”भई इसमें कोई उलझन की बात नहीं है, हमने फौज इसलिए ज्वायन की थी कि फासिस्ट ताकतों के खिलाफ सरगर्मेअमल हों।’’
यह वह जमाना था जब जापानी फासीवाद के तारीक साये पूरे एशिया को अपनी लपेट में लेने को बेताब थे और जर्मनी फासीवाद ने योरोप से बढ़ और फैलकर साम्यवादी रूस पर अपना प्रभुत्व कायम करने के स्वप्न को पाने की दिशा में व्यावहारिक कोशिशें शुरू कर दी थीं। ज्यों ही हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला किया समाजवाद समर्थक हिंदुस्तानी बुद्धिजीवियों ने फासीवाद के खिलाफ पूंजीवाद समर्थकों के युद्ध को ‘यह जंग है, जंगे आजादी’ कहकर अपनी जंग मान लिया तो फैज भी इन बुद्धिजीवियों में से एक थे।
फौजी सेवा के दौरान फैज का दृष्टिकोण और कार्यपद्धति सैद्धांतिक थे, लाभपरक हर्गिज नहीं। अगर हम उस काल में कही गई फैज की नज्मों को अंदरूनी शहादत (साक्ष्य) के तौर पर पढ़ें तो बात बहुत साफ हो जाती है।
”तीरगी है कि उमड़ती ही चली आती है’’
”फिर नूरे सहर दस्ते गरीबाँ है सहर से’’
”मेरे हम दम मेरे दोस्त’’
और इन सबसे बढ़कर नज्म ‘सियासी लीडर के नाम’ में फैज का न$जरियाती ईमान आईने की मानिंद रौशन है। खुद फैज ने एक जगह लिखा है कि नज्म ‘सियासी लीडर के नाम’ सियासी लीडर से मुराद महात्मा गांधी है। अगर हम इस नज्म को मौलाना अबुल कलाम आजाद की किताब इंडिया विंस फ्रीडम के छठे अध्याय ‘अनइजी इंटरवल’ में बयान की गई ऐतिहासिक सच्चाइयों की रौशनी में समझने की कोशिश करें तो उस दौर में फैज के इंकिलाबी, सियासी दृष्टिकोण से बखूबी वाकिफ हो सकेंगे। उचित यह है कि हम इस सियासी नज्म को एक बार फिर पढ़ें और ऐतिहासिक सच्चाइयों की रौशनी में समझें:
सियासी लीडर के नाम
सालहासाल यह बे आसरा जकड़े हुए हाथ
रात के सख्त व स्याह सीने में पैवस्त रहे
जिस तरह तिनका समंदर से हो सरगर्म सते$ज
जिस तरह तीतरी कुहसार पे यलगार करे
और जब रात के संगीन व स्याह सीने में
इतने घाव हैं कि जिस सिम्त नजर आती है
जा बजा नूर ने एक जाल सा बुन रखा है
दूर से सुबह की धड़कन की सदा आती है
और कुछ भी तो नहीं पास, यही हाथ तो है
तेरा सरमाया, तेरी आस यही हाथ तो है
तुझको मंजूर नहीं गल्बा-ए-जुल्मत, लेकिन
तुझको मंजूर है ये हाथ कलम हो जाए
और मशरिक की कमींगह में धड़कता हुआ दिन
रात की आहनी मय्यत के तले दब जाए
यह नज्म एक ऐसे जमाने में वजूद में आई जब हिटलर ने पूरे योरोप पर प्रभुत्व पाने के संकल्पों की खातिर समाजवादी रूस पर हमला कर दिया था।
हिटलर के इस कदम ने पूंजीवादी पश्चिमी जगत और समाजवादी रूस को फासीवाद का रास्ता रोकने के उद्देश्य में संगठित कर दिया था। हिटलर का पल्ला भारी नजर आने लगा था और उधर दक्षिणी एशिया पर जापानी फासीवाद का आतंक फैलता व बढ़ता नजर आ रहा था। कुल हिंद कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद यह जानकर हैरान ओ परेशान थे कि गांधीजी की कियादत में कांग्रेस की कार्यसमिति खुलकर फासीवाद की हिमायत में सक्रिय थी। मौलाना अबुल कलाम आजाद फासीवाद के विरोध में एकदम अकेले थे। जवाहर लाल नेहरू एक हद तक मौलाना के दृष्टिकोण से सहमत थे मगर गांधीजी के प्रभाव में आकर मौलाना की हिमायत में जबान खोलते डरते थे।
यह बात मौलाना आजाद की सत्य प्रियता, संवेदनशीलता और अपनी बात कहने की साहसिकता का मुंह बोलता सुबूत है कि उन्होंने गांधी जी की फासीवाद परस्ती के खिलाफ खुलकर आवाज उठाई। कुल हिंद कांग्रेस कमेटी के इलाहाबाद अधिवेशन (29 अप्रैल से 2 मई, 1942) की रूदाद का हवाला देते हुए मौलाना ने अपनी आत्मकथा इंडिया विंस फ्रीडम में लिखा है:
”मैंने उन लोगों को सख्त आलोचना का शिकार बनाया जो इस खाम ख्याली में मुब्तिला थे कि जापान हिंदुस्तान को अंग्रेजों से छीनकर आजाद कर देगा।
कौमी हित का पहला तकाजा यह है कि हम मौजूदा गैर मुल्की आकाओं को नए गैर मुल्की आकाओं से बदलने का ख्याल अपने दिल से निकाल दें, ब्रतानिया से अपने तमामतर मतभेदों के बावजूद महाद्वीप पर जापान की संभावित आक्रामकता का डट कर मुकाबला करें और जापानी फासिसिज्म का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष स्वागत हरगिज न करें।’’
महात्मा गांधी को इस तर्क पद्धति से कड़ी असहमति थी, उनके प्रभाव में कांग्रेस के बड़े नेता फासीवाद की हिमायत में सक्रिय थे। चुनांचे मौलाना आजाद व्यक्तिगत तौर पर गांधीजी की सेवा में हाजिर हुए और उन्हें अपना हमनवा बनाने की यों कोशिश की:
”यह मेरे ईमान का हिस्सा है कि जापानियों को सरजमीने हिंद पर कदम रखने से रोकूं। यह हमारा पवित्र कत्र्तव्य है कि हम तमाम साधनों को उपयोग में लाकर जापानी आक्रामकता का हर मुमकिन विरोध करें। मैं ब्रितानवी साम्राज्य की जगह जापानी फासीवाद को ला बिठाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। यह जानकर मैं हैरत व ताज्जुब में पड़ गया कि गांधीजी पर मेरे तर्कों का जरा भी प्रभाव नहीं पड़ा। महात्मा जी ने बड़े निश्चय व स्पष्टता के साथ ऐलान किया कि जापानी हिंदुस्तान में हमारे दुश्मन बन कर नहीं आएंगे। मुझे जापानियों के वायदों पर बिल्कुल एतबार नहीं आया। इसके बरक्स मैं इन अंदेशों में मुब्तिला हो गया कि अगर खुदा ना ख़्वास्ता जापानियों ने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से निकाल कर यहां खुद अपने कदम जमा लिए तो फिर हमारी तहरीके आजादी का हश्र क्या होगा?’’
अपने इन अंदेशों को मौलाना आजाद ने कुल हिंद कांग्रेस कमेटी के सम्मेलन में उत्तेजक सवालों के रूप में पेश किया मगर यह जानकर हैरत$जदा रह गए कि:
”लंबे चौड़े बहस-मुबाहिसे के बाद मेम्बरान इस नतीजे पर पहुंचे कि हमें गांधीजी की समझदारी (मत) पर मुकम्मल भरोसा करना चाहिए। अगर गांधीजी के नेतृत्व पर हमारा पुख्ता यकीन कायम रहा तो वह मौजूदा और आइंदा मुश्किलात का कोई न कोई हल जरूर निकाल लेंगे…गांधीजी के दृष्टिकोण से मेेरे इस भरपूर मतभेद का नतीजा उस वक्त सामने आया जब महात्मा जी ने मुझे एक खत के जरिए यह पैगाम दिया कि अगर कांग्रेस यह चाहती है कि मैं (गांधी) तहरीके आजादी का नेतृत्व करूं तो फिर आप कांग्रेस की सदारत से त्याग पत्र देने के साथ-साथ कार्यसमिति की सदस्यता से भी मुक्त हो जाएं।’’ (पृ.स.72-78)
महात्मा गांधी का यह खत सात जुलाई सन् 42 को सुबह सवेरे मौलाना आजाद को पहुंचाया गया। इस नादिर शाही हुक्म पर मुझे वर्डिक्ट ऑफ इंडिया के ब्रितानिवी लेखक ब्योरिली निकल्सन याद आते हैं जिन्होंने अपनी किताब में पहली बार गांधीजी और हिटलर के चिंतन व व्यवहार में और कांग्रेस व नाजी पार्टियों की रणनीति व रणनीतिक व्यवहार में गहरी समानता की निशानदेही की थी। पहली बार 1944 में लंदन से प्रकाशित इस पुस्तक में लेखक ने महात्मा गांधी और इंडियन नेशनल कांग्रेस पर जो अध्याय लिखा है उसका शीर्षक ‘हेल हिंदू’ है। यहां नाजियों के लोकप्रिय नारे से अर्थ की समानता ही नहीं बल्कि लेखक ने निश्चयपूर्वक लिखा है: ”यहां हमें गांधी से बतौर व्यक्ति कोई सरोकार नहीं है। यहां हम उनकी पैदा करदा फासिस्ट संस्था कांग्रेस के चरित्र से बहस कर रहे हैं। यह संगठन अपने तानाशाह महात्मा गांधी के कोड़े के जरा से कंपन पर निष्ठापूर्वक सक्रिय हो जाता है। कांग्रेस हमारे समय की उन्नत और सौ फीसद खालिस फासिस्ट संगठन है। पहला, यह कि यह सैद्धांतिक तौर पर एक फासिस्ट संगठन है, दूसरा, यह कि व्यवहारिक रूप से यह फासिस्ट संस्था है। यह कि गांधी तानाशाही का दूसरा नाम है। तीसरा, यह कि यह संस्था अपने फासिस्ट होने का खुला ऐलान करने से संकोच नहीं करती… 1941 में जर्मन रेडियो ने हिंदुस्तान के लिए एक विशेष प्रसारण में घोषणा की थी कि जर्मन जनता महात्मा गांधी का उतना ही सम्मान करती है जितना कि एडाल्फ हिटलर का। महान नेता हिटलर के भी वही सिद्धांत हैं जो महात्मा गांधी के। एक निष्पक्ष ब्रितानिवी बुद्धिजीवी की यह टिप्पणी महात्मा गांधी की फासीवादी दोस्ती और इंडियन नेशनल कांग्रेस पर उनकी तानाशाही के प्रभाव में कांग्रेस की फासिस्ट कार्य पद्धति का खुला सुबूत है।’’ (पृ.सं.161-165)
मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कालांतर में महात्मा गांधी के फासिस्ट ख्यालात और एकाधिकारवादी कार्य पद्धति को निशाना बनाया है, वह फैज की नज्म ‘सियासी लीडर के नाम’ में भी बड़े हसीन और दिलनशीं अंदाज में मौजूद है। पहले बंद में शायर ने गुलाम, दमित और बंदी अवाम की सालहासाल पर फैली हुई जद्दोजहद को जिस अनुभूति परकता और संवेदनशीलता से प्रस्तुत किया है, वह आधुनिक शायरी में अपनी मिसाल आप है।
सल्हा साल ये बे आसरा जकड़े हुए हाथ
रात के सख्त व स्याह सीने में पैवस्त रहे
जिस तरह तिनका समंदर से हो सरगर्म सतेज
जिस तरह तीतरी कुहसार पे यलगार करे
और अब रात के संगीन व स्याह सीने में
इतने घाव हैं कि जिस सिम्त नजर जाती है
जा-ब-जा नूर ने एक जाल सा बुन रखा है
दूर से सुबह की धड़कन की सदा आती है
तिनकों की समंदर से जंग में साबित कदमी और तीतरियों की राहत की परवाह किए बगैर अवाम की दृढ़ निश्चयता डेढ़ सदी का किस्सा है, दो-चार बरस की बात नहीं। इस इंकिलाबी जद्दोजहद के नतीजे में रात की सेना पराजित होती नजर आती है। रात का लिबास फट चुका है और जा-ब-जा सुबह-सवेरे का नूर अपनी झलक दिखा रहा है और सुबहे आजादी की धड़कन की सदाएं सुनाई देने लगी हैं। मगर त्रासदी यह है कि महात्मा गांधी आजादी की भोर की राह हमवार करने की बजाए ‘आकाओं की तब्दीली’ का उसूल अपना कर थक हार कर पसपा होते हुए ब्रितानिवी साम्राज्य की जगह एक नए ताजा दम जापानी साम्राज्य का स्वागत करने की तैयारियों में मसरूफ हैं। नज्म के दूसरे और आखिरी बन्द में फैज बड़ी दर्दमंदी व गहरे दुख के साथ महात्मा गांधी को संबोधित करते हैं:
तुझको मंजूर नहीं गल्बाए-जुल्मत लेकिन
तुझको मंजूर है ये हाथ कलम हो जाएं
और मशरि$क की कमीं गह में धड़कता हुआ दिल
रात की आहनी मय्यत के तले दब जाए।
यह अजीब संयोग है कि महात्मा गांधी को संबोधित करके फैज ने जो अटल और आतशी सवाल उठाया था, आधी सदी बाद उद्घाटित होने वाले तथ्यों के मुताबिक यही सवाल मौलाना अबुल कलाम आजाद ने ऑल इंडिया कांग्रेस की वर्किंग कमेटी के सदस्यों के सामने भी उठाया था। उनसे मायूस होकर महात्मा गांधी ने इस सवाल पर तर्कों को दरकिनार करते हुए बहस करने से इंकार कर दिया था और वर्किंग कमेटी के सदस्यों ने बुद्धि व तर्क से काम लेने के बजाए गांधीजी की तानाशाही के सामने सर झुका दिए थे।
फैज की इस नज्म को हमारे प्रगतिशील और रौशन ख्याल बुद्धिजीवियों ने इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश कभी नहीं की। यही वजह है कि अहमद नदीम कासिमी ब्रितानिवी फौज में फैज के शामिल होने को सही संदर्भों में नहीं देख पाए। तथ्य यह है कि फैज एक सैद्धांतिक जंग में बहादुरी की दाद देने के जज़्बे से ब्रिटिश फौज में शामिल हुए थे और सूरज की रौशनी-सी सच्चाई से वाकिफ होते ही सैद्धांतिक आधार पर ही इस फौज के आला ओहदे से त्याग पत्र दे दिया था।
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कारपोरेट समाजवाद का नंगा नाच

पी. साईनाथ

यह आलेख कानूनी जामे के भीतर जारी सरकारी धन की लूट के एक भयावह किस्से का खुलासा करता है। जिस दौर में भ्रष्टाचार और काले धन की चर्चा जोरों पर है इस लूट पर मीडिया और राजनैतिक वर्ग की चुप्पी इस नवसाम्राज्यवादी समय में सत्ता वर्ग और पूंजीपतियों की नाभिनालबद्धता की ओर साफ इशारा करती है ।

भारत सरकार ने कारपोरेट जगत के आयकर का 2005-2006 से 2010-2011 के बीच के बजटों में 3,74,937 करोड़ रुपया माफ कर दिया। यह रक़म 2 जी घोटाले के दुगने से भी ज्यादा है। यह राशि हर साल लगातार बढ़ती गयी है, जिसके आंकड़े उपलब्ध हैं। 2005-2006 में 34,618 करोड़ रुपये का आयकर माफ कर दिया गया था, हालिया बजट में यह आंकड़ा है : 88,263 करोड़, यानि कि 155 फीसदी की बढ़त! इसका मतलब यह हुआ कि देश औसतन रोज कारपोरेट जगत का 240 करोड़ रुपये का आयकर माफ कर रहा है। विडंबना यह कि वाशिंगटन स्थित ग्लोबल फाइनेंशियल इंटेग्रिटी (वैश्विक वित्तीय ईमानदारी) की एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग इतनी ही राशि औसतन रोज काले धन के रूप में देश से बाहर भी जा रही है।

88,263 करोड़ रुपये की यह धनराशि भी केवल कारपोरेट आयकर में दी गयी माफी को इंगित करती है। इस आंकड़े में जनता के एक बड़े हिस्से को ऊंची छूट की सीमाओं के कारण हो रहे नुकसान की राशि शामिल नहीं है। इसमें वरिष्ठ नागरिकों या महिलाओं (जैसा कि पिछले बजटों में प्रावधान था) के लिए कर की ऊंची छूट सीमा के चलते होने वाले नुकसान भी शामिल नहीं हैं। यह केवल कारपोरेट जगत के बड़े खिलाडिय़ों को दी जा रही आयकर राहत है।

प्रणव मुखर्जी ने पिछले बजट में जहां कारपोरेट जगत के लिए यह विशाल धनराशि माफ कर दी वहीं कृषि के बजट से हजारों करोड़ रुपये काट लिए। जैसा कि टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल सांइसेज के आर रामकुमार बताते हैं, इस क्षेत्र में कुल वास्तविक खर्च 5,568 करोड़ रुपये कम कर दिया गया। कृषि क्षेत्र के भीतर सबसे ज्यादा कमी कृषि क्षेत्र (फार्म हस्बेंडरी) में की गयी जिसके बजट में 4,477 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गयी, जिसका मतलब अन्य चीजों के अलावा विस्तार सेवाओं की लगभग मृत्यु है। दरअसल आर्थिक सेवाओं के भीतर सबसे ज्यादा कटौती कृषि और इससे जुड़ी सेवाओं में की गयी है।

कपिल सिब्बल भी सरकार की आय में होने वाले इस नुकसान को केवल कल्पित नहीं कह पाते। इसकी वजह बिल्कुल साफ है कि हर बजट में ये आंकड़े ‘आय में नुकसान का विवरण’ नामक तालिका में अलग से बिल्कुल स्पष्ट रूप में सूचीबद्ध किये जाते हैं। अगर हम इस कारपोरेट कर्जा माफी, सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्कों में दी गयी राहत (इसका सबसे ज़्यादा लाभ भी समाज के धनी तबके और कारपोरेट जगत को ही मिलता है) से होने वाली आय में नुकसान को जोड़ दिया जाय तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते हैं। उदाहरण के लिए यदि यह देखा जाय कि सीमा शुल्क पर सबसे ज़्यादा छूट किन चीजों पर दी जा रही है तो वे हैं ‘सोना और हीरा’। अब ये आम आदमी या आम औरत की चीजें तो नहीं हैं। लेकिन हालिया बजट में इन चीजों पर दी गयी छूट के कारण सरकारी आय को हुआ नुकसान सबसे ज़्यादा है। यह राशि है 48,798 करोड़ रुपये! यह राशि सार्वजनीन लोक वितरण प्रणाली के लिए आवश्यक धनराशि की आधी है। इसके पहले के तीन सालों में सोने, हीरे और दूसरे आभूषणों पर सीमा शुल्क में दी गयी छूट से सरकारी खज़ाने को हुआ कुल नुकसान था – 95, 675 करोड़!

जाहिर तौर पर भारत में निजी पूंजीपतियों के फायदे के लिए सरकारी खजाने की हर लूट गरीबों की भलाई के लिए ही होती है। आपको तर्क दिया जायेगा कि सोने और हीरे में यह बंपर छूट भूमंडलीय आर्थिक संकट के दौर में गरीब कामगारों की नौकरी बचाने के लिए दी गयी थी। क्या सरोकार! लेकिन बस इतना कि इसने कहीं भी एक भी नौकरी नहीं बचाई। गुजरात में इस उद्योग में लगे तमाम कामगार इसके डूबने पर बेरोजगार होकर सूरत से अपने घर गंजम लौट आये। बचे हुओं में से कुछ ने निराशा में अपनी जान दे दी। वैसे भी उद्योग जगत पर यह अनुग्रह 2008 के संकट के पहले से ही जारी है। महाराष्ट्र के उद्योगों ने केंद्र के इस ‘कारपोरेट समाजवाद’ से ख़ूब कमाई की है। इसके बावज़ूद 2008 के संकट के पहले के तीन वर्षों में उस राज्य में कामगारों ने प्रतिदिन औसतन 1,800 के करीब नौकरियां गवाईं हैं।

आइये बज़ट की ओर लौटें – इसमें एक और मद है ‘मशीनरी’ जिसमें सीमा शुल्क की भारी छूट दी गयी है। निश्चित रूप से इसमें बड़े कारपोरेट अस्पतालों द्वारा आयात किये जाने वाले अति आधुनिक चिकित्सा उपकरण भी शामिल हैं जिन पर लगभग कोई ड्यूटी नहीं लगती। अरबों के इस उद्योग में अन्य छूटों के अलावा यह लाभ हासिल करने के पीछे दावा तीस प्रतिशत शैय्याओं को गरीब लोगों के लिए मुफ्त उपलब्ध कराने का है – सब जानते हैं कि वास्तव में ऐसा होता कभी नहीं। इस तरह की छूट के चलते सरकारी खजाने को लगने वाले चूने की कुल राशि है -1,74,418 करोड़! और इसमें निर्यात ऋण के रूप में दिये जाने वाली राहतें शामिल नहीं हैं।

उत्पाद शुल्क में छूट दिये जाने के पीछे यह दावा किया जाता है कि इस तरह गंवाई हुई राशि के चलते उपभोक्ताओं को उत्पाद कम कीमत में उपलब्ध हो जाते हैं। लेकिन इस बात का कोई सबूत उपलब्ध नहीं कराया जाता कि ऐसा वास्तव में होता भी है। न तो बजट में, न ही कहीं और। ( यह तर्क आजकल तमिलनाडु में सुनाई दे रहे इस दावे की ही तरह है कि 2 जी घोटाले में कोई लूट नहीं हुई, जो पैसा गबन हुआ उससे उपभोक्ताओं को सस्ती काल दरें उपलब्ध कराई गयीं।) लेकिन जो स्पष्ट है वह यह कि उत्पाद शुल्कों की माफी का सीधा फायदा उद्योग और व्यापार जगत को मिला है। उपभोक्ताओं तक इसका लाभ स्थानांतरित करने का कोई भी दावा बस एक हवाई अनुमान जैसा ही है, जिसे कभी सिद्ध नहीं किया गया। उत्पाद शुल्कों की माफी के कारण बजट में सरकार को हुए नुकसान की राशि है – 1,98,291 करोड़ (पिछले साल यह राशि थी 1,69,121 करोड़ रुपये)। साफ तौर पर 2 जी घोटाले के नुकसानों के उच्चतम अनुमानों से भी अधिक।
यह भी रोचक है कि इन तीनों तरह के अनुग्रहों से एक ही वर्ग विभिन्न तरीकों से लाभान्वित होता है। लेकिन आयकर, उत्पाद कर तथा सीमा शुल्क की माफी के चलते कुल मिलाकर कितनी धनराशि का नुकसान सरकार को हुआ है? हमने स्पष्ट रूप से कहा है कि 2005-06 से शुरु करें तो उस समय यह धनराशि थी – 2,29,108 करोड़ रुपये। इस बजट में यह राशि दुगने से अधिक होकर 4,60,972 करोड़ रुपये हो गयी है। अब अगर 2005-06 से पिछले छह सालों की इन सारी धनराशियों को जोड़ लें तो कुल रकम होती है – 21,25,023 करोड़ रुपये, यानी लगभग आधा ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर। यह केवल 2 जी घोटाले में गबन की गयी रकम का 12 गुना ही नहीं है। यह ग्लोबल फाइनेंसियल इंटेग्रिटी द्वारा 1948 से अब तक देश से बाहर गये और अवैध तरीके से विदेशी बैंकों में रखे 21 लाख करोड़ रुपये के कुल काले धन से भी कहीं अधिक है। और यह लूट केवल पिछले छह वर्षों में ही हुई है। वर्तमान बजट में इन तीन मदों में दिये हुए बजट आंकड़े 2005-2006 के आंकड़ों की तुलना में 101 फीसदी ज़्यादा हैं। (देखें तालिका)

काले धन के प्रवाह के विपरीत इस लूट को वैधानिकता का आवरण पहनाया गया है। उस प्रवाह के विपरीत यह कुछ निजी लोगों का अपराध नहीं है। यह एक सरकारी नीति है। यह केंद्रीय बजट में है और यह अमीरों तथा कारपोरेट जगत को दिया गया धन तथा संसाधनों का सबसे बड़ा तोहफा है जिस पर मीडिया कुछ नहीं कहता। विडंबना यह कि बजट खुद यह स्वीकार करता है कि यह प्रवृत्ति कितनी प्रतिगामी है। पिछले साल के बजट में कहा गया था कि – ”सरकारी खजाने को होने वाले आय का नुकसान हर साल बढ़ता चला जा रहा है। कुल कर संग्रहण के प्रतिशत के रूप में माफ की गयी धनराशि का अनुपात काफी ऊंचा है और जहां तक 2008-09 के कारपोरेट आयकर का सवाल है, वह लगातार बढ़ती हुई इस प्रवृति को ही दर्शा रहा है। परोक्ष करों के मामले में सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क में कमी के कारण 2009-2010 के वित्तीय वर्ष के दौरान एक वृद्धिमान प्रवृति दिखाई देती है। अत: इस प्रवृति को पलटने के लिए कर के आधार में बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है’’।

एक साल और पीछे जायें। 2008-2009 का बजट भी बिल्कुल यही चीज कहता है, बस उसकी अंतिम पंक्तियां अलग हैं जहां वह कहता है कि ”अत: इस प्रवृति को पलटना जरूरी है जिससे की उच्च कर लोच (अनु.: कर के आधार में विस्तार से कर की मात्रा में वृद्धि की दर) बनी रहे।’’ वर्तमान बजट में यह पैरा गायब है।
यह वही सरकार है जिसके पास सार्वजनीन लोक वितरण प्रणाली, या फिर वर्तमान प्रणाली के सीमित विस्तार के लिए भी पैसा नहीं है, जो दुनिया की सबसे बड़ी भूखी आबादी के लिए पहले से ही बेहद निम्न स्तर की सब्सिडियों में उस दौर में कटौती करती है जब उसका अपना आर्थिक सर्वेक्षण बताता है कि 2005-09 के पांच सालों के दौर में प्रति व्यक्ति प्रति दिन की अनाज की उपलब्धता दरअसल आधी सदी पहले 1955-59 के दौर की उपलब्धता से भी कम रही!

कारपोरेट आयकर, उत्पाद शुल्क और सीमाकर में माफी के चलते हुआ सरकारी खजाने को नुकसान

(सभी राशियां करोड़ रुपयों में)

2005-06 2006-07 2007-08 2008-09 2009-10 2010-11 2005-06 से 2010-11 प्रतिवर्ष वृद्धि दर

के बीच कुल नुकसान 2005-06 से

2010-11 के बीच

कारपोरेट आयकर 34,618 50,075 62,199 66,901 72,881 88,263 37,4937 155.0

उत्पाद शुल्क 66,760 99,690 87,468 12,8293 16,9121 19,8291 74,9623 197.0

सीमा शुल्क 12,77,30 12,3682 15,3593 22,5752 19,5288 17,4418 10,00463 36.6

कुल 22,9108 27,3447 30,3262 42,0946 43,7290 46,0972 21,25023 101.2

स्रोत: केंद्रीय बजटों के सरकारी खजाने को हुए नुकसान के आंकड़ों की तालिकाएं।

अनु.: अशोक कुमार पाण्डेय साभार: द हिंदू
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शनिवार, 14 मई 2011

भूमि अधिग्रहण कानून बेहद खतरनाक है

भूमि अधिग्रहण कानून में सार्वजनिक हित के नाम पर भूमि अधिग्रहण करने का प्रावधान है। लेकिन सार्वजनिक हित को परिभाषित करने का काम कंपनियों के हवाले छोड़ दिया गया है। उद्योगों के लिए या फिर एक्सपे्रस-वे के लिए जमीन देने का फैसला जनता नहीं, बल्कि सरकार कर रही है। जबकि जनता की भागीदारी केबिना सार्वजनिक हित को परिभाषित करना सही नहीं है। यह कानून एवं अधिग्रहण का कृत्य बिल्कुल जनविरोधी है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने नोएडा में भूमि अधिग्रहण को रद्द करके एकदम उचित निर्णय लिया है।

फिलहाल जो नया कानून सरकार बनाने जा रही है, उसमें कहा जा रहा है कि 70 फीसदी जमीन कंपनियां स्वयं अधिगृहीत कर सकती हैं, जबकि 30 फीसदी सरकार अधिग्रहण करके देगी। पुराने कानून को खत्म करकेसबसे पहले यह देखना होगा कि भारत में कुल कितनी जमीन है, उसमें से कृषि भूमि कितनी है, अतिरिक्त जमीन में से किसको कितना बांटना है, आवासीय पट्टा किन लोगों को देना है इत्यादि। उसकेबाद सीलिंग में जमीन निकाल के भूमिहीनों को देने और अधबंटाई कानून को लागू करने की बात आती है। इस एजेंडे पर, जो काफी समय से लंबित है, सरकार कुछ नहीं कर रही, जबकि भूमि अधिग्रहण कानून की कमियों का दुरुपयोग करके भ्रष्ट एवं ताकतवर लोगों को अधिक मजबूत बना रही है।

नया कानून जो बनेगा, इससे कुछ उम्मीद नहीं की जा सकती। नए कानून में सरकार कंपनियों को कह रही है, आपको जितनी जमीन चाहिए खरीद लो, हम बीच में नहीं पड़ेंगे। यदि एक आदमी दूसरे आदमी का कुरता खींच रहा है और सरकार कह दे कि हम बीच में नहीं पड़ेंगे, तो ऐसे नहीं चलेगा। इस कानून में कई छेद हैं, इससे किसानों को कुछ मिलने वाला नहीं है। जमीन खरीदने का अधिकार कंपनियों को दे देंगे, तो वह धन, बल और शराब केबूते लोगों से दस्तख्त करा लेंगी। यदि इस देश के जल, जंगल और जमीन को कंपनियों केहवाले कर देंगे, तो गरीबों के पास आखिर क्या बचेगा!
(अमर उजाला से साभार)

ये जो पब्लिक है, सब जानती है

योगेंद्र यादव
वोटर कोई खिलौना नहीं है, इस देश का राजा है। उसे नकदी या उपहारों से खरीदा-बेचा नहीं जा सकता, झूठे वायदों से बहलाया नहीं जा सकता, डरा-धमकाकर बंधक नहीं बनाया जा सकता, आसानी से बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। यह एक सूत्र है, जो चार राज्यों के चार अलग-अलग मिजाज वाले जनादेशों को बांधता है।

सरसरी निगाह से देखें, तो चार राज्यों के नतीजों का एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है। पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोरचा भले ही हारा हो, लेकिन हार का चरित्र, उसके कारण और दूरगामी परिणाम में कोई संबंध नहीं है। तमिलनाडु की चुनावी राजनीति अपनी अलग ही लय में चलती रही है। सुदूर असम में क्या होता है, इसकी न तो बाकी देश को जानकारी रहती है, न ही देश की बड़ी घटनाओं से असम का कोई सीधा रिश्ता है। हर राज्य के चुनाव परिणाम को केंद्र की राजनीति से जोड़ना दूर की कौड़ी ही है। पर अलग-अलग राज्य की अपनी-अपनी पदचाप के पीछे कहीं एक लय और ताल गूंजती सुनाई देती है।

इसकी गूंज तमिलनाडु में सबसे बुलंद होकर उभरती है। सत्ताधारी द्रमुक के नेता मान बैठे थे कि गठबंधन की तिकड़म और खरीद-फरोख्त से चुनाव ‘मैनेज’ किया जा सकता है। करुणानिधि का कद, ठीक-ठाक कामकाज और मुफ्त टीवी के दम पर द्रमुक का आत्मविश्वास बुलंदी पर था। जीत सुनिश्चित करने के लिए जाति-विशेष की क्षेत्रीय पार्टियों से साठगांठ हो गई थी। अगर आप द्रमुक नेता के सामने भ्रष्टाचार की बात उठाते, तो वह कहता था कि गांव की जनता और गरीब को इन ऊंची बातों से कोई मतलब नहीं है।

उसी जनता ने द्रमुक को ठेंगा दिखाया। उसकी मजबूरी थी कि उसके पास विकल्प अन्नाद्रमुक ही था। जयललिता का दामन भी साफ नहीं है। लेकिन मतदाता ने रोटी को पलटकर सेंकना ही मुनासिब समझा। असम में काफी समय से सभी पार्टियां जातीय बंदरबांट और भय की राजनीति कर रही थीं। असम गण परिषद् ने अहोमिया समुदाय की असुरक्षा को आवाज दी, तो भाजपा राज्य में बंगाली हिंदू की तरफदारी करने उतरी। बदरुद्दीन अजमल ने बंगाली मुसलमान के अधिकार की ताल ठोंकी। हितेश्वर सैकिया के जमाने से ही कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों के तमाम किस्म के छोटे-बड़े भय की राजनीति करनी शुरू की थी। ऐसे में तरुण गोगोई ने एक नए किस्म की राजनीति का जोखिम उठाया।

जाति और स्वार्थ की राजनीति के बजाय उन्होंने पूरे प्रदेश में राजकाज की बेहतरी और शांति की राजनीति की। केंद्र की मदद से सरकारी योजनाओं में काफी खर्च हुआ और उसका फल आम व्यक्ति तक भी पहुंचा। उल्फा से बातचीत शुरू हुई और हिंसा का दौर खत्म होता नजर आया। बेशक इस दौरान बड़े घोटाले भी हुए और एक स्तर पर तरुण गोगोई ने परोक्ष रूप से असमिया भाषी समुदाय के जख्मों पर मलहम लगाने में खास दिलचस्पी ली। लेकिन कुल मिलाकर असम के वोटर ने इस सकारात्मक राजनीति पर मोहर लगाई।

केरल का परिणाम तकनीकी रूप से भले ही कांग्रेसी गठबंधन की विजय हो, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से इसे वाम मोरचे और खास तौर पर अच्युतानंदन की नैतिक विजय कहा जाएगा। दो साल पहले लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पिटने के बाद हर किसी ने वाम मोरचे की हार तय मान लिया था। केरल का कांग्रेस नेतृत्व इस मुगालते में था कि जो भी हो, जीत तो उसकी झोली में ही आएगी। इस पृष्ठभूमि में मुख्यमंत्री अच्युतानंदन ने भ्रष्टाचार के सवाल पर संवेदनहीन हो चुके यूडीएफ नेतृत्व का कच्चा चिट्ठा खोलकर कांग्रेस को हार के कगार पर ला खड़ा किया। अगर उनकी अपनी पार्टी उनके साथ शुरू से खड़ी होती, तो केरल का चुनावी इतिहास चक्र टूट सकता था।

बंगाल में गरीब की लाठी बनकर शुरुआत करने वाला वाम मोरचा उनका माई-बाप बन बैठा था। बेशक वाम मोरचे के राज ने बटाईदार को सुरक्षा और मजदूर को इज्जत दी, लेकिन धीरे-धीरे पार्टी सर्वज्ञानी, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हो गई। बंगाल के मतदाता ने राजसत्ता के इस अहंकार के खिलाफ बटन दबाया। इसलिए नहीं कि उसे ममता बनर्जी से किसी चमत्कार की उम्मीद है, इसलिए भी नहीं कि उसे बुद्धदेव भट्टाचार्य के राज से शिकायत है। सिर्फ इसलिए भी नहीं कि उसे सिंगूर, नंदीग्राम और निताई की घटनाओं पर गुस्सा है। बंगाल का मतदाता एक बार उस अधिकार का प्रयोग करना चाहता था, जो देश के बाकी राज्यों के नागरिक हर पांच साल में करते हैं।

अपने भाग्य से खिलवाड़ कर रहे शासनतंत्र को ध्वस्त कर वह खुद अपना भाग्य विधाता बनना चाहता है। ममता बनर्जी इस आस्था का एक निमित्त मात्र हैं। यह संभव है कि वोटर की यह आस मृगतृष्णा ही साबित हो। लेकिन माई-बाप के साये तले जीने के बजाय अपनी गलतियों से खुद सीखने की इसी जीत को ही शायद लोकतंत्र कहते हैं। जब वाम मोरचा बंगाल की सत्ता पर काबिज हुआ था, तब एक फिल्मी गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था, ये जो पब्लिक है, वह सब जानती है। चार राज्यों के मतदाताओं ने मानो इस भूले-बिसरे गीत के रिकॉर्ड को झाड़-पोंछकर इस देश के सत्ताधीशों को सुना दिया है।
(अमर उजाला से)

वाम मोर्चे की हार : गंभीर चूक का नतीजा

पश्चिम बंगाल के चुनाव मे माकपा के जो थोड़े उम्मीदवार जीते है उनके जीत का अंतर बहुत कम है. टीएमसी-कांग्रेस के उम्मीदवारो का अंतर आमतौर पर बहुत ज़्यादा है. वाम मोर्चा का जनाधार भयानक तरीके से गिरा है. 34 सालो के दौरान बहुत काम किया वाम मोर्चे ने, लेकिन जनता से इतनी दूरी अचानक कैसे बढ़ गई? प्रारंभिक नतीजा तो यही निकलता है कि अन्य राज्यो की सरकारो की तरह वाम मोर्चे की सरकार ने सरकार ने शासन करना सीख लिया था. लोगो को अभिन्न तरह से जोड़े रखने की कला ज्योति बसु के साथ ही शायद ख़त्म हो गई.
पिछले विधान सभा चुनाव मे बुद्धदेव बाबू ने औद्योगीकरण व रोज़गार को मुद्दा बनाया और लोगो ने हाथो हाथ लिया, भारी बहुमत भी मिला था. इस बार पुरानी बातो का ढोल पीटने के अलावा असफलताओ की लंबी फेहरिस्त थी. ममता बेनरजी ने रेल मंत्रालय को चौपट कर दिया है, कुछ भी कहती है. कोई स्पष्ट कार्यक्रम नही था उसके पास. 34 सालो मे बार बार असफल होती रही. अबकी बार उसने वाम को धूल चटा दिया. तीन दशक से भी लंबे अरसे मे जनता वाम से नही उबी. अब क्या हो गया? फिर वही बात कि वाम जनता की है, शासक वर्ग की दमनकारी शक्ति नही बन सकती. चूक मामूली नही, गंभीर हुई है.
संसदीय राजनीति ही करनी है तो कोई बात नही. अगले चुनाव मे जीत जाएँगे. लेकिन जनता की लामबंदी करनी है, भ्रष्ट व्यवस्था का समाजवादी विकल्प देना है तो ये नही चलेगा. पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार और पार्टी की ओर से लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार कहा जा रहा था कि सुधार कर रहे है, ग़लतियां करते है तो उसे ठीक करना  सिर्फ़ हमे ही आता है. आज भी माकपा के शीर्ष नेता यही कह रहे है, लेकिन कथनी और करनी के अंतर को पाटना आसान काम नही दीखता.  देश के दूसरे हिस्से मे ख़ासतौर पर हिन्दी भाषी इलाक़ो मे लेफ्ट न के बराबर है. अब गढ़ भी गये. केरल मे तो नियती तय है, पूरी गणितबाजी है. एक बार एलडीफ तो दूसरी बार यूडीफ. भारी भरकम जमावड़े के बगैर कोई भी जंगे चुनाव मे नही उतर सकता. फिर वाम आंदोलन कहां है?

मंगलवार, 3 मई 2011

भारत का इतिहास : पुस्तक परिचय

Bharat ka Itihas
भारत का इतिहास


रोमिला थापर

पृष्ठ333

मूल्य$5.95  
प्रकाशकराजकमल प्रकाशन
आईएसबीएन978-81-267-1555
प्रकाशितजनवरी ०१, २००८
पुस्तक क्रं:6864
मुखपृष्ठ:अजिल्द

सारांश:

पूर्वपीठिका

अनेक यूरोपवासियों के मन में भारत के नाम से महाराजाओं, सँपेरों और नटों की तसवीर उभरती रही है। इस प्रवृत्ति ने उन चीजों में आकर्षण तथा रोमानियत का संचार किया, जो भारतीय थीं। लेकिन पिछले कुछ दशकों में भारत की चर्चा आर्थिक दृष्टि से अल्पविकसित देश के रूप में इतनी अधिक हुई है कि महाराजओं, सपेरों और नटों के कुहासे में से उसका चित्र एक शक्तिशाली, स्पंदनशील देश के रूप में उभरने लगा है। महाराजा अब तेजी से विलुप्त हो रहे हैं और नटों के करतब दृष्टि से उभरने लगा है। महाराजा अब तेजी से विलुप्त हो रहे हैं और नटों के करतब दृष्टिभ्रम से ज्यादा कभी कुछ नहीं रहे। बाकी है तो एक सपेराः सामान्यतया एक अर्ध-पोषण का शिकार प्राणी, जो अपनी जान जोखिम में डालकर साँप को पकड़ता है, उसके जहरीले दाँतों को उखाड़ता है और अपनी बीन के इशारों पर उसे नचाता है। और यह सब वह अपना, अपने परिवार का और साँप का पेट भरने के लिए, कभी-कभी कुछ सिक्के मिल जाने की आशा में करता है।
यूरोप की कल्पना में भारत सदा से बेहिसाब संपत्ति और अलौकिक घटनाओं का एक अविश्वसनीय देश रहा है, जहाँ बुद्धिमान व्यक्तियों की संख्या सामान्य से कुछ अधिक थी। जमीन खोदकर सोना निकालनेवाली चीटियों से लेकर वनों में नग्न रहनेवाले दार्शनिकों तक सब उस चित्र के अंग थे जो भारतीयों को लेकर प्राचीन यूनानियों के मन में बसा हुआ था और यह चित्र कई शताब्दियों तक ऐसा ही बना रहा। इसे नष्ट न करना सदाशयतापूर्ण प्रतीत हो सकता था, किन्तु इसे बनाए रखने का मतलब एक मिथ्या धारणा को बनाए रखना होता।
दूसरी सभी प्राचीन संस्कृतियों की तरह भारत में संपत्ति कुछ लोगों तक सीमित रही। आध्यात्मिक क्रियाकलापों में भी थोड़े-से लोग ही संलग्न थे। पर यह सत्य है कि इन क्रियाकलापों में आस्था रखना अधिकांश लोगों का स्वभाव बन गया था। दूसरी कुछ संस्कृतियों में जहाँ रस्सी के करतब को शैतान की प्रेरणाओं का परिणाम कहा जाता कुछ संस्कृतियों में जहाँ रस्सी के करतब को शैतान की प्रेरणाओं का परिणाम कहा जाता और इसलिए इसकी हर चर्चा को दबाया जाता, भारत में इसे मनोरंजन के साधन के रूप में उदार दृष्टि से देखा जाता था। भारतीय सभ्यता की बुनियादी विवेकशीलता का कारण यही रहा है कि इसमें कोई शैतान नहीं रहा।
संपत्ति जादू और ज्ञान के साथ भारत का नाम अनेक शताब्दियों तक जुड़ा रहा। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी में, जब यूरोप ने आधुनिक युग में प्रवेश किया तो यह रवैया बदलना शुरू हो गया, और कई क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति के प्रति उत्साह प्रायः उसी अनुपात में कम हो गया जितना पहले उत्साह का अतिरेक था। अब वह पाया गया कि भारत में कोई विशेषता नहीं थी जिसकी नवीन यूरोप सराहना करता। विवेकयुक्त विचार और व्यक्तिवाद के मूल्यों पर स्पष्टः यहाँ कोई बल नहीं था। भारत की संस्कृति गत्यत्ररुद्घ संस्कृति थी और इसे अतीव तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाने लगा। यह प्रवृत्ति भारतीय वस्तुओं के प्रति मैकाले के तिरस्कार में शायद, सर्वोत्तम ढंग से मूर्तिमान हुई है। भारत की राजनीतिक संस्थाओं को, जिनकी कल्पना अधिकांशतया महाराजाओं और सुलतानों के शासन के रूप में की गई थी, निरंकुश और जनमत के प्रतिनिधित्व से सर्वथा विच्छिन्न कहकर तिरस्कृत किया गया। और, एक लोकतांत्रिक क्रांतियों के युग में, यह शायद सबसे बड़ा पाप था।
किन्तु यूरोपीय विद्वानों के एक छोटे वर्ग के बीच से, एक विरोधी प्रवृत्ति का जन्म हुआ। इन विद्वानों ने भारत की खोज अधिकांशतया उसके प्राचीन दर्शन और संस्कृत भाषा में सुरक्षित साहित्य के माध्यम से की थी। इस प्रवृत्ति ने जान-बूझकर भारतीय संस्कृति के अनाधुनिक और अनुपयोगितावादी पक्षों पर बल दिया, जिनमें तीन हजार से भी अधिक वर्षों से अक्षुण्ण रहनेवाले घर्म के अस्तित्व का जयगान था और यह समझा गया था कि भारतीय जीवन-पद्धति आध्यात्मिकता और धार्मिक विश्वास की सूक्ष्मताओं से इतनी अधिक संपृक्त हैं कि जीवन की पार्थिव चीजों के लिए वहाँ कोई अवकाश ही नहीं है। जर्मन रोमैटिकवाद भारत के इस स्वरूप के समर्थन में अत्यधिक आग्रहशील था और यह आग्रहशीलता भारत के लिए उतनी ही क्षतिकारक थी जितनी मैकाले द्वारा भारतीय संस्कृति की अवहेलना। भारत अब अनेक यूरोपवासियों के लिए एक रहस्यात्मक प्रदेश हो गया, जहाँ अत्यंत साधारण क्रियाकलापों में भी प्रतीकात्मकता का समावेश किया जाता था। वह पूर्व की आध्यात्मकिता का जनक था, और संयोगवश, उन यूरोपीय बुद्घिजीवियों का शरण-स्थल भी जो अपनी स्वयं की जीवन-पद्धति से पलायन करना चाह रहे थे। मूल्यों का एक द्वैध स्थापित किया गया, जिसमें भारतीय मूल्यों को ‘आध्यात्मिक’ और यूरोपीय मूल्यों को ‘भौतिकवादी’ कहा गया, किन्तु इन कथित आध्यात्मिक मूल्यों को भारतीय समाज के संदर्भ में देखने का प्रयास बहुत कम हुआ (जिसके कुछ विक्षुब्ध करनेवाले परिणाम हो सकते थे)। पिछले सौ वर्षों में कुछ भारतीय बुद्धिजीवियों के लिए यह ब्रिटेन की तकनीक श्रेष्ठता के साथ प्रतियोगिता कर पाने में अपनी असमर्थता को छुपाने का एक बहाना बन गया।
अठारहवीं शताब्दी में भारत के अतीत की खोज और यूरोप के सामने उसे प्रस्तुत करने का काम अधिकांशतया भारत में जेसुइट संप्रदाय के लोगो और सर विलियम जोन्स तथा चार्ल्स विल्किन्स जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के यूरोपीय कर्मचारियों ने किया। जल्दी ही भारत की प्राचीन भाषाओं और उनके साहित्य के अध्ययन में दिलचस्पी लेनेवालों की संख्या बढ़ गई और उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भाषा-विज्ञान, नृशास्त्र तथा भारत-विद्या के अन्य क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति दिखाई दी। यूरोप में विद्धानों ने अध्ययन के इस नए क्षेत्र में गहरी दिलचस्पी दिखाई, जिसका प्रमाण उन लोगों की संख्या है जिन्होंने भारत-विद्या को अपने अध्ययन का क्षेत्र बनाया, और जिनमें से कम-से-कम एक व्यक्ति का उल्लेख यहाँ आवश्यक है-वह है एफ. मैक्समूलर।
उन्नीसवीं सदी में भारत के साथ सबसे ज्यादा सीधा सरोकार जिन लोगों का था वे ब्रिटिश प्रशासक थे और शुरू में भारत के गैर-भारतीय इतिहासकार अधिकांशतया इसी वर्ग के लोग थे। फलस्वरूप, शुरू के इतिहास ‘प्रशासकों के इतिहास’ थे, जिनमें मुख्यतया राजवंशों और साम्राज्यों के उत्थान और पतन का विवरण होता था। भारतीय इतिहास के नायक राजा थे और घटनाओं का विवरण उन्हीं से जुड़ा हुआ होता था। अशोक, चंद्रगुप्त द्वितीय, या अकबर जैसे अपवादों को छोड़कर, भारतीय शासक का आदर्श रूप निरंकुश राजा था जो अत्याचारी था और अपनी प्रजा की भलाई में जिसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। जहाँ तक वास्तविक शासन का सवाल है, अंतनिर्हित विचार यह था कि इस उपमहाद्वीप के इतिहास में जितने शासक आज तक हुए हैं, ब्रिटिश प्रशासन उन सबकी तुलना में श्रेष्ठ था।
भारतीय इतिहास की इस व्याख्या ने उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों और बीसवीं सदी के प्रारंभ में लिखनेवाले भारतीय इतिहासकारों पर अपना प्रभाव डाला। आदर्श इतिहास-ग्रंथों का मुख्य विषय राजवंशों का इतिवृत्त था जिसमें शासकों की जीवनी को अधिक महत्त्व दिया जाता था। लेकिन व्याख्या के दूसरे पक्ष की प्रतिक्रिया भिन्न प्रकार की हुई। अधिकांश भारतीय इतिहासकारों ने या तो स्वाधीनता के राष्ट्रीय आंदोलन में स्वयं भाग लिया था, या वे उससे प्रभावित थे। उनकी मान्यता थी कि भारतीय इतिहास का स्वर्ण-युग इस देश में अंग्रेजों के आगमन में पूर्व अस्तित्व में था और भारत का सुदूर अतीत विशेष रूप से उसके इतिहास का वैभवशाली युग था। यह दृष्टिकोण बीसवीं सदी के प्रारंभ में भारतीय जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं का स्वाभाविक और अनिवार्य अंग था।
इस संदर्भ में एक और तिरस्कारपूर्ण धारणा थी जिसनें प्राचीन भारत संबंधी अधिकांश प्रारंभिक लेखक को प्रभावित किया। इस काल का अध्ययन करनेवाले यूरोपीय इतिहासकारों की शिक्षा-दीक्षा यूरोप की क्लासिकी परंपरा में हुई थी, जहाँ लोगों का यह दृढ़ विश्वास था कि यूनान की प्राचीन सभ्यता-यूनान का चमत्कार-मानव-जाति की महानतम् उपलब्धि थी। फलस्वरूप, जब भी किसी नई संस्कृति का पता चलता, तो उसकी तुलना प्राचीन यूनान से की जाती, और इस तुलना में उसे निरपवाद रूप से हीन पाया जाता। या अगर उसमें कोई प्रशंसनीय बात होती भी तो सहज भाव से उसे यूनानी संस्कृति के साथ जोड़ने की चेष्टा की जाती। विंसेंट स्मिथ, जो कई दशाब्दियों तक प्राचीन भारत का अग्रगण्य इतिहासकार समझा जाता रहा, इस प्रवृत्ति का शिकार था। अजंता स्थित सुप्रसिद्ध बौद्ध-स्थल के भित्ति-चित्रों पर, और विशेष रूप से एक ऐसे चित्र पर लिखते समय, जिसके विषय में माना जाता है कि यह ईसा की सातवीं शताब्दी में फारस के एक सासानी राजा के किसी दूत के आगमन का चित्र है और जिसका कला और इतिहास, किसी भी दृष्टि से यूनान के साथ कतई कोई संबंध नहीं है, वह कहता हैः
भारत और फारस के असामान्य राजनीतिक संबंधों के एक समकालीन अभिलेख के रूप में दिलचस्प होने के अतिरिक्त यह चित्रकला के इतिहास में अपने विशिष्ट स्थान के कारण बहुत अधिक मूल्यवान है। इससे न केवल अजंता के कुछ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चित्रों का काल-निर्धारण होता है बल्कि एक ऐसा प्रतिमान भी स्थापित होता है जिससे दूसरे चित्रों का काल-निर्धारण होता है बल्कि एक ऐसा प्रतिमान भी स्थापित होता है जिससे दूसरे चित्रों का काल-निर्धारण किया जा सके, बल्कि इस संभावना की स्थापित होता है जिससे दूसरे चित्रों का काल-निर्धारण किया जा सके, बल्कि संभावना की ओर भी संकेत मिलता है कि अंजता शैली की चित्रकला फारस से, और अंतोगत्वा यूनान से ग्रहण की गई होगी।
भारतीय इतिहासकारों पर ऐसे वक्तव्यों की तीव्र प्रतिक्रिया हुई, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। यह सिद्ध करने के प्रयत्न किए गए कि भारत ने अपनी संस्कृति का कोई भी अंश यूनान से ग्रहण नहीं किया था, अथवा यह कि भारत की संस्कृति यूनानी संस्कृति के बिलकुल समानांतर थी, जिसमें उन सब गुणों के दर्शन होते थे जो यूनानी संस्कृति में वर्तमान थे। हर सभ्यता अपने-आपमें एक अलग चमत्कार होती है, इसे तब तक न यूरोपीय इतिहासकारों ने समझा था न भारतीय इतिहासकारों ने। किसी सभ्यता को स्वयं उसके गुणों के आधार पर परखने का विचार बाद में उत्पन्न हुआ।
अठारहवीं सदी में जब यूरोपीय विद्वानों का पहले-पहल भारत से संबंध स्थापित हुआ और उसके अतीत के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न हुई, तो उनकी सूचनाओं के स्रोत ब्राह्मण पुरोहित थे, जिन्हें प्राचीन परंपरा का संरक्षक माना जाता था। उनका कहना था कि यह परंपरा संस्कृत-ग्रंथों में सुरक्षित है और उन ग्रंथों से केवल वे ही भली भाँति परिचित है। इस प्रकार भारत के अधिकांश प्राचीन इतिहास की पुनर्रचना लगभग संपूर्णतया संस्कृत-स्रोत्रों, अर्थात प्राचीन-शास्त्रीय भाषा में सुरक्षित सामग्री के आधार पर की गई। इनमें बहुतेरे ग्रंथ धार्मिक प्रकृति के थे और अतीत की व्याख्या स्वभावतः इनके रंग से बच नहीं सकी। धर्मशास्त्र (सामाजिक विधान की पुस्तकों) जैसे अपेक्षया इहलौकिक साहित्य के लेखक और टीकाकार भी ब्राह्मण ही थे। फलस्वरूप उनका झुकाव सत्ता के समर्थन की ओर था तथा आमतौर पर वे अतीत की ब्राह्मणों द्वारा की गई व्याख्या को मानते थे, भले ही उस व्याख्या का जैसा वर्णन इन ग्रंथों में किया गया है उससे प्रतीत होता है कि अत्यंत प्राचीनकाल में ही समाज का विभिन्न स्तरों में कठोरता से बँटवारा कर दिया गया था और उसके बाद शताब्दियों तक यह व्यवस्था प्रायः ज्यों-की-त्यों बनी उसमें परिवर्तन की काफी गुंजाइश थी, जिसे धर्मशास्त्रों के प्रणेता स्वभावतः स्वीकार नहीं करना चाहते थे।
बाद में दूसरे कई प्रकार के स्रोतों से उपलब्ध साक्ष्यों के प्रयोग ने ब्राह्मणों द्वारा प्रस्तुत कुछ साक्ष्यों को चुनौती दी और कुछ का समर्थन किया, और इस प्रकार अतीत का ज्यादा सही चित्र सामने आया। समकालीन अभिलेखों और सिक्कों से उपलब्ध साक्ष्यों का महत्त्व तेजी से बढ़ता गया। विदेशी यात्रियों द्वारा गैर-भारतीय भाषाओं-यूनानी, लातिन, चीनी और अरबी-में लिखे गए विवरणों का उपयोग करने पर अतीत को नए दृष्टिकोण से देखना संभव हुआ। विभिन्न स्थानों पर की गई खुदाई से अतीत के जो अधिक निभ्राँत अवशेष प्राप्त हुए हैं उनमें भी ऐसा ही लाभ हुआ। उदाहरण के लिए, चीनी स्रोतो से और श्रीलंका में काफी बड़ा हो गया। तेरहवीं सदी के बाद के भारतीय इतिहास से संबंधित अरबी और फारसी की सामग्री का अध्ययन अब स्वतंत्र रूप से किया जाने लगा और उसे पश्चिम एशिया में इस्लामी संस्कृति का पूरक मानने की प्रवृत्ति समाप्त हो गई।
प्रारंभ के अध्ययनों में राजवंशों के इतिहास पर अधिक ध्यान केद्रित करने के पीछे यह धारणा भी थी कि ‘प्राच्य’ समाजों में राजा की सत्ता शासन के दैनदिन कार्यों में भी सर्वोपरि थी। लेकिन भारतीय राजनीति प्रणालियों में दैनन्दिन कार्यों का प्राधिकार शायद ही कभी केंद्र के हाथों में होता था। भारतीय समाज की अद्वितीय विशेषता-वर्ण व्यवस्था-क्योंकि राजनीति और व्यावसायिक कार्य-कलाप दोनों से जुड़ी हुई थी, इसलिए उसके अंतर्गत बहुत-से ऐसे कार्य भी होते थे, जिन्हें सामान्यतया, ‘पूर्व की निरंकुश व्यवस्था’ जैसी कोई चीज यदि सचमुच होती, है यह वर्णों तथा जातियों के संबंधों और व्यापारिक श्रेणियों तथा ग्राम परिषदों करने संस्थाओं का विश्लेषण करके समझा जा सकता है, राजवंशों का सर्वेक्षण करने मात्र से नहीं। दुर्भाग्यवश, ऐसे अध्ययनों का महत्त्व अभी हाल में ही समझ गया है और संभवतः ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक स्थापनाएँ प्रस्तुत करने के लिए एक-दो दशाब्दियों तक अभी और गंभीर अध्ययन करना पड़ेगा। फिलाहाल का प्रादुर्भाव हुआ होगा। 
संस्थाओं के अध्ययन की ओर विशेष ध्यान नहीं किया गया, अंशतः जिसका कारण यह विश्वास था कि उनमें कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ। यह ऐसा विचार था जिसने इस सिद्धांत का भी पोषण किया कि भारतीय संस्कृति, मुख्य रूप से भारतवासियों के आलस्य और जीवन के प्रति उनके निराशापूर्ण तथा भाग्यवादी दृष्टिकोण के कारण, अनेक शताब्दियों तक अवरुद्ध एवं अपरिवर्तनशील रही है। निस्संदेह यह अतिशयोक्ति है। शताब्दियों तक वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत बदलते हुए सामाजिक संबंधों या कृषि-व्यवस्थाओं या भारतीय के उत्साहपूर्ण व्यापारिक कार्यकलापों का सतही विश्लेषण भी किया जाए तो उससे और चाहे किसी बात का भी संकेत मिलता हो, रुद्ध सामाजिक-आर्थिक स्थिति का संकेत कदापि नहीं मिलता।